नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं—
यह सर्वथा यथार्थ तत्व है। बड़े-बड़े ऋषियों और
संत-महात्माओं ने नाम-महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव करके ही उसके गुण गाये हैं। अब भी
ऐसे लोग मिल सकते हैं जिन्हें नाम की प्रबल शक्ति का अनेक बार, अनेक तरहसे अनुभव हो चुका है। परन्तु वे लोग उन सब रहस्यों को अश्रद्धालु
और नामापमानकारी लोगों के सामने कहना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी एक नामका अपराध है—
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः
शिवनामापराध:।
'अश्रद्धालु, नाम विमुख और सुनना न चाहने वाले को नाम का उपदेश करना
कल्याण रूप नाम का एक अपराध है।'
जो नाम के रसिक हैं, जिन्हें इसमें असली रसास्वाद का कभी अवसर प्राप्त हो गया है वे तो फिर
दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकते। न उन्हें शरीर की कुछ परवा रहती है और न जगत् की।
मतवाले शराबी की तरह नाम प्रेम में मस्त हुए वे कभी हँसते
हैं, कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी नाचते हैं। उनके लिये फिर कोई अपना-पराया नहीं रह जाता। ऐसे
ही प्रेमियों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी लिखते हैं
प्रेम
लग्यो परमेश्वरसों तब भूलि गयो सिगरो घरबारा।
ज्यों
उन्मत्त फिरे जित ही तित नेकु रही न सरीर सँभारा॥
स्वास
उस्वास उठे सब रोम चले दृग नीर अखंडित धारा।
सुन्दर
कौन करै नवधाविधि छाकि परयो रस पी मतवारा॥
वास्तव में ऐसे ही पुरुष नाम के यथार्थ भक्त हैं और
इन्हीं लोगों द्वारा किया हुआ नामोच्चारण जगत को पावन
कर देता है, जहाँतक ऐसी प्रेमकी मस्ती न प्राप्त हो, वहाँ तक प्रेम मार्ग में भी शास्त्रों की मर्यादा का
पूरा रक्षण करना चाहिये। भगवान
नारद कहते हैं—
अन्यथा
पातित्याशङ्कया । (नारद भक्ति सूत्र १३)
'नहीं तो पतित होनेकी आशंका है', अतएव आरम्भ में अपने-अपने वर्णाश्रमानुमोदित
सन्ध्या-वन्दन, पिता-माता
आदि की सेवा, परिवार संरक्षण आदि वैदिक और लौकिक कार्य को
करते हुए श्रीभगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्मृति कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं है, यथासमय और यथास्थान उनका आचरण अवश्य करना चाहिये। रामनाम
ऐसा धन नहीं है जो ऐसे-वैसे कामोंमें खर्च किया जाय। जो मनुष्य मामूली-सा
काँच का टुकड़ा खरीदने जाकर बदले में बहुमूल्य हीरा दे आता है वह कभी बुद्धिमान् नहीं
कहलाता। इसी प्रकार जो कार्य लौकिक या स्मृति विहित
कर्मों के आचरण से सिद्ध हो सकता है, उसमें नाम का प्रयोग करना राजाधिराज से झाड़ दिलवाने के
समान है सोने मिट्टी के
भाव बेचने के समान है; अतएव नाम-जप में स्मृति विहित कर्मों के त्याग की कोई
आवश्यकता नहीं।
कुछ लोगोंकी यह आशंका है कि आजकल नाम लेने वाले तो बहुत
लोग देखे जाते हैं, परंतु उनकी दशा देखते हैं तो मालूम होता है कि उनको कोई
लाभ नहीं हुआ। जिस नामके एक बार उच्चारण करने मात्र से
सम्पूर्ण पापों का नाश होना बतलाया जाता है, उस नाम को लाखों बार आवृत्ति करनेपर भी लोग पापों में
प्रवृत्त और दुःखी देखे जाते हैं, इसका क्या कारण है? इसके उत्तर में
पहली बात तो यह है कि लाखों बार नाम की आवृत्ति उनके द्वारा वस्तु: होती नहीं, धोखे से
समझ ली जाती है।
दूसरा कारण यह है कि उनकी नाममें
यथार्थ श्रद्धा नहीं है। नाम के इस माहात्म्य में उन्हें स्वयं ही संशय है। भगवान् ने गीता में कहा है-'संशयात्मा विनश्यति', इसलिए उन्हें
पूरा लाभ नहीं होता। भजन में श्रद्धा ही फल सिद्धि का मुख्य साधन है।
अवश्य ही भजन करने वाले में श्रद्धा का कुछ अंश तो रहता ही है। यदि श्रद्धा का सर्वथा अभाव हो तो भजन में प्रवृत्ति ही न
हो। बिना किंचित् श्रद्धा हुए किसी कार्य विशेष में प्रवृत्त होना बड़ा
कठिन है। अतएव का नाम ग्रहण करते हैं उनमें श्रद्धाका कुछ अंश तो अवश्य है, परंतु श्रद्धा
के उस क्षुद्र अंश की अपेक्षा संशय की मात्रा कहीं अधिक है, इसलिए उन्हें वास्तविक फल से वंचित रहना पड़ता है। गंगा स्नान पापों का अशेष नाश होना बताया गया है; परन्तु नित्य गंगा स्नान करने वाले लोग भी पाप में प्रवृत्त होते देखे जाते
हैं (यद्यपि एक
बार का भी भगवन्नाम - हजारों बार के गंगा स्नान से बढ़कर है)।
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