श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार -भाईजी
श्री
हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (1892-1971) भारत के एक लेखक एवं स्वतंत्रता सेनानी थे ।
प्रेम से लोग आपको भाईजी कहते थे, और आप धार्मिक पत्रिका कल्याण
के आदि-सम्पादक के रूप में एवं विश्व-भर में हिंदू धर्म के प्रचार के अपने अथक
परिश्रम के लिये विख्यात हैं। भारत सरकार ने आपकी स्मृति में सन् 1992 में डाक टिकट जारी किया था।
श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार का जन्म राजस्थान के रतनगढ़ में हुआ
था। आपने अपना जीवन लोगों को कम मूल्य में रामायण, महाभारत,
पुराणों, एवं उपनिषदों जैसे महान ग्रंथो के
हिंदी अनुवादों को उपलब्ध कराने में समर्पित कर दिया था। आपने गोरखपुर की गीताप्रेस
संस्था में सम्पादक के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसकी
स्थापना श्री जयदयालजी गोयन्द्का द्वारा हुई थी। आपने 'कल्याण'
मासिक पत्रिका के हिंदी में सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य सन 1927
में जन-जीवन की उन्नति एवं हित के उद्देश्य से आरंभ किया था। यह पत्रिक
मूल रूप से आध्यात्मिक है एवं हिंदू धर्म के विभिन्न दृ्ष्टिकोणों का अधिक विस्तृत
विवरण देती है। इस पत्रिका के प्रकाशन का कार्य अभी भी चल रहा है एवं इसके लगभग 2,50,000
ग्राहक हैं। आपने सन् 1934 से अंग्रेज़ी में कल्याण-कल्पतरु
के भी संपादन एवं प्रकाशन का कार्य किया एवं यह पत्रिका अभी भी प्रकाशित हो रही
है। आपने अध्यात्म एवं आदर्श-आधारित विषयों पर हिंदी एवं अंग्रेज़ी में कई
पुस्तकें लिखीं। आपके द्वारा किये गये कुछ पुराणों एवं उपनिषदों के हिंदी एवं
अंग्रेज़ी अनुवाद आपकी दोनों भाषाओं में दक्षता को दर्शाते हैं। इन अनुवादों में
आपने जन-साधारण के लिये भाषा की सरल अभिव्यक्ति के साथ ही उसके काव्य एवं दार्शनिक
उतार-चढ़ाव को भी सुरक्षित रखा है। अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता
संग्राम में आपने सक्रिय रूप से भाग लिया था।
श्री जयदयाल जी गोयन्दका- सेठजी
गीता-मनीषी एवं गीता के अनन्य
प्रचारक श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोयन्दका 'सेठजी'
का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण ६,सम्वत् १९४२ (सन्1885) को
श्रीखूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही आपको गीता तथा
रामचरितमानसने प्रभावित किया। आपने गीता से प्रेरित होकर अपना जीवन धर्म-प्रचार
में लगाने का संकल्प लिया। आपने कोलकाता में ‘गोविन्द-भवन’
और ऋषिकेश में ‘गीता-भवन’ की स्थापना की। आप गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों
श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे । जन-मानस को गीता ग्रंथ की शुद्ध
सरल भाषा में और कम से कम कीमत में प्रति उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सन् 1923
में गोरखपुर में आपने गीताप्रेस की स्थापना की। ‘गीता तत्वविवेचनी’ नाम से आपने गीता का भाष्य किया।
आपके द्वारा रचित तत्व-चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश,
मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग,
ज्ञानयोग, प्रेमयोग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने
धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है। अपने व्यक्तित्व के
पूजा और कर्तृत्व के प्रचार आदि से दूर रहकर एक अकिंचन निष्काम कर्मयोगी की भांति
निरंतर गीता-प्रणीत ज्ञानामृत की वर्षा करते हुए श्रद्धेय सेठजी 17 अप्रैल सन् 1965 (वैषाख कृष्ण २,वि०सं० २०२२) को ऋषिकेश में गंगा के पावन तट पर परम धाम के लिए प्रस्थान
किया।
स्वामी रामसुखदास जी महाराज
स्वामीजीका जन्म वि.सं.१९६०(ई.स.१९०४)में राजस्थानके नागौर जिलेके माडपुरा
गाँवमें हुआ था और उनकी माताजी ने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको संतोंकी
शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें
भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक
आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और
जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न
लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर,
दूसरोकों मान देकर द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने
चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर
गंगातट, स्वर्गाश्रम, ऋषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि.
३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारे । संत कभी अपनेको शरीर मानते
ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ-यह
उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ
हैं । संतोंका जीवन उनके विचार ही होता हैं |
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