(५ )
श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
हे वृषभानुराजनन्दिनि ! हे अतुल प्रेम-रस-सुधा-निधान !
गाय चराता वन-वन भटकूँ, क्या समझूँ मैं प्रेम-विधान !
ग्वाल-बालकोंके सँग डोलूँ, खेलूँ सदा गँवारू खेल।
प्रेम-सुधा-सरिता तुमसे मुझ तप्त धूलका कैसा मेल !
तुम स्वामिनि अनुरागिणि ! जब देती हो प्रेमभरे दर्शन।
तब अति सुख पाता मैं, मुझपर बढ़ता अमित तुहारा ऋण॥
कैसे ऋणका शोध करूँ मैं, नित्य प्रेम-धनका कंगाल !
तुम्हीं दया कर प्रेमदान दे मुझको करती रहो निहाल।।
(६)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग परज-तीन ताल)
सुन्दर श्याम कमल-दल-लोचन दुखमोचन व्रजराजकिशोर।
देखूँ तुम्हें निरन्तर हिय-मन्दिरमें, हे मेरे चितचोर !
लोक-मान-कुल-मर्यादाके शैल सभी कर चकनाचूर।
रक्खूँ तुम्हें समीप सदा मैं, करूँ न पलक तनिकभर दूर॥
पर मैं अति गँवार ग्वालिनि गुणरहित कलंकी सदा कुरूप।
तुम नागर, गुण-आगर, अतिशय कुलभूषण सौन्दर्य-स्वरूप॥
मैं रस-ज्ञान-रहित रसवर्जित, तुम रसनिपुण रसिक सिरताज॥
इतनेपर भी दयासिन्धु तुम मेरे उरमें रहे विराज॥
श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार भाईजी
Tuesday, 26 September 2017
षोडश गीत
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