Monday 30 September 2013

भगवती शक्ति -11-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, एकादशी  श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०


तन्त्रके नाम पर व्यभिचार और हिंसा

गत ब्लॉग से आगे...  व्यभिचार की आज्ञा देने वाले तन्त्रों के अवतरण लेखक ने पढ़े है और तन्त्र के नाम पर व्यभिचार और नर बलि करने वाले मनुष्यों की घ्रणित गाथाये विश्वस्तसूत्रों से सुनी है | ऐसे महान तामसिक कार्यों को शास्त्रसम्मत मान कर भलाईकी इच्छा से इन्हें करना सर्वथा भ्रम है, भारी भूल है और ऐसी भूल में कोई पड़े  हुए हो तो उन्हें तुरन्त ही इससे निकल जाना चाहिये | और जो जान-बूझ कर धर्म के नाम पर व्यभिचार, हिंसा आदि करते हों, उनको तो माँ चंडी का भीषण दण्ड प्राप्त होगा, तभी उनके होश ठीकाने आयेंगे | दयामयी माँ अपनी भूली हुई संतान को क्षमा करे और उन्हें रास्ते पर लावे, यहीं प्रार्थना है |     

       बलिदान

इसके अतिरिक्त पंच्म्कारकके नाम पर भी बड़ा अन्याय-अनाचार हुआ तथा अब भी बहुत जगह हो रहा है, उससे भी सतर्कता से बचना चाहिये | बलिदान तथा मधप्रदान भी सर्वथा त्याज्य है | माता की जो संतान, अपनी भलाइ के लिए – माता से ही अपनी कामना पूरी करने के लिए, उसी माता की प्यारी भोलीभाली संतान की हत्या करके उसके खून से माँ को पूजती है, जो माँ के बच्चों के खून से माँ की मंदिर को अपवित्र और कलंकित करता है, उस पर माँ कैसे प्रसन्नहो सकती है ?

माँ दुर्गा, काली जगजननी विश्वमाता है | स्वार्थी मनुष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए धन-पुत्र, स्वार्थ-वैभव, सिद्धि या मोक्ष के लिए भ्रमवश निरीह बकरे, भैसे और अन्यान्य पशु-पक्षियों के गले पर छुरी फेरकर माता से सफलता का वरदान चाहता है, यह कैसी असंगत और असम्भव बात है | निरपराध प्राणियों की नृशंशसतापूर्वक हत्या करने-करने वाला कभी सुखी हो सकता है ? उसे कभी शांति मिल शक्ति है ? कदापि नहीं |

दयाहीन मॉसलोलुप मनुष्यों ने ही इस प्रकार की प्रथा चलाई है | जिसका शीघ्र ही अंत हो जाना चाहिये | जो दुसरे निर्दोष प्राणियों के गर्दन काट कर अपना भला मनायेगा, उसका यतार्थ कभी भला नहीं हो सकता | यह बात स्मरण रखनी चाहिये |... शेष अगले ब्लॉग में.      

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Sunday 29 September 2013

भगवती शक्ति -10-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, दशमी  श्राद्ध, रविवार, वि० स० २०७०

शक्ति की शरण

तामसी को नरक-प्राप्ति

गत ब्लॉग से आगे... तामसी देवता, तामसिक पूजा, तामसिक आचार सभी नरकों में ले जाने वाले है; चाहे उनसे थोड़े काल के लिए सुख मिलता हुआ सा प्रतीत भले ही हों | देवता वस्तुत: तामसिक नहीं होते, पूजक अपनी भावना के अनुसार उन्हें तामसिक बना लेते है | जो देवता अल्प सीमा में आबद्ध हो, जिनको तामसिक वस्तुए प्रिय हों, जो मॉस-मध् आदि से प्रसन्न होते हों, पशु-बली चाहते हों, जिनकी पूजा में तामसिक गंदी वस्तुओं का प्रयोग अवश्यक हों, उनके लिए पूजा करनेवाले को तामसिक अचार की प्रयोजनीयता प्रतीत होती हो; वह  देवता, उनकी पूजा और उन पूजकों का अचार तामसी है और तामसी पापाचारी को बार-बार नरक की प्राप्ति होती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं |

       तन्त्रके नाम पर व्यभिचार और हिंसा

यदपि तन्त्रशास्त्र समस्त श्रेस्ठ साधनशास्त्रों में एक बहुत उत्तम शास्त्र है, उसमे अधिकाँश बाते सर्वथा अभिनंदनीय और साधक को परम सिद्धि -मोक्ष प्रदान कराने वाली है, तथापि सुन्दर बगीचेमें भी जिस प्रकार असावधानी से कुछ जहरीले पौधे उत्पन्न हो जाया करते है और फलने-फूलने भी लगते है, इसी प्रकार तन्त्र में भी बहुत -सी अवान्छनीय गंदगी आ गयी है | यह विषय कामन्ध मनुष्य और मासाहारी मधलोलुप अनाचारियों की काली करतूत मालूम होती है, नहीं तो, श्रीशिव और ऋषिप्रणीत मोक्षदायक पवित्र तन्त्रशास्त्र में ऐसी बाते कहाँ से और क्यों आती ? जिस शास्त्र में अमुक-अमुक जातिकी स्त्रियों का नाम ले-लेकर व्यभिचार की आज्ञा दी गई हो और उसे धर्म और साधन बताया गया हों, जिस शास्त्रमें पूजा की पद्दति में बहुत सी गंदी वस्तुए पूजा-सामग्रीके रूप में आवश्यक बताई गयी हों, जिस शास्त्र के मानने वाले साधक (?) हज़ार स्त्रियों के साथ व्यभिचार को और अष्टोतत्रश नरबालको की बलि को अनुष्ठानकी सिद्धि में कारण मानते हो, वह शास्त्र तो सर्वथा अशास्त्र और शास्त्रों के नाम को कलंकित करने वाला है |... शेष अगले ब्लॉग में.     

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Saturday 28 September 2013

भगवती शक्ति -9-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, नवमी  श्राद्ध, शनिवार , वि० स० २०७०

शक्ति की शरण

   गत ब्लॉग से आगे....यह महाशक्ति ही सर्वकारणरूप प्रकृति की आधारभूता होने से महाकारण भी है, यही मायाधीश्वरी है, यही सृजन-पालन-संघारकारिणी आद्या नारायणी शक्ति है और यही प्रकृति के विस्तार के समय भर्ता, भोक्ता और महेश्वर होती है | परा और अपरा दोनों प्रक्रतिया इन्ही की है अथवा यही दो प्रकृतियों के रूप में प्रकाशित होती है | इन्ही में द्वैतअद्वैत दोनों का समावेश है | यही वैष्णवोंकी श्री नारायण और महालक्ष्मी, श्रीराम और सीता, श्रीकृष्ण और राधा; शैवों की श्रीशंकरऔर उमा, गन्पत्योंकी श्रीगणेश और रिद्धि-सिद्धि, सोरो की श्रीसूर्य और उषा, ब्र्ह्वादियों की शुद्ध ब्रह्म और ब्रह्म विद्या है और साक्तों की महादेवी है | यही पन्चमहाविद्या, दस महाविद्या, नव दुर्गा है | यही अन्नपूर्णा, जगादात्री, कात्यायनी, ललिताम्बा है | यही शक्तिमान है, यहीं शक्ति है, यहीं नर है, यहीं नारी है, यही माता धाता, पितामह है; सब कुछ यही है ! सबको सर्वोक्त भाव से इन्ही के शरण में जाना चाहिये |               


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जो श्रीकृष्ण की उपासना करते है, वे भी इन्हीं की करते है | जो श्रीराम, शिव या गणेशरूप की उपश्ना करते है, वे भी इन्ही की करते है | और इसी प्रकार जो श्री, लक्ष्मी, विद्या, काली, तारा, षोडशी आदि रूपों में उपासना करते है, वे भी इन्ही की करते है | श्रीकृष्ण ही काली है, माँ काली ही श्री कृष्ण है | इसलिए जो जिस रूप में उपासना करते हो उन्हें उस उपासना को छोड़ने की कोई आवस्यकता नहीं | हाँ, इतना अवश्य निश्चय कर लेना चाहिये की ‘मैं जिन भगवान या भगवती की उपासना कर रहा हूँ, वही सर्वदेवमय और सर्वरूपमय है; सर्वशक्तिमान और  सर्वोपरी है | दूसरों के सभी ईस्टदेव  इन्ही के विभिन्न स्वरुप है |’ हाँ, पूजा में भगवान के अन्यान्य रूपों का कहीं विरोध  हो या उनसे द्वेषभाव हो तो उसे जरुर निकाल देंना चाहिये; साथ ही किसी तामसिक पद्दतिका अवलम्बन किया हुआ हो तो उसे भी अवश्य ही छोड़ देना चाहिये |... शेष अगले ब्लॉग में....       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Friday 27 September 2013

भगवती शक्ति -8-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण, अष्टमी  श्राद्ध, शुक्रवार , वि० स० २०७०
शक्ति की महिमा
 
गत ब्लॉग से आगे....यही शूरो का बल है, दानियों की उदारता, माता पिता का वात्सल्य, गुरु की गुरुता, पुत्र और शिष्य की गुरुजन भक्ति, साधुओं की साधुता, चतुरों की चातुरी और मायाविओं की माया है | यही लेखको की लेखनी शक्ति, वाग्मियों की वक्त्रत्वशक्ति, न्यायी नरेशों की प्रजा पालन शक्ति और प्रजा की राजभक्ति है | यह सदाचारियों की दैवी-सम्पति, मुमुक्षुओ की ष्ठशक्ति है, धनवानों की अर्थसम्पति और विद्वानों की विद्यासम्पति है | यही ज्ञानियों की ज्ञानशक्ति, प्रेमियों की प्रेमशक्ति, वैराग्यवानो  की वैराग्यशक्ति और भक्तों की भक्तिशक्ति है | यही राजाओं की राजलक्ष्मी, वणिको की सोभाग्यलक्ष्मी, सज्जनों की शोभालक्ष्मी, और श्रेयार्थियों  की श्री है | यही पतिओं की पत्नीप्रीती और पत्नी की पतिव्रताशक्ति है |
सारांश यह है की जगत में तमाम जगह परमात्मरूपा महाशक्ति ही विविध रूपों में खेल रही है | सभी जगह स्वाभिक ही शक्ति की पूजा हो रही है | जहाँ शक्ति नहीं है वाही शून्यता है | शक्तिहीन की कही कोई पूछ नहीं है | प्रहलाद-ध्रुव भक्ति शक्ति के कारण पूजित है | गोपी प्रेम-शक्ति के कारण जगत पूज्य है | भीष्म-हनुमान की ब्रहचर्य-शक्ति; व्यास-वाल्मीकि की कवित्व शक्ति; भीम-अर्जुन की शौर्यशक्ति, युद्दिस्टर-हरिश्चंद्र की सत्यशक्ति, शंकर-रामानुज की विज्ञानंशक्ति; शिवाजी-प्रताप की वीरशक्ति; इस प्रकार जहाँ देखो वहीँ शक्ति के कारण ही सबकी सोभा और पूजा है | सर्वर्त्र शक्ति का समादर ही बोलबाला है | शक्तिहीन वस्तु जगत में टिक ही नहीं सकती | सारा जगत अनादिकाल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निरंतर केवल शक्ति की उपासना में लगा है और सदा लगा रहेगा |... शेष अगले ब्लॉग में.... 
      
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 
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Thursday 26 September 2013

भगवती शक्ति -7-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, सप्तमी श्राद्ध, गुरूवार, वि० स० २०७०

शक्ति और शक्तिमान की अभिन्नता

गत ब्लॉग से आगे.... इन्ही सगुण-निर्गुणरूप भगवान या भगवती से उपर्युक्त प्रकार से कभी महादेवी रूप के द्वारा, कभी महाशिव के द्वारा, कभी महाविष्णु के द्वारा, कभी श्रीकृष्ण के द्वारा, कभी श्रीराम के द्वारा सृष्टी की उत्पति होती है, और यही परमात्मरूपा महाशक्ति पुरुष और नारीरूप में विविध अवतारों में प्रगट होती है | वस्तुत: यह नारी हैं न पुरुष, और दूसरी दृष्टी में दोनों ही है | अपने पुरुष रूप अवतारों में स्वयं महाशक्ति ही लीला के लिए उन्ही के अनुसार रूपों में उनकी पत्नी बन जाती है | ऐसे बहुत से इतिहास मिलते है जिनमे महाविष्णु ने लक्ष्मी से, श्रीकृष्ण ने राधा से, श्री सदाशिव ने उमा से और श्रीराम ने सीता से कहा है की हम दोनों सर्वथा अभिन्न है, एकके ही दो रूप है, केवल लीला के लिए एक के दो रूप बन गए है, वस्तुत: हम दोनों में कोई भी अन्तर नहीं है |  
       शक्ति की उपासना

यही आदि के तीन युगल उत्पन्न करने वाली महालक्ष्मी है; इन्ही की शक्ति से ब्रह्मादीदेवता बनते है, जिनसे विश्व की उत्पत्ति होती है | इन्ही की शक्ति से विष्णु और शिव प्रगट होकर विश्व का पालन और संघार करते है | दया, क्षमा, निंद्रा, स्मृति, क्षुधा, त्रष्णा, तृप्ति, श्रधा, भक्ति, धृति, मती, तुस्टी, पुष्टि, शान्ति, कान्ति, लज्जा आदि इन्ही महाशक्तिकी शक्तियाँ है |

यही गोलोक में श्रीराधा, साकेत में श्रीसीता, क्षिरोधसागर में लक्ष्मी, दक्षकन्या सती, दुर्गनाशिनी मेनका पुत्री दुर्गा है | यही वाणी, विद्या, सरस्वती, सावित्री और गायत्री है | यही सूर्य की प्रभा शक्ति, पूर्णचंद्र की सुधावर्षिणी सोभाशक्ति, अग्नि की दाहिकाशक्ति, वायु की वहनशक्ति, जल की सीतलशक्ति, धरा की धारणा शक्ति और शस्य की प्रसूतिशक्ति है | यही तपस्विओ का तप, ब्रह्मचारियों का ब्रह्मतेज, गृहस्थो की सर्वश्रम-आश्र्यता, वानप्रस्थों की संयमशीलता, संयासिओं का त्याग, महापुरुषो की महता, और मुक्त पुरुष की मुक्ति है |... शेष अगले ब्लॉग में....        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Wednesday 25 September 2013

भगवती शक्ति -6-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, षष्ठी श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०

शक्ति और शक्तिमान

 

गत ब्लॉग से आगे....कोई-कोई कहते है की शुद्ध ब्रह्ममें मायाशक्ति नही रह सकती, माया रही तो वह शुद्ध कैसे ? बात समझने की है | शक्ति कभी शक्तिमान से पृथक नहीं रह सकती | यदि शक्ति नहीं है तो उसका उसका शक्तिमान नाम नहीं हो सकता और शक्तिमान न हो तो शक्ति रहे कहाँ ? अतएव शक्ति सदा ही शक्तिमान में रहती है | शक्ति नहीं होती तो सृष्टि के समय शुद्ध ब्रह्म में एक से अनेक होने का संकल्प कहाँ से और कैसे आता है ? इस पर यदि यह कहा जाये की ‘जिस समय संकल्प हुआ, उस समय शक्ति आ गयी,पहले नहीं थी |’ अच्छी बात है ; पर बताओ, वह शक्ति कहाँ से आई ? ब्रह्म के सिवा कहाँ जगह थी जहाँ वह अभ तक छिपी बैठी थी ? इसका क्या उत्तर ?’ ‘अजी, ब्रह्म में कभी संकल्प ही नहीं हुआ, यह सब असत कल्पनाएँ है, मिथ्या स्वप्न-की सी बाते है |’ ‘अच्छी बात है, पर यह मिथ्या स्वप्न की सी बाते है |’ ‘अच्छी बात है, पर मिथ्या कल्पनाये किसने किस शक्ति से की और मिथ्या स्वप्न को किसने किस सामर्थ्य से देखा ? और मान भी लिया जाए की यह सब मिथ्या है तो इतना तो मन्ना ही पड़ेगा की शुद्ध ब्रह्म का अस्तित्व किससे है ? जिससे वह अस्तित्व है वही उसकी शक्ति है | क्या जीवनीशक्ति बिना भी कोई जीवित रह सकता है ?  अवश्य ही ब्रह्म की वह जीवनी-शक्ति  ब्रह्म से भिन्न नहीं है | वही जीवनीशक्ति अन्यान्य समस्त  शक्तिओं की जननी है, वही परमात्मरूपा महाशक्ति है | अन्यान्य सारी  शक्तियाँ अव्यक्तरूप से उन्ही में छिपी रहती है और जब वे चाहती है तब उनको प्रगट करके काम लेती है | हनुमान में समुद्र लाघने की शक्ति थी, पर वह अव्यक्त थी, जाम्भ्वान के याद दिलाते ही हनुमान ने उसे व्यक्त रूप दे दिया | इसी प्रकार सर्शक्तिमान परमात्मा या परमा शक्ति भी नित्य शक्तिमान है; हाँ, कभी वह शक्ति उनमे अव्यक्त रहती है और कभी व्यक्त | अवश्य ही भगवान की शक्ति को व्यक्त रूप भगवान स्वयं ही देते है, यहाँ किसी जाम्बवान की आवस्यकता नहीं होती | परन्तु शक्ति नहीं है , ऐसा नहीं कहा जा सकता | इसीसे ऋषि-मुनियों ने इस शक्तिमान को महाशक्ति के रूप में देखा |... शेष अगले ब्लॉग में....       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Tuesday 24 September 2013

भगवती शक्ति -5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, पंचमी श्राद्ध, मंगलवार, वि० स० २०७०

मायाशक्ति अनिर्वचनीय है

गत ब्लॉग से आगे.... कोई-कोई परमात्मरूपा महाशक्ति की इस मायाशक्ति को अनिर्वचनीय कहते है, सो भी ठीक ही है; क्योकि यह शक्ति उस सर्वशक्तिमती महाशक्तिकी अपनी ही तो शक्ति है | जब वह अनिर्वचनीय है, तब उसकी अपनी अनिर्वचनीय क्यों न होगी ?

मायाशक्ति और महाशक्ति

कोई-कोई कहते है कि इस मायाशक्तिका ही नाम महाशक्ति, प्रकृति, विद्या, अविद्या, ज्ञान, अज्ञान आदि है, महाशक्ति पृथक वस्तु नहीं है | सो उनका यह कथन भी एक दृष्टि से सत्य ही है; क्योकि महाशक्ति परमात्मरूपा महाशक्तिकी ही शक्ति है और वही जीवों के बाधने के लिए अज्ञान या अविद्यारूप से और उनकी बंधन-मुक्ति के लिये ज्ञान या विद्यारूपसे अपना स्वरुप प्रगट करती है, तब इनसे भिन्न कैसे रही? हाँ, जो मायाशक्तिको ही शक्ति मानते वे तो माया के अधिष्ठान ब्रह्म को ही अस्वीकार करते है, इस लिए वे अवश्य ही माया के चक्कर में पड़े हुए है |         

                           निर्गुण और सगुण

कोई इस परमात्मरूपा महाशक्ति को निर्गुण कहते है और कोई सगुण | ये दोनों बाते भी ठीक है, क्योकि उस एक के ही ये दो नाम है | जब मायाशक्ति क्रियाशील रहती है, तब उसका अधिष्ठान महाशक्ति सगुण कहलाती है | और जब वह महाशक्ति में मिली रहती है, तब महाशक्ति निर्गुण है | इन अनिरवचनीया परमात्मरूपा महाशक्तिमें परस्परविरोधी गुणों का नित्य सामजस्य है | वे जिस समय निर्गुण है, उस समय भी उनमे गुणमयी मायाशक्ति छिपी हुई मौजूद है और जब वे सगुण कहलाती है उस समय वे भी सगुण कहलाती है उस समय भी भी वे गुणमयी मायाशक्तिकी अदीश्वरी और सर्वतन्त्रस्वतन्त्र होने से  वस्तुत: निर्गुण भी है, तात्पर्य की उनमे निर्गुण और सगुण दोनों लक्षण सभी समय वर्तमान है | जो जिस भाव से उन्हें देखता है, उनका उनका वैसा ही रूप भान होता है | असल में वे कैसी है , क्या है , इस बात को वाही जानती है |... शेष अगले ब्लॉग में....       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Monday 23 September 2013

भगवती शक्ति -4-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, चतुर्थी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०

मायावाद

गत ब्लॉग से आगे....और चूँकि संसाररूप से व्यक्त होनेवाली यह समस्त क्रीडा महाशक्तिकी अपनी शक्ति-मायाका ही खेल है और माया-शक्ति उनसे अलग नहीं है, इसलिये यह सारा उन्ही का ऐश्वर्य है | उनको छोड़कर जगत में और कोई वस्तु ही नहीं है, अतएव जगत को मायिक बतलानेवाला मायावाद भी इस हिसाबसे ठीक ही है |                

                                           आभासवाद  

इस प्रकार महाशक्ति ही अपने मायारूपी दर्पण में अपने विविध श्रंगारों और भावों को देख कर जीवरूप से आप ही मोहित होती है | इससे आभासवाद भी सत्य है |

माया अनादी और शान्त है

परमात्मरूप महाशक्तिकी उपर्युक्त मायाशक्ति को अनादी और शान्त कहते है | सो उसका अनादी होना तो ठीक ही है; क्योकि वह शक्तिमयी महाशक्तिकी अपनी शक्ति होने से उसी की भांति अनादी है, परन्तु शक्तिमयी महाशक्ति तो नित्य अविनाशिनी है, फिर  उसकी शक्ति माया अंतवाली कैसे होगी? इसका उत्तर यह है की वास्तव में वह अन्तवाली नहीं है | अनादी, अनंत, नित्य, अविनाशी, परमात्मरूपा महाशक्ति की भान्ति उसकी शक्ति का कभी विनाश नहीं हो सकता, परन्तु जिस समय वह कार्यविस्ताररूप समस्त संसार सहित महाशक्ति के सनातन अव्यक्त परमात्मरूप में लीन रहती है, तब तक के लिए वह अद्रश्य या शान्त हो जाती है और इसी से उसे शान्त कहते है | इस दृष्टिसे उसको शांत कहना सत्य है |... शेष अगले ब्लॉग में....       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Sunday 22 September 2013

भगवती शक्ति -3-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, तृतीया श्राद्ध, रविवार, वि० स० २०७०

परिणामवाद

गत ब्लॉग से आगे....
एक ही शक्ति विभिन्न नाम-रूपों में सृष्टी-रचना करती है | इस विभिन्नता का कारण और रहस्य भी उन्ही को ज्ञात है | यों अनन्त ब्रह्मांडोमें महाशक्ति असंख्य ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनी हुई है और अपनी योगमाया से अपने को आवृतकर आप ही जीवसंज्ञा को प्राप्त है | ईश्वर, जीव, जगत तीनो आप ही है | भोक्ता, भोग्य और भोग तीनो आप ही है | इन तीनो को आपने ही से निर्माण करनेवाली, तीनोमें व्याप्त रहने वाली भी आप ही है |

परमात्मरूपा यह महाशक्ति स्वयं अपरिणामी  हैं, परन्तु इन्ही की मायाशक्ति से सारे परिणाम होते है | यह स्वभाव से ही सत्ता देकर अपनी मायाशक्ति को क्रीडाशीला अर्थात क्रियाशीला बनाती है, इसलिये इनके शुद्ध विज्ञानानन्दघन नित्य अविनाशी एकरस परमात्मरूप में कदापि कोई परिवर्तन न होनेपर भी इनमे परिणाम दीखता है; क्योकि इनकी अपनी शक्ति मायाका विकसित स्वरुप नित्य क्रीडामय होनेके कारण सदा बदलता ही रहता है और वह मायाशक्ति सदा इन महाशक्ति से अभिन्न रहती है | वह महाशक्तिकी ही स्व-शक्ति है और शक्तिमान से शक्ति कभी पृथक नहीं हो सकती, चाहे वह पृथक दीखे भले ही, अतएव शक्तिका परिणाम स्वयमेव ही शक्तिमान पर आरोपित हो जाता है, इस प्रकार शुद्ध ब्रह्म या महशक्ति में परिणामवाद सिद्ध होता है |... शेष अगले ब्लॉग में....       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Saturday 21 September 2013

भगवती शक्ति -2-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण, द्वितिया श्राद्ध, शनिवार, वि० स० २०७०
परिणामवाद
गत ब्लॉग से आगे....असल में वह एक महाशक्ति ही परमात्मा है जो विभिन्न रूपों में  विविध लीलाएं करती है | परमात्मा के पुरुषवाचक सभी स्वरुप इन्हीं अनादी, अविनाशिनी, अनिर्वचनीय, सर्वशक्तिमयी, परमेश्वरी आद्या महाशक्ति के ही है | यही महाशक्ति अपनी मायाशक्ति को जब अपने अन्दर छिपाये रखती है, उससे कोई क्रिया नहीं करती, तब निष्क्रिय, शुद्ध ब्रह्म कहलाती है | यही जब उसे विकासोन्मुख करके एकसे अनेक होने का संकल्प करती है, तब स्वयं ही पुरुषरूप से मानो अपनी प्रकर्तिरूप योनी में संकल्प द्वारा चेतनरूप बीज स्थापन करके सगुण, निराकार परमात्मा बन जाती है |
 
इसीकी अपनी शक्तिसे गर्भाशय में वीर्यस्थापनसे होनेवाले विकार की भांति उस प्रकृति से क्रमश: सात विकृतिया होती है (महतत्व- समष्टि बुद्धि, अहंकार और सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राए  मूल प्रकृति के विकार होने से इन्हें विकृति कहते है; परन्तु इनसे अन्य सोलह  विकारों की उत्पति होने के कारण इन सात समुदायों को विकृति भी कहते है ) फिर अहंकार से मन और दस (ज्ञान कर्मरूप) इन्द्रियाँ और  पञ्चतन्मात्राओ से पञ्च महाभूतो की उत्पत्ति होती है | (इसलिए इन दोनों के समुदाय का नाम प्रकृति-विकृति है | मूल प्रकृति के सात विकार, सप्तधा विकाररूपा प्रकृति से उत्पन्न सोलह विकार और स्वयं मूल प्रकृति ये कुल मिलकर चौबीस तत्व है ) यों वह महाशक्ति ही अपनी प्रकृति सहित चौबीसतत्वों के रूप में यह स्थूल संसार बन जाती है और जीवरूप से स्वयं पचीसवे तत्वरूप में प्रविष्ट होकर खेल खेलती है |
 
चेतन परमात्मरूपिणी महाशक्ति के बिना जड प्रकृति से यह सारा कार्य कदापि सम्पन नहीं हो सकता | इस प्रकार महाशक्ति विश्वरूप विराट पुरुष बनती है और इस सृष्टीके निर्माण में स्थूल निर्माता प्रजापति के रूप में आप ही अंशावतार के भाव से ब्रह्मा और पालनकर्ता के रूप में विष्णु और संघारकर्ता के रूप में रूद्र बन जाती है और ये ब्रह्मा, विष्णु, शिवप्रभर्ती अंशावतार भी किसी कल्प में दुर्गारूप से होते है, किसीमें महाविष्णुरूप से, किसी में महाशिवरूप से, किसीमें श्रीराम रूप से और किसी में श्रीकृष्ण रूप से |
 ... शेष अगले ब्लॉग में....       
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Friday 20 September 2013

भगवती शक्ति -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, प्रतिपदाश्राद्ध, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
सर्वोपरि, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वमय, समस्त-गुणाधार, निर्विकार, नित्य, निरन्जन, सृष्टीकर्ता, पालनकर्ता, संघारकर्ता, विग्यानान्घन, सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार, परमात्मा वस्तुत: एक ही है | वे एक ही अनेक भावों से और अनेक रूपों में लीला करते है | हम अपने समझने के लिए मोटे रूपसे उनके आठ रूपों का भेद कर सकते है |
(१)नित्य,विज्ञानानन्दघन,निर्गुण, निराकार, मायारहित, एकरस ब्रह्म;
(२)सगुण,सनातन,सर्वेश्वर,सर्वशक्तिमान, अव्यक्त निराकार परमात्मा;
(३)सृष्टीकर्ता प्रजापति ब्रह्मा;
(४) पालनकर्ता भगवान विष्णु;
(५) संघारकर्ता भगवान रूद्र;
(६)श्रीराम, श्री कृष्ण, दुर्गा, काली आदि साकार रूपों में अवतरित रूप;
(७)असंख्य जीवात्मारूप में विभिन्न विभिन्न जीवशरीरों में व्याप्त और
(८)विश्व ब्रह्माण्डरूप विराट | यह आठो रूप एक ही परमात्मा के है |
 
 इन्ही समग्ररूप प्रभु को रूचिवैचित्र्यके कारण संसार में लोग ब्रह्म, सदाशिव, महाविष्णु, ब्रह्मा, महाशक्ति, राम, कृष्ण, गणेश, सूर्य, अल्लाह, गाँड, प्रकृति आदि भिन्न-भिन्न नाम-रूपों में विभिन्न प्रकार से पूजते है | वे सच्चिदानंदघन अनिवर्चनीय प्रभु एक ही है, लीलाभेद में उनके नामरूपों में भेद है और इस भेदभाव के कारण उपासना में भेद है | यद्यपि उपासक को अपने ईस्टदेवके नाम-रूप में ही अनन्यता रखनी चाहिये तथा उसीकी पूजा सास्त्रोक्त पूजन-पद्दति के अनुसार करनी चाहिये, परन्तु इतना निरंतर स्मरण रखना चाहिये की शेष सभी रूप और नाम भी उसी के इष्टदेव के है | उसीके प्रभु इतने विभिन्न रूपों में समस्त विश्व के द्वारा पूजित होते है | उनके अतिरिक्त कोई है ही नहीं | तमाम जगत में वस्तुत: एक वही फैले हुए है | जो विष्णु को पूजता है, वह अपने-आप ही शिव, ब्रह्मा, राम, कृष्ण आदि को पूजता है और जो राम, कृष्ण को पूजता है वह ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि को |
 
एक की पूजा से स्वाभाविक ही सभी की पूजा हो जाती है ; क्योकि एक ही सब बने हुए है | परन्तु जो किसी एक रूपसे अन्य समस्त रूपों को अलग मानकर औरों की अवज्ञा करके केवल अपने इष्ट एक ही रूप को अपनी ही सीमा में आबद्ध रखकर पूजता है, वह अपने परमेश्वर को छोटा बना लेता है, उनको सर्वेश्वरत्व के आसन से नीचे उतरता है |
 
इसलिए उसकी पूजा सर्वोपरि सर्वमय भगवानकी न होकर एकदेश निवासी  स्वल्प देशविशेष की हो जाती है और उसे वैसा ही उसका अल्प फल भी मिलता है | अतएव पूजो एक ही रूपको, परन्तु शेष सब रूपों को समझो उसी एकके वैसे शक्तिसंपन्न अनेक रूप ! 
......शेष अगले ब्लॉग में.        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

  नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   
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Thursday 19 September 2013

पदरत्नाकर ६८ - केवल तुम्हें पुकारूँ प्रियतम ! देखूँ एक तुम्हारी ओर।


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, पूर्णिमा, गुरूवार, वि० स० २०७०

 पदरत्नाकर   -(राग काफी-ताल दीपचंदी)

 
केवल तुम्हें पुकारूँ प्रियतम ! देखूँ एक तुम्हारी ओर।

अर्पण कर निजको चरणोंमें बैठूँ हो निश्चिन्त, विभोर॥

प्रभो ! एक बस, तुम ही मेरे हो सर्वस्व सर्वसुखसार।

प्राणोंके तुम प्राण, आत्माके आत्मा आधेयाऽधार॥

भला-बुरा, सुख-दुःख, शुभाशुभ मैं, न जानता कुछ भी नाथ !।

जानो तुम्हीं, करो तुम सब ही, रहो निरन्तर मेरे साथ॥

भूलूँ नहीं कभी तुमको मैं, स्मृति ही हो बस, जीवनसार।

आयें नहीं चित-मन-मतिमें कभी दूसरे भाव-विचार॥

एकमात्र तुम बसे रहो नित सारे हृदय-देशको छेक।

एक प्रार्थना इह-परमें तुम बने रहो नित सङङ्गी एक॥

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

 
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Ram