Wednesday 25 April 2012


उद्धवको 'वासुदेवः सर्वम' का उपदेश 






मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ।।१।।


सुद्धान्तः करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे।।१।।


इति सर्वानी भूतानि मद्भावेन महाद्युते ।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रीतः ।।२।।
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येर्के स्फुलिंगके।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ।।३।।


निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और इन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये।।२-३।।


नारेष्वभिक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोचिरात् ।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियन्ति हि।।४।।


जब निरंतर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दीनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं।।४।।


विसृज्य स्म्यामानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकिम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भुमावाश्वचाण्डालगोखरम् ।।५।।


अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; 'मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है' ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर साष्टांग दंडवत् -प्रणाम करे ।।५।।



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Tuesday 24 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ........गत ब्लॉग से आगे .... 


वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार


परन्तु प्रश्न इतना ही नहीं है! शिशुपालकी बात तो पीछे देखि जायगी। जरासंधके कैदी राजाओंकी प्रार्थना उपेक्षा करनेयोग्य नहीं है। दीनोंकी, शरणागतोंकी रक्षा करना सभीका एकांत कर्तव्य है और भगवान् श्रीकृष्णने तो इसका व्रत ले रखा है! परन्तु यह काम हमारी ओरसे नहीं होना चाहिये। इसके लिए सामूहिक युद्ध छेड़नेका अभी अवसर भी नहीं है! यह काम पाण्डवोंसे मिलकर उनकी सहायता और शक्ति प्राप्त करके उपायके द्वारा ही करना चाहिये। यह काम हस्तिनापुर जानेपर श्रीकृष्ण कर लेंगे। यज्ञके पूर्व राजाओंको छुड़ा लिया जाय, इससे हमारी और युद्धिष्ठिरकी शक्ति बढ़ जायगी, उसके पश्चात शिशुपालको यज्ञमें निमंत्रित किया जाय और उसका रुख देखकर, राजाओंकी सम्मति देखकर शिशुपालके दोषोंके प्रकट हो जानेपर जैसा मौका आवे, वैसा किया जाय। अनन्तः मेरी सम्मति तो यही है की श्रीकृष्ण और उनके साथ हम सब अपने पाण्डवोंके यज्ञमें चलें, उसके बाद सब व्यवस्था हो जायगी।


सबने एक स्वरमें उद्धवके विचारोंका समर्थन किया। बलरामने भी कहा - 'उद्धवके विचार ही ठीक हैं। ये भगवान् की सम्मति जानते हैं, उनकी इच्छाके अनुसार ही कहते हैं और भगवान् अपने भक्तोंको छोड़कर अभक्तोंकी और जा नहीं सकते। इसलिये यही बात ठीक हैं।' 


सब लोगोंने युद्धिष्ठिरके यज्ञकी यात्रा की। भगवान् ने भीम के द्वारा जरासंध को मरवा डाला और हजारों राजा कैदखानेसे मुक्त होकर युद्धिष्ठिरकी सहायता करनेके लिए यज्ञमें आये । सौ अपराधोंतक क्षमा करने के पश्चात भगवान् श्रीकृष्णने सबके सामने ही चक्रद्वारा शिशुपालका उद्धार किया और धर्मराजका यज्ञ सकुशल संपन्न हुआ। उद्धवकी नितिमत्ताका यश चरों और फैल गया। महाभारतके कई स्थानोंमें उद्धवकी नितिकी  प्रसंशा है। धृतराष्ट्रने विदुरकी प्रसंशा करते हुए कहा है की जैसे यदुवंशियोंमें नीतिके सर्वश्रेष्ट और यशस्वी विद्वान्  उद्धव हैं, वैसे ही कुरुकुलमें तुम हो। जिसे  भगवान् की सन्निधि, उनकी कृपा और उनका प्रेम प्राप्त है, उसके नितिमान होनेमें क्या संदेह है? भगवान् की आज्ञाका पालन करते हुए उद्धव द्वारकामें निवास करने लगे।  
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Monday 23 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे .... 


' सुद्ध बुद्धि और उत्साह रहनेपर भी प्रमादको तनिक भी आश्रय नहीं देना चाहिये! प्रमादके कारण सामने आई हुई वस्तु भी दूर हट जाती है! और सावधान रहा जाय तो अपने सामनेसे वेगसे भागती हुई वस्तु भी पकड़ ली जा सकती है! कब बल प्रकट करना चाहिये और कब क्षमा  कर देनी चाहिये, इस बातको समझना भी आवश्यक है! कोई अपने साथ अत्याचार करता हो तो उतावला होकर उसका मुकाबिला नहीं करना चाहिये! अपनी शक्ति और सामर्थ्यपर विचार करके अपने मित्रों तथा सहायकोंके संग्रहमें लग जाना चाहिये, वह समय भी आयेगा, जब अत्याचारियोंका नाश हो जायगा! मैं यह नहीं कहता की केवल भाग्यके आश्रयसे ही रहा जाय परन्तु केवल पौरुषके सहारे ही आगमें कूदनेकी सलाह भी मैं नहीं देता!'


' अपनी शक्तिपर विचार कीजिये! दुसरेकी शक्ति देखिये और सोचिये, आप भगवान् के कितने निकट हैं और वह भगवान् से कितना दूर है! साम, दाम, दण्ड, भेद इन उपायोंको बरतिये भी और भगवान् का भरोसा भी रखिये! स्वंय तयारी भी कीजिये और ऐसे मित्र भी बनाइये जो आपके ही सरीखे उदेश्यवाले हों! ऐसा करनेसे आपको बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा और अनायास ही आपका उदेश्य पूरा हो जायेगा! किस्से कब सन्धि करनी चाहिये और किससे कब विग्रह, कब काम-क्रोधादि शत्रुओंको बिलकुल नष्ट किया जा सकता है और कब उनके एक-एक अंग धीरे-धीरे क्षीण किये जा सकते हैं, इस बातको पहले खूब समझ लेना चाहिये!'
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'भगवान् श्रीकृष्ण आश्रितवत्सल हैं! ये भक्तोंके सामने दूसरोंकी ओर दृष्टि नहीं डालते! युधिष्ठिरके यज्ञमें इनका जाना अत्यन्त आवश्यक है! यदि वहाँ गये बिना ही शिशुपाल अथवा सिर्फ जरासन्धपर चढ़ाई कर दी जाय तो परिस्थिति बड़ी भयंकर हो जायगी! याद रहे, जरासन्ध या शिशुपालको ही मरना नहीं है! जैसे राजयक्ष्मा रोगोंका समूह है, वैसे ही वे दोनों दुष्ट दैत्यों और राजाओंके समूह हैं! उनसे लड़ाई छेड़ देनेपर उनका ताँता टूटना कठिन हो जायगा और हम पांडवोंकी सहायतासे भी वंचित रह जायँगे! सम्भव है, युधिष्ठिरके यज्ञमें भी विघ्न पड़ जाय और वे श्रीकृष्णके न जानेसे यज्ञ ही न करें! फिर पाण्डव हमलोगोंके बारेमें क्या सोचेंगे? जरासन्ध या शिशुपालने तो हमपर चढ़ाई की नहीं है कि आत्मरक्षाके लिये हम युधिष्ठिरके यज्ञमें न जायँ! हमे उनपर चढ़ाई करनी है और ऐसे अवसरपर अपने मित्र तथा सम्बन्धियोंके उत्सवमें भाग न लेकर किसीपर चढ़ाई कर देना मुझे तो निति-सांगत नहीं जान पड़ता!'


परन्तु प्रश्न इतना ही नहीं है! शिशुपालकी बात तो पीछे देखी जायगी! जरासन्धके कैदी राजाओंकि प्रार्थना उपेक्षा करनेयोग्य नहीं है! दिनोंकी, शरणागतोंकी रक्षा करना सभीका एकांत कर्तव्य है और भगवान् श्रीकृष्णने तो इसका व्रत ले रखा है! 


[३१]
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Monday 16 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव :..... गत ब्लॉग से आगे .... 


उद्धवने कहा -- 'जब अधिकांश लोगोंकी  यही सम्मति है की पहले अत्याचारियोंका नाश करना चाहिये और स्वयं बलराम भी इसी बातका समर्थन करते हैं तो में कुछ कहूँ, यह अप्रासंगिक होगा! तथापि भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणा है, वे चाहते हैं की मैं अपना मत सबके सामने रख दूँ तो मुझे अपनी बात कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है! यद्यपि नीतियाँ अनंत  हैं, उनके  वर्णन भी विभिन्न रूपोंमें हुए हैं परन्तु बहुत -सी बातोंका सार थोडेंमें  कहा जा सकता है! इसलिये विस्तार न करके कुछ थोड़े -से शब्द ही में कहूँगा! बुद्धिमान लोग थोड़ी -सी बातका भी विस्तार कर लेते हैं! परन्तु मुझमें ऐसी योग्यता नहीं की मैं अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कह सकूँ!


जो शत्रुओंपर विजय और अपने मित्रोंकी अभिवृद्धि चाहते हैं, उन्हें दो बातों का आश्रय लेना चाहिये -- प्रज्ञा और उत्साह! प्रज्ञाका अर्थ सुद्ध बुद्धि है और सुद्ध बुद्धि वही है, जो अंतर्मुख है, विश्वकल्याणके लिए जो स्वार्थका त्याग कर सकती  है! उत्साहका अर्थ है, अपनी शक्तिको समझकर उसके उचित उपयोगी इच्छा! यदि ये दोनों प्राप्त हों तो व्यवहारमें किसी प्रकारकी त्रुटी नहीं हो सकती! जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है, वे बाहर तो थोडा-सा ही स्पर्श करते हैं, परन्तु भीतर बहुत अधिक घुस जाते हैं;और जिनकी बुद्धि स्थूल है, वे मिट्टीके ढेलेके समान स्पर्श तो बहुत अधिक करते हैं परन्तु भीतर बहुत कम घुसते हैं! जिन्होंने भगवान् का आश्रय नहीं ले रखा है, वे छोटा-सा काम शुरू करते है और उसके लिए अत्यधिक व्यग्र हो जाते है! और जिन्होंने सुद्ध बुद्धि तथा भगवान् का आश्रय प्राप्त कर लिया है, वे बहुत -से काम करके भी निराकुल ही रहते हैं!


[३०]  

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Friday 13 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.....


(५)


सभी धर्मोका लक्ष्य प्रेमधर्म है! सभी नीतियोंका उदेश्य प्रेमनीतिपर पहुँचना है! प्रेम धर्मोंसे परे है, नीतियोंसे परे है, परन्तु सब धर्म, सब नीतियाँ प्रेमके अन्तर्भूत हैं! वह धर्म, धर्म नहीं जिसमें प्रेम न हो! वह निति, निति नहीं जिसमें प्रेम न हो! प्रेम व्यापक है और धर्म तथा निति व्याप्य! इनके बिना वह रह सकता है परन्तु उसके बिना ये  नहीं रह सकते! सम्पूर्ण नीतियोंका ज्ञान हो परन्तु प्रेमनितीका ज्ञान न हो तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं! प्रेमनिती भगवान् की निति है, उनके सब अपने हैं, सबके साथ उनका प्रेम है और जो उनके आश्रित हैं, उनके साथ तो विशेष प्रेम है! आश्रितवत्सलता भगवान् की निति है और यह प्रेमसे भरी हुई है! भगवान् के भक्त इस बातको जानते हैं और सर्वदा उसीके अनुकूल व्यवहार करते हैं!  


यह बात पहले ही कही जा चुकी है की उद्धव ब्रहस्पति-नीतिके पुरे विद्वान् थे! यदुवंशी मतभेदके अवसरोंपर उनसे सलाह लिया करते थे परन्तु उस समय उद्धव भगवान् की निति अथवा प्रेमनितीके विद्वान नहीं थे! अब वे गोपियोंके पास जाकर प्रेमधर्मकी सिक्षा प्राप्त कर आये थे! भगवान् की नीतिका उन्हें पता था! समय -समयपर श्रीकृष्ण अपने मनकी बात स्वयं न कहकर उन्हींसे कहलाया करते थे!


उन दिनों युधिष्ठिरके यहाँ राजसूय-यज्ञ होनेवाला था! द्वारकामें भगवान् को वहाँका निमन्त्रण मिल चूका था! दूसरी ओर जरासंधके अत्याचारसे त्रस्त और उसके कैदी हजारों राजाओंकी प्रार्थना यह थी की भगवान् जरासंधको मारकर  हमारी रक्षा करें! देवर्षि नारदने आकर भगवान् से कहा था की अब आप शीघ्र ही शिशुपालको मारें! उसके कारण संसारमें बड़ा उत्पात मचा हुआ है! इस अवसरपर अधिकांश यदुवंशियों और बलरामकी यह सम्मति थी की पहले जरासंध और शिशुपालको मारा जाय! यही हमलोगोंका प्रधान कर्तव्य है! जरासंध और शिशुपालके अत्याचारोंसे सब जले हुए थे! वे कहते थे की 'युधिष्ठिरका यज्ञ तो हमारे बिना भी पूरा हो सकता है! वहाँ जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णके मनमें पांडवोंका आकर्षण अधिक था! वे चाहते थे की युधिष्ठिर, अर्जुन और द्रौपदीका मन न टूटे, मेरी प्रसन्नताके लिये ही वे यज्ञ कर रहे हैं, मैं न रहूँगा तो वे यज्ञ न कर सकेंगे! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने स्वंय ही यह बात नहीं कही, सबके सामने उद्धवको अपना सम्मति प्रकट करनेके लिये प्रेरित किया! 


[३०]
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Thursday 12 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: .... गत ब्लॉग से आगे.... 


नंदबाबाने, ग्वालबालोंने उद्धवसे कहा - 'उद्धव! अब तो तुम जा ही रहे हो! श्रीकृष्णको हमारी याद दिलाना! यह मक्खन, यह दही और ये वस्तुएँ उन्हें देना! यह बलरामको देना, यह उग्रसेनको देना और यह वासुदेवको देना! हम और कुछ  नहीं चाहते, केवल यही चाहते हैं की हमारी वृत्तियाँ श्रीकृष्णके चरण -कमलोंमें लगी रहें! हमारी वाणीसे उन्हींके मंगलमय मधुरतम नामोंका उच्चारण होता रहे और शरीर उन्हींकी सेवामें लगा रहे! हमें मोक्षकी आकांक्षा नहीं, कर्मके अनुसार हमारा शरीर चाहे जहाँ कहीं रहे, हमारे शुभ आचरण और दान का यही फल हो की श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारा अहैतुक प्रेम बना रहे! 


उद्धव मथुरा लौट आये! जानेके समय वे माथुरोंके वेशमें गए थे और लौटनेके समय ग्वालोंके वेशमें आये! उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा -- 'श्रीकृष्ण! तुम बड़े निष्ठुर हो! तुम्हारी करुणा, तुम्हारी रसिकता सब कहनेभरकी है! मैंने व्रजमें जाकर तुम्हारा निष्ठुर रूप देखा है, जो तुम्हारे आश्रित हैं, जिन्होंने तुम्हें आत्मसमर्पण कर दिया हैं, उन्हें इस प्रकार कुएँमें डाल रहे हो, भला, यह कौन-सा धर्म हैं? छोडो मथुरा, अब चलो वृन्दावन! वहीं रहो और अपने प्रेमियोंको सुखी करो! औरोंकी संगती छोड़ दो, प्रेमका नाम बदनाम मत करो!' उद्धव श्रीकृष्णके सामने रोने लगे, वृन्दावन चलनेके लिए हठ करने लगे! उनकी हिचकी बँध गयी, एक-एक करके सभी बाते कह गए! 

श्रीकृष्णकी आँखोंमें भी आँसू आये बिना न रहे! वे प्रेमविष्ट हो गए उनकी सुध- बुध जाती रही! उस समय उनका सच्चा स्वरुप प्रकट हो गया और उद्धवने देखा की श्रीकृष्णका रोम-रोम गोपिकामय हैं! जब श्रीकृष्ण सावधान हुए तब उन्होंने उद्धव से कहा -- प्यारे उद्धव! यह सब तो लीला है! हम और गोपियाँ अलग-अलग नहीं है! जैसे मुझमें वे हैं, वैसे ही उनमें मैं हूँ! प्रेमियोंके आदर्शके लिये यह संयोग और वियोगकी लीला की जाती है!' उद्धवका समाधान हो गया! उन्होंने सबके भेजे उपहार दे दिए और श्रीकृष्णके पास रहकर वे प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करने लगे! 


[२८]
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Tuesday 10 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे....


आह! श्रुतियाँ जिनके चरण-चिह्नोंकी खोजमें ही लगी हैं, ये गोपियाँ उन्हें पाकर, उनसे एक होकर उनके प्रेममें तन्मय हो गयी हैं! क्यों न हो, स्वजन और  आर्यपथका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंको अपना लेना आसन थोडें ही है! लक्ष्मी जिनकी अर्चना करती हैं, आप्तकाम आत्माराम जिनका ध्यान करते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल अपने हृदयपर रखकर इन्होंने हृदयकी जलन शांत कि है! मैं तो इनकी चरणधूलिका भी अधिकारी नहीं हूँ! मैं चरणधूलिकी ही वंदना करता हूँ!' उद्धव उनकी चरणधूलिमें लोटने लगते! दो दिनके लिए आये थे, महीनों बीत गए!


मथुरा जानेके दिन उद्धवके सिरपर  हाथ रखकर राधाने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो! तुम्हारा सर्वदा कल्याण हो! भगवान् से तुम्हें परमज्ञान प्राप्त हो और तुम सर्वदा भगवान् के परम प्रेमपात्र रहो! सर्वश्रेष्ट कर्म उन्हें प्रसन्न करनेवाला कर्म है! सर्वश्रेष्ट जीवन उन्हें समर्पित जीवन है! उसी व्रत, ज्ञान और तपस्याकी सफलता है जो उनके उद्देश्यसे है! उद्धव! वही पराप्तर परीपूर्णतम ब्रह्मा हैं! श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं, ज्योतिः स्वरुप हैं! तुम उन्हीं परमान्दस्वरुप नन्दनंदन की सेवा करो! सारे उपदेशोंकी सफलता इसीमें है! उद्धवको ऐसा अनुभव हुआ, मानों मैंने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया! वे अपना वस्त्र गलेमें बाँधकर राधाके चरणोंसे लिपट गये! शरीर पुलकित, आँखोंमें आँसू और राधाके वियोग्से कातर होकर जोर-जोरसे रोना! बस यही उद्धवकी दशा थी, वे वहाँसे जाना ही नहीं चाहते थे! गोपियोंने बहुत समझाया, राधाने श्रीकृष्णके लिये बाँसुरी और बहुत-से उपहार दिये तथा कहा कि जाकर तुम यही प्रयत्न करना कि श्रीकृष्ण यहाँ आवें, मैं उन्हें देख सकूँ! राधाकी अनुमति प्राप्त करके उद्धव नन्दबाबाके पास गये!


[२७]

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Thursday 5 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.......


चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार
मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पिडाका किसे विश्वास होगा? मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे- जैसी दुखिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है! मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी! दैवने मुझे ठग लिया! उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं! उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं! उनकी मधुस्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है! मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है! मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ! मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ? ऐसी कोई वास्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ! स्थितिकी गति संभव है परन्तु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है!' राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं, वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे! करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा! 


उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे! वे राधासे अनेकों प्रसन्न करते और प्रेमका रहस्यज्ञान प्राप्त करते, ग्वालोंके साथ वनोंमें घूमते, नन्द-यशोदाके साथ श्रीकृष्णलीलाका कीर्तन और श्रवण करते, गौओंके साथ खेलते, वृक्षोंका आलिंगन करते और लताओंको देखते ही रह जाते! उनका रोम - रोम प्रेममय हो गया, वे ग्वाले हो गये! पता नहीं परन्तु पता है भी की उनका हृदय गोपिभावमाय हो गया! वे वन-वनमें गाते हुए विचरने लगे! उनके हृदयसे यह संगीत निकलने लगा- ' केवल गोपियोंका जन्म ही सार्थक है! यही वास्तवमें श्रीकृष्णकी अपनी हो सकी हैं! ब्राह्मण होनेसे क्या हुआ, जब श्रीकृष्णमें प्रेम नहीं! बड़े-बड़े मुनि जिसकी लालसा करते रहते हैं, वह इन गोपियोंको प्राप्त हो गया! कहाँ ये वनमें रहनेवाली गाँवकी गवाँर ग्वालिनें और कहाँ श्रीकृष्णमें इनका अनन्त प्रेम! परन्तु इससे क्या हुआ, जानें या न जानें, ज्ञान हो या न हो, श्रीकृष्णसे प्रेम होना चाहिये! अनजानमें भी अमृत पि लिया जाय तो लाभ होता ही है! बिना जाने भी  श्रीकृष्णसे प्रेम हो जाय तो वे अपनाते ही हैं! देवपत्नियोंको, इन्दिरा लक्ष्मीको जो प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ वह इन गोपियोंको प्राप्त हुआ है! ये श्रीकृष्णके शरीरका स्पर्श प्राप्त करके कृतार्थ हो गयी हैं! मैं अब वृन्दावनमें ही रहू! मनुष्य न सही, पशु-पक्षी ही सही, वृक्ष ही सही और नहीं तो एक तिनका ही सही! इनके चरणोंकी धूलि तो प्राप्त होगी न! 


[२६]

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Wednesday 4 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे.....


चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार


अनेकों प्रकारके दान देकर उद्धवको भोजनपान कराकर उन्हें वर दिया कि 'तुम्हें सब सिद्धियाँ मिल जायँ, तुम भगवान् के दास बने रहो और तुम्हें उनकी पराभक्ति प्राप्त हो! उद्धव! तुम उनके पार्षद और श्रेष्ट पार्षद होओ! 


जब उद्धव विदा होनेके लिये श्रीराधासे अनुमति लेनेको आये तब श्रीराधाने कहा - 'उद्धव! हम अबला हैं! हमारे हृदयका हाल कौन जान सकता है? मुझे भूलना मत, मैं विरहसे कातर हो रही हूँ! मेरे लिये घर और वनमें अब कोई भेद नहीं रह गया है! पशु और मनुष्य एक-से जान पड़ते हैं! जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्तिमें कोई अंतर नहीं दीख पड़ता! चंद्रमा-सूर्यका उदय, रात और दिनका होना -जाना मुझे मालूम नहीं है! मुझे अपनी ही सुधि नहीं रहती! श्रीकृष्णके आनेकी बात, उनकी लीला सुनकर, गाकर कुछ क्षणोंके लिये सचेतन हो जाती हूँ! मुझे चारों और श्रीकृष्ण -ही -कृष्ण दीखते हैं, मैं निरंतर मुरली-ध्वनि ही सुनती हूँ! मुझे किसीका भय नहीं हैं! किसीकी लज्जा नही है! कुलकी परवाह नहीं है! मैं उन्हींको जानती हूँ! उन्हींको भजति हूँ! ब्रह्मा, शंकर और विष्णु जिनकी चरणधूलि पानेके लिये उत्सुक रहते हैं उन्हें पाकर मैं उनसे बिछुड़ गयी! मेरा कितना दुर्भाग्य है, कोई मेरा हृदय चीरकर देख ले! उनके अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है! उद्धव! क्या अब उनके साथ क्रीडा करनेका-प्रेम सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त होगा? क्या अब वृन्दावनके कुंजोंमें अपने हाथोंसे मालती, माधवी, चम्पा और गुलाबके फूलोंकी  माला गूँथकर उन्हें नहीं पहनाऊँगी? अब वे वसंतऋतूकी मधुर राजनियाँ, जिनमें राधा और माधव विहरते थे, पुनः न आयेंगे? ' राधा पुनः मूर्छित हो गयीं! 


सखियोंके और उद्धवके जगानेपर राधा पुनः होशमें आयीं और कहने लगीं -'उद्धव! इस शोक -सागरसे मुझे बचाओ! मुझे समझाने -बुझानेसे कोई लाभ नहीं होगा! उनकी बातें याद करके मेरा मन चंचल हो रहा है! विरहिनीकी वेदना विरहिनी ही जान सकती है! सीताको  कुछ-कुछ इसका अनुभव हुआ था! 


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