प्रेमी भक्त उद्धव: .... गत ब्लॉग से आगे....
नंदबाबाने, ग्वालबालोंने उद्धवसे कहा - 'उद्धव! अब तो तुम जा ही रहे हो! श्रीकृष्णको हमारी याद दिलाना! यह मक्खन, यह दही और ये वस्तुएँ उन्हें देना! यह बलरामको देना, यह उग्रसेनको देना और यह वासुदेवको देना! हम और कुछ नहीं चाहते, केवल यही चाहते हैं की हमारी वृत्तियाँ श्रीकृष्णके चरण -कमलोंमें लगी रहें! हमारी वाणीसे उन्हींके मंगलमय मधुरतम नामोंका उच्चारण होता रहे और शरीर उन्हींकी सेवामें लगा रहे! हमें मोक्षकी आकांक्षा नहीं, कर्मके अनुसार हमारा शरीर चाहे जहाँ कहीं रहे, हमारे शुभ आचरण और दान का यही फल हो की श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारा अहैतुक प्रेम बना रहे!
उद्धव मथुरा लौट आये! जानेके समय वे माथुरोंके वेशमें गए थे और लौटनेके समय ग्वालोंके वेशमें आये! उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा -- 'श्रीकृष्ण! तुम बड़े निष्ठुर हो! तुम्हारी करुणा, तुम्हारी रसिकता सब कहनेभरकी है! मैंने व्रजमें जाकर तुम्हारा निष्ठुर रूप देखा है, जो तुम्हारे आश्रित हैं, जिन्होंने तुम्हें आत्मसमर्पण कर दिया हैं, उन्हें इस प्रकार कुएँमें डाल रहे हो, भला, यह कौन-सा धर्म हैं? छोडो मथुरा, अब चलो वृन्दावन! वहीं रहो और अपने प्रेमियोंको सुखी करो! औरोंकी संगती छोड़ दो, प्रेमका नाम बदनाम मत करो!' उद्धव श्रीकृष्णके सामने रोने लगे, वृन्दावन चलनेके लिए हठ करने लगे! उनकी हिचकी बँध गयी, एक-एक करके सभी बाते कह गए!
श्रीकृष्णकी आँखोंमें भी आँसू आये बिना न रहे! वे प्रेमविष्ट हो गए उनकी सुध- बुध जाती रही! उस समय उनका सच्चा स्वरुप प्रकट हो गया और उद्धवने देखा की श्रीकृष्णका रोम-रोम गोपिकामय हैं! जब श्रीकृष्ण सावधान हुए तब उन्होंने उद्धव से कहा -- प्यारे उद्धव! यह सब तो लीला है! हम और गोपियाँ अलग-अलग नहीं है! जैसे मुझमें वे हैं, वैसे ही उनमें मैं हूँ! प्रेमियोंके आदर्शके लिये यह संयोग और वियोगकी लीला की जाती है!' उद्धवका समाधान हो गया! उन्होंने सबके भेजे उपहार दे दिए और श्रीकृष्णके पास रहकर वे प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करने लगे!
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