Friday 23 December 2011

शरीर से प्राण कब चले जाये पता नहीं, अतः सदा तैयार रहना चाहिये । वह तैयारी है - भगवान की नित्य निरन्तर मधुर स्मृति और भोगों से सर्वथा उपरत रहना ।

जिसको हम सदा के लिए अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ ।

प्रेम रूप सूर्य का उदय होते ही मोह रूप अन्धकार मिट जाता है । प्रेम से इच्छाऒं की निवृत्ति और मोह से इच्छाऒं की उत्पत्ति होती है । प्रेम अपने से, और मोह शरीर से होता है । प्रेम एक से और मोह अनेक से होता है । प्रेम के उदय होते ही विषय विकार मिट जातें हैं । प्रेमी को अनेक में एक ही मालूम होता है ।

एक ही भगवान अनेक रूपों में दीख रहे हैं, इसलिए सबकी सेवा भगवान की ही सेवा है ।
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Tuesday 20 December 2011





देहाभिमान ही पाप है और यही सबसे बड़ी अपवित्रता है! या तो अपनेको ईश्वरका पवित्र अभिन्न अंश आत्मा मानो या उस प्राणेश्वर प्रभुका दास मानो, आत्मा तो पवित्र और बलवान है ही, प्रभुका दास भी स्वामीकी सत्तासे, मालिकके बलसे मालिकके समान ही पवित्र और बलवान बन जाता है! 


ईश्वरकी कभी सीमा न बाँधों, वह अनिर्वचनीय है, साकार भी है, निराकार भी है तथा दोनोंसे विलक्षण भी है! भक्त उसे जिस भावसे भजता है, वह उसी भावमें प्रत्येक्ष है; यही तो ईश्वरत्व है! 


ईश्वरका स्वरूप या सृष्टिरचनाके सिद्धान्तका निर्णय करनेके बखेड़ेमें न पड़कर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक किसी भी एक मार्गको पकड़कर आगे बढ़ना शुरू कर दो! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ोगे, रहस्य आप ही खुलता जायगा! चलना शुरू न कर, व्यर्थ ही निर्णयमें लगे रहोगे तो किसी-न-किसीके मतके आग्रही बनकर जीवनको लड़ाई-झगडेमें ही वर्थ खो दोगे, तत्त्वकी प्राप्ति शास्त्रार्थसे नहीं होती, गुरुदेवकी सेवा और उनके बतलाये हुए मार्गपर श्रद्धापूर्वक चलनेसे ही होती है! 





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Thursday 15 December 2011




ईश्वर सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है, इस बातको कभी न भूलो ! ईश्वरको साथ जाननेका भाव तुम्हें निर्भय और निष्पाप बनानेमें बड़ा मददगार होगा! यह कल्पना नहीं है, सचमुच ही ईश्वर सदा सबके साथ है! 


ईश्वरके अस्तित्वपर विश्वास बढ़ाओ, जिस दिन ईश्वरकी सत्ताका पूर्ण निश्चय हो जायगा, उस दिन तुम पापरहित और ईश्वरके सम्मुख हुए बिना नहीं रह सकोगे !


अपनेको सदा बलवान् निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र बनाओ, ऐसा बनाने के लिये यह निश्चय करना होगा कि मैं वास्तवमें ऐसा ही हूँ! असलमें बात भी यही है! तुम शारीर नहीं,आत्मा हो! आत्मा सदा ही बलवान्, निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र है; देहको 'मैं' माननेसे  ही निर्बलता, बीमारी, अशक्ति और अपवित्रता आती है ! 


देहको 'मैं' मानकर कभी अपनेको बलवान्, निरोग, शक्ति-सम्पन्न और पवित्र मत समझो, यों समझोगे तो झूठा अभिमान बढ़ेगा; क्योंकि देहमें ये गुण हैं ही नहीं!   
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Wednesday 14 December 2011


पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार





घंटेभरके लिये भी कोई आदमी तुमसे मिले तो अपने प्रेमपूर्ण सरल व्यवहारसे उसके हृदयमें अमृत भर दो, सावधान रहो, तुम्हारे पाससे कोई विष न ले जाय! हृदयसे विषको सर्वथा निकालकर अमृत भर लो और पद-पदपर केवल वही अमृत वितरण करो! 


वर्ण, जाती, विद्या, धन या पदमें बड़े हो, इसलिये अपनेको बड़ा मत समझो; याद रखो, सबमें एक ही राम रम रहा है! छोटा-बड़ा व्यवहार है न कि  आत्मा ! 


व्यवहारमें सब प्रकारकी समता असम्भव और हानिकर है, इससे व्यवहारमें आवश्यकतानुसार विषमता रखते हुए भी मनमें समता रखो ! आत्मरूपसे सबको एक-समझो! किसीको अपनेसे छोटा समझकर उससे घृणा न करो, न अपनेमें बड़प्पनका अभिमान ही आने दो ! 


बड़ा वही है, जो अपनेको सबसे छोटा मानता है! यह मंत्र सदा स्मरण रखो ! 
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Tuesday 13 December 2011




गत ब्लॉग से आगे ... 


मनके पैदा होनेवाले प्रत्येक संकल्पके साथ राग-द्वेष रहता है, उसीके अनुसार वह सुख या दुःख का अनुभव करता है तथा इसी राग द्वेषके कारण दूसरोंमें गुण या दोष दिखेते हैं ! जिसमे राग होता है, उसके दोष भी गुण दीखते हैं और जिसमें द्वेष होता है, उसका गुण भी दोष दीखता है ! राग-द्वेषका चश्मा उतरे बिना किसीके यथार्थ रूपकी जानकारी नहीं हो सकती !


मनमें उठनेवाली प्रत्येक स्फुरणाके द्रष्टा बन जाओ,स्फुरणाओंका शीघ्र ही नाश हो जायगा; मनको वशमें करनेका यह बहुत सुन्दर तरीका है ! इसी प्रकार राग-द्वेषके द्रष्टा बननेसे राग-द्वेषके नष्ट होनेमें सहायता मिलेगी ! 


जीवन बहुत थोड़ा है, सबसे प्रेमपूर्वक हिल-मिलकर चलो, सबसे अच्छा बर्ताव करो, अमृतका विस्तार कर जाओ, विषकी बूँद भी कहीं न डालो! तुम्हारा प्रेमपूर्वक व्यवहार अमृत है और द्वेषपूर्ण व्यवहार ही विष है ! 

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Monday 12 December 2011



याद रखो कि उपकार या सेवा करनेवालेके प्रति कृतज्ञ होकर मनुष्य जगत् की एक बड़ी सेवा करता है, क्योंकि इससे उपकार  करनेवालेके चित्तको सुख पहुँचता है, उसका उत्साह बढ़ जाता है और उसके मनमे उपकार या सेवा करनेकी भावना और भी प्रबल हो उठती है! कृतज्ञके प्रति परमात्मा की प्रसन्नता और कृत्घ्नके प्रति कोप होता है! इससे कृतज्ञ बनो और  उपकारीके उपकारको कभी न भूलो! 


हमें जो दूसरोंमें दोष दिखायी देते हैं, इसका प्रधान कारण अक्सर हमारे चित्तकी दूषित वृत्ति ही  होती है! अपने चित्तको निर्दोष बना लो, फिर जगत् में दोषी बहुत ही कम दीखेंगे! 


अपने दोषोंको देखनेकी आदत डालो, बड़ी सावधानीसे ही अपने मनके दोषोंको देखो, तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारा मन दोषोंसे भरा है, फिर दूसरोंके दोष देखनेकी तुम्हें फुरसत नहीं मिलेगी ! 








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Saturday 10 December 2011




याद रखो 


दुसरेके द्वारा तुम्हारा तनिक-सा भी उपकार या भला हो अथवा तुम्हें सुख पहुँचे तो उसका ह्रदय से उपकार मानो, उसके प्रति कृतज्ञ बनो, यह मत समझो कि  यह काम मेरे प्रारब्धसे हुआ है, इसमें उसका मेरे ऊपर क्या उपकार है, वह तो निमित्तमात्र है! बल्कि यह समझो कि उसने निमित्त बनकर तुमपर बड़ी ही दया कि है! उसके उपकारको जीवनभर स्मरण रखो, स्थिति बदल जानेपर उसे भूल न जाओ और सदा उसकी सेवा करने तथा उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा करो; काम पडनेपर     हजारों आदमियोंके सामने भी उसका उपकार स्वीकार करनेमें संकोच न करो; ऐसा करनेसे परस्पर प्रेम बढेगा, आनन्द और शान्तिकी वृद्धि होगी, लोगोंमें दुसरोंको सुख पहुँचानेकी प्रवृत्ति  और इच्छा अधिकाधिक उत्पन्न होगी; सहानुभूति और सेवाके भाव बढेंगे!  
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Friday 9 December 2011




गत ब्लॉग से आगे .....


उसके प्रति द्वेष कभी न करो! द्वेष करोगे तो तुम्हारे मनमें वैर, हिंसा  आदि अनेक नये -नये पापोंके संस्कार पैदा हो जायँगे, उसका मन भी शुद्ध नहीं  रहेगा, उसमें पहले वैर न रहा होगा तो अब तुम्हारे असद्व्यव्हारसे पैदा हो जायगा! द्वेषाग्निसे दोनोंका ह्रदय जलेगा, वैर-भावना परस्पर दोनोंको दु:खी करेगी और पापमें डालेगी ! अतएव इस बातको सर्वथा भूल जाओ की अमुकने कभी मेरा कोई अनिष्ट किया है 


पापी मनुष्य ही अपने पापोंका दोष हल्का करने या पापोंमें प्रवृत्त होनेके लिये शास्त्रोंका मनमाना अर्थ कर उससे अपना मनोरथ सिद्ध किया चाहते हैं ! भगवान् श्रीकृष्णमें कलंक नहीं है, पापियोंकी पापवासना ही उनमें कलंकका आरोप करती है ! 


श्रीकृष्णका उदाहरण देकर पाप करनेवाले ही कलंकी हैं, श्रीकृष्णका निर्मल चरित्र तो नित्य ही निष्कलंक है ! 
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Thursday 8 December 2011




भूल जाओ 


गत ब्लॉग से आगे ----


सम्भव है कि  उससे किसी परिस्थितिमें पड़कर भ्रमसे ऐसा काम बन गया  हो, जिससे तुम्हें कष्ट पहुँचा हो, परन्तु अन वह अपने कियेपर पछताता हो, उसके हृदयमें पश्चातापकी आग जल रही हो और वह संकोचमें पड़ा हुआ हो, ऐसी अवस्थामें तुम्हारा कर्त्तव्य है कि उसके साथ प्रेम करो, अच्छे -से अच्छा व्यवहार करो! उससे स्पष्ट कह दो कि भाई  ! तुम पश्चाताप क्यों  कर रहे हो? तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है ? मुझे जो कष्ट हुआ है सो मेरे पूर्वकृत  कर्मका फल है ! तुमने तो मेरा उपकार किया है जो मुझे अपना कर्मफल भुगातनेमें कारण बने हो, संकोच छोड़ दो !  तुम्हारे सच्चे हृदयकी इन सच्ची बातोंसे उसके हृदयकी  आग बुझ जायगी, वह चेतेगा,आइन्दे किसीका बुरा न करेगा ! यदि वास्तवमें कुबुद्धिवश उसने जानकार ही  तुम्हें कष्ट पहुँचाया होगा और इस बातसे उसके मनमें पश्चातापके बदले आनन्द होता होगा तो तुम्हारे अच्छे  बर्ताव और प्रेम-व्यव्हारसे उसके हृदयमें पश्चाताप उत्पन्न  होगा, तुम्हारी महत्ता के सामने उसका सिर आप ही झुक जायगा ! उसका ह्रदय पवित्र हो जायगा! यह निश्चय है! कदाचित् ऐसा न हो तो भी तुम्हारा कोई हर्ज नहीं, तुम्हारा अपना मन तो सुन्दर प्रेमके व्यवहारसे शुद्ध और शीतल रहेगा ही !  
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Wednesday 7 December 2011




भूल जाओ 


दुसरेके द्वारा तुम्हारा कभी कोई अनिष्ट हो जाय तो उसके लिये दुःख न करो; उसे अपने पहले किये हुए बुरे कर्मका फल समझो, यह विचार कभी मनमें मत आने दो कि 'अमुकने मेरा अनिष्ट कर दिया है, यह निश्चय समझो कि ईश्वरके दरबारमें अन्याय नहीं होता, तुम्हारा जो अनिष्ट हुआ है या तुमपर जो  विपत्ति आयी है, वह अवश्य ही तुम्हारे पूर्वकृत कर्मका फल है, वास्तवमें बिना कारण तुम्हे कोई कदापि कष्ट नहीं पहुँचा सकता ! न यही सम्भव है कि कार्य पहले हो और कारण पीछे बने, इसलिये तुम्हे जो कुछ भी दुःख प्राप्त होता है, सो अवश्य ही तुम्हारे अपने कर्मोंका फल है; ईश्वर तो तुम्हे पापमुक्त करनेके लिये दयावश न्यायपूर्वक फलका विधान करता है ! जिसके द्वारा तुम्हे दुःख पहुँचा है उसे तो केवल निमित्त समझो; वह बेचारा अज्ञान और मोहवश निमित्त बन गया है; उसने तो अपने ही हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारी है और तुम्हे कष्ट पहुँचानेमें निमित्त बनकर अपने लिये दु;खोंको निमन्त्रण दिया है; यह तो समझते ही होंगे कि जो स्वयं दु:खोकों बुलाता है वह बुद्धिमान् नहीं है, भुला हुआ है; अतः वह दयाका पात्र है ! उसपर क्रोध न करो, बदलेमें उसका बुरा न चाहो, कभी उसकी अनिष्टकामना न करो, बल्कि भगवान् से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! इस भूले हुए जीवको सन्मार्गपर चढ़ा दो! इसकी सदबुद्धिको जाग्रत कर दो; इसका भ्रमवश किया हुआ अपराध क्षमा  करो ! 
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Tuesday 6 December 2011


                                    गीता -जयन्ती




याद रखो 
  
यदि कभी किसी जीवको तुम्हारे द्वारा कुछ भी कष्ट पहुँच जाय  तो उससे क्षमा माँगो, अभिमान छोड़कर उसके सामने हाथ जोड़कर उससे दया- भिक्षा चाहो, हजार आदमियोंके सामने भी अपना अपराध स्वीकार करनेमें संकोच न करो, परिस्थिति बदल जानेपर भी अपनी बात  न बदलो, उसे सुख पहुँचाकर उसकी सेवा करके अपने प्रति उसके ह्रदयमें सहानुभूति और प्रेम उत्पन्न कराओ ! यह ख़याल मत करो कि कोई मेरा क्या कर सकता है ? मैं सब तरहसे बलवान् हूँ, धन,विद्या,पद आदिके कारण बड़ा हूँ ! वह कमजोर-अशक्त मेरा क्या बिगाड़ सकेगा? ईश्वरके दरबारमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है! वहाँके न्यायपर तुम्हारे धन, विद्या और पदोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ! कमजोर-गरीबकी दुःखभरी आह तुम्हारे अभिमानको चूर्ण करनेमें समर्थ होगी! तुम्हारे द्वारा दुसरेके अनिष्ट होनेकी छोटी-से-छोटी घटना भी तुम्हारे हृदयमें सदा शूलकी तरह चुभने चाहिये, तभी तुम्हारा ह्रदय शीतल होगा और तुम पापमुक्त हो सकोगे ! 
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Monday 5 December 2011



याद रखो 


तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीका कभी कुछ भी अनिष्ट हो जाय या उसे दुःख पहुँच जाय तो इसके लिये बहुत ही पश्चात्ताप करो ! यह ख़याल मत करो कि उसके भाग्यमें तो दुःख बदा ही था, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, मैं निमित्त न बनता तो उसको कर्मका फल ही कैसे मिलता, उसके भाग्य से ही ऐसा हुआ है, मेरा इसमें क्या दोष है, उसके भाग्यमें जो कुछ भी हो इससे तुम्हें मतलब नहीं ! तुम्हारे लिये ईश्वर और शास्त्रकी यही आज्ञा है कि तुम किसीका अनिष्ट न करो! तुम किसीका बुरा करते हो तो अपराध करते हो और इसका दण्ड तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा; उसे कर्मफल भुगतानेके लिये ईश्वर आप ही कोई दूसरा निमित्त बनाते, तुमने निमित्त बनकर पापका बोझा क्यों उठाया? 


याद रखो कि तुम्हें जब दुसरेके द्वारा जरा-सा भी कष्ट मिलता है, तब तुम्हें कितना दुःख होता  है, इसी प्रकार उसे भी होता है! इसलिये कभी भूलकर भी किसीके अनिष्टकी भावना ही न करो, ईश्वरसे सदा यह प्रार्थना करते रहो कि ' हे भगवन् ! मुझे ऐसी सदबुद्धि दो जिससे मैं तुम्हारी सृष्टिमें तुम्हारी किसी भी संतानका अनिष्ट करने या उसे दुःख पहुँचानेमें कारण न बनूँ ! सदैव सबकी सच्ची हित-कामना करो और यथासाध्य सेवा करनेकी वृत्ति रखो! कोढ़ी, अपाहिज, दु;खी-दरिद्रको देखकर यह समझकर कि 'यह अपने बुरे कर्मोंका फल भोग रहा है; जैसा किया था वैसा ही पाता है'-- उसकी उपेक्षा न करो, उससे घृणा न करो और रुखा व्यवहार करके उसे कभी कष्ट न पहुँचाओ ! वह चाहे पूर्वका कितना ही पापी क्यों न हो, तुम्हारा काम उसके पाप देखनेका नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य तो अपनी शक्तिके अनुसार उसकी भलाई करना तथा उसकी सेवा करना ही है! यही भगवान् की तुम्हारे प्रति आज्ञा है ! यह न कर सको तो कम-से-कम इतना तो जरुर ख़याल रखो जिससे तुम्हारे द्वारा न तो किसीको कुछ भी कष्ट पहुँचे और न किसका अनिष्ट ही हो! तुम किसीसे घृणा करके उसे दुःख पहुँचाते हो तो पाप करते हो, जिसका बुरा फल तुम्हें जरुर भोगना पड़ेगा ! 

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Sunday 4 December 2011


                                         भूल जाओ 




तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीकी कभी कोई सेवा हो जाय तो यह अभिमान न करो कि मैंने उसका उपकार किया है ! यह निश्चय समझो कि उसको तुम्हारे द्वारा बनी हुई सेवासे जो सुख मिला है सो निश्चय ही उसके किसी शुभकर्मका फल है! तुम तो उसमें केवल निमित्त बने हो, ईश्वरका धन्यवाद करो  जो उसने तुम्हें किसीको सुख पहुँचानेमें निमित्त बनाया और उस प्राणीका उपकार मानो जो उसने तुम्हारी सेवा स्वीकार कि ! वह यदि तुम्हारा उपकार माने या कृतज्ञता प्रकट करे तो मन-ही-मन सकुचाओ और भगवान् से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! तुम्हारे कार्यमें मुझे यह झूठी बढाई क्यों मिल रही है ? और उससे नम्रतापूर्वक कहो कि भाई ! तुम ईश्वरके प्रति कृतज्ञ होओ, जिसने तुम्हारे लिये ऐसा विधान किया और पुनः -पुनः सत्कर्म करते रहो, जिनके फलस्वरूप तुम्हें बार-बार सुख ही मिले! मैं तो निमित्त-मात्र हूँ, मेरी बढाई करके मुझे अभिमानी न बनाओ !


उसपर कभी अहसान न करो कि मैंने तुम्हारा उपकार किया है ! अहसान करोगे तो उसपर भारी बोझ  पड़ जायगा ! वह दु:खी होगा, आइन्दे तुम्हारी सेवा स्वीकार करनेमें उसे संकोच होगा ! उसके अहसान न माननेसे तुम्हें दुःख होगा, तुम उसे कृतघ्न समझोगे, परिणाममें तुम्हारे और उसके दोनोंके हृदयोंमें द्वेष उत्पन्न हो जायगा ! इस बातको भूल ही जाओ कि मैंने किसीकी सेवा की है !  




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Saturday 3 December 2011






निर्दोष सत्यकार्यको किसी भय, संकोच या अल्प मतिके कारण कभी छोड़ना नहीं चाहिये ! कार्यकी निर्दोषता,उसकी उपकारिता और तुम्हारी श्रद्धा, नेकनीयत तथा टेकके प्रभावसे आज नहीं तो कुछ समय बाद लोग उस कार्यको जरुर अच्छा समझेंगे ! 


याद रखना चाहिये कि संसारके सुखोंकी अपेक्षा परमात्मसुख अतयन्त विलक्षण है, अतः संसार-सुखके लिये परमात्मसुखकी चेष्टामें कभी बाधा नहीं पहुँचानी चाहिये ! 


कर्त्तव्यमें प्रमाद न करना ही सफलताकी कुंजी है और उसीपर परमात्माकी कृपा होती है, आलसी और कर्तव्यविमुख लोग उसके योग्य नहीं ! 


किसीके मुँहसे कोई बात अपने विरूद्ध सुनते ही उसे अपना विरोधी मत मान बैठो, विरोधका कारण ढूँढो और उसे मिटानेकी सच्चे हृदयसे चेष्टा करो! हो सकता है तुमसे ही कोई दोष हो जो तुम्हें अबतक न दिख पड़ा हो अथवा वह ही बिना बुरी नियतके ही किसी परिस्थितिके प्रवाहमें बह गया हो ! ऐसी स्थितिमें शान्ति और प्रेमसे काम लेना चाहिये ! 


अपने हृदयको सदा टटोलते रहना ही साधकका कर्त्तव्य है, उसमें घृणा, द्वेष, हिंसा,वैर,मान-अहंकार , कामना आदि अपना डेरा न जमा लें ! बुरा कहलाना अच्छा है; परन्तु अच्छा कहलाकर बुरा बने रहना बहुत ही बुरा है !  

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Friday 2 December 2011






जो भगवान् का भक्त बनना चाहता है, उसे सबसे पहले अपना ह्रदय सुद्ध करना चाहिये और नित्य एकान्तमें भगवान् से यह कातर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! ऐसी कृपा करो जिससे मेरे हृदयमें तुम्हे हर घड़ी हाजिर देखकर तनिक-सी पापवासना भी उठने और ठहरने न पावे ! तदनन्तर उस निर्मल ह्रदय-देशमें तुम अपना स्थिर आसन जमा लो और मैं पल-पलमें तुम्हे निरख-निरखकर निरतशय आनन्दमें मग्न होता रहूँ ! 


फिर भगवन् ! तुम्हारे लिये मैं सारे भागोंको विषम रोग समझकर उनका भी त्याग कर दूँ  और केवल तुम्हें लेकर ही मौज करूँ ! इन्द्र और ब्रम्हाका पद भी उस मौजके सामने तुच्छ -- अति तुच्छ हो जाय !


फिर शंकराचार्यकी तरह मैं भी गाया करूँ --
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ! 
सामुद्रो ही तरग्ड: व्कचन समुद्रो न तारंग : !!


बाहरी पवित्रताकी अपेक्षा हृदयकी पवित्रता मनुष्यके चरित्रको उज्जवल बनानेमें बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्यको काम,क्रोध,हिंसा, वैर , दम्भ आदि दुर्गन्धभरे कूड़ेको बाहर फेंककर हृदयको सदा साफ रखना चाहिये ! 


बाहरसे निर्दोष कहलानेका प्रयत्न न कर मनसे निर्दोष बनना चाहिये! मनसे निर्दोष मनुष्यको दुनिया दोषी बतलावे तो भी कोई हानि नहीं; परन्तु मनमें दोष रखकर बाहरसे निर्दोष कहलाना हानिकारक है! 
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Thursday 1 December 2011




धन, सम्पत्ति या मित्रोंको पाकर अभिमान न करो, जिस परमात्माने तुम्हें यह सब कुछ दिया है उसका उपकार मानो !


भक्त वही है जिसका अन्तः करण समस्त पाप-तापोंसे रहित होकर केवल अपने इष्टदेव परमात्माका नित्य-निकेतन बन गया है !


भक्तका ह्रदय ही जब पापोंसे शुन्य होता है, तब उसकी शारीरिक क्रियाओंमें तो पापको स्थान ही कहाँ है ? जो रात-दिन पापमें लगे रहकर भी अपनेको भक्त समझते हैं, वे या तो जगत् को ठगनेके लिये ऐसा करते हैं अथवा स्वयं अपनी विवेक-हीन बुद्धिसे ठगे गए हैं ! 


भक्त और साधु बनना चाहिये, कहलाना नहीं चाहिये !  जो कहलानेके लिये भक्त बनना चाहते हैं, वे पापोंसे ठगे जाते हैं !  ऐसे लोगोंपर सांसे पहला आक्रमण दम्भका होता है ! 


भक्ति अपने सुखके लिये हुआ करती है, दुनियाको दिखलानेके लिये नहीं, जहाँ दिखलानेका भाव है, वहाँ कृत्रिमता है !


भगवान् की ओरसे कृत्रिम मनुष्यको कोपका और अकृत्रिमको करुणाका प्रसाद मिलता है l  कोपका प्रसाद जलाकर, तपाकर उसे शुद्ध करता है और करुणाका प्रसाद तो उस शुद्ध हुए पुरुषको ही मिलता है!


अपने विरोधीको अनुकूल बनानेका सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसके साथ सरल और सच्चा प्रेम करो !  वह तुमसे द्वेष करे, तुम्हारा अनिष्ट करे तब भी तुम तो प्रेम ही करो !  प्रतिहिंसाको स्थान दिया तो जरूर गिर जाओगे ! 
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Wednesday 30 November 2011






किसीको पापी समझकर मनमें अभिमान न करो कि मैं पुण्यात्मा हूँ ! जीवनमें न मालूम कब कैसा कुअवसर आ जाय और तुम्हें भी उसीकी भाँती पाप करने पड़ें ! 


यदि बार-बार आत्मनिरीक्षण न कर सको -- तो कम-से-कम दिनमें दो बार सुभह और शाम अपना अन्तर अवश्य टटोल लिया करो ! तुम्हें पता लगेगा कि दिनभरमें तुम ईश्वरके और जीवोंके प्रति कितने अधिक अपराध करते हो ! 


लोग धनियोंके बाहरी ऐश्वर्यको देखकर समझते हैं कि ये बड़े सुखी हैं, हम भी ऐसे ही ऐश्वर्यवान् हों  तब सुखी हों, पर वे भूलते हैं! जिन्होंने धनियोंका ह्रदय टटोला है, उन्हें पता है कि धनि दरिद्रोंकी अपेक्षा कम दु:खी  नहीं हैं ! दुःख के कारण और रूप अवश्य ही भिन्न-भिन्न हैं ! 


धनकी इच्छा कभी न करो, इच्छा करो उस परमधन परमात्माकी, जो एक बार मिल जानेपर कभी जाता नहीं ! धनमें सुख नहीं है, क्योंकि धन तो आज है कल नहीं! सच्चा सुख परमात्मामें है-- जो सदा बना ही रहता है ! 


प्रतिदिन सुभह और शाम मन लगाकर भगवान् का स्मरण अवश्य किया करो, इससे चोबिसों घंटे शान्ति रहेगी और मन बुरे संस्कारोंसे बचेगा ! 
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Tuesday 29 November 2011






इस भ्रममें मत रहो कि पाप प्रारब्धसे होते हैं, पाप होते हैं तुम्हारी आसक्तिसे और उनका फल तुम्हें भोगना पड़ेगा ! 


परमात्मापर विश्वास न होनेसे ही विपत्तियोंका, विषयोंके नाशका और मृत्युका भय रहता है एवं तभीतक शोक और मोह रहते हैं ! जिनको उस भयहारी भगवान् में भरोसा है, वे शोकरहित, निर्मोह और नित्य निर्भय हो जाते हैं !


मान चाहनेवाले ही अपमानसे डरा करते हैं ! मानक बोझा मनसे उतरते ही मन हल्का और निडर बन जाता है ! 


शरीरका नाश होना मृत्यु नहीं है, मृत्यु है वास्तवमें पापोंकि वासना !


मृत्युको स्वाभाविक बनानेवाला ही सुखसे मर सकता है ! 


जो आत्माको अमर नहीं जानते वे ही मृत्युसे काँपा करते है ! 


किसीको गाली न दो, वृथा न बोलो, चुगली न करो, असत्य न बोलो, सदा कम बोलो और प्रत्येक शब्दको सावधानीसे उच्चारण करो ! 


दूसरोंकी त्रुटियों और कमजोरियोंको सहन करो, तुममें भी बहुत-सी त्रुटियाँ हैं,जिन्हें दुसरे सहते हैं ! 

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Monday 28 November 2011






१. अपने मनके विरुद्ध सब्द सुनते ही किसीकी नियतपर संदेह करना उचित नहीं !


. अपने पापोंको देखते रहना और उन्हें प्रकाश कर देना भी पापोंसे छुटनेका एक प्रधान उपाय है! 


३. जो लोग भगवन्नामका सहारा लेकर पाप करते हैं! जो नित्य नए पाप करके प्रतिदिन उन्हें नामसे धो डालना चाहते हैं, उन्हें तो नीच समझो! उनके पाप यमराज भी नहीं धो सकते! 


४. पापोंसे छुटने या भोगोंको पानेके लिए भी भगवन्नामका प्रयोग करना बुद्धिमानी नहीं है! पापका नाश तो प्रायश्चित या फलभोगसे ही हो सकता है ! तुच्छ नाशवान् भोगोंकि तो परवा ही क्यों करनी चाहिए ? उनके मिलने-न-मिलनेमें लाभ-हानि ही कौन-सी है ?


५. भगवन्नाम तो प्रियेसे भी प्रियतम वास्तु है! उसका प्रयोग तो केवल उसीके लिये करना चाहिए! 
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Sunday 27 November 2011






१. दुसरेके पापोंको प्रकाश करने के बदले सुहद् बनकर उनको ढंको! सुई छेद करती है, पर सूत  अपने शारीरका अंश देकर भी उस छेदको भर देता है! इसी प्रकार दुसरेके छिद्रोंको भर देनेके लिए अपना शारीर अर्पण कर दो, पर छिद्र न करो! धागा बनो सुई नहीं ! 


२. भगवानको साथ रखकर काम करनेसे ही पापोंसे रक्षा और कार्यमें सफलता होती है!


३. वैरी अपना मन ही है, इसे जीतनेकी कोशिश करनी चाहिए ! न्याय और धर्मयुक्त शत्रुको भी अन्याय और अधर्मयुक्त मित्रसे अच्छा समझना चाहिए! 


४. अपनी स्वतन्त्रता बचानेमें दूसरेको परतन्त्र बनाना सर्वथा अनुचित है! 


५. अगर आप दुसरेको चुपचाप बैठाकर अपनी बात सुनाना और समझाना पसंद करते हैं तो इसी तरह उसकी बात सुननेके लिए आपको भी तयार रहना चाहिए! 


६. अगर आप दूसरेको सहनशील देखना चाहते हैं तो पहले खुद शहनशील बनिए! 


७. अगर किसी दुसरेके मनके विरुद्ध कोई कार्य करनेमें आप अपना अधिकार मानते हैं तो उसका भी ऐसा ही समझिये !

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Saturday 26 November 2011





१. इस संसारमें सभी सरायके मुसाफिर हैं, थोड़ी देरके लिए एक जगह टिके हैं, सभीको समयपर यहाँसे चल देना है, घर-मकान किसीका नहीं है, फिर इनके लिए किसीसे लड़ना क्यों चाहिए ?


२. जगतमें जड कुछ भी नहीं है, हमारी जडवृत्ति ही हमें जड़के  दर्शन करा रही है, असलमें तो जहाँ   देखो, वहीं वह परम सुखस्वरूप नित्य चेतन भरा हुआ है! तुम-हम कोई उससे भिन्न  नहीं! फिर दुःख क्यों पा रहे हो? सर्वदा-सर्वदा निजानन्दमें निमग्न रहो!


३. जहाँ गुणोंका साम्राज्य नहीं है वहीं चले जाओ! फिर निर्भय और निश्चिन्त हो जाओगे! ये गुण ही दु:खोंकी राशि हैं!   


४. पराये पापोंके प्रायश्चित्तकी चिन्ता न करो, पहले अपने पापोंका प्रायश्चित्त करो! 


५. किसीके दोषोको देखकर उससे घृणा न करो और न उसका बुरा चाहो! यदि ऐसा न करोगे तो उसका दोष तो न मालूम कब दूर होगा; पर तुम्हारे अपने अंदर घृणा, क्रोध, द्वेष और हिंसाको अवश्य ही स्थान मिल जायगा! उसमे तो एक ही दोष था; परंतु तुममें चार दोष आ जायेंगे! हो सकता है, तुम्हारे और उसके दोषोंके नाम अलग-अलग हों! 

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Friday 25 November 2011

।। सत्संग-सुधा ।।





मकान मेरा है, चुनेके एक-एक कणमें मेरापन भरा हुआ है, उसे बेच दिया, हुण्डी हाथमें आ गयी,
 इसके बाद मकानमें आग लगी! मैं कहने लगा, 'बड़ा अच्छा हुआ, रूपये मिल गए!' 
मेरापन छुटते ही मकान जलनेका दुःख मिट गया! अब हुण्डीके कागजमें मेरापन है, 
बड़े भारी मकानसे सारा मेरापन निकलकर जरा-से कागजके टुकड़ेमें आ गया! 
अब हुण्डीकी तरफ कोई ताक नहीं सकता! हुण्डी बेच दी, रुपयोंकी थेली हातमें आ गयी! 
इसके बाद हुण्डीका कागज भले ही फट जाय, जल जाय, कोई चिन्ता नहीं! सारी ममता थेलीमें आ गयी! 
अब उसीकी सम्हाल होती है! इसके बाद रूपये किसी महाजनको दे दिए! 
अब चाहे वे रूपये उसके यहाँसे चोरी चले जायँ, कोई परवाह नहीं! 
उसके खातेमें अपने रूपये जमा होने चाहिए और उस महाजनका फर्म बना रहना चाहिए! 
चिन्ता है तो इसी बातकी है कि वह फर्म कहीं दिवालिया न हो जाय! इस प्रकार जिसमे ममता होती है,
 उसकी चिन्ता रहती है! यह ममता ही दुखोंकी जड़ है! वास्तवमें 'मेरा' कोई पदार्थ नहीं है!
 मेरा होता तो साथ जाता! पर शारीर भी साथ नहीं जाता! झूठे ही 'मेरा' मानकर दु:खोंका बोझ लादा जाता है! 
जिसकी चीज़ है, उसे सौंप दो! जगत् के सब पदार्थोसे मेरापन हटाकर केवल परमात्माको 'मेरा' बना लो! 
फिर दु:खोंकी जड़ ही कट जायेगी!
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Thursday 24 November 2011

।। सत्संग-सुधा ।।





1. 'नित्य हँसमुख रहो, मुखको कभी मलिन न करो, यह निश्चय कर लो कि शोकने तुम्हारे लिए जगतमें जन्म ही नहीं लिया हैं ! आनंदस्वरूप में सिवा हँसनेके चिन्ताको स्थान ही कहा हैं !'


2.शान्ति तो तुम्हारे अन्दर हैं! कामनारुपी डाकिनीका आवेश उतरा कि शान्तिके दर्शन हुए ! वैराग्य के महामंत्र से कामनाको भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूर्ति !


3. जहाँ सम्पत्ति है, वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्तिके भेदसे ही सुखका भी भेद है ! दैवी सम्पत्तिवालोंको परमात्म-सुख है, आसुरीवालोंको आसुरी -सुख और नरकके कीड़ोको नरक-सुख !


4. किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो ! याद रखो, परमात्मके यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है !

5. परमात्मापर विश्वास रखकर अपनी जीवन-डोरी उसके चरणोंमें सदाके लिए बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणोंकी दासी बन जाएगी !



6. बीते हुएकी चिन्ता मत करो, जो अब करना है, उसे विचारो और विचारो यही कि बाकीका सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काममें आवे !


7. धन्य वही है, जिसके जीवनका एक-एक क्षण अपने प्रियतम परमात्माकी अनुकूलतामें बीतता है, चाहे वह अनुकूलता संयोगमें हो या वियोगमें, स्वर्गमें हो या नरकमें, मानमें हो या अपमानमें, मुक्तिमें हो या बन्धनमें !


8. सदा अपने हृदयको टटोलते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, वैर, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा, मान और मदरुपी शत्रु घर न कर लें! इनमेंसे जिस किसीको भी देखो, तुरंत मारकर भगा दो ! पर देखना बड़ी बारीक नजरसे सचेत होकर, वे चुपके-से अन्दर आकर छिप जाते हैं और मौका पाकर अपना विकराल रूप प्रकट करते हैं!


9. किसीके भी उपरके आचरणोंको देखकर उसे पापी मत मनो! हो सकता है कि उसपर मिथ्या ही दोषारोपण किया जाता हो और वह उसको अपने को निर्दोष सिद्ध करनेकी परिस्थितिमें न हो! अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी परिस्थितिमें पड़कर अनिच्छासे कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परंतु उसका अन्तः करण तुमसे अधिक पवित्र हो!
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Wednesday 23 November 2011

।। सत्संग-सुधा ।।

  1. 'पुत्र , स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती ! यदि होती तो अब तक किसी -न - किसीयोनीमें हो ही जाती! सच्ची तृप्तिका विषय हैं केवल एक परमात्मा, जिसके मिल जानेपर जिवसदाके लिए तृप्त हो जाता हैं !'
  2. ' दुःख मनुष्यत्वके विकासका साधन हैं ! सच्चे मनुष्यका जीवन दुःख में ही खिल उठता हैं! सोनेका रंग तापानेपर ही चमकता हैं !
  3. ' 'सर्वत्र परमात्माकी मधुर मूर्ति देखकर आनंदमें मग्न रहो ; जिसको सब जगह उसकीमूर्ति दिखती हैं , वह तो स्वयं आनंदस्वरूप ही हैं ! ' 'आनंदकी लहरें' पुस्तक से
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Wednesday 9 November 2011

भगवान के आश्रय से सब दोष नष्ट हो जाते हैं

आप अपने को जिन सब मानस शत्रुओं से घिरा देखते हैं , वे सब शत्रु तुरंत भाग जायेंगे , यदि आप श्रीभगवान् के चरणकमलों का  आश्रय ले लेंगे| असल में हमारा ममत्व, जो लोकिक सम्बन्धियों में हो रहा है , वही हमे सता रहा है | यदि हम प्रयत्न करके अपने इस सम्बन्ध  को सबसे तोड़ कर एकमात्र प्रभु में जोड़  सकें और  सबके साथ प्रभु के सम्बन्ध से ही सम्बन्ध रखें तो फिर हमें कोई नहीं सता सकता एवं करने में किसी के साथ व्यावहारिक सम्बन्ध तोड़ने  की आवश्यकता नहीं होती | भगवन के  सम्बन्ध से हम ही सभी के साथ यथायोग्य व्यवहार करें; पर मन से ममत्व रहे केवल प्रभु चरणों में ही | ममता नहीं छूटती  तो मत छोडो , उसे इधर -उधर  बिखेर कर जो दुःख पा रहे हो , कभी इधर  खिंचते हो कभी उधर , फिर तनिक से स्वार्थ का धक्का लगते ही ममता के कच्चे धागे टूट जाते हैं - एस नित्य की आशांति  से अपने आप को छुड़ा लो | यह मान लो की एकमात्र भगवच्चरणारविन्द ही मेरे हैं , उनके अतिरिक्त कुछ  मेरा नहीं है | इस प्रकार अपने मन को भगवान् के साथ मजबूत रस्सी से बांध दो | एक बार यहाँ बंधे की फिर कभी छूटने के नहीं | फिर तो भगवान् हमारे वश में ही हो जायेंगे और बाध्य होंगे हमको अपने  हृदय में स्थान देने के लिए |  from - महत्त्वपूर्णप्रश्नोत्तर page 111
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Tuesday 8 November 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

 ५२०
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
सखि ! संयोग-वियोग श्यामका मेरे लिये सुखद सब काल।
 पल-पल वर्द्धनशील प्रेममें बाधाको न स्थान भर बाल॥
 जब होता दर्शन है प्रियकी रूप-माधुरीका प्रत्यक्ष।
 जब मैं अपलक उन्हें निरखती हूँ मुसकाते मधुर समक्ष॥
 जब उनका आलिङङ्गन कर मैं पाती हूँ मन परमानन्द।
 तब माना जाता है वह शुचितम सुखमय संयोग अमन्द॥
 जब मैं देख न पाती प्रियको लगता चले गये वे दूर।
 व्याकुल हो अधीर हो उठता चिा दुःखसे हो भरपूर॥
 यद्यपि विरहानलकी ज्वाला होती अति संतापिनि घोर।
 लपटें अमित निकलतीं उससे विविध भाँतिकी नित सब ओर॥
 पर उन ज्वाला-लपटोंमें सुस्पर्श सुशीतल सुधा अपार।
 सदा निकलती रहती, करती शुचि शीतलताका विस्तार॥
 अगणित शारदीय शशधरका सुधा-सुवर्षी ज्योत्स्ना-जाल।
 कर सकता न कदापि सदृशता उस शीतलताकी तत्काल॥
 हो जाती रति और तीव्रतम, बढ़ जाता स्मृति-सुख-सभार।
 मनोवृति हो जाती प्रियमय; बढ़ जाता आनन्द अपार॥
 बाह्य भोग-विरहित जीवनमें होता तुरत आन्तरिक योग।
 विप्रलभमें अतुलनीय हो जाता प्रकट दिव्य संयोग॥
 अन्तर्ज्वाला बुझती, बहने लगती अमित अमृत-रस-धार।
 क्रन्दन हो उठता सुख-रस-सागर, न दीखता आर, न पार॥
 सदा चाहती सखि ! मेरा यह बढ़ता रहे दिव्य क्रन्दन।
 करते रहें सुशीतल अन्तर आ-‌आकर प्रिय नँद-नन्दन॥
 मैं उनमें, वे मुझमें रहते सदा बसे, वास्तविक अभिन्न।
 दो रूपोंमें लीला करते, पर न कभी होते विच्छिन्न॥
 सखि ! जो नहीं जानते पावन प्रेमदेवका रूप-महव।
 काम-कलुष-मन देख न पाते वे वियोगमें सुमिलन-तव॥
 विषयासक्त देह-सुख-कातर कभी न पाते यह आनन्द।
 देह-वियोग उन्हें करता ही रहता नित्य दग्ध स्वच्छन्द॥
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Monday 7 November 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

५१७
(राग बसंत-तीन ताल)
मैं तो सदा बस्तु हूँ उनकी, उनकी ही हूँ भोग्य महान।
 मेरी पीड़ा, मेरे सुखका इसीलिये उनको ही जान॥
 मेरे तनका घाव तथा मेरे मनकी जो व्यथा अपार।
 उसके सारे दुःख-दर्दका वही वहन करते हैं भार॥
 अगर किसी मेरे सद्‌गुणसे होता है उनको आह्लाद।
 तो वह सद्‌गुण भी है दिया उन्हींका अपना कृपा-प्रसाद॥
 जीवन उनका, मति उनकी, मन उनका, तन उनका ही धन।
 वे ही इन्हें सुरक्षित रखें तोड़ें-फोड़ें, मारें घन॥
 जैसे, जब, जो कुछ करवावें और नचावें थनन-थनन।
 कटु बुलवावें, गीत गवावें, कहलावें अति मधुर वचन॥
सुग्गा नहीं जानता कुछ भी अर्थ बोलता-’राधेश्याम’।
 जिसने उसे सिखाया है, उसका ही अर्थ जानना काम॥
 स्वयं मधुर संगीत सिखाकर सुनते, करते यदि यश-गान।
 वह यशगान उन्हींका अपना, करे किस तरह शुक अभिमान॥
 जीवनमें अपना मधु भर वे करें स्वयं उस मधुका पान।
 यों अपने सुखसे ही हों वे सुखी, व्यर्थ दे मुझको मान॥
 पर जब मेरा नहीं कहीं भी कुछ भी रहा पृथक्‌ अस्तित्व।
 तब सुख-मान सभी हैं उनके, क्योंकि सभी उनका कर्तृत्व॥
 मेरा यह ’सबन्ध’ श्यामसे, श्याम बने मेरे आकार।
 तन-मन-वचन, भोग्य-भोक्ता सब, वे ही हैं आधेयाधार॥
 यदि मेरा अपना कुछ भी हो, छिपा कहीं भी हो कुछ भाव।
 आग लगे उसमें इस ही क्षण, हो जाये अत्यन्ताभाव॥
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Sunday 6 November 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे- ५१८

 ५१८
(राग कल्याण-तीन ताल)
मेरे इक जीवन-धन घनस्याम।
चोखे-बुरे, दयालु-निरद‌ई, वे मम प्रानाराम॥
 चाहे वे अति प्रीति करैं, नित राखैं हिय लिपटाय।
 रास-बिलास करैं नित मो सँग अन्य सबै छिटकाय॥
 मेरे सुख तैं सुखी रहैं नित, पलक-पलक सुख देहिं।
 मो कारन सब अन्य सखिन महँ दारुन अपजस लेहिं॥
 आठौं जाम रहैं मेरे ढिंग, नित नूतन रस चाखैं।
 नित नूतन रस मोहि चखावैं, मधुरी बानी भाषैं॥
 अथवा वे अति बनैं निरद‌ई, मेरे दुख सुख मानैं।
 मोय दिखा‌इ-दिखा‌इ अन्य जुबतिन कौं नित सनमानैं॥
 जो वे प्राननाथ सुख पावैं मेरे दुख तें सजनी।
 तो मैं अति सुख मानि चहौं वह बनौ रहै दिन-रजनी॥
 प्राननाथ कौ जिय जेहि चाहै, सो जदि करै गुमान।
 मेरे हेतु करैं नहिं कुटिला प्रियतम कौ सनमान॥
 तौ मैं जा‌इ, चरन परि ताके, करि मनुहार मनावौं।
 दासी बनी रहूँ जीवनभर, कबौं न मान जनावौं॥
 जा बिधि तिन्हैं होय सुख, ताही बिधि मैं अति सुख पान्नँ।
 प्राननाथ कौं सुखी देखि पल-पल मैं मन हरषान्नँ॥
 जो तिय निज-‌इंद्रिय सुख चाहै, इहि कारन प्रिय सेवै।
 गाज गिरै ताके सिर, जो इहि बिधि पिय तैं सुख लेवै॥
 मैं तौ तिन कें सुख सुख पान्नँ, वे मम जीवन-प्रान।
 केहि बिधि होयँ सुखी वे प्यारे, एक यही मम ध्यान॥
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Saturday 5 November 2011

ईश्वर-प्राप्ति के उपाय

 १.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्वको यथार्थ जानने वाले महापुरुषों का संग एवं उनके आदेशानुकूल आचरण ।
२.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्व से पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन ।
३.ईश्वरके नाम का जप और गुणों का श्रवण-कीर्तन ।
४.ईश्वर का ध्यान ।
५.विश्व रूप भगवान की निष्कामभाव से सेवा ।
६. ईश्वर-प्रार्थना।
७.ईश्वरके अनुकूल आचरण यानी सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, विनय, तप, स्वाध्याय, आस्तिकता और श्रद्धा आदि को बढ़ाना ।
८.लोक-परलोक के समस्त भोगोंमें वैराग्य ।
९.सद्गुरुमें परम श्रद्धा और गुरु सेवा ।
१०.ईश्वरमें अखण्ड विश्वास ।
११.घर-बाहर सर्वत्र ईश्वर चर्चा ।
१२.अभिमान, दम्भ, और कठोरता का सर्वथा त्याग ।
१३. काम, क्रोध, लोभ से बचना ।
१४.नास्तिक संग का सर्वथा त्याग ।
१५.परधर्म सहिष्णुता ।
१६. सबमें ईश्वर बुद्धि रखते हुए ही बर्ताव करने की चेष्ठा ।
from- भगवच्चर्चा page- 261







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Saturday 22 October 2011

सच्ची चाह का स्वरुप

१.सच्ची चाह का स्वरुप यह है कि फिर चाही हुई वस्तु के बिना जीना कठिन हो जाता है | सच्ची चाह का स्वरुप होता है अनिवार्य आवश्यकता | उस एक वास्तु के सिवा और किसी कि चाह चाह तो बहुत पहले विदा हो जाती है | जब प्रेमी अपने इष्ट के बिना नहीं रह सकता तो उसे दर्शन देना ही पड़ता है | फिर खाना -पीना, सोना - जगना, उठाना-बैठना सभी बहार हो जाता है | सच्ची छह उत्पन्न होने के बाद फिर दर्शनों में देरी नहीं लगती|
२. सच्ची चाह निष्काम होनी चाहिए - इसमें तो कहना ही क्या है ? यदि हमें भगवान् से उनके सिवा कुच्छ और लेने कि लालसा होगी तो वे उसे ही देंगे , अपनेको क्यों देंगे ? पूर्वकाल में सकाम उपासना करने वालों को भी दर्शन हुए हैं | परन्तु उस प्रकार के दर्शन भगवत्प्रेम कि तत्काल वृद्धि नहीं करते| उन्हें दर्शानादी यथार्थ प्राप्ति प्राय: नहीं होती | वे केवल भोग या मोक्ष ही पा सकते हैं , प्रेम नहीं |
३. चाह को बधानेका एकमात्र उपाय यही हा कि भोगों को अनित्य और दुखोत्पदक समझकर उनकी सब इच्छाएं छोड़ दी जाएँ | जबतक दूसरी कोई भी कामना रहेगी तबतक भगवत प्राप्ति कि उत्कंठा तीव्र नहीं होती |
४. निरंतर ध्यान के लिए तो निरंतर ध्यान की ही जरुरत है | जहाँ काम और मोक्ष और ध्यान दोनों हैं , वहां तो दोनों ही रहेंगे | एक साथ दो बातें कसी रहेंगी ? तथापि जबतक वैसी लगन नहीं लगी है तबतक आफिस के काम को भी उन्हीं का काम समझकर कीजिये और काम करते हुए यथासंभव उनका नाम-जप और चिंतन भी चलाइये |
५. सोते हुए जप या ध्यान कैसे हो सकता है ? निद्रा और जप एक काल में तो रह ही नहीं सकते | निद्रा में वृति लीं रहती है और उस विषय में लीं रहती है जो निद्रा आने के ठीक पूर्व क्षण तक रहता है | अत: जप-ध्यान करते- करते सो जाईये | एसा करने से जब आप उठेंगे तब भी आप को मालूम होगा की उठते ही पुन: वाही जप और ध्यान आरम्भ हो गया है | क्योंकि वृति जिसमें लींन होती है , उसीसे उदित भी होती है | एस प्रकार निद्रके आगे -पीछे जप का सम्पुट रहने से निद्राकाल में भी मन जप में ही लीन रहेगा |
page no - 61 , from महत्त्व पूर्ण प्रश्नोत्तर
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Friday 21 October 2011

ईश्वर को कैसे पुकारें

{गत ब्लाग से आगे}
और पुकार कर कहें -
"हे हरे ! आपसे बढ़कर कोई परम दयालु नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई सोचनीय नहीं है | यदुनाथ! ऐसा समझकर मुझ पामर के लिए जो उचित हो वह कीजिये |"
"भगवन ! आषाढ़ मास के दिन की भांति मेरे पाप बढ़ते चले जाते हैं , शरद ऋतुकी नदी के जल की तरह शारीरिक शक्ति क्षीण होती जा रही है , दुष्टों द्वारा किये हुए अपमान के सामान दुःख मेरे लिए दु:सह हो गए हैं | हाय ! मैं सब तरह से असमर्थ हूँ , अशरण हूँ , दयामय ! मुझपर कृपा कीजिये |"
"स्वामिन मैं अज्ञानी हूँ, मेरी बुद्धि मंद है , अत: मैं वैसी चिकनी चुपड़ी बातें नहीं कर सकता जिस से आपका कृपा पात्र बन सकूँ | मैं तो आर्त हूँ , अशरण हूँ , और दीन हूँ ; मैंने केवल क्रन्दन किया है | आप एस क्रन्दन पर ही ध्यान देकर शीघ्र दर्शन दीजिये | और मुझ भाग्य हीन के मस्तकपर अपने चरण रखिये |"
"हरे ! मुरारे ! प्रभो ! एक मात्र आप ही मेरे आश्रय हैं | मधुसुदन! वासुदेव ! विष्णो ! आपकी जय हो ! नाथ ! मुझसे निरंतर असंख्य पाप होते रहते हैं ; मुझे कहीं भी गति नहीं है | जगदीश ! मरी रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये |"
इस प्रकार सच्चे मन से रोकर, कातर पुकार करने से मंगलमय भगवान् अवश्य सुनते हैं |
from- महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर् page- 35
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Thursday 20 October 2011

ईश्वर को कैसे पुकारें

ईश्वर के विरह में रुन्दन स्वभावत: होना चाहिए | रोना और हँसना सीखना नहीं पड़ता | अत्यंत प्रिय के विछोह का अनुभव प्राणों को बरबस रुला देता है | अभी तो हमने संसार के सगे सम्बन्धियों को ही प्रिय मान रखा है | धन और भोगों के प्रति हमारा अधिक आकर्षण है | ऐसी दशा में भगवन के लिए हम व्याकुल कैसे हो सकते हैं ? हम जानते हैं और सदा देखते हैं कि संसार के धन- भोग क्षणभंगुर हैं - आज  हैं , कल नहीं | इसी प्रकार यहाँ के सगे -सम्बन्धि  यहाँ के भोग  यहाँ तक कि यह शरीर भी मृत्यु के बाद साथ छोड़ देता है । प्रत्येक अवस्था में यदि कोइ साथ देता है तो वो है परम करुणामय भगवान। उनकी दया इतनी है कि वे सबको अपनी शरण में आने के लिये स्वयं पुकार रहे हैं। एक हम हैं , भगवान को पुकारना, उनके लिये रोना तो दूर रहा, उनके प्रिय आह्वानतकको नहीं सुनते या सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। जो हमारे आत्माके भी आत्मा हैं, प्रणों के भी प्राण हैं, जिनसे बढ़कर कोई प्रियतम नहीं है, वे हमसे दूर नहीं हैं। हम उन्हें प्राणमें भी निहार न सकें, अपने प्रेमाश्रुओंसे उनके चरण पखार न सकें-- यह कितने दु:ख की बात है। हमें यह विरह इसलिये मिला है कि हम प्रभु से मिलने के लिये रोयें, तड़्पें, अश्रुओंके मॊक्तिक हार से उनकी सादर अर्चना करें , 
from- महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर् page- 35
{शेष अगले ब्लाग में}   
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Wednesday 19 October 2011

एक भरोसो तेरौ अब हरि! एक भरोसो तेरौ।

एक भरोसो तेरौ
अब हरि! एक भरोसो तेरौ।
नहिं कछु साधन ग्यान-भगति कौ,
नहिं बिराग उर हेरौ॥
अघ ढोवत अघात नहिं कबहूँ, मन बिषयन
कौ चेरौ।
इंद्रिय सकल भोगरत संतत, बस न चलत
कछु मेरौ॥
काम-क्रोध-मद-लोभ-सरिस अति प्रबल
रिपुन तें घेरौ।
परबस पर्यौ, न गति निकसन
की जदपि कलेस घनेरौ॥
परखे सकल बंधु, नहिं कोऊ बिपद-काल
कौ नेरौ।
दीनदयाल दया करि राखउ, भव-जल बूड़त
बेरौ॥
प्रेम भगति निष्काम
चहौं बस एक यहीं श्रीराम।
अबिरल अमल अचल अनपाइनि प्रेम-
भगति निष्काम॥
चहौं न सुत-परिवार, बंधु-धन, धरनी,
जुवति ललाम।
सुख-वैभव उपभोग जगत के चहौं न
सुचि सुर-धाम॥
हरि-गुन सुनत-सुनावत कबहूँ, मन न होइ
उपराम।
जीवन-सहचर साधु-संग सुभ, हो संतत
अभिराम॥
नीरद-नील-नवीन-बदन अति सोभामय
सुखधाम।
निरखत रहौं बिस्वमय निसि-दिन, छिन

न लहौं बिश्राम॥


-श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार
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साधना का स्वरूप भाईजी के अनुसार

१.भगवत्प्रेम ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझना और इसे हर हालतमें निरन्तर लक्ष्य में रखकर ही सब काअम करना।
२.जहाँतक बने, सहज ही स्वरूपतः भोग-त्याग तथा भोगासक्तिका त्याग करना। जगत् के किसीभी प्राणी पदार्थ-परिस्थितिमें राग न रखना।
३. अभिमान,मद,गर्व आदिको तनिक-सा भी आश्रय न देकर सदा अपने को अकिञ्चन, भगवानके सामने दीनातिदीन मानना।
४.कहीं भी ममता न रखकर सारी ममता एकमात्र भगवान प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणोंमें केन्द्रित करना।
५.जगतके सारे कार्य उन भगवानकी चरण-सेवाके भावसे ही करना।
६.किसीभी प्राणीमें द्वेष-द्रोह न रखकर, सबमें श्रीराधामाधवकी अभिव्यक्ति मानकर सबके साथ विनयका, यथासाध्य उनके सुख-हित-सम्पादनका बर्ताव करना। सबका सम्मान करना,पर कभी स्वयं कभी मान न चाहना,न कभी स्वीकार करना।
७.जगतका स्मरण छोड़कर नित्य-निरन्तर भगवानके स्वरूप,नाम,गुण,लीला आदिका प्रेमके साथ स्मरण करना।
८.प्रतिदिन नियत संख्यामें,जितना सुविधापूर्वक कर सकें षोडस-मंत्र का जप करना/दिनभर रटते रहना। सुविधा हो तो कुछसमयतक इसीका कीर्तन करना।
९.स्वसुख-वाञ्छाका, निज-इन्द्रिय-तृप्तिका, अपने मनके अनुकूल भोग-मोक्षकी इच्छाका सर्वथा परित्याग करके भगवान श्रीकृष्णको ही प्रियतम रूप से भजना तथा प्रत्येक कर्य केवल उन्हींके सुखार्थ करना।
१०.आगे बढ़े हुये साधक "मंञ्जरी" भावसे उपासना कर सकते हैं।"मंञ्जरी" भाव का अर्थ--- अपनेको श्रीराधाजी की किंकरी मानकर आठों पहर श्रीराधामाधवके सुख-सेवा-सम्पादनमें अपनेको खो देना--केवल सेवामय बनादेना।
११.अपने साधन-भजन तथा भगवतकृपासे होनेवाली अनुभूतियों को यथासाध्य गुप्त रखना।
१२.सम्मान-पूजा-प्रतिष्ठाको विषके समान समझकर उनसे सदा बचना।बुरा कार्य न करना, पर अपमान को अमृत समझ उसका आदर करना।
from - Shri radha-madhav-chintan
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भगवान् में सच्चे विश्वास का स्वरूप

ईश्वर में सच्ची श्रद्धा ,सच्चा विश्वास तभी हुआ मानना  चाहिए जब उनके मंगल विधान में श्रद्धा हो ; फिर वह विधान देखने में कितना भी भयंकर हो , चाहे जितनी कठोर से कठोर विपतियों से भरा हो , चाहे अत्यंत दुखों ,अभावों, क्लेशों , अपमानो और असफलताओं से परिपूर्ण हो | वह भयंकर से भयंकर प्रतिकूलता में जहाँ दृढ निश्चिय रहता है कि 'भगवान् ने यह जो कुछ मुझे दिया है निश्चिय ही मेरे कल्याण के लिए है ' तभी सच्चे  श्रद्धा विश्वास का पता लगता है | भगवान् में श्रद्धा विश्वास रखने वाला मनुष्य बड़ी-से बड़ी काट- छांट में भी परम प्रसन्न  होता है और जैसे रोगी रोगनाश की भावना से प्रसन्न होकर डॉक्टर को धन्यवाद देता है  वैसे ही  वह विश्वासी  मनुष्य भगवान् का कृतज्ञ होकर उनका नित्य दास बन जाता है | ऊपर से देखने में बड़ी भयानक ऐसी घटनाओं से उसका विश्वास जरा भी हिलता नहीं , बल्कि बढ़ता है | यह सत्य है की ऐसा विश्वास होना हंसी -खेल नहीं है | भगवान् का भजन और भगवत -प्रार्थना करते करते अंत:करणकी मलिनता का नाश होने पर ही इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न होता है | 
from - महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर्
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Tuesday 18 October 2011

जयति जय श्री वृषभानु दुलारी ||

812
जयति जय श्री वृषभानु दुलारी ||
जयति कीर्तिदा जननी , जाई जिन गुण- खानि राधिका प्यारी |
जय वृषभानु महीप -मुकुट-मनि, जिन घर जन्मी जग- उजियारी ||
कृष्णा    कृष्ण-जीवना,  कृष्णाकर्षिनि कृष्ण-प्रान- आधारी ।
परम प्रेम प्रतिमा, परिपूरन प्रिय-सुख अति सुख माननिहारी ॥
प्रिय-सुख समैं परम चतुरा नित , निज सुख समैं सुभोरी - भारी।
प्रिय-सुख लागि बिसरि सब अग-जग, सहित समूद प्रसंसा - गारी॥
टेक-बिबेक एक  प्रियतम  सॊं,  सब  के  सब  संबंध   निवारी ।
भजत - भजत भजनीय  भई अब, तुम्हरॊ  भजन  करत, कंसारी॥
from - padratnakar
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प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


 ४८५
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
नहीं छोड़ते हैं पलभर भी करते रहते मनमानी।
 नटखट निपट निरन्तर मुझसे करते मधुर छेडख़ानी॥
 अपने मनकी मुझे कभी वे तनिक नहीं करने देते।
 कभी रुलाते, कभी हँसाते, कभी नचाकर सुख लेते॥
 हृदय लगाते कभी मोद भर, कभी हटाते कर दुर-दुर।
 सुधा पिलाते मधुर कभी, भर मुरलीमें अपना ही सुर॥
 इसीलिये इस जीवनमें, बस उनका ही सुर है बजता।
 उनके ही रससे रसमय मन सदा सहज उनको भजता॥
 मेरे मनकी रही न कुछ भी, उनके मनकी सब मेरी।
 करें-करायें वे चाहे सो, मिटी सभी हेरा-फ़ेरी॥

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प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


(राग जंगला-ताल कहरवा)
हटे वह सामनेसे, तब कहीं मैं अन्य कुछ देखूँ।
 सदा रहता बसा मनमें तो कैसे अन्यको लेखूँ ?
 उसीसे बोलनेसे ही मुझे फ़ुरसत नहीं मिलती।
 तो कैसे अन्य चर्चाके लिये फिर जीभ यह हिलती ?
 सुनाता वह मुझे मीठी रसीली बात है हरदम।
 तो कैसे मैं सुनूँ किसकी, छोड़ वह रस मधुर अनुपम ?
 समय मिलता नहीं मुझको टहलसे एक पल उसकी।
 छोडक़र मैं उसे, कैसे करूँ सेवा कभी किसकी ?
 रह गयी मैं नहीं कुछ भी किसीके कामकी हूँ अब।
 समर्पण हो चुका मेरा जो कुछ भी था उसीके सब॥ 
from padratnakar  ४८२
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प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


हु‌आ समर्पण प्रभु-चरणोंमें जो कुछ था सब-मैं-मेरा।
 अग-जगसे उठ गया सदाको चिर-संचित सारा डेरा॥
 मेरी सारी ममताका अब रहा सिर्फ प्रभुसे सबन्ध।
 प्रीति, प्रतीति, सगा‌ई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध॥
 प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा संसार।
 उनके सिवा, शेष को‌ई भी बचा न जिससे हो व्यवहार॥
 नहीं चाहती जाने को‌ई मेरी इस स्थितिकी कुछ बात।
 मेरे प्राणप्रियतम प्रभुसे भी यह सदा रहे अजात॥
 सुन्दर सुमन सरस सुरभित मृदुसे मैं नित अर्चन करती।
 अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डरसे डरती॥
 मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।
 रहूँ कहीं भी कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त॥
 इस मेरी पूजासे पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।
 बढ़े निरन्तर रुचि अर्चामें, बढ़े नित्य ही परमानन्द॥
 बढ़ती अर्चा ही अर्चाका फल हो एकमात्र पावन।
 नित्य निरखती रहूँ रूप मैं उनका अतिशय मनभावन॥
 वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजाको न कभी।
 देख पायँगे वे यदि, होगा भाव-विपर्यय पूर्ण तभी॥
 रह नहिं पायेगा फिर मेरा यह एकाङङ्गी निर्मल भाव।
 फिर तो नये-नये उपजेंगे ’प्रिय’से सुख पानेके चाव॥ 
PadRatnakar 472
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प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


बने रहें प्रभु एकमात्र मेरे जीवनके जीवन-धन।
 प्राणों के प्रियतम वे मेरे, प्राणाधार, प्राण-साधन॥
 स्वप्न-जागरणमें प्रमादसे भी न कभी हो भूल विभोर।
 नहीं जाय मेरा मन उनको छोड़ कदापि दूसरी ओर॥
 जैसा, जो कुछ भला-बुरा, सब रहे सदा प्रिय-सेवा-लीन।
 रहे देह भी सदा एक प्रियकी पूजामें ही तल्लीन॥
 पूजाकी बन शुचि सामग्री होते रहें नित्य सब धन्य।
 रहूँ किसी भी स्थितिमें, कैसे भी, पर मानस रहे अनन्य॥
 कुछ भी करें, रहे नित तन-मन-धन सबपर उनका अधिकार।
 रस-चिन्तनमें लगा रहे मन, नित्य करे गुण-गान उदार॥
 घुली-मिली मैं रहूँ नित्य प्रियतमसे, रहूँ दूर या पास।
 बाहर-भीतर मेरे प्रियतम, करें सदा-सर्वत्र निवास॥
 PadhRatnakar 460
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चैतन्य चरितावली

अपने आप को तृण से भी नीचा  समझना चाहिए तथा तरु से भी अधिक सहनशील बनना चाहिए | स्वयं तो सदा अमानी ही बने रहना चाहिए , किन्तु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिए | अपने को एसा बना लेने पर ही श्रीकृष्णकीर्तन के अधिकारी बन सकते हैं | क्योंकि श्रीकृष्णकीर्तन प्राणियों के लिए कीर्तनीय  वस्तु है 
- चैतन्य चरितावली - पेज -१२५
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Monday 17 October 2011

भगवत प्राप्ति के लिए तीव्र विरह कि आवश्यकता

भगवत्प्राप्तिकी उत्कट इच्छा - इसी इच्छा कि जैसे प्यास से मरते हुए मनुष्य को जल कि होती है | जैसे प्यासे को जल का अनन्य  चिंतन होता है और जल मिलने में जितनी देरी होती है , उतनी ही उसकी व्याकुलता बढती है, वैसे ही भगवान् का अनन्य चिंतन होगा और भगवन के लिए परम व्याकुलता होगी | इससे सहज परमात्मा कि प्राप्ति हो जाएगी| भगवन किसी कर्म के फलस्वरूप नहीं प्राप्त होते , वे तो प्रबल और उत्कट इच्छा होने पर ही मिलते हैं |  ऎसी इच्छा होने पर उसकी प्रत्येक क्रिया भजन बन जाती है |भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण  कर देने पर सहज ही प्रत्येक कार्य भगवान् के लिए ही होता है  क्योंकि भगवन उसके परम आश्रय,परम गति , परम प्रियतम हैं | उसकी साड़ी आसक्ति , ममता , प्रीति सब जगहं से सिमट कर  एकमात्र भगवान् के प्रति ही हो जाती है | वह उन्ही का स्मरण करता रहता है | भगवान् जब उसकी व्याकुल इच्छा को देखते हैं , तब सहज ही  आकर्षित होकर उसके सामने  प्रकट हो जाते हैं | और उसे अपने अंक में ले कर अपने हृदय से लगाकर सदा के लिए निहाल कर देते हैं | 
  महत्त्वपूर्ण  प्रश्नोत्तर page - 53-54 
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Sunday 16 October 2011

प्रार्थना--मेरे प्राणों के प्राण !

मेरे प्राणों के प्राण !
                                      भोगों में सुख नहीं है, यह अनुभव बार-बार होता है ; फिर भी मेरा दुष्ट मन उन्हीकी ओर दोड़ता है | बहुत समझाने की कोशिश करता हूँ , परन्तु नहीं मानता | तुम्हारे स्वरुप चिंतन में लगाना चाहता हूँ , कभी कभी कुछ लगता सा दीखता भी है , परन्तु असल में लगता नहीं| मैं तो जतन करके हार गया मेरे स्वामी ! अब तुम अपनी कृपा शक्ति से इसे खीच लो | मुझे एसा बना दो कि मई सब प्रकार से तुम्हारा ही हो जाऊँ| धन, ऐश्वर्य, मान जो कोई भी तुम्हारी और लगने में बाधक हों उन्हें बलात मुझसे छीन लो | मुझे चाहे रह का भिखारी बना दो , चाहे सबके द्वारा तिरिस्कृत करा दो , परन्तु अपनी पवित्र स्मृति मुझे दे दो | मई बस तुम्हारा स्मरण करता रहूँ | मेरे सुख दुःख , हानि-लाभ , सब कुछ तुम्हारी स्मृति में समा जाय| वे चाहे जैसे आयें - जाएँ, मै सदा तुम्हारे प्रेम में डूबा रहूँ|
 
प्रार्थना page no 22 
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Tuesday 11 October 2011

Radha ke Vachan shri Krishan ke prati

तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं।
अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं॥
मेरी त्रुटि, मेरे दोषोंको तुमने देखा नहीं कभी।
दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी॥
तब भी कहते-"दे न सका मैं तुमको कुछ भी, हे प्यारी !
तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी"॥
क्या मैं कहूँ प्राणप्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर।
मेरी हर करनीमें ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर !॥

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Friday 30 September 2011

जीवन में ढालने योग्य बात

जीवन में ढालने योग्य बात-
 " अब तो प्रभु की शरण में आ गया हूँ। सब तरफ़ से मन, बुद्धि, इन्द्रियों को समेट कर प्रभु के चरणोंमें रख देता हूँ। प्रभु के चरणों में लगा देना चाहता हूँ। मैं अब संसारके प्राणी-पदार्थों के लिये नहीं रोता। श्वास- श्वास पर प्रभु का अधिकार है। मेरा अपना कुछ नहीं है। प्रभु की अखण्ड स्मृति ही मेरी है, उसमें अपने आप को भूल जाऊँ, अपने आप को सदा के लिये खो दूँ। उनकी मधुर स्मृतियों में स्वयं को डुबो दूँ। मेरी अलग कमना-वासना-इच्छा आदि रहे ही नहीं।" -
साधकों के पत्र, पृष्ठ-१३५
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Tuesday 6 September 2011

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो; तुम्हारा है भी नहीं, भगवानका ही है| अपना मान बैठे हो- ममता करते हो इसीसे दुखी होते हो| ममताको सब जगहसे हटाकर केवल भगवानके चरणोंमें जोड़ दो, अपने माने हुए सब कुछ्को भगवानके अर्पण कर दो| फिर वे अपनी चीजको चाहे जैसे काममें लावें; बनावें या बिगाडें| तुम्हें उसमें व्यथा क्यों होने लगी? भगवानको समर्पण करके तुम तो निश्चिंत और आनंदमग्न हो जाओ|-
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Saturday 3 September 2011

अपना तन-मन-धन सब ....

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो; तुम्हारा है भी नहीं, भगवानका ही है| अपना मान बैठे हो- ममता करते हो इसीसे दुखी होते हो| ममताको सब जगहसे हटाकर केवल भगवानके चरणोंमें जोड़ दो, अपने माने हुए सब कुछ्को भगवानके अर्पण कर दो| फिर वे अपनी चीजको चाहे जैसे काममें लावें; बनावें या बिगाडें| तुम्हें उसमें व्यथा क्यों होने लगी? भगवानको समर्पण करके तुम तो निश्चिंत और आनंदमग्न हो जाओ|- 

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Wednesday 27 July 2011

चौकन्ने हो जाओ

जब संसारी लोग तुम्हें भाग्यवान और और भगवानका कृपापात्र बतलाएं तब चौकन्ने हो जाओ| संसारी लोग अपनी बुद्धि के काँटेपर ही तो भाग्य और भगवानकी कृपको तौलते हैं! उनका काँटा पत्थर तौलता है, हीरा नहीं| वे भोगी को भाग्यवान और भगवानका कृपापात्र मानते हैं और विषय-विरागी भगवदनुरागीको अभागा तथा भगवानका कोपभाजन|
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Monday 31 January 2011

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी
 १५३
(राग भैरव-ताल कहरवा)
श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ और अष्टस्न्दल कमल
सुमन-समूह, मनोहर सौरभ मधु प्रवाह सुषमा-संयुक्त।
 नव-पल्लव-विनम्र सुन्दर वृक्षावलिकी शोभासे युक्त॥
 नव-प्रड्डुल्ल मजरी, ललित वल्लरियोंसे आवृत, द्युतिमान।
 परम रय, शिव सुन्दर श्रीबृन्दावनका यों करिये ध्यान॥
 उसमें सदा कर रहे चचल चचरीक मधुमय गुजार।
 बढ़ी और भी, विकसित सुमनोंका मधु पीनेको झनकार॥
 कोकिल-शुक-सारिका आदि खग नित्य कर रहे सुमधुर गान।
 मा मयूर नृत्यरत, यों श्रीबृन्दावनका करिये ध्यान॥
 यमुनाकी चचल लहरोंके जल-कणसे शीतल सुख-धाम।
 ड्डुल्ल कमल-केसर-परागसे रजित धूसर वायु ललाम॥
 प्रेममयी ब्रज-सुन्दरियोंके चचल करता चारु वसन।
 नित्य-निरन्तर करता रहता श्रीबृन्दावनका सेवन॥
 कल्पवृक्ष
उस अरण्यमें सर्वकामप्रद एक कल्पतरु शोभाधाम।
 नव पल्लव प्रवाल-सम अरुणिम, पत्र नीलमणि-सदृश ललाम॥
 कलिका मुक्ता, प्रभा, पुज-सी पद्मराग-से फल सुमहान।
 सब ऋतु‌एँ सेवा करतीं नित परम धन्य अपनेको मान॥
 सुधा-बिन्दु-वर्षी उस पादपके नीचे वेदी सुन्दर।
 स्वर्णमयी, उद्भासित जैसे दिनकर उदित मेरु-गिरिपर॥
 मणि-निर्मित जगमग अति प्राङङ्गण, पुष्प-परागोंसे उज्ज्वल।
 छहों ऊर्मियोंसे* विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल॥
 वेदीके मणिमय आँगनपर योगपीठ है एक महान।
 अष्टस्न्दलोंके अरुण कमलका उसपर करिये सुन्दर ध्यान॥

भगवान्‌ नन्दनन्दन
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
 दीप्तिमान निज दिव्य प्रभासे सविता-सम जो करुणा-कंद॥
 श्रीविग्रहका वर्ण नील-श्यामल, उज्ज्वल आभासे युक्त।
 कमल-नीलमणि-मेघ-सदृश कोमल, चिक्कण, रससे संयुक्त॥
 काले घुँघराले अति चिकने घने सुशोभित केश-कलाप।
 मुकुट मयूर-पिच्छका मनहर मस्तकपर हरता हृााप॥
 मधुकर-सेवित कल्पद्रुमके कुसुमोंका विचित्र श्‌ृङङ्गार।
 नव-कमलोंके कर्णड्डूल, जिनपर भौंरे करते गुजार॥
 चमक रहा सुविशाल भालपर गोरोचन का तिलक ललाम।
 चिा-विाहर धनुषाकार भ्रुकुटियाँ अतिशय शोभाधाम॥
 मुख-मण्डलकी कान्ति शरद-शशि-सदृश पूर्ण, अकलङङ्क, अतोल।
 नेत्र कमल-दल-से विशाल, निर्मल दर्पण-से गोल कपोल॥
 दीप्त रत्नमय मकराकृति कुण्डलकी किरणोंसे सविशेष।
 कीर-चचु-सम सुन्दर नासा हरती जन-मनका सब क?ेश॥
 अरुण अधर बन्धूक सुमन-से चन्द्र-कुन्द-जैसी मुसकान।
 समुख दिशा प्रकाशित करती दिव्य छटासे अति द्युतिमान॥
 बनके कोमल पल्लव-पुष्पोंसे निर्मित निर्मल नव-हार।
 मनहर शङ्ख-सदृश ग्रीवाकी शोभा बढ़ा रहे सुख-सार॥
कंधोंपर घुटनोंतक लटका पारिजात-पुष्पोंका हार।
 मा मधुप मँडराते उसपर करते मधुर-मधुर गुजार॥
 हार-रूप नक्षत्रोंसे शोभित वक्षःस्थल पीन विशाल।
 कौस्तुभमणिरूपी भास्कर है भासमान उसमें सब काल॥
 शुचि श्रीवत्स-चिह्न वक्षःस्थलपर, शुभ उन्नत सिंह-स्कन्ध।
 सुन्दर श्रीविग्रहसे निस्सृत विस्तृत विमल मनोहर गन्ध॥
 भुजा गोल, घुटनोंतक लंबी, नाभि गभीर चारु-बिस्तार।
 उदर उदार, त्रिवलि, रोमावलि मधुप-पंक्ति-सम शोभा-सार॥
 दिव्य रत्न-मणि-निर्मित भूषण श्रीविग्रहपर रहे विराज।
 अङङ्गद, हार, अँगूठी, कङङ्कण, कटि करधनी मनोरम साज॥
 दिव्य अङङ्गरागोंसे रजित अङङ्ग सकल माधुर्य-निवास।
 विद्युद्वर्ण पीत अबरसे आवृत रय नितबावास॥
 जङ्घा-घुटने उभय मनोहर, पिंडली गोलाकार सुठार।
 परम कान्तिमय उन्नत श्रीपादाग्रभाग सुषमा-‌आगार॥
 नख-ज्योति निर्मल दर्पण-सम, अरुण-वर्ण माणि?य-समान।
 अङङ्गुलि-दलसे परम सुशोभित उभय चरण-पङङ्कज सुख-खान॥
 अङङ्कुश-चक्र-शङ्ख-यव-पङङ्कज-वज्र-ध्वजा चिह्नोंसे युक्त।
 अरुण हथेली, तलवे सुन्दर करते जनको बन्धन-मुक्त॥
 शुचि लावण्य-सार-समुदाय-विनिर्मित सकल मधुर श्री‌अङङ्ग।
 अनुपम रूप-राशि करती नित अगणित मारोंका मद-भङङ्ग॥
 मुख-सरोजसे मुरली मधुर बजाते गाते नन्द-किशोर।
 दिव्य रागकी सृष्टिस्न् रहे कर आनन्दार्णव मुनि-मन-चोर॥
 मुरली-ध्वनिसे आकर्षित हो वनका जीव-जन्तु प्रत्येक।
 निरख रहा श्रीमुखको अपलक बार-बार भुवि मस्तक टेक॥
 गोप-बालक
हरि-सम-वय-विलास-गुण-भूषण-शील-स्वभाव-वेषधर गोप।
 चचल, बाहु नचानेमें अति निपुण, बढ़ाते अनुपम ओप॥
 घेरे खड़े श्यामको करते मन्द-मध्य-न्नँचे स्वर गान।

छेड़ रहे वंशी-वीणाकी उसके साथ मधुरतम तान॥
 नन्हे-नन्हे शिशु विमुग्ध सब हरिका सुन्दर रूप निहार।
 कटि-रशनाकी क्षुद्र घंटियाँ हैं कर रहीं मधुर झनकार॥
 बघनखके आभूषण पहने घूम रहे सब चारों ओर।
 मीठी अस्ड्डुट वाणीसे हैं भोले शिशु लेते चित-चोर॥

गोपीजन
गोपीजनसे घिरे श्यामका अब कीजिये मधुरतम ध्यान।
 अति मनहर ब्रज-सुन्दरियोंकी ोणीसे सेवित भगवान॥
 स्थूल नितबोंके बोझेसे जो हो रहीं थकित, अति श्रान्त।
 मन्थर गतिसे चलतीं वे गुरु वक्षःस्थलसे भाराक्रान्त॥
 कबरी गुँथी कर रही उनके रय नितब-देशका स्पर्श।
 रोम-राजि त्रिवलीयुत वक्षःस्थलसे सटी पा रही हर्ष॥
 देह-लता रोमाच-‌अलंकृत पाकर वेणु-सुधा रसराज।
 मानो प्रेमरूप पादप हो गया पल्लवित, मुकुलित आज॥
 परम मनोहर मोहनकी अति मधुर मोहिनी मृदु मुसकान।
 चन्द्रालोक-सदृश करती अनुरागाबुधिका वर्धित मान॥
 मानो उसकी तरल तरंगोंके कणरूपी शोभा-सार।
 गोप-रमणियोंके अङङ्गोंमें प्रकट चारु श्रमबिन्दु अपार॥
 परम मनोहर भ्रूचापोंसे वनमाली वर्षा करते।
 तीक्ष्ण प्रेम-बाणोंकी, उनसे तन-मनकी सुध-बुध हरते॥
 विदलित मर्मस्थल समस्त हैं, हु‌ए जर्जरित सारे अङङ्ग।
 मानो प्रेम-वेदना ड्डैली अति दुस्सह, बदले सब रंग॥
 परम मनोहर वेष, रूप-सुषमामृतका करनेको पान।
 लोलुप रहतीं व्रज-बाला‌एँ नित्य-निरन्तर तज भय-मान॥
 प्रणयरूप पय-राशि-प्रवाहिणि मानो वे सरिता अनुपम।
 अलस-विलोल-विलोचन उनके उसमें शोभित सरसिज-सम॥

कबरी शिथिल हु‌ई सबकी, तब गिरे प्रड्डुल्ल कुसुम-सभार।
 मधु-लोलुप मधुकर मँडऱाते, सेवा करते कर गुजार॥
 व्रज-बाला‌ओंकी मृदु वाणी स्खलित हो रही है उस काल।
 छाया मद प्रेमामृत-मधुका, रही न कुछ भी सार-सँभार॥
 चीर-वसन नीवीसे विश्लथ, उसका प्रान्तभाग सुन्दर।
 करता अर्चि-नितब प्रकाशित, लोल काचि उल्लसित अमर॥
 खसे जा रहे ललित पदाबुजसे मणिमय नूपुर भूपर।
 टूट-टूटकर बिखर रहे हैं, ड्डैल रहे सब इधर-‌उधर॥
 निकल रहा मुखसे सी-सी स्वर, किपत अधर सुपल्लव-लाल।
 श्रवणोंमें मणि-कुण्डल शोभित, छायी सुधा-रश्मि सब काल॥
 अलसाये लोचन दोनों अति शोभित नील-सरोरुह-सम।
 सुन्दर पक्ष्म-विभूषित मुकुलाकार दीर्घ अतिशय अनुपम॥
 श्वास-समीरण शुचि सुगन्धसे अधर-सुपल्लव हैं अलान।
 अरुण-वर्ण धन, मोहनके वे नित नूतन आनन्द-निधान॥
 प्रियतम-प्रिय पूजोपहारसे उनके कर-पङङ्कज कोमल।
 सदा सुशोभित रहते, ऐसा अतुलित वह गोपी-मण्डल॥
 अपने असित विशाल विलोल लोचनोंको ले व्रज-बाला।
 उन्हें बनाकर नील नीरजोंकी मानो सुन्दर माला॥
 पूज रहीं हरिके सब अङङ्गोंको, यों सेवा करतीं नित्य।
 छूट गये उनसे जगके सब विषय दुःखमय और अनित्य॥
 नानाविध विलासके आश्रय हैं प्रेमास्पद श्रीभगवान।
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियोंके लोचन हैं मधुप-समान॥
 प्रणय-सुधारस-पूर्ण मनोमोहक मधुकर वे चारों ओर।
 उड़-‌उडक़र मनहर मुख-पङङ्कज-विगलित रस मधु-पान-विभोर॥
 आस्वादन करते, पीते रहते, पाते आनन्द अपार।
 मानो नेत्ररूप मधुपोंकी माला हरिने की स्वीकार॥
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियाँ, परम प्रेम-‌आश्रय भगवान।
 निर्मल कामरहित मनसे यह करिये अतिशय पावन ध्यान॥

गाय, बछड़े और साँड़
अब उन भाग्यवती गायोंका, गोकुलका करिये शुभ ध्यान।
 जिनकी अपने कर-कमलोंसे सेवा करते हैं भगवान॥
 थकीं थनोंके विपुल भारसे मन्थरगतिसे जो चलतीं।
 बचे तृणाङङ्कुर दाँतोंमें न चबातीं, नहीं जरा हिलतीं॥
 पूँछोंको लटकाये देख रहीं श्रीहरिके मुखकी ओर।
 अपलक नेत्रोंसे घेरे श्रीहरिको वे आनन्द-विभोर॥
 छोटे-छोटे बछड़े भी हैं घेरे श्रीहरिको सानन्द।
 मुरलीसे अति मीठे स्वरमें गान कर रहे हरि स्वच्छन्द॥
 खड़े किये कानोंसे सुनते हैं वे परम मधुर वह गान।
 भरा दूध मुँहमें, पर उसको वे हैं नहीं रहे कर पान॥
 ड्डेनयुक्त वह दूध बह रहा उनके मुखसे अपने-‌आप।
 बड़े मनोहर दीख रहे हैं, हरते हैं मनका संताप॥
 अतिशय चिकनी देह सुगन्धित-युत वह गो वत्सोंका दल।
 सुखदायक हो रहा सुशोभित जिनका भारी गलकबल॥
 माधवके सब ओर उठाये पूँछ, नये श्‌ृङङ्गोंसे युक्त।
 करते हैं प्रहार आपसमें कोमल मस्तकपर भययुक्त॥
 लडऩेको वे भूमि खोदते नरम खुरोंसे बारंबार।
 विविध भाँतिके खेल कर रहे पुनः-पुनः करते हुंकार॥
 जिनकी अति दारुण दहाड़से क्षुध दिशा‌एँ हो जातीं।
 बृहत्‌्‌ ककुदसे भारी जिनकी चलते देह रगड़ खातीं॥
 दोनों कान उठाये सुनते मुरलीका रव साँड़ विशाल।
 महाभाग वे पशु, जो हरिका सङङ्ग पा रहे हैं सब काल॥

देवता, मुनि, योगी
गोपी-गोप और पशु‌ओंके घेरेसे बाहर मतिमान।
 सुर-गण विधि-हर-सुरपति आदिक करते ललित छन्द यश-गान॥

वेदायास-परायण मुनिगण सुदृढ़ धर्मका कर अभिलाष।
 घेरेसे बाहर दक्षिणमें स्थित, विषयोंसे सदा उदास॥
 पृष्ठस्न्भागकी ओर खड़े सनकादि महामुनि योगीराज।
 अन्य मुमुक्षु समाधि-परायण जिनके, साधनके सब साज॥
 देवर्षि नारद
तदनन्तर आकाशस्थित देवर्षिवर्यका करिये ध्यान।
 ब्रह्मापुत्र नारद जिनका वपु गौर सुधाकर-शङ्ख-समान॥
 सकल आगमोंके जाता, विद्युत्‌्‌-सम पीत जटाधारी।
 हरि-चरणाबुजमें निर्मल रति जिनकी हैं अतिशय प्यारी॥
 सर्वसङङ्गका परित्याग कर जो हरिका करते गुण-गान।
 नित्य-निरन्तर श्रुतियुत नाना स्वरसे स्तुति करते मतिमान॥
 विविध ग्रामके ललित मूर्छनागणको जो अभिव्यजित कर।
 नित्य प्रसन्न कर रहे हरिको प्रेम-भक्ति-मणिके आकर॥
 ध्यानका फल
इस प्रकार जो काम-राग-वर्जित निर्मल-मति परम सुजान।
 नन्द-तनय श्रीकृष्णचन्द्रका प्रेमसहित करते हैं ध्यान॥
 उनपर सदा तुष्टस्न् रहते हरि, बरसाते हैं कृपा अपार।
 देते प्रेमदान अति दुर्लभ, जो समस्त सारोंका सार॥

 १५४
(राग बिलावल-तीन ताल)
कर नवनीत लियें नटनागर।
मधुर सरल सिसुभाव सखनि सँग निरतत निरवधि सर्वसुखाकर॥
 कटि कछनी मुरली मधु खोंसे, कुंचित केस मयूर-पिच्छधर।
 कठुला कण्ठ, बघनखा सोहत, बाजूबंद, हार-दुति मनहर॥
 मधुर नयन मोहत मुनि-जन-मन, कुंडल रत्न स्रवन अति सुंदर।
 तिलक भाल सुषमा अनुपम छबि जन-चकोर-दृग-हरन सुधाकर॥

 १५५
(राग काफी-ताल कहरवा)
कृष्ण-‌अङङ्ग-लावण्य मधुरसे भी सुमधुरतम।
 उसमें श्रीमुख-चन्द्र परम सुषमामय अनुपम॥
 मधुरापेक्षा मधुर, मधुरतम उससे भी अति।
 श्रीमुखकी मधु-सुधामयी, ज्योत्स्नामयि सुस्मिति॥
 इस ज्योत्स्ना-स्मिति मधुरका एक-‌एक कण अति मधुर।
 होकर त्रिभुवन व्याप्त जो बना रहा सबको मधुर॥
  १५६
(राग पीलू-तीन ताल)
सजल-जलद-नीलाभ तन, बदन-सरोज रसाल।
 पीत-बसन, सिखि-पिच्छ सिर मुकुट, तिलक बर भाल॥
 पग नूपुर, कुंडल श्रवन, कंठ हार-वनमाल।
 हाथ लि‌एँ मुरली मधुर, ललित त्रिभंगी लाल॥
 मुनि-मन-हर, जन-मन-सुखद, अपलक नैन बिशाल।
 ठाढ़े भोले भावमय मधुर बाल-गोपाल॥

 १५७
(राग काफी-ताल कहरवा)
मधुर मनोहर सुंदर अति सिखि-पिच्छ सुसोहत।
 मलयानिल सौं नाचि-नाचि सब के मन मोहत॥
 कुंतल चूर्न कपोल नाग-सिसु-सम सोभामय।
 कुंचित केस-कलाप मनहुँ मधुपावलि रसमय॥
 नील कमल बिकसित, मरकत मनि-सम मुख राजत।
 चंदन-चर्चित चिबुक बिंदु मृगमद सुबिराजत॥
 गजमुक्ता सुचि सुघर करन कुंडल-द्युति झलमल।
 नीरद-स्याम कपोल कलित आभा अति उज्ज्वल॥

करतल अरुनिम उभय मनहुँ स्थल-पद्म प्रस्ड्डुटित।
 तेहि बिच बेनु मृनाल मनहुँ राजत सुचि सुघटित॥
 नील बदन, उज्ज्वल मुक्ता-मनि, कौस्तुभ अरुनिम।
 कालिन्दी-सुरसरी-सरस्वति कौ सुभ संगम॥
 बैजयंति बनमाल जानु पर्जंत डुलति अति।
 चलत, करत जनु नृत्य मनोहर मधुर ललित गति॥
 कटि पट-पीत, च्नित किंकिनि, पग नूपुर की धुनि।
 करि मधु-सुधा-सुपरस मृतक मुनि-मन जीवित पुनि॥
 बिंब-बिडंबित अधर मधुर मुरली रस बरसत।
 मुनि-रिषि-‌अज-भव-‌इंद्र सकल जेहि लगि नित तरसत॥
 बिस्व अखिल अगनित मैं नहिं को‌उ मनुज-दनुज-सुर।
 जो न मोह एहि रूप अलौकिक निरखि पलक भर॥

 १५८
(दोहा)
नव-नीरद-नीलाभ तन, त्रिभुवन-मोहन रूप।
 मधुप-मद-हरन कृस्न घन कुंचित केस अनूप॥
 सिर चूड़ा, मनिमय मुकुट, मोरपिच्छ रमनीय।
 चंचल दृग-जुग चिाहर, भृकुटि कुटिल कमनीय॥
 मुरलि मधुर राजत अधर, कटि पट पीत ललाम।
 गुंजा-मुक्ता-बन-कुसुम माला गल अभिराम॥
 सच्चिन्मय सुषमा परम, भूषन-भूषन अंग।
 अनुपम मुख-छबि लखि लजत सत-सत कोटि अनंग॥
 राधा-धन, राधा-रमन, राधा-प्रानाधार।
 मुनि-मन-हर मोहन-चरन बंदौं बारंबार॥

 १५९
(राग काफी-ताल कहरवा)
सजल-जलद-नीलाभ श्याम तन परम मनोहर।
 गोरोचन-चर्चित तमाल-पल्लव-सम सुन्दर॥
 गोल भुजा आजानु प्रलिबत मद मनोज हर।
 कङङ्कण-केयूरादि विभूषित परम रय वर॥
 गुजावलि-परिवेष्टिस्न्त, सुमन विचित्र सुशोभित।
 चूड़ामण्डित रत्न-मुकुट शिखिपिच्छ नवल युत॥
 घुँघराली अलकावलि, नील कपोल सुचुिबत।
 कुण्डल-द्युति कमनीय गण्ड-‌आभापर उजलित॥
 बिबाफल-बन्धूक पुष्पके सुषमाहारी।
 अरुण अधरपर मधुर मुरलिका मजुल धारी॥
 हास्य मधुरतम त्रिभुवन-मोहन अति मुदकारी।
 नासा-‌अग्र सुराजित मुक्ता मणि-सहकारी॥
 बिंधे नेत्र गोपी-कटाक्ष-शरसे शोभित नित।
 जिनके भू-चालनसे गोपीगण उन्मादित॥
 सहज त्याग सब भोग निरन्तर सुख-सेवा-रत।
 श्यामा-श्याम-सुखैकवासना अति मन अतुलित॥
 रेखा-त्रय-राजित सुकण्ठमें खेल रही कल।
 स्वर-संयुत मूर्च्छना, राग-रागिनियाँ निर्मल॥
 कौस्तुभमणि देदीप्यमान विस्तृत वक्षःस्थल।
 दिव्य रत्न-मणि-हार, सुमन-माला शोभित गल॥
 कटि किङिङ्कणि मृदु मधुर शद घण्टिका-विकासित।
 अरुण चरण-नख दिव्य ज्योतिसे ब्रह्मा प्रकाशित॥
 मणिमय नूपुर चरण करत जग मोद-सुहासित।
 पीतवसन असमोर्ध्व ज्योतिमय देह सुलासित॥
अनुपम अङङ्ग-सुगन्ध दिव्य सुर-मुनि-मन-हारी।
 खड़े सुललित त्रिभङङ्ग कल्पतरु-मूल-विहारी॥
 साथ दिव्य-गुण-रूपमयी वृषभानु-कुमारी।
 सदा अभिन्न, परम आराध्या राधा प्यारी॥
 सखा-सुरभि-गोवत्स बन्धु-प्रिय माधव मनहर।
 नन्द-यशोदा-नन्दन विश्व-विमोहन नटवर॥
 हम सर्वथा अयोग्य, अनधिकारी, निकृष्टस्न्तर।
 सहज दयावश करो हमें स्वीकार, मुरलिधर !॥
 दो उन प्रेमी भक्तएंके भक्तएंकी पद-रज।
 जो सेवनरत नित्य प्रिया-प्रियतम-पद-पङङ्कज॥
 परम सुदुर्लभ, जिसे चाहते हैं उद्धव-‌अज।
 नहीं चाहते भुक्ति-मुक्ति, उस पद-रजको तज॥
  १६०
(राग आसावरी-तीन ताल)
जयति जय गोप्रेमी गोपाल।
ठाढ़े मधुर मनोहर कमल-सरोबर-तट नँदलाल॥
 नील स्याम उज्ज्वल आभा, कर मुरली गल बनमाल।
 रत्न-मयूर-मुकुट, कुंचित कच कृस्न, तिलक बर भाल॥
 पीत बसन, भूषित अँग भूषन, मोहन नैन बिसाल।
 अरुन कमल कर बाम सुसोभित, नूपुर चरन रसाल॥
 परस पा‌इ सुचि स्याम अंग सुखमग्र सुरभि ततकाल।
 रही अचल पाहन-मूरति-सी भूलि जगत-जंजाल॥

 १६१
(राग देश-ताल मूल)
कर मुरली, कटि काछनी, कलित कमल-मुख-नैन।
 कृष्ण कलेवर, नीलमनि सरस सकल सुख-‌ऐन॥

बिहरत बृंदा-बिपिन बर करषत मन बरजोर।
 नित नूतन लीला ललित करत भुवन-मन-चोर॥
 बरसावत रस-‌अमिय मधु, जन-जन करत निहाल।
 ठाढ़े गो-तन तनु दि‌एँ गो-प्रेमी गोपाल॥

 १६२
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
कृष्ण-नील-द्युति तन सुन्दर अति, पीतवसन, उर मुक्ता माल।
 भव्य विभूषण भूषित, भाल तिलक शुचि, ललित त्रिभङङ्गी लाल॥
 पदतल-करतल अरुण मनोहर, कबु-कण्ठ, सिर मुकुट विशाल।
 जय जय भक्त-भीर-भजन, जन-मन-रजन, जय वेणु-गुपाल॥

 १६३
(राग देश-तीन ताल)
कालिंदी-तट ठाढ़े नटवर।
कदँब-मूल मृदु बेनु बजावत, गावत मिलि सखियन सँग सुंदर॥
 सिर सिखिपिच्छ मुकुटमनि-मंडित, अलकावलि अति लजवत मधुकर।
 पीत बसन, बन-कुसुम-माल गल, कटि किंकिनि, पग बाजत नूपुर॥
 ढोलक-झाँझ-सितार-सरंगी मधुर बजावत सखीं लि‌ऐं कर।
 जल-खग बन-पंछी सब मोहित, गौ सब मुग्ध सुनत मृदु-मधु-सुर॥

 १६४
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
जय जय ब्रजराज-तनय ब्रजबन-बिहारी।

 सोहत बर लकुटी कर, मोर-मुकुट मस्तकपर,  
    मुरली धर मधुर अधर, जमुना-तट-चारी।
 नील बदन पीत बसन, संग ग्वाल-गोपीजन,  
    मुनि-मन-हर मंद-हसन, गुंज-माल-धारी॥

भ्रमर करत मधुर गुंज, सुरभित तन कंज-पुंज,   
    बिहरत निकुंज-कुंज राधा-मन-हारी।
 निरतत नटबर-सुबेस, सोहैं सिर कुँचित केस,   
    हरत मदन-मद असेस गोपी-सुख-कारी॥
  १६५
(राग काफी-ताल कहरवा)
सजल-जलद-नीलाभ श्याम वपु मुनि-मन-मोहन।
 अमित शरद-शशि-निन्दक मुख मनहर अति सोहन॥
 कुचित कुन्तल कृष्ण अपरिमित मधुकर-मद-हर।
 रत्नमालयुत कमल-कुसुम शिखि-पिच्छ मुकुट बर॥
 चिा-विा-हर नयन, रत्न-कुण्डल श्रुति राजत।
 मुक्तामणि वनमाल विविध कल कण्ठ विराजत॥
 रत्नमयी मुँदरी, कङङ्कण, भुजबंद भव्य अति।
 वंशी धर कर-कज भर रहे सुर सुललित गति॥
 कटि पट पीत परम सुन्दर, पग नूपुर-धारी।
 मृदु मुसकान विचित्र नित्य ब्रज-विपिन-बिहारी॥

 १६६
(राग जंगला-ताल कहरवा)
नव किशोर नटवर मुरलीधर मधुर मयूर-मुकुटधर लाल।
 कटि पट पीत, करधनी कूजित, कुटिल भ्रुकुटि, मधु नयन विशाल॥
 अतुलनीय सौन्दर्य-निकेतन, द्विभुज, कण्ठ मणि-मुक्ता-माल।
 गोल कपोल अरुण नीलाभायुत, गोरोचन-तिलक सुभाल॥
 भूषण-भूषण अङङ्ग ललित अति, तन त्रिभङङ्ग सुषमा-‌आगार।
 मुख शरदिन्दु-सुभग, सुषमा-निधि, राधा-तन-मन-सुख-‌आधार॥
 देख रूप निज हु‌ए चमत्कृत मोहन मन्मथ-मन्मथ श्याम।
 जाग उठा तुरंत मनमें शुचि निज सौन्दर्यास्वादन-काम॥

 १६७
(दोहा)
छैल-छबीले लाडिले बर कालिंदी कूल।
 अरुनोत्पल आसन सुखद सोभित पीत दुकूल॥
 अधरनि धर मुरली मधुर मोहन मधुमय तान।
 लगे अलापन, मगन ह्वै, सहज भुलावन भान॥
 गैया नित की सहचरी ठाढ़ी दाहिनि ओर।
 नयन मूँदि रहे रसभरी मुरली-तान-विभोर॥
  १६८
(राग ईमन-तीन ताल)
कोटि-कोटि शत मदन-रति सहज विनिन्दक रूप।
 श्रीराधा-माधव अतुल शुचि सौन्दर्य अनूप॥
 मुनि-मन-मोहन, विश्वजन-मोहन मधुर अपार।
 अनिर्वाच्य, मोहन-स्वमन, चिन्मय सुख रस-सार॥
 शक्ति, भूति, लावण्य शुचि, रस, माधुर्य अनन्त।
 चिदानन्द सौन्दर्य-रस-सुधा-सिन्धु श्रीमन्त॥

 १६९
(राग शिवरजनी-ताल कहरवा)
शारदीय-पूर्णिमा-सुनिर्मल-स्निग्ध-सुधावर्षी द्युतिमान।
 ज्योत्स्ना-स्मित-समूह-विकसित शुचि शीतल अगणित चन्द्र महान॥
 जिनकी विश्व-मोहिनी अङङ्ग-द्युतिसे सब हो जाते लान।
 परमोज्ज्वल नीलाभ-श्याम वे अनुपम विमल-दीप्ति भगवान॥
 परमहंस-‌ऋषि-मुनि-मन-मोहन, गुरु-जन-मोहन मोहन रूप।
 श्रुति-सुराङङ्गना, स्वयं ब्रह्माविद्या मन-मोहन, परम अनूप॥
 विश्वनारि-मन, स्व-मन, शत्रु-मन मोहन, सर्वरूप-‌आधार।
 सौन्दर्यामृत-माधुर्यामृत-सागर लहराता सुख-सार॥

 १७०
(राग भैरवी-ताल कहरवा)
मोरपिच्छ सिर, कर्णिकार श्रुति, स्वर्णवर्ण तन पीताबर।
 पुष्पमाल गल, वैजयन्ति कल, नटवर वपु अतिशय सुन्दर॥
 मुरलि-छिद्र शुचि अधर-सुधा-रस भरत, करत लीला मनहर।
 प्रविशत वृन्दा-विपिन ग्वाल सब गावत ललित कीर्ति सुस्वर॥
  १७१
(राग माँड़-ताल कहरवा)
नित नूतन गुन-रूप-रस दिय बढ़त बिनु पार।
 राधा-जीवन मुरलिधर सुंदर स्याम उदार॥
  १७२
(राग तोड़ी-तीन ताल)
नित्य, अनन्त, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय, प्रेम-विजान-निधान।
 विश्वातीत-विश्वमय, निर्गुण-सगुण, रस-सुधा-सिन्धु महान॥
 अकल-सकल, सुर-मुनि-‌ऋषि-सेवित-चरण-सरोरुह श्रीभगवान।
 परम शरण्य, परम गुरु, करते जन प्रपन्नका अभय-विधान॥

 १७३
(दोहा)
उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ-विमान आकाश।
 मानो हैं हय चल रहे, हरि-पग-तल-रथ-रास॥
 दिव्य रत्नमणि-रचित अति द्युतिमय विमल विमान।
 चिदानन्दघन सत्‌्‌ सभी वस्तु-साज-सामान॥
 अतुल मधुर सुन्दर परम रहे विराजित श्याम।
 नव-नीरद-नीलाभ-वपु, मुनि-मन-हरण ललाम॥
 पीत वसन, कटि किंकिणी, तन भूषण द्युति-धाम।
 कण्ठ रत्नमणि, सौरभित सुमन-हार अभिराम॥

मोर-पिच्छ-मणिमय मुकुट, घन घुँघराले केश।
 कर दर्पण-मुद्रा वरद विभु-विजयी वर वेश॥
 शोभित कलित कपोल अति अधर मधुर मुसुकान।
 पाते प्रेम-समाधि, जो करते नित यह ध्यान॥

 १७४
(राग माँड़-ताल कहरवा)
रूप-सील-सौंदर्य-निधि महाभाव रसखान।
 स्याम-सुखी स्यामा अतुल राधा परम सुजान॥

 १७५
(राग भैरव-ताल कहरवा)
मधुर-सुमधुर, मधुर उससे भी, परम मधुर, उससे भी और-
 मधुर-मधुरतम, नित्य-निरन्तर वर्द्धनशील मधुर सब ठौर॥
 अङङ्ग-‌अङङ्ग माधुर्य-सुपूरित, मधुर अमृतमय पारावार।
 अखिल विश्व-सौन्दर्य, मधुर माधुर्य सकलका मूलाधार॥
 कनक-कमल-कमनीय कलेवर, सहज सौरभित मधुर अपार।
 नेत्रद्वय, मुख, नाभि, पदद्वय, हस्तद्वय द्युति-सुषमागार॥
 विविध वर्ण, सौरभ विचित्र युत अष्टस्न् कमल ये अति अभिराम।
 यों विकसित नव-कमल मिलितसे, अनुपम शोभा हु‌ई ललाम॥

 १७६
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
जय जय हरि-हृदया वृषभानु-सुकुमारी॥  
 बिजुरि बरन गौर बदन, सोहत तन नील बसन,  
     बिंब अधर मधुर हँसन, माधव-मन-हारी।
 सुषमामय अंग-‌अंग, लि‌एँ मधुर सखिन संग,  
     बिहरत भरि मन उमंग प्रियतम-सुखकारी॥

लोक-बेद-लाज त्यागि, त्यागि स्वजन महाभाग,  
     हरि-हित गावत बिहाग, डोलत मतवारी।
 प्रियतम-सुख-जल-सुमीन, निज-सुख-बांछा बिहीन,  
     गुननिधि, पै बनी दीन, राधिका दुलारी॥
  १७७
(राग सूहा-तीन ताल)
हरत मन-माधव कंचन-गोरी॥
राधा अनियारे-रतनारे लोचन सौं, कछु भौंह मरोरी।
 पग-पैंजनि, दो‌उ चरन महावर, करधनि-धुनि मनु मधु-रस घोरी॥
 दरपन कर, सोहत मुकता-मनि-हार हृदै, मृदु हँसनि ठगोरी।
 नैननि बर अंजन मन-रंजन, चिा-बिा-हर नित बरजोरी॥
 नील बसन, सरदिंदु बदन-दुति, बेंदी सेंदुर-केसर-रोरी।
 सहज मथत मन्मथ-मन्मथ मन दिय छटा वृषभानु-किसोरी॥

 १७८
(राग बागेश्री-ताल कहरवा)
अङङ्ग-‌अङङ्ग अप्रतिम अमित सौन्दर्य, अतुल माधुर्य महान।
 दिव्य पवित्र अङङ्ग-सौरभ, संतत शुचि अधर मधुर मुसकान॥
 नेत्र सुधावर्षिणी दृष्टिस्न्युत, चचलता, वक्रता विशाल।
 दीर्घ कृष्ण कच, सोह चन्द्रिका, वेणि-सुगुिफत मालति-माल॥
 सुकुमारता, सहज श्री-सुषमा, प्रियदर्शना, विलक्षण रूप।
 सहज सरलता परम बुद्धिमाा, सेवा-रति, धैर्य अनूप॥
 नित्य विरह-कातरता, मिलनोत्कण्ठा, नित्य-मिलन-‌अनुभूति।
 निरभिमानता, मान-रूपता, वामभावना, विमल विभूति॥
 विनयशीलता, शुचि विनम्रता, सर्वत्यागमयता अति पूत।
 करुणामयता, अति उदारता, कर्मकुशलता रस-सभूत॥
साधुभाव, सौशील्य परम, चापल्य मधुर, गाभीर्य अपार।
 गीत-वाद्य-शुचि-नृत्य-कुशलता, ललित अनन्त कला-‌आगार॥
 प्रिय-गुण-वर्णन-मुखरा अति, मन मौन, नित्य उद्दीपित भाव।
 स्व-सुख-कल्पनाशून्य सर्वथा, नित्य एक प्रियतम-सुख-चाव॥
 सहज प्रेम-प्रतिमा, पर निजमें नित्य प्रेमशून्यता-जान।
 आत्मनिवेदनमयता, पर है नहीं समर्पण-स्मृति-‌अभिमान॥
 सखी-सहचरी-प्रेमविवशता, सबमें गुण-महिमाका भान।
 सबके सुखमें सुखी सदा निज सुखका सहज त्याग निर्मान॥
 सौत-प्रियता-सेवा सुखमय प्रियतम-सुख-सपादन-जन्य।
 प्रियतम-वशीकरण गुणगणमय, परम त्यागमय जीवन धन्य॥
 रति, स्नेह अति, प्रणय, मान शुचि, पचम राग तथा अनुराग।
 सप्तम दुर्लभ भाव, प्रेम अष्टस्न्म अति महाभाव युत त्याग॥
 आठोंसे सपन्न, इन्हींकी अगली शुभ परिणतिसे युक्त।
 प्रियतम-महिषी-प्रेयसिगणमें प्रमुख सर्व-‌अर्पण-संयुक्त॥
 प्रेम-विवशता मधुर, नित्य अभिसार-प्रियता, प्रिय-स्मृति-लीन।
 नवनिकुजवासिनि, मधुभाषिणि, परमैश्वर्यमयी, शुचि दीन॥
 ममतामयी मधुकरी करती प्रिय-पद-कज मधुर-रस-पान।
 ’मैं अभिन्न प्रियतमा श्यामकी’-एक अनन्य अहंका भान॥

 १७९
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगलबर एक तव, दो रूप।
पुतरी-नयन-तरंग-तोय-सम, भिन्न न भिन्न-स्वरूप॥
 सुभ्र चंद्रिका-चंद्र, दाहिकासक्ति-‌अनल सम एक।
 अति उदार बितरत स्वरूप-रस सहज, निभावत टेक॥

 १८०
(राग देश-तीन ताल)
दो‌ऊ सदा एक रस पूरे।
एक प्रान, मन एक, एक ही भाव, एक रँग रूरे॥
 एक साध्य, साधनहू एकहि, एक सिद्धि मन राखैं।
 एकहि परम पवित्र दिय रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं॥
 एक चाव, चेतना एक ही, एक चाह अनुहारै।
 एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै॥
  १८१
(राग खमाज-तीन ताल)
दुहुनि की प्रीति अनादि, अनोखी।
परम मधुर मूरति सनेह की, चिदानंदमय चोखी।
 मन-बचननि ते परे दिय दंपति अनादि अति सोहनि।
 पटतर नहिं को‌उ, भ‌ई, न हो‌इहै, जोड़ी मोहन-मोहनि॥
 प्रेमी-प्रेमास्पद दो‌उ नित ही, नित्य एक, द्वै देही।
 नित्य रास-रस-मा, मातारहित सुचारु सनेही॥
 ब्रज-निकुंज प्रगटे दो‌उ रसमय, रसिक जननि सुख-हेतु।
 करत नित्य लीला तहँ सुललित लोकोार रस-केतु॥
 सेवक मोहि करो दो‌उ रसनिधि, करि अति नेह अकारन।
 राखौ चरननि में नित अपुनें, करि बिष-बिषय-निबारन॥

 १८२
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
कृष्ण शक्तिमय, शक्ति राधिका-चिन्मय एक तव भगवान।
 नित्य, अनादि, अनन्त, अगोचर, अमल, अनामय, सत्य महान॥
 त्रिगुणरहित, भगवद्गुणमय, शुचि सच्चिन्मय आनन्द-शरीर।
 लीलामय, लीला, लीला-रत, दो तनु दिव्य नित्य अशरीर॥

 १८३
(राग पीलू-ताल कहरवा)
ह्ल१रू१२/६द्भवह सखि ! शशधर सुखद सुठार।  यह सखि ! शुभ्र ज्योत्स्ना-सार॥
वह सखि ! सूर्य ज्योति-दातार।  यह सखि ! द्युतिमा सूर्याधार॥
वह सखि ! अग्रि देवता ताप।  यह सखि ! शक्ति दाहिका आप॥
वह सखि ! सागर अति गभीर।  यह सखि ! जलनिधि जीवन नीर॥
वह सखि ! सुन्दर देह सुठाम।  यह सखि ! चेतन प्राण ललाम॥
वह सखि ! भूषण सुषमा-सार।  यह सखि ! स्वर्ण भूषणाधार॥
वह सखि ! अतुल-शक्ति बलवान।  यह सखि ! शक्तिमूल, बल-खान॥
वह सखि ! सदा सुवर्धन रूप।  यह सखि ! रूपाधार अनूप॥
वह सखि ! अलख निरजन तव।  यह सखि ! तवाधार महव॥
वह सखि ! मुनि-मोहन सुखधाम।  यह सखि ! स्वयं मोहिनी श्याम॥
वह सखि ! कला-कुशल रमनीय।  यह सखि ! स्वयं कला कमनीय॥
वह सखि ! अग-जग-सुख-‌आगार।  यह सखि ! तत्सुखकी भण्डार॥
 १८४
(राग पीलू-ताल कहरवा)
वह सखि ! नूतन जलधर अङङ्ग। यह सखि ! सुस्थिर बिजलि-तरंग॥
 वह सखि ! मरकत मणि अभिराम। यह सखि ! निर्मल हेम ललाम॥
 वह सखि ! तरुवर तरुण तमाल। यह सखि ! लतिका कनक रसाल॥
 वह सखि ! मधुकर रसिक उदार। यह सखि ! पद्मिनि रस-भण्डार॥
 वह सखि ! बिधुवर विभा-विभोर। यह सखि ! अपलक नयन-चकोर॥
 वह सखि ! प्रिया-सुखागत-प्राण। यह सखि ! प्रियतम-सुखकी खान॥

 १८५
(राग पीलू-ताल कहरवा)
रास-बिहारिनि राधिका, रासेस्वर नँद-लाल।
 ठाढ़े सुंदरतम परम मंडल रास रसाल॥

 १८६
(दोहा)
भावमयी श्रीराधिका, रसमय श्रीगोविंद।
 उभय उभय-मुख-कंज पै खिंचि रहे नैन-मिलिंद॥
 मधुर अधर मुरली धरे ठाढ़े स्याम त्रिभंग।
 राधा उर उमग्यौ सु-रस रोमांचित अँग-‌अंग॥
 नील-पीत-पट दुहुँन के भूषन-भूषन देह।
 होड़ लगी अति दुहुँन में बढ़त छिनहि छिन नेह॥
 मोर-मुकुट, सिर चंद्रिका, त्रिभुवन-मोहन रूप।
 करत परस्पर पान दो‌उ नित रस दिय अनूप॥

 १८७
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगल बर परम मधुर रमनीय।
सहज मार-रति-मद-मर्दन छबि ललित, कलित, कमनीय॥
 बदन-कमल नित सहज प्रड्डुल्लित, सरस मधुर मुसुकान।
 बरबस हरत मुनींद्र बिजित-मन बीतराग तपवान॥

 १८८
(राग खमाच-राग दादरा)
जयति जय जयति रस-भाव-जोरी।
नील घन स्याम अभिराम, मुनि-मन-हरन,   
     दुति करन ज्योति राधा किसोरी।
 पीत पट ललाम छबिधाम सुचि, नील-बरन,   
     स्वर्न-तन राजत, डारत ठगोरी॥
 स्याम-छबि निरखत अनिमेष राधा सतत,   
     स्तध मनु देखि ससधर चकोरी।

राधा-मुख-कमल लखि मा स्यामसुंदर-दृग-  
     भृंग रस-पान-रत अमिय घोरी॥
 सखियन अति भीर जुरी, जुगल रूप निरखन कौं,  
     रहीं सब चकित चित, तृनहि तोरी।
 राधिका-माधव द्वै लसत, मन बसत नित,  
     ह्वै रही प्रेमबस देह मोरी॥
  १८९
(दोहा)
परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-रूप।
 कालिंदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप॥
 सुधा-मधुर-सौंदर्य-निधि छलकि रहे अँग-‌अंग।
 उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग॥
 प्रगटत सतत नवीन छबि दो‌ऊ होड़ लगाय।
 हार न मानत जदपि, पै दो‌ऊ रहे बिकाय॥
 नित्य छबीली राधिका, नित छबिमय ब्रज-चंद।
 बिहरत बृन्दा-बिपिन दो‌उ लीला-रत स्वच्छंद॥

 १९०
(राग आसावरी-तीन ताल)
जुगल छबि हरति हिये की पीर।
कीर्ति-कुँअरि ब्रजराज-कुँअर बर ठाढ़े जमुना-तीर॥
 कल्पबृक्ष की छाँह, सुसीतल-मंद-सुगंध समीर।
 मुरली अधर, कमल कर कोमल, पीत-नील-दुति चीर॥
 मुक्ता-मनिमाला, पन्ना गल, सुमन मनोहर हार।
 भूषन बिबिध रत्न राजत तन, बेंदी-तिलक उदार॥
 स्रवननि सुचि कुंडल झुर झूमक झलकत ज्योति अपार।
 मुसुकनि मधुर अमिय दृग-चितवनि बरसत सुधा-सिंगार॥

 १९१
(राग पीलू-तीन ताल)
सोहत जुगल राधे-स्याम।
नील नीरद स्याम, गोरी राधिका अभिराम॥
 पीत बसन सुनील तन पर लसत सोभा-धाम।
 नील सारी अति सुसोभित गौर देह ललाम॥
 उभय अनुपम रूप-निधि, सृङङ्गार के सृङङ्गार।
 सील-गुन-माधुर्य-मंडित अतुल, सुषमागार॥
 दिय देह, सुमन अलौकिक सुचि सदा अबिकार।
 सर्ब, सर्बातीत, निरगुन, सकल गुन आधार॥
 प्रकृति-गत, नित प्रकृतिपर, रस दिय पारावार।
 एक नित जो, बने नित दो करत नित्य बिहार॥
 करत अति पावन परस्पर प्रेममय यौहार।
 स्व-सुख-बांछा-रहित पूरन त्यागमय आचार॥
  १९२
(राग भूपाली-तीन ताल)
स्याम-स्यामा सुषमाके सागर।
कोटि काम-रति मोहन सोहन नव-नागरि नट-नागर॥
 कल कमनीय किसोर-बयस दो‌उ स्याम-गौर सुख-‌आगर।
 मधुर-मधुर मुसुकात परसपर निरखत छबि नित जागर॥
  १९३
(राग हमीर-तीन ताल)
बिराजत रासेस्वरि-रसराज।
गौर-स्याम तन नील-पीत पट सजे मनोहर साज॥
 चंचल चपल नैन की चितवनि चित उपजावत मोद।
 मधुर बचन रसभरे परस्पर कहि-कहि करत बिनोद॥
 कलित केलि कमनीय अलौकिक रस-‌आनंद अनूप।
 पल-पल बढ़त भाव-माधुरि सुचि, विकसत नव-नव रूप॥

 १९४
(राग झिंझोटी-ताल दादरा)
सोहत सुठि स्याम संग राधा रस-भीनी।
 राधा-मन लीन-स्याम, राधा हरि-लीनी॥
 सुभग नील-स्याम बदन, राधा हेम रंगी।
 पीत बसन सुंदर, नव नील पट सुरंगी॥
 अंग बरन आपस के दिय बसन धारी।
 मोर-मुकुट सोहत सिर, चंद्रिका उज्यारी॥
 अधरनि पै दो‌उन के मृदुल हँसी छा‌ई।
 दो‌ऊ ही दो‌उन के अनुपम सुखदा‌ई॥
 रास-रसराज स्याम, रासेस्वरि राधा।
 सुंदर अभिराम स्याम, नित ललाम राधा॥
  १९५
(राग बिहाग-तीन ताल)
बनहिं बन रस ढरकावत डोलैं।
राधा-माधव अंसनि कर धरि मधुरी बानी बोलैं॥
 स्याम-मेघ राधा-दामिनि नित नव रस-निर्झर खोलैं।
 बिहरत दो‌उ रसमा परस्पर, अमिय प्रेमरस घोलैं॥
 रसपूरित भुवि खग-मृग-तरु-सर-सरिता करत किलोलैं।
 उमग्यौ मधु-रस-निधि अगाध, अति उछलत बिबिध हिलोलैं॥

 १९६
(राग परज-ताल कहरवा)
लता-निकुज मध्य माधव धर नटवर वेश रहे सुविराज।
 विधुबदनी पिय-हियकी रानी राधा रही अङङ्कमें राज॥
 निरख मुख-कमल मधुप बने हरि-नयन कर रहे मधु-रस-पान।
 प्रेम मधुर पुलकित तन, विगलित हृदय, रसिक रसराज महान॥

 १९७
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
राधा-माधव माधव-राधा छाये देश-काल सब ओर।
 नाच रही राधा मतवाली, मुरली टेर रहे मन-चोर॥
 देखो, सुनो सदा सबमें सर्वत्र भरे दोनों रस-धाम।
 मधुर मनोहर मूरति, मुरली-ध्वनि बरसाती सुधा ललाम॥
 लीला-लीलामय ही है सब, लीला-लीलामय सर्वत्र।
 लीला-लीलामय ही रहते, करते लीला विविध विचित्र॥
 नित्य मधुर दर्शन, सभाषण, स्पर्श मधुर नित नूतन भाव।
 नित नव मिलन, नित्य मिलनेच्छा, नित नव रस आस्वादन चाव॥
  १९८
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
कलित कल्पतरु-कुंज सुगंधित सुमनावलि-मंडित कमनीय।
 अवतारावलि-‌अंबुज-दल मनि-रत्न-रचित आसन रमनीय॥
 सुख पहुँचावन हेतु परस्पर सजे सकल अँग सुंदर साज।
 मधुर मनोहर राधा-माधव एकहि दो बन रहे बिराज॥
 सील-सँकोच-भरी मुख-छबि पर छलकि रह्यौ हिय-रस कौ भाव।
 बोल न निकसत मुख दो‌उन कैं, उमगि उठ्यो बोलन कौ चाव॥
 अति सुंदर माधुर्य-सुधानिधि, अखिल-रसामृत-सिंधु अपार।
 जय रसमयि राधा, जय माधव रसिक-सिरोमनि परम उदार॥

 १९९
(राग आसावरी-तीन ताल)
रसमयी संग रसिक-बर राज।
किसलय-सुमन-बल्लरी-बिरचित रहे निकुंज बिराज॥
 अमित अनंत तरंगित स्यामल नील-नीरधर अंग।
 रास-बिलास-कला-कौसल-निधि ठाढ़े ठसक त्रिभंग॥

हेम-बरनि, सुखकरनि लाडिली ललित रही नित संग।
 मानौ बारिद-बिजुरी बिलसित नील-पीत नव रंग॥
 बिबिध बिधान बिभाव-भावमय मधुमय रसमय रास।
 मधुर अधर धर मुरलि मनोहर राग-सुराग बिकास॥

 २००
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
स्थिर बिजली सँग चंचल जलधर रस बरसत अनिवार।
 कांचन मनि-गन मध्य महामरकतमनि नंद-कुमार॥
 कनकलता अनेक सुस्पर्सित सुचितम तरुन तमाल।
 कमलिनि दल महँ मुग्ध मधुप सम राजत श्रीनँदलाल॥
 गोपीजन अगनित महँ सोभित प्रति गोपी के ग्यान।
 एक-‌एक सँग बिलसत, नित प्रिय रसिक-मुकुट रसवान॥

 २०१
(राग बिहाग-तीन ताल)
बिराजित स्यामा-स्याम निकुंज।
गौर-स्याम बदनारबिंद अनुपम सुषमा-सुख-पुंज॥
 घुँघराली अलकावलि बिथुरी छा‌ई कलित कपोल।
 बाँर्‌ईं बाँह स्याम की सोभित स्यामा-कंठ अतोल॥
 दोनों के दृग बने मधुप दोनों के बदन-सरोज।
 करत परस्पर प्रान सुधा-रस, लाजत अमित मनोज॥
 प्रेम भरी सुचि सखी-मंजरीं ठाढ़ी सब चहुँ पास।
 निरखि मनोहर मधुर जुगल छबि हिय अति भर्‌यौ हुलास॥

 २०२
(राग देश-तीन ताल)
मिले श्याम-श्यामा दोनों तब उमड़ा अतिशय प्रेम।
 मरकत मणिसे लिपटा जैसे-रसमय उज्ज्वल हेम॥
 कनकलतासे घिरा मनोहर मानो तरुण तमाल।
 नव-जलधरसे मानो बिजली स्वर्णिम मिली रसाल॥
 मानो हु‌आ सरस सरसिजका मधुकरसे मधु सङङ्ग।
 अति आनन्दित दोनों ही, तन पुलकित प्रेम-तरंग॥
 दोनों ही दोनोंको करते प्रेम-रसामृत-दान।
 एक हो रहे थे दो, अब फिर एक हु‌ए मतिमान॥

 २०३
(राग आसावरी-ताल कहरवा)
गौर सुभग शशि अमित दीप्ति शुचि, श्याम पराजित-‌अमित-‌अनंग।
 दिव्य सलिल पूरित घन शोभित श्याम, दिव्य विद्युत्‌्‌के संग॥
 अंग-‌अंग विकसित तरंग नित, नव-माधुर्य सुधारस सार।
 कलित कुसुम सौरभित मनोहर, झूल रहे दोनों उर-हार॥
 कुटिल भृकुटि, चंचल दृग करते नित्य परस्पर आकर्षण।
 दो बन पृथक्‌ प्रगाढ़ प्रेमवश करते नित्य प्रेमवर्षण॥
 दोनों दोनोंके नित प्रेमी, दोनों दोनोंके शुचि प्रेष्ठस्न्।
 दोनों दोनोंको नित देते, सहज प्रेम-सुख-रस अति ोष्ठस्न्॥
 दोनोंमें है परम त्यागकी पराकाष्ठस्नसे पर-त्याग।
 दोनों दोनोंके सुसेव्य प्रिय, दोनों शुचि सेवक बड़भाग॥
 रमणी-रमण कौन है, इसका नहीं कहीं कुछ भी है जान।
 रमण-हीन नित रमण निरन्तर, सहज रुचिर रति रय महान॥
 दोनोंके चरणारविन्दपर न्यौछावर नित मन-मति-प्राण।
 दोनों बने रहें नित मेरे, नित्य-प्रिय प्राणोंके प्राण॥
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Ram