Sunday 6 July 2014

वशीकरण -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

अषाढ़ शुक्ल, नवमी, रविवार, वि० स० २०७१

वशीकरण  -२-

द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद

 
गत ब्लॉग से आगे....यशस्विनी सत्यभामा की बात सुनकर परम पतिव्रता द्रौपदी बोली-‘हे सत्यभामा ! तुमने मुझे (जप, तप, मन्त्र, औषध, वशीकरण-विद्या, जवानी और अन्जानादी से पति को वश में करने की ) दुराचारिणी स्त्रियों के वर्ताव की बात कैसे पूछी ? तुम स्वयं बुद्धिमती हो, महाराज श्रीकृष्ण की प्यारी पटरानी हो, तुम्हे ऐसी बाते पूचन औचित नहीं । मैं तुम्हारी बातों का क्या उत्तर दूँ ?

देखों यदि कभी पति इस बात को जान लेता है की स्त्री मुझपर मन्त्र-तन्त्र आदि चलाती है तो वह साँप वाले घर के समान उसे सदा बचता और उदिग्न रहता है । जिसके मन में उद्वेग होता है उसको कभी शान्ति नही मिलती और अशान्तों को कभी सुख नही मिलता । हे कल्याणी ! मन्त्र आदि से पति कभी वश में नहीं होता । शत्रुलोग ही उपाय द्वारा शत्रुओं के नाश के लिए विष आदि दिया करते है । वे ही ऐसे चूर्ण दे देते है जिनके जीभ पर रखते ही, या शरीर पर लगाते ही प्राण चले जाते है ।

 

       कितनी ही पापिनी स्त्रियों ने पतियों को वश में करने के लोभ से दवाईयां दे कर किसी  को जलोदर का रोगी, किसी को कोढ़ी, किसी को बूढा, किसी को नपुंसक, किसी को जड, किसी को अँधा और किसी को बहरा बना दिया है । इस प्रकार पापियों की बात मानने वाली पापाचारिणी स्त्रियाँ अपने पतियों को वश करने में दुखित कर डालती है । स्त्रियों को किसी प्रकार से किसी दिन भी पतियों का अनहित करना उचित नही है । ...शेष अगले ब्लॉग में                                         
 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 
Read More

Saturday 5 July 2014

वशीकरण -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

अषाढ़ शुक्ल, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २०७१

वशीकरण  -१-

द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद

 

भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा एक समय वन में पाण्डवों के यहाँ अपने पति के साथ सखी द्रौपदी से मिलने गयी । बहुत दिनों बाद परस्पर मिलन हुआ था । इससे दोनों को बड़ी ख़ुशी हुई । दोनों एक जगह बैठकर आनन्द से अपने-अपने घरों की बात करने लगी । वन में भी द्रौपदी को बड़ी प्रसन्न और पाँचों पतियों द्वारा सम्मानित देखकर सत्यभामा को आश्चर्य हुआ । सत्यभामा ने सोचा की भिन्न-भिन्न प्रकृति के पांच पति होने पर भी द्रौपदी सबको समान-भाव से खुश किस तरह रखती है । द्रौपदी के कोई वशीकरण तो नही सीख रखा है ।
 
 यह सोचकर उसने द्रौपदी से कहाँ-‘सखी ! तुम लोकपालों के समान दृढशरीर महावीर पाण्डवों के साथ कैसे बर्तति हों ? वे तुमपर किसी दिन भी क्रोध नही करते, तुम्हारे कहने के अनुसार ही चलते है और तुम्हारे मुहँ की और ताका करते है, तुम्हारे सिवा और किसी का स्मरण भी नही करते । इसका वास्तविक कारण क्या है ? क्या किसी व्रत, उपवास, तप, स्नान, औषध और कामशास्त्रमें कही हुई वशीकरण-विद्या से अथवा तुम्हारी स्थिर जवानी या किसी प्रकार का जप, होम और अंजन आदि औषधि से ऐसा हो गया है ? हे पान्चाली ! तुम मुझे ऐसा कोई सोभाग्य और यश देने वाला प्रयोग बताओं-

‘जिससे मैं रख सकूँ श्यामको अपने वश में ।’

-जिससे मैं अपने अराध्यदेव प्राणप्रिय श्रीकृष्ण को निरन्तर वश में रख सकूँ । ...शेष अगले ब्लॉग में                                                      श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 
Read More

Friday 4 July 2014

भोगो के आश्रय से दुःख -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७१

 
भोगो के आश्रय से दुःख  -८-

गत ब्लॉग से आगे......यह बात समझ लेने की है की आत्मा जो हमारा वास्तविक स्वरुप है, उस स्वरुप पर तो किसी भी बाहरी चीज का कोई प्रभाव है ही नही । हम जो भगवान् के अंश है सनातन, उस भगवान् के सनातन अंश पर तो किसी का कोई प्रभाव है नही, उसको तो कोई दुख या सुख से प्रभावित कर नही सकता । यहाँ की किसी चीज के जाने और आने से किसी के द्वारा किये हुए मान और अपमान से, किसी के द्वारा की हुई निन्दा-स्तुति से, किसी के द्वारा की हुई हमारी आशा की पूर्ती से और आशा भंग से, सद्व्यवहार से या दुर्व्यव्यहार से भगवान् के सनातन अंश पर कोई असर पड़ता नही ।
 
वह घटता बढ़ता नही । वह ज्यों-का-त्यों है तो यदि हम चेष्टा करके उसमे जो बद्ध्यता आ गयी है, बन्धन आ गया है, अकारण एक क्लेश उतपन्न हो गया है-उसको मिटाने की चेष्टा उत्पन्न करे तब तो हमारी बुद्धिमानी ठीक और उसको उसी बन्धन में, उसी क्लेश में रखते हुए नये-नये क्लेशों को सुलझाने के लिए नये-नये क्लेशों को उत्पन्न करते रहे तो हमारे बन्धनों की गाँठ खुलेगी ? या गाँठ और  भी दृढ होगी । नये-नये कर्म उत्पन्न होंगे, जो अनेक-अनन्त योनियों तक हमे अपना भुगतान करवाते रहेंगे । हम वहीँ रहेंगे-उसी अशान्ति में, उसी दुःख में, उसी पीड़ा में उसी पीड़ा में, उसी चक्र में, उसी जलन में ।

दूसरा समझे न समझे, समझना अपने लिए है । यदि हम समझ जाये । अपने लिए हम समझ जाये तो बन्धन की एक गाँठ तो खुली, दूसरों की जो और गांठे है शायद उसको भी हम खोल सके । पर हम स्वयं बन्धन में है । हम स्वयं अन्धे थे, एक अन्धा कैसे दुसरे अन्धे को ले जायेगा ? हम कहीं किसी को ले गए लाठी पकडा कर तो आँखे हमारी है नही ।हम अन्धे किसी खड्ढे में गिरेंगे और सबको गिरा देंगे अपने साथ । मनुष्य अकेला आया और अकेला जायेगा । अत: पहले अपने-आपको ठीक करने का प्रयत्न करना चाहिये ।        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
Read More

Thursday 3 July 2014

भोगो के आश्रय से दुःख -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, षष्ठी, गुरुवार, वि० स० २०७१

भोगो के आश्रय से दुःख  -७-

गत ब्लॉग से आगे.......जो ठान ले तो महान-से-महान दुःख आने पर भी विचलित नही होता अथवा दूसरा बड़ा सुन्दर तरीका यह है की उसे भगवान् का मंगल-विधान मान ले । भाई ! भगवान् हमसे अधिक जानते है-ये तो मानना ही पड़ेगा । भगवान् को मानने वाला यदि भगवान् को एकमात्र सर्वग्य न भी माने तो कम-से-कम इतना तो माने ही की अपने भगवान् को की वे हमसे जायदा बुद्धिमान है और हमसे जायदा जाननेवाले है ।
 
इतना तो मानेगा ही और साफ़-साफ़ कहे तो हमसे अधिक हमारे हितेषी भी है, हमे क्या चाहिये-जानते भी है और उनके नियन्त्र्ण के बिन कुछ होता नही तो ऐसी अवस्था में उनके द्वारा विधान किया हुआ जो कुछ भी है, वह सारा-का-सारा हमारे लिए अत्यन्त मंगलमय है, इसमें जरा भी सन्देह की चीज नही । तब फिर वह किस बात को लेकर अपने मन में दुखी होगा । यह बिलकुल ठीक मानिये-सत्य की मैं चाहे मानू या न मानू, पर बात सत्य है-सबके लिए है, वह यह है की दूसरी किसी परिस्थिति के बदलने से हमारी समस्या सुलझ जाएगी, हमारा मनोरथ सिद्ध हो जायेगा, हमे सुख हो जायेगा-ये कभी होने का है ही नहीं । कभी नही होगा । नयी-नयी परिस्थिति पैदा होती रहेंगी ।
 
 एक अभाव की पूर्ती नये दस अभावों को उत्पन्न करती रहेगी । अशान्ति के नये-नये कारण बनते रहेंगे । फिर उन कारणों को मिटाने की नयी-नयी प्रवृतियाँ चलती रहेंगी । चित अशान्त रहेगा, काल मानता नही, उसका प्रवाह रुकता नहीं । मृत्यु के समीप शरीर जाता रहेगा और बिना कुछ किये, अशान्त मन रहते हुए, निरन्तर चिंतानल में जलते हुए हम भोगों में और विषयों में, राग-द्वेष में मन रखते हुए मर जायेंगे और परिणाम होगा उस राग-द्वेष के अनुसार अगले जीवन की प्राप्ति जो सम्भव है की सैदव दुखदायी हो तो बुद्धिमान मनुष्य तो यही मान ले की कम-से-कम की भगवान् का मंगल विधान है ।.... शेष अगले ब्लॉग में          

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
Read More

Wednesday 2 July 2014

भोगो के आश्रय से दुःख -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २०७१

 
भोगो के आश्रय से दुःख  -६-

गत ब्लॉग से आगे.......अमुक आदमी यों करे तो सुख मिले, अमुक आदमी इस प्रकार मिले तो सुख मिले, अमुक पदार्थ ऐसे प्राप्त हो तो सुख हो । अमुक का वर्ताव बदले, अमुक का व्यवहार बदले, अमुक की हमारे साथ जो बातचीत हो रही है, वह अगर इस रूप में होने लगे, मकान ऐसा हो, जूते-जैसी मामूली वस्तु भी यदि मन के मुताबिक न मिले तो दुखी हो जाता है आदमी । कहीं धोबी के यहाँ से कपडा धुल के आया और जरा सा कही दाग रह गया और अगर मन को ठीक नही लगा तो दुखी हो गया आदमी, उसका बुरा फल ।

जरा-जरा सी बात पर आदमी अपने को क्षुब्ध कर लेता और उसका बड़ा बुरा परिणाम हो जाता है तो संसार की बात चाहे जरा-सी बड़ी हो, चाहे बहुत बड़ी बात-ये जब तक हम पर अधिकार किये हुए है, तब तक हम उनके वश में है, पराधीन है । हमारा सुख स्वतन्त्र नही, हमारी शान्ति स्वतन्त्र नही, हम सर्वथा पराधीन है और परायी आशा करते है ।

परायी आशा-दूसरों की आशा पूरी न हो, उलटा हो जाय तो ये आत्मसुख जो है, जो निरन्तर अपने पास है, जो निरन्तर अपनी संपत्ति है, जो प्रत्येक अवस्था में अपन एको प्राप्त है, जिसे कभी कोई छीन नही सकता, कोई बाहर की अवस्था जिसमे परिवर्तन नही ला सकती । इस प्रकार जो नित्य, अखण्ड, आत्मसुख भगवतसुख है-वह है अपने पास । वह कही गया नही, कही जाता नही, वह कही बाहर से आता नही । बस उस अखण्ड अनित्य आत्मसुख की तरफ यदि हम देख लें, उसको अपना बना ले , उसके हम हो जाय तो कोई भी बाहरी अवस्था हमे विचलित नही कर सकती ।.... शेष अगले ब्लॉग में          

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
Read More

Tuesday 1 July 2014

भोगो के आश्रय से दुःख -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७१

भोगो के आश्रय से दुःख  -५-

गत ब्लॉग से आगे.......तुलसीदास जी महाराज ने एक बड़ी सुन्दर बात कही है, वह केवल रोचक शब्द नही है, सिद्धान्त है, उनका अनुभूत सिद्धान्त है । उन्होंने इस सिद्धान्त की स्वयं अपने मुख से तारीफ़, बखान किया-

बिगरी जन्म अनेक की सुधरे अबही आजु ।

होहि राम कौ नाम जपु तुलसी तजि कुसमजु ।। (दोहावली २२)

सबसे पहली बात है ‘होहि राम कौ ।’ हम जो दुसरे-दुसरे बहुतों के हो रहे है और बहुतों के बने रहना चाहते है, दूसरों का आधिपत्य छुटता नहीं और दुसरे जो है, वे सारे परिवर्तनशील है, अनित्य है, दुखमय है । उनसे हमको मिलेगा क्या ? तो ‘होहि राम कौ’ बस भगवान् के हो जाय तो नेकों जन्म की बिगड़ी हुई आज ही सुधर जाएगी ।
 
तुलसीदास जी ने कहा हम तो झूठी पत्तलों को चाटते रहे हमेशा और कहीं पेट भरे ही नहीं, कही तृप्ति हुई ही नही, कही शान्ति मिली ही नहीं और भगवान् का स्मरण करते ही ‘सो मैं सुमिरत राम’ राम का सुमिरन करते ही, ‘देखत परसु धरो’ सुधारस, अमृतरस परोसा रखा है मेरे सामने-ये मैं देखता हूँ, तब मैंने दूसरी और ताकना, दूसरी और आस्था रखनी बंद कर दिया ।     

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।

एक राम घन श्याम हित चातक तुलसीदास ।.... शेष अगले ब्लॉग में          

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

 
Read More

Ram