Saturday 31 March 2012


प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे... 


तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो! 


उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा हैं? अवश्य उन्होंने ही तुम्हें भेजा है! अच्छा बताओ, वे यहाँ कब आवेंगे? मैं उन्हें कब देखूँगी? क्या उनके कमल-से कोमल शरीरमें मैं फिर भी चन्दन लगा सकूँगी? उद्धवने अपना नाम-धाम बताकर आनेका कारण बताया! राधिका कहने लगीं -'उद्धव! वहि यमुना है! वही शीतल मंद सुगन्ध वायु है! वही वृन्दावन है और वही कोयलोंकी कुहक है! वही चन्दनचर्चित शय्या है और वही साज-सामग्री है! परन्तु मेरे प्राणनाथ कहाँ है? इस दासीसे कौनसा अपराध बन गया! अवश्य ही मुझसे अपराध हुआ होगा! हा कृष्ण, हा रमानाथ, प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो?' इतना कहकर राधा फिर मूर्छित हो गयीं! 


उद्धवने उन्हें होशमें लानेकी चेष्टा की! सखियोंने बहुत -से उपचार किये पर राधाको चेतना न हुई! उद्धवने  कहा -'माता! मैं तुम्हें बड़ा ही सुभ सवांद सुना रह हूँ ! अब तुम्हारे विरहका अंत हो गया! श्रीकृष्ण तुम्हारे पास आवेंगे! तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगी! वे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये नाना-प्रकारकी क्रीडाएँ करेंगे! 'श्रीकृष्ण आयेंगे' यह सुनकर राधा उठ बैठी! क्या वे सचमुच आयेंगे? हाँ, अवश्य आयेंगे! राधाने उद्धवका बड़ा ही सत्कार किया! 


[२४]
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प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे... 


तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो! 


उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा हैं? अवश्य उन्होंने ही तुम्हें भेजा है! अच्छा बताओ, वे यहाँ कब आवेंगे? मैं उन्हें कब देखूँगी? क्या उनके कमल-से कोमल शरीरमें मैं फिर भी चन्दन लगा सकूँगी? उद्धवने अपना नाम-धाम बताकर आनेका कारण बताया! राधिका कहने लगीं -'उद्धव! वहि यमुना है! वही शीतल मंद सुगन्ध वायु है! वही वृन्दावन है और वही कोयलोंकी कुहक है! वही चन्दनचर्चित शय्या है और वही साज-सामग्री है! परन्तु मेरे प्राणनाथ कहाँ है? इस दासीसे कौनसा अपराध बन गया! अवश्य ही मुझसे अपराध हुआ होगा! हा कृष्ण, हा रमानाथ, प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो?' इतना कहकर राधा फिर मूर्छित हो गयीं! 


उद्धवने उन्हें होशमें लानेकी चेष्टा की! सखियोंने बहुत -से उपचार किये पर राधाको चेतना न हुई! उद्धवने  कहा -'माता! मैं तुम्हें बड़ा ही सुभ सवांद सुना रह हूँ ! अब तुम्हारे विरहका अंत हो गया! श्रीकृष्ण तुम्हारे पास आवेंगे! तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगी! वे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये नाना-प्रकारकी क्रीडाएँ करेंगे! 'श्रीकृष्ण आयेंगे' यह सुनकर राधा उठ बैठी! क्या वे सचमुच आयेंगे? हाँ, अवश्य आयेंगे! राधाने उद्धवका बड़ा ही सत्कार किया! 


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प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे... 


तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो! 


उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा हैं? अवश्य उन्होंने ही तुम्हें भेजा है! अच्छा बताओ, वे यहाँ कब आवेंगे? मैं उन्हें कब देखूँगी? क्या उनके कमल-से कोमल शरीरमें मैं फिर भी चन्दन लगा सकूँगी? उद्धवने अपना नाम-धाम बताकर आनेका कारण बताया! राधिका कहने लगीं -'उद्धव! वहि यमुना है! वही शीतल मंद सुगन्ध वायु है! वही वृन्दावन है और वही कोयलोंकी कुहक है! वही चन्दनचर्चित शय्या है और वही साज-सामग्री है! परन्तु मेरे प्राणनाथ कहाँ है? इस दासीसे कौनसा अपराध बन गया! अवश्य ही मुझसे अपराध हुआ होगा! हा कृष्ण, हा रमानाथ, प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो?' इतना कहकर राधा फिर मूर्छित हो गयीं! 


उद्धवने उन्हें होशमें लानेकी चेष्टा की! सखियोंने बहुत -से उपचार किये पर राधाको चेतना न हुई! उद्धवने  कहा -'माता! मैं तुम्हें बड़ा ही सुभ सवांद सुना रह हूँ ! अब तुम्हारे विरहका अंत हो गया! श्रीकृष्ण तुम्हारे पास आवेंगे! तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगी! वे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये नाना-प्रकारकी क्रीडाएँ करेंगे! 'श्रीकृष्ण आयेंगे' यह सुनकर राधा उठ बैठी! क्या वे सचमुच आयेंगे? हाँ, अवश्य आयेंगे! राधाने उद्धवका बड़ा ही सत्कार किया! 


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Friday 30 March 2012


प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे....


(४)


सारे जगतमें आत्मा भगवन श्रीकृष्ण हैं! यह जगत तभी सुखी होता हैं, शांति पाता हैं, जब अपनी आत्मा भगवान् की सन्निधिका अनुभव करता है! बिना उनके इसमें सुख नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं! परन्तु श्रीकृष्णकी आत्मा क्या है, कौन- सी ऐसी वस्तु है, जिसके बिना श्रीकृष्ण भी छटपटाते रहते हैं और जिसे पाकर उनका आनंद अनंत-अनंत गुना बढ़ जाता है! वह हैं श्रीराधा! श्रीराधा ही श्रीकृष्णकी आत्मा हैं और उन्हींके  साथ रमण करनेके कारण श्रीकृष्णको आत्माराम कहा गया है! श्रीकृष्णके बिना राधा प्राणहिन हैं और राधाके बिना श्रीकृष्ण आनंदहिन हैं! ये दोनों कभी अलग होते ही नहीं! अलग होनेकी लीला करते हैं और इसलिये करते हैं कि लोग परम प्रेमका, परम  आनंदका साक्षात् दर्शन करें! इनके दर्शन श्रीकृष्णमें, श्रीराधामें ही सम्पूर्ण रूपसे प्राप्त हो सकते हैं!


जबसे श्रीकृष्ण मथुरा गये, तबसे राधाकी विचित्र दशा थी! रातको नींद नहीं आती, दिनको शान्तिसे बैठा नहीं जाता, कभी वृत्तियाँ लय हो जाती हैं तो कभी मूर्छित! कभी पागल-सी होकर नाना प्रकारके प्रलाप करती हैं तो कभी सुरीली वानिके तारोंको छोड़कर मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके गुनानुवादोंका गायन करती हैं! एक-एक पल बड़े दुःख से किसी प्रकार  व्यतीत करती हैं और इतनी बेसुध रहती हैं कि रात बीत गयी, दिन बीत गया, इन बातोंका उन्हें  पतातक नहीं चलता! आँसुओंकी धारा बहती रहती है, समझानेसे, सान्त्वना देनेसे उनकी पीड़ा और भी बढ़ जाती है!


उद्धव जिस समय उनके पास पहुँचे उस समय वे मूर्छित थी! उद्धवने उन्हें जाकर देखा तो वे गदगद हो गये, भक्तिसे उनकी गरदन झुख गयी, सारे शरीरमें रोमांच हो आया! वे श्रद्धाके साथ स्तुति करने लगे! उन्होंने कहा - 'देवी! मैं तुम्हारे चरणकमलोंकि वंदना करता हूँ! 


[२३]
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Thursday 29 March 2012


प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे....


हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? हे नाथ, हे रमानाथ, हे व्रजनाथ, हे दीनबन्धो! हम दुःखके समुद्रमें डूब रही हैं! हमें बचाओ! हमारा उद्धार करो!


श्रीकृष्णके  संदेशोंसे गोपियोंकी  विरहज्वाला बहुत कुछ शान्त हुई! वे उद्धवको श्रीकृष्णस्वरुप मानकर उनका सत्कार करने लगीं! उन्होंने कहा -' उद्धव! तुम राधिकाके पास चलो! भगवान् के विरहमें उनकी क्या दशा हो रही है, चलकर देखो! वे मर-मरकर जीती हैं, जी-जीकर मरती है! चिंता, जागरण, मूर्छा, प्रलय इन्हींका क्रम चालू रहता है, वे कभी मत्त हो जाती हैं, कभी मोहित हो जाती हैं, चलो उनके दर्शन करो, उनके चरणोंमें सर नवाकर कुछ सीखो! उद्धवने उनके साथ श्रीराधाके पास जानेके लिये प्रस्थान किया!


[२२]
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Wednesday 28 March 2012


प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे....


मैं तुम्हारे पास ही हूँ! तुम्हारे हृदयमें हूँ, तुम्हारी आत्माके रूपमें हूँ! वियोग क्या वस्तु है? इसके लिये पीड़ित होनेकी क्या आवश्यकता? मुझे ढूँढो मत, मेरा अनुभव करो, मैं तुम्हारे पास हूँ!


उद्धव इतना कहकर चुप हो गये! अपने प्रियतमका आदेश, अपने प्राणोंका सन्देश सुनकर गोपियोंको बड़ा ही आनंद हुआ! उनके सन्देशसे उनकी स्मृति ताज़ी हो गयी, वे प्रसन्न होकर उद्धवसे बोलीं -- 'श्रीकृष्ण प्रसन्न हैं, आनंदसे हैं, यह बड़ी अच्छी बात हैं! कंस और उसके अनुचर मर गये, जगतका बड़ा कल्याण हुआ! जैसे हम उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होती थी, वैसे ही मथुरावासी भी उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होते होंगे! वहाँके लोग विशेष प्रेमी होंगे, उनके प्रेमपाशमें श्रीकृष्ण बँध जायँ, यह स्वाभिविक ही है! क्या वे उनमें रहकर हमारी याद रख सकेंगे? रखते हैं? क्या उन्हें वह रात्री याद है, जब उन्होंने चन्द्रिकाचर्चित वृन्दावनमें हमलोगोंके साथ गा- गाकर, नाच-नाचकर रासलीला की थी! क्या वे हमारे प्राणोंको जीवित करनेके लिये यहाँ आवेंगे? अब वे हम वनवासियोंके पास क्यों आने लगे? वे आत्माराम हैं, पूर्णकाम हैं, उन्हें हमारी क्या अपेक्षा हैं? हम जानती हैं की आशा से निराशा अच्छी है! तथापि श्रीकृष्णकी और हमारी आँखें लगी हैं, हमारी आशाकी, अभिलाषाकी लड़ियाँ नहीं टूटती! भला, उन्हें कौन छोड़ सकता है? उनके न चाहनेपर भी लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ सकतीं! उद्धव! यमुनाके पुलिन, गोवर्धनके सिखर, क्रिड़ाके वन, उनकी दुलारी हुई गौएँ, उनकी बाँसुरीकी ध्वनि बार-बार उनकी याद दिला देती हैं! अब भी वृन्दावनकी भूमि उनके चरण-चिह्नोंसे रहित नहीं हुई है! हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? उनका स्मरण ही हमारा जीवन है! उनकी ललित गति, मधुर मुस्कान, लीलाभरी चितवन और प्रेमसनी वाणीसे मोहित होकर हमने अपना हृदय हार दिया है, अपना सर्वस्व उनके चरणोंमें निछावर कर दिया है!  


[२१]
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Tuesday 27 March 2012


प्रेमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग से आगे ....


भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे तुम्हें सर्वात्मभावकी प्राप्ति हो गयी है! तुम्हें हर जगह श्रीकृष्ण-ही श्रीकृष्ण दीखते हैं! तुम्हारे पास भेजकर श्रीकृष्णने मुझपर बड़ा ही अनुग्रह किया है! मैं तुम्हारे दर्शनसे धन्य हो गया! कल्याणी गोपियो! उन्होंने तुम्हारे लिए जो सन्देश कहा है, मैं वही सुनाता हूँ! वह सुनकर तुम्हें बड़ा ही आनंद होगा! उनका यही एकांत सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ!'


'श्रीकृष्णने कहा है-- मेरी प्रिय गोपियों! मैं कभी तुमलोगोंसे अलग नहीं रह सकता! जैसे पृथ्वी,  जल, वायु ये आकाशसे अलग नहीं हो सकते वैसे ही तुम हमसे अलग नहीं हो सकती! तुम्हारा मन, तुम्हारा प्राण, तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इन्द्रियाँ, तुम्हारे गुण और जो कुछ तुम हो, सब मुझमें है, अपने-आपका ही पालन करता हूँ और अपने -आप ही अपने-आपका संहार करता हूँ! मैं अपनी ही मायासे, अपनी ही शक्तिसे स्वयं ही इन रूपोंमें बन जाता हूँ! आत्मा ज्ञानस्वरुप है! वह मायासे, रहित और गुणोंसे परे है! स्वप्न, सुषुप्ति, जाग्रत  इन तीनों अवस्थाओंसे परे और इनका साक्षी हैं! वियोग  तो तब है, जब इस मिथ्या संसारकी और दृष्टी है! उसकी ओरसे इन्द्रियोंको, मनोवृत्तियों खींचकर आत्मामें लगाओ! उन्हें अंतर्मुख करो, सारे सिद्धांतोंसाधनों का यही उदेश्य हैं! वेद, योग, सांख्य, त्याग, तपस्या, दम और सत्य इनका यही लक्ष्य है! मैं बाह्य दृष्टीसे तुमलोगोंसे दूर अवश्य हूँ परन्तु केवल आँखोंसे ही दूर हूँ न! आँखकी दुरी दुरी नहीं है! दुरी तो मनकी होती है! वहाँ रहनेकी अपेक्षा मेरे यहाँ रहनेसे तुम्हारा मन मुझमें अधिक लगेगा! मेरा विशेष चिंतन होगा! ऐसा होता आया है और ऐसा ही होता है! सम्पूर्ण वृतियोंको छोड़कर अपने मनको केवल मुझमें लगा दो! मेरा स्मरण करते रहो! शीघ्र ही तुम मुझे प्राप्त कर लोगी! तुम्हें पता हैं न? जिस दिन मैं रास कर रहा था, कई गोपियाँ शरीरसे मेरे पास नहीं आ सकीं; उन्होंने सच्चे ह्रदयसे प्रेमसे मेरा स्मरण किया और शरीरसे पहुँचनेवाली गोपियोंके पहले ही वे मेरे पास पहुँच आयीं! 


[२०]  
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Thursday 22 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




चैत्र कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
प्रेमी भक्त उद्धव: गत ब्लॉग से आगे.....

हम यमुनाका जल लानेका, दही बेचनेका और भी किसी काम-काजका बहाना बनाकर कई बार वनमें जातीं और उन्हें देख आतीं! जब वे शामको लौटते, हम पहलेसे ही रास्तेपर खड़ी होतीं और उनका मार्ग देखा करती! वे जब बाँसुरी बजाते हुए ग्वालबालोंके साथ लौटते थे, उनके घुँघराले काले केशोंपर व्रजराज पड़ी होती थी, उनके कपोलोंपर श्रमबिंदु उग आये होते थे तो देखकर हमें कितनी प्रसन्नता होती, कितना आनंद होता, कह नहीं सकतीं! हम रातमें भी नंदबाबाके घर जातीं! वे बाँसुरी बजाकर हमें वन में बुलाते, हमारे साथ क्रीडा करते! वह सब कहनेसे अब कोई लाभ नहीं! हमने व्रत करके, उपवास करके, देवी-देवताओंकी मानता करके, हृदयसे आत्मासे यही चाह था कि श्रीकृष्ण ही हमारे स्वामी हों, वे हुए भी परन्तु  उद्धव! अब वे कहाँ हैं? अब हम उनकी बातें कह रही हैं, उनका सन्देश हम पा रहीं हैं, उनका सुमिरन हम कर रही हैं, परन्तु अब वे कहाँ हैं? हमारे बीचमें वे नहीं है! हमारा जीवन भार हैं, व्यर्थ है!' कहते -कहते गोपियाँ तन्मय हो गयीं! उनका बाह्यज्ञान जाता रहा!

गोपियोंमें जब कुछ-कुछ चेतना आयी, यब वे पागलोंकी भाँती चेष्टा करने लगीं! कोई वृक्षको श्रीकृष्ण समझकर उसे उलाहना देने लगी, कोई लताकुञ्जमें श्रीकृष्णकी उपस्थिति मानकर वहाँसे मुँह फेरकर लौटने लगी, कोई पत्तेकी खडखडाहटसे श्रीकृष्णके आगमनकी अपेक्षा करने लगी और कोई चम्पा, मालती, जूही, गुलाब, कमल आदि फूलोंसे श्रीकृष्णका दूत मानकर उसीको डाँट-फटकार सुनाने लगी! उनकी विचित्र दशा हो गयी! वे संसारको, शरीरको, प्राणकोऔर आत्माको भूलकर श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गयी! वे श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते-करते संकोच छोड़कर रोने लगीं! उद्धवका हृदय द्रवित हो गया, वे गोपियोंके विरहकी ऊँची दशा देखकर मुग्ध हो गये! उन्होंने किसी प्रकार गोपियोंको सांत्वना देकर कहना शुरू किया!

उद्धवने कहा-'गोपियों! तुम्हारा जीवन सफल है सारे लोक और लोकाधिपति तुम्हारी पूजा करते हैं! श्रीकृष्णमें इतना प्रेम, श्रीकृष्णमें इतनी तन्मयता और कहीं देखि नहीं गयी! और कहीं हो नहीं सकती! बड़े-बड़े दान, व्रत, तप, होम, जप, स्वाध्याय, संयम और दुसरे भी कल्याणकारी उपायोंसे भगवान् श्रीकृष्णकी भक्ति प्राप्त की जाती है! बड़े-बड़े मुनियोंको जिस प्रेमकी प्राप्ति दुर्लभ है, सौभाग्यवश वह प्रेम तुम्हें प्राप्त हुआ है! भगवान् के साथ तुम्हारा वह सम्बन्ध हुआ है! यह बड़े ही सौभाग्य और तपस्याका फल है कि तुमलोगोंने अपने पुत्र, पति, स्वजन, देह, गेह और सर्वस्वका त्याग करके पुरषोत्तमभगवान् श्रीकृष्णको पतिरूपमें वरण किया है! 

[१९]
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Wednesday 21 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार
प्रेमी भक्त उद्धव: गत ब्लॉग से आगे........

परन्तु जब उन्होंने स्वीकार कर लिया तब तो उनपर हमारा हक़ हो गया, हमारा दावा हो गया! चाहिये  तो यह था की वे हमारी इच्छाके विपरीत एक क्षणके लिए भी हमसे अलग नहीं होते! परन्तु हम यह नहीं चाहतीं! हृदयसे भी चाहनेपर भी उनपर कोई दबाव नहीं डालतीं, उनसे कहतीं नहीं परन्तु हम इसी प्रकार कितने दिनोंतक घुल-घुलकर मरती रहेंगी? हम बहुत दिनोंतक शान्तिसे प्रतीक्षा भी करती रहतीं यदी ये दिन शीघ्रतासे बीतते होते! एक-एक दिन पहाड़ से भारी होते जा रहे हैं! समुद्र -से अपार होते जा रहे हैं! हम क्या करें, ये दिन कैसे बितावें? एक पलक युग हो गया, आँखोंसे आँसुओंकी धारा रूकती ही नहीं, सब सुना-ही-सुना दीखता है! हमारा यह सूनापन क्या कभी बीतेगा ही नहीं?

'उद्धव! हमें अपने वे दिन स्मरण हैं, जब हमारे प्रियतम, हमारे श्रीकृष्ण गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाया करते थे! एक-एक पल हम विकल होकर बितातीं और ह्रदय हहरता रहता की कहीं उनके कमल-से कोमल चरणोंमें काँटे-कुश न गड जायँ! उनके लाल-लाल तलुओंमें पीड़ा न पहुँच जाय! उद्धव! हमारा हृदय  जानता  है, परमात्मा इस बातका साक्षी है कि जब हम उनके चरणकमलोंको अपने कठोर हृदयपर रखती थीं, तब हमें बड़ा डर लगता था कि कहीं चोट न पहुँच जाय! वे जब गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाने लगते तब हम नंदबाबाके दरवाजेपर पहुँच जातीं, रस्तेमें जाकर खड़ी हो जातीं और जबतक वे आँखोंसे ओझल न हो जाते तबतक एकटक उन्हें देखती रहतीं! काम करनेके लिये घर लौटतीं तो काम-काजमें मन नहीं लगता और करते समय भी ऐसा मालुम होता कि मानो वे हमारे सामने ही खड़े हैं! हम धान कुटती होतीं तो वे आकर मुसल पकड़ लेते! हम दही  मथती होतीं तो वे मथानी पकड़कर रोक देते, हम झाड़ू लगाती होतीं तो वे आकर सामने खड़े हो जाते!  

[१८]
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Tuesday 20 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव



चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे...

इसी समय यमुनामें स्नान करके आते हुए उद्धव दिख पड़े! उद्धवको देखकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ! वैसा ही शरीर, वैसी ही बाँहें, वैसी ही कमलके समान नेत्र, गलेमें कमलकी माला और पीताम्बर धारण किये हुए! मुखपर वैसी ही प्रसन्नता खेल रही थी! परन्तु ये श्रीकृष्ण नहीं थे! ये दर्शनीय पुरुष कौन हैं, कहाँसे आये और श्रीकृष्ण के समान ही इन्होनें वेष-भूषा क्यों धारण कर रखी है? हो-न-हो ये उन्हींके अनुचर है! उन्हींके सहचर हैं! उन्होंनेही इन्हें भेजा होगा! तब क्या वे हमारा स्मरण करते हैं? जैसे उनके लिए हम छटपटाती रहती हैं, क्या वैसे ही हमारे  लिये वे छटपटाते रहते हैं? हो सकता है, छटपटाते हों! परन्तु नहीं, तब क्या वे दो दिनके लिये आ नहीं सकते थे? फिर इन्हें भेजा क्यों हैं? माता-पिताकी सांत्वनाके लिये! अच्छी बात है! पर क्या केवल बातोंसे ही उनका ह्रदय शांत हो जायगा? उन्हें आश्वासन मिल जायगा? यह असंभव है! शायद हमारे लिये भी कुछ सन्देश कहला भेजा हो! न भी कहलाया हो तो क्या,ये अनुचर तो हैं न! इनसे बात करनेपर उनकी कोई बात सुननेको मिलेगी! चलो हम सब इनके पास चलें! अबतक उद्धव पास आ गए थे!

गोपियोंने श्रीकृष्णके सदृश समझकर ही उद्धवका सत्कार किया! एकांतमें ले जाकर उन्होंने पूछा -'उद्धव! तुम तो श्रीकृष्णके प्रेमी अन्तरंग सखा हो! क्या उनके ह्रदयकी कुछ बात कह सकते हो? उन्होंने केवल नन्द-यशोदाके लिये ही तुम्हें भेजा होगा, अन्यथा व्रजमें उनके स्मरण करनेकी और कौन-सी वस्तु है? क्या उन्होंने हमें सचमुच छोड़ दिया? अब वे यहाँ न आवेंगे? परन्तु यह कैसे हो सकता हैं? वे आवेंगे, अवश्य आवेंगे! उद्धव! हमारे ह्रदय की क्या दशा है! हमारी आत्मा कितनी पीड़ित हो रही है, इसे कोई क्या जान सकता हैं? क्या इस वेदनाका कहीं अंत भी हैं? हमें तो नहीं दीखता! हम जितना  उपाय करती हैं, उतना ही अधिक यह बढती जाती है! किससे कहें, कहनेसे लाभ ही क्या है? 

'उद्धव! जिस दिनसे हमने उनके सौन्दर्यका वर्णन सुना था, उनकी रूपमाधुरी देखि थी, उनकी मधुर वंसीध्वनि सुनी थी उसी दिनसे और वास्तवमें तो उसके पहले ही हम उनके हाथो बिक गयीं! उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे, मंद-मंद मुस्कानसे, अनुग्रहभरी भौहोंके इशारेसे हमें स्वीकार कर  लिया! वे स्वीकार न करते तो भी हम उनकी ही थीं, उनकी ही रहतीं!  


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Saturday 17 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव


प्रेमी भक्त उद्धव




चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे...

हम इन दोनों बातोंकी परिणति उद्धवके जीवनमें पायेगें! अभी तो उद्धव सीख रहे हैं, सिखने आये हैं! आगे चलकर श्रीकृष्णने वियोगमें भी इन्हें जीवन धारण करना पड़ेगा और संसारके  सामने प्रेमभक्तिका आदर्श स्थापित करना होगा तथा उसका रहस्य बतलाना होगा! व्रजमें उन्होंने गोपियोंमें क्या देखा, क्या सीखा, अभी तो यही चर्चा प्रासंगिक है!

सूर्योदयका समय था! दूद दुहा जा चूका था! दही मथनेकी ध्वनि अब कम हो चली थी! हरे-हरे वृक्षोंपर रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे थे! बछड़े भी कूदक-कूदककर अपने हमजोलियों और माताओंसे खेल रहे थे! प्रेमकी करुनामिश्रित धारा चारों और फैली हुई थी, सब कुछ था परन्तु वह रौनक न थी जो श्रीकृष्णके रहनेपर रहती थी! सभीके आँखें किसीका अन्वेषण कर रही थीं! सबको एक अभाव-सा खटक रहा था! और जहाँ दृष्टि पड़ती थी वहाँ सुना-सा जान पड़ता था! मशीनकी भाँती सब अपने-अपने काममें लगे हुए थे परन्तु उनमें उत्साह नहीं था, स्फूर्ति नहीं थी! वे उन कामोंकी ओरसे कुछ उदासीन, कुछ सिथिल और कुछ खींचे हुए-से-जान पड़ते थे!

गोपियाँ घरसे बाहर निकलीं! उन्होंने देखा की नन्दके द्वारपर एक बहुत सुन्दर सोनेका रथ खड़ा है! सभीके मनमें कुतूहल हुआ कि यह किसका रथ है! किसीने कहा रथ तो वही है जिसपर श्रीकृष्ण गये थे! तब यह फिर क्यों आया है! कृष्णका नाम सुनकर बहुतोंकी आँखोंसे आँसू चू पड़े! कई मन मसोसकर  रह गयीं! उनकी कुछ सोयी हुई-सी कसक उभर आयी! किसीने कहा-'अब किसको ले जायगा? यहाँ ले जानेके लिए है ही क्या? श्रीकृष्ण गये हमारी आत्मा गयी! हमारे प्राण गये, अब यहाँ सूखे हाड़ोंकी ठटरी है! इसे कोई क्या करेगा? हाँ, हम श्रीकृष्णकी हैं! उन्होंने कहा है की हम आयेंगे! उनकी बात झूठी नहीं हो सकती! वे आवेंगे और हमें न पावें तो उन्हें क्लेश होगा! बस, इसीलिये हमें जीवित रहना है!'  

[१६]
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Thursday 15 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव


प्रेमी भक्त उद्धव



चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
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भगवत्सम्बंधके जितने भाव हैं, उनमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य --ये तीन भाव प्रधान हैं! यों तो भगवान् के साथ होनेवाले सभी सम्बन्ध उत्तम ही हैं परन्तु व्रजभूमिमें इन्हीं तीनोंकी विशेषता है! इन तीनोंमें भी माधुर्यभाव परम भाव है और वह रहस्य रस है! जो भगवान् के सख्य और वात्सल्यभावसे परिचित नहीं, इस मधुरतम रसमें उनका प्रवेश नहीं हो सकता! मधुर भाव क्या हैं? आत्माका आत्मामें रमण! भगवान् का अपनी आत्मस्वरूपा एवं अंतरंगा शक्तियोंके साथ, जो  की भगवन्मय ही हैं, दिव्य क्रीडा! आनंद और प्रेमका संयोग! त्रिगुणसे परे, प्रकृतिसे परे जो आत्माका आत्मस्वरूप ही रस है उसका आस्वादन! इसे उज्जवल रस भी कहते हैं! 

इस उज्जवल रसमें एक होनेपर भी दो प्रकारकी अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं! एक मिलनकी और दूसरी बिछोहकी! भगवान् से मिलन और उनके साथ रस-क्रीडाका अवसर विरलेही भाग्यवानोंको मिलता है! उसे चाहनेपर भी गोपियोंका पद- रज ह्रदयमें धारण किये बिना कोई नहीं पा सकता! अधिकांश लोग ऐसे ही हैं, जो भगवान् से बिछुड़े हुए हैं और यदि चाहें तो इस बिछोहके द्वारा ही भगवान् के उस दिव्य रसका लाभ कर सकते हैं! बिछोहके मार्गमें भी कई  बाधाएँ हैं, इस मार्गका साधक पद-पदपर निराश हो सकता है, उसके मनमें यह भाव आ सकता है कि इतने दिन हो गये, परन्तु श्रीकृष्ण नहीं आये! अब वे नहीं आवेंगे! यह सोचकर वह साधनासे विरत हो सकता है! परन्तु ऐसा होना ठीक नहीं है! इस बातको हम गोपियोंसे सीख सकते हैं!

मथुरा वृन्दावनसे तीन ही कोसपर थी! श्रीकृष्ण वहाँ दो दिनके लिये आ सकते थे अथवा गोपियाँ ही कुछ दिनोंके लिये वहाँ जा सकती थीं! परन्तु ऐसा करनेसे उनके जीवनमें वियोगका आदर्श पूरा नहीं उतरता! गोपियाँ श्रीकृष्णसे अलग थोड़े ही हैं! श्रीकृष्ण गोपियोंसे अलग थोड़े ही हैं! यह वियोगकी लीला वियोगी साधकोंके आदर्शके लिये है! यदि बीचमें ही श्रीकृष्ण और गोपियोंका मिलन हो जाता तो वियोग-साधनाका आदर्श नहीं बनता! इसी आदर्शसे सिक्षा ग्रहण करनेके लिये या यों कहिये कि इसी आदर्शको जगतमें प्रकट करनेके लिये उद्धव व्रजभूमिमें गोपियोंके पास आये हुए हैं! 


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Wednesday 14 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव:






चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार

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'वे सीघ्र ही यहाँ आयेंगे भी! यदि आप उन्हें शरीरसे  देखना चाहते हैं तो यह भी होगा, आप उनसे प्रेम करें और वे आपके पास न आवें, ऐसा नहीं हो सकता! कंस आदि दुष्टोंको मारनेके बाद यदुवंशियोंकी रक्षा- दीक्षाका सारा भार उन्हींपर आ पड़ा है! उनकी व्यवस्था करके वे यहाँ आ सकते हैं! गोपोंके वहाँसे चलनेके समय जो कुछ उन्होंने कहा था उसे श्रीकृष्ण अवश्य पूरा करेंगे! आपलोग बड़े ही भाग्यवान हैं! आप अपने निकट ही श्रीकृष्णका दर्शन प्राप्त करेंगे! वे आपसे दूर थोड़े ही हैं! वे आपके अंतरात्मा हैं, वे काष्टमें अग्निकी भाँती सर्वत्र व्यापक हैं! उनके लिये खिन्न होनेकी आवश्यकता नहीं! उनका न तो कोई प्रिय हैं और न तो अप्रिय! उनकी दृष्टिमें न कोई ऊँचा है, न नीचा! वे सर्वत्र समान हैं, अभिमान उनका स्पर्श नहीं कर पाता! न तो उनकी कोई माता है, न पिता है, न पत्नी है और न पुत्र! न कोई अपना है, न पराया! न शरीर है और न तो जन्म! न उनका कोई कर्म है और न तो उन्हें कर्मोंका फल भोगना है! वे अपने प्रेमी भक्तोंकी रक्षाके लिये लीलावतार ग्रहण करते हैं!

           'सत्त्व,रज और तम ये तीन गुण हैं! वे निर्गुण होनेपर भी क्रीडाके लिये इन गुणोंको स्वीकार करते हैं और संसारकी सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करते हैं! जैसे घुमती हुई वस्तुपर चढ़कर देखें तो साड़ी पृथ्वी घुमती हुई-सी दीख पड़ती है, वैसे ही चित्त करता-भोक्ता है और उसका आरोप आत्मापर किया जाता है! श्रीकृष्ण केवल तुम दोनोंके ही पुत्र नहीं है, वे भगवान् हैं, सबके पुत्र हैं, सबके पिता-माता हैं, सबके ईश्वर है और सबके आत्मा हैं, जो कुछ कभी हुआ है, जो कुछ है या हो रहा है, जो कुछ होगा या हो सकता है, जो कुछ देखा या सुना गया है, जो कुछ जड़ या चेतन है, जो कुछ बड़ा या छोटा है, सब कुछ श्रीकृष्ण हैं, श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है! वे सब हैं, केवल वही हैं, एकमात्र वही परमार्थ वस्तु हैं!'

         इस प्रकार उन लोगोंमें बात होते-होते सारी रात बीत गयी! गोपियाँ अपने-अपने घर उठकर घरके देवताओंको नमस्कार करके दही मथने लगीं! वे एक स्वरसे 'गोविन्द, दामोधर, माधव' इत्यादि श्रीकृष्णके नामोंका समुधर गायन कर रही थीं! उनके इस प्रेम-गायनको सुनकर उद्धवने अपनी बात समाप्त की और नित्यकृत्य करनेके लिये वे यमुना-तटपर गये! 

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Tuesday 13 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव:





चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
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यमुना -किनारे जाती हूँ, घण्टों बैठकर उसकी लहरियाँ गिनती रहती हूँ! ऐसा मालूम पड़ता है कि इसी नीले जलमें वह कहीं छिपा होगा परन्तु जब घण्टों नहीं निकलता तो आँखोंपर बड़ा क्रोध आता है! मैं अपने हाथोंसे ही इन आँखोंको फोड़ डालती, अपने श्यामसुन्दरके अतिरिक्त और किसीको देखना ही क्या है परन्तु उसीको देखनेकी लालसासे इन्हें बचा रखा है! क्या कभी मेरी अभिलाषा पूरी होगी, क्या दो दिनके लिए भी वह मेरे पास आवेगा? क्या मैं फिर उसे अपनी गोदमें ले सकूँगी? उद्धव! क्या मेरा जीवन, मेरी आँखें कभी सफल हो सकेंगी?'

यशोदाकी आँखोंसे झर-झर आँसूके निर्झर बह रहे थे! उनका गला भर आया, वे चुप होकर उद्धवकी  और देखने लगी! नन्द और यशोदाके इस अलौकिक प्रेमको देखकर उद्धव अवाक् हो गये! उनसे कुछ बोला नहीं गया! उद्धवमें शांत भक्ति पहलेसे ही थी, दास्यभाव भी था, सख्यका भी कुछ अंकुर उग  आया था; उनकी ऐसीही मानसिक स्थितिमें श्रीकृष्णने उन्हें वृन्दावन भेजा था! वृन्दावनमें प्रवेश करते ही उद्धवको सख्य-रसकी पूर्णता प्राप्त हुई! श्रीदामा आदि गोपोंसे मिलकर उन्होंने जाना कि सख्य -रसकी पूर्णता क्या है? व्रजमें प्रवेश करनेपर उन्होंने देखा, व्रजके घर -घरमें, वन-वनमें, वहाँके पशु-पक्षी-मनुष्य सभी श्रीकृष्णका गुणानुवाद गा रहे हैं! वहाँके एक-एक अणुसे श्रीकृष्णके नामकि ध्वनि निकल रही थी! नन्द और यशोदाके पास आकर उन्होंने वात्सल्य -रसका दर्शन किया! उनकी समझमें  ही नहीं आता था कि इन्हें क्या समझावें, इनसे क्या कहें? अन्तमें उन्होंने सोचा कि इन्हें श्रीकृष्णका ऐश्वर्य सुनाना चाहिये! वे कहने लगे ! अबतक नंदबाबा भी संभलकर बैठ गए थे! 

          उद्धवने कहा --'बाबा नन्द! माँ यशोदा! आपलोग धन्य हैं! आपका जीवन सफल है! यदि मेरे रोम-रोम जीभ बन जायँ तो भी मैं आपकी पूरी प्रशंसा नहीं कर सकता! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें -क्षरक्षरातीत पुरुषोत्तममें आपलोगोंका इतना सुन्दर भाव है, आपकी ऐसी भक्ति है, इसकी महिमा कौन गावे? तीर्थयात्रा, तपस्या, दान,ज्ञान और समाधिसे जिस वस्तुकी प्राप्ति कि जाती है, वह प्रेमलक्षण भक्ति आपको स्वयं ही प्राप्त हो गयी  है! श्रीकृष्ण केवल आपके बालक ही  नहीं  हैं! वे सम्पूर्ण पिताओंके पिता हैं! वे संसारके मूल कारण हैं! बलराम उन्हींकी शक्ति हैं! उन्हींकी प्रेरणासे संसारमें ज्ञान होता है और सब वस्तुएँ चेष्टा करती हैं! कोई भी प्राणी मृत्युके समय एक क्षण भी उनका चिंतन कर ले तो उसके सारे कर्म धुल जाते हैं और वह ब्रह्मा -स्वरुपको प्राप्त हो जाता हैं! आपलोगोंका उनसे सम्बन्ध तो है ही, उन्हें केवल अपना  पुत्र  न समझें, उन्हें सबका कारण, सबकी आत्मा समझें! यदि आप ऐसा कर सकेंगे तो फिर आपका कोई कर्तव्य शेष नहीं रहेगा! '

[१२]
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Monday 12 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव:





चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार


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क्या अपनी माँको भी कोई भूल सकता है? मेरा वही इकलौता लाल है! जब वह मुझसे हठ करता था, किसी बातके लिये मुझसे अड़ जाता था तो बिना वह काम कराये मानता ही नहीं था! वहाँ किसके सामने हठ करता होगा, मेरी ही भाँती कौन उसका दुलार करता होगा? कौन उसकी जिद्दको पूरी करता होगा? मेरा नन्हा व्रजका सर्वस्व है! कुलका दीपक है! उसे खिला-पिलाकर मैंने बहुत -से दिन पलके समान बिता दिये हैं! उस दिनकी बात तुमने भी सुनी होगी! 

       मैं दही मथ रही थी, मैं तन्मय होकर दही मथनेमें  लगी थी और ऐसा सोच रही थी की मेरा कन्हैया अभी सो  रहा है! एकाएक वह आया और पीछेसे उसने मेरी आँखें बंद कर लीं! मैं उसके कोमल करोंका मधुर स्पर्श पाकर आनंदके मारे सिहर उठी! मैंने धीरेसे अपनी बाँहोंमें लपेटकर उसे अपनी गोदमें ले लिया और दूध पिलाने लगी! कभी-कभी वह दूध पीना छोड़कर मेरी और देखता, कितना सुन्दर, कितना कोमल, मरकतमणि -सा चिक्कन उसका कपोल है! लाल-लाल ओठोंमेंसे सफ़ेद-सफ़ेद दंतुलियाँ कितनी सुन्दर लग रही थीं! मैं मुग्ध होकर दिग्धके समान स्निग्ध उसके मुखड़ेको देखती रहती और वह फिर दूध पिने लगता! उद्धव! मुझे वह दिन नहीं भूलता! उस दिन मैंने अपने मोहनको उख्हलसे बाँध दिया था,क्यों? एक छोटे-से अपराधपर! उसने दूधके बर्तन फोड़ दिए थे, मक्खन वानरोंको खिला दिया था! उस बात की याद करके मेरा कलेजा अब भी काँप उठता है! क्या मैं दूध और मक्खनको कन्हैयासे अधिक चाहती हूँ! नहीं, उद्धव! यह बात स्वप्नमें भी नहीं है! आज भी मेरे पास दही है, दूध है, मक्खन है परन्तु मेरे ह्रदयका टुकड़ा, मेरी आँखोंका ध्रुवतारा, अंधेका सहारा मेरा कन्हैया मेरे पास नहीं है! उसके न होनेसे अब यह सब रहकर मुझे जलाते हैं! देखो, यह वहीं आँगन है, वही दरवाजा है, वही घर है और वही गलियाँ हैं! ये सब मोहनके बिना मुझे काटने दौड़ते हैं! मेरी आँखें कृष्णको ढूँढती हुई इनपर पड़ती  हैं परन्तु उसे न देखकर ये लौट आती हैं और मनमें यह बात आती है कि यदि ये आँखें न होतीं तो अच्छा होता ! 

[११]

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Saturday 10 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव





चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार ( संत श्री तुकाराम जयंती)

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श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन  श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके साथ यहीं इसी चबूतरेपर खेलते हुए कब देखूँगा? मेरे जीवन को धिक्कार हैं! मैं उनके बिना भी जीवित हूँ! सच कहता हु उद्धव! यदि उनके आने की आशा न होती, वे मेरे मरनेका समाचार सुनकर दुखी होंगे, यह बात मेरे मन में न होती तो अबतक मैं मर गया होता! सुनता हूँ, गर्गने बतलाया था; और कंस आदिको मारते समय मैंने भी अपनी आँखोंसे उनका बल-पौरुष देखा था कि वे भगवान् हैं! यह सत्य होगा और सत्य हैं! तथापि वे मेरे पुत्र हैं न! चाहे जो हो जाय मुझे तो उन दिनोंकि याद बनी ही रहेगी, जिन दिनों वे नन्हें-से बच्चे थे, मैं उन्हें अपनी गोदमें लेकर खेलता था, वे धूलभरे शारीरसे आकर मेरे कपड़े मैले कर देते थे! मेरे तो वे पुत्र हैं! मैं और कुछ नहीं जनता! 

इतना कहते -कहते नन्द वात्सल्यस्नेहके समुद्रमें डूब गये! नेत्रोंसे आँसुओंकि धारा बह चली! उनकी बुद्धि श्रीकृष्णकी लीलामें प्रवेश कर गयी और वे कुछ बोल न सके, चुप हो गये! यशोदा वहीँ बैठकर नंदबाबाकी सभी बातें सुन रही थीं! उनकी आँखोंसे आँसू और स्तनोंसे दूध बहा जा रहा था! नंदबाबाको प्रेम्मुग्ध देखकर वे उनके पास चली आयीं और संकोच छोड़कर उद्धवसे पूछने लगीं -- 'उद्धव! तुम तो मेरे लल्लाके पास रहते हो, उसके सखा हो, वह सुखसे तो है न? सोकर उठा नहीं की दहीके लिये, मक्खनके लिये मेरे पास दौड़ आया! वहाँ उतने सबेरे उसे कौन खानेको देता होगा? क्या मेरा मोहन दोपहरको ही खाता है? वह दुबला तो नहीं हो गया है? क्या वहाँके पचड़ोंमें  पड़कर मुझे भूल तो नहीं गया ?      


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चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार ( संत श्री तुकाराम जयंती)




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श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन  श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके साथ यहीं इसी चबूतरेपर खेलते हुए कब देखूँगा? मेरे जीवन को धिक्कार हैं! मैं उनके बिना भी जीवित हूँ! सच कहता हु उद्धव! यदि उनके आने की आशा न होती, वे मेरे मरनेका समाचार सुनकर दुखी होंगे, यह बात मेरे मन में न होती तो अबतक मैं मर गया होता! सुनता हूँ, गर्गने बतलाया था; और कंस आदिको मारते समय मैंने भी अपनी आँखोंसे उनका बल-पौरुष देखा था कि वे भगवान् हैं! यह सत्य होगा और सत्य हैं! तथापि वे मेरे पुत्र हैं न! चाहे जो हो जाय मुझे तो उन दिनोंकि याद बनी ही रहेगी, जिन दिनों वे नन्हें-से बच्चे थे, मैं उन्हें अपनी गोदमें लेकर खेलता था, वे धूलभरे शारीरसे आकर मेरे कपड़े मैले कर देते थे! मेरे तो वे पुत्र हैं! मैं और कुछ नहीं जनता! 


इतना कहते -कहते नन्द वात्सल्यस्नेहके समुद्रमें डूब गये! नेत्रोंसे आँसुओंकि धारा बह चली! उनकी बुद्धि श्रीकृष्णकी लीलामें प्रवेश कर गयी और वे कुछ बोल न सके, चुप हो गये! यशोदा वहीँ बैठकर नंदबाबाकी सभी बातें सुन रही थीं! उनकी आँखोंसे आँसू और स्तनोंसे दूध बहा जा रहा था! नंदबाबाको प्रेम्मुग्ध देखकर वे उनके पास चली आयीं और संकोच छोड़कर उद्धवसे पूछने लगीं -- 'उद्धव! तुम तो मेरे लल्लाके पास रहते हो, उसके सखा हो, वह सुखसे तो है न? सोकर उठा नहीं की दहीके लिये, मक्खनके लिये मेरे पास दौड़ आया! वहाँ उतने सबेरे उसे कौन खानेको देता होगा? क्या मेरा मोहन दोपहरको ही खाता है? वह दुबला तो नहीं हो गया है? क्या वहाँके पचड़ोंमें  पड़कर मुझे भूल तो नहीं गया ?      


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Thursday 8 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव






                         फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार

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इन ग्वालबालोंका प्रेम देखकर उद्धव तो मुग्ध हो रहे थे! वे पुनः रथपर सवार नहीं हुए! ग्वालबालोंके साथ ही बातचीत करते हुए व्रजकी दशा* देखते हुए नंदबाबाके दरवाजेके पास आ पहुँचे! ग्वालबाल दुसरे दिन मिलनेकी बात कहकर अपनी गौओंको ले-लेकर अपने-अपने घर चले गये! उद्धवने जाकर नंदबाबाको प्रणाम किया! नंदबाबाने उठकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और बड़ी प्रसन्नतासे, बड़े प्रेमसे उन्हें साक्षात श्री कृष्ण समझकर उनका सत्कार किया! जब वे नित्य-कृत्य और भोजन-भजनसे निवृत्त हुए तथा प्रसन्न होकर आसनपर बैठे तब नंदबाबाने बड़े प्रेमसे उनके पास बैठकर मथुराका कुशल-समाचार पूछा! नंदबाबाने कहा - 'उद्धव! मेरे प्रिय बंधू वासुदेव कुशलसे हैं न? उनके पुत्र, मित्र, भाई, बंधू सब प्रसन्न हैं न? बहुत दुःखके बाद उन्हें सुखके दिन देखनेको मिले हैं, यह भगवान् की बड़ी कृपा है! पापी कंस पापके परिणामस्वरूप अपने साथियोंके साथ मारा गया! वह धार्मिक यदुवाशियोंसे बड़ा ही द्वेष रखता था! अब तो सब लोग स्वतंत्रासे धर्माचरण कर पाते हैं न?'

नन्दने आगे कहा -- 'उद्धव! क्या श्रीकृष्ण कभी अपनी माँका स्मरण करते हैं? क्या वे अपने साथ खेलनेवाले ग्वालबालोंको भूल गये? क्या वे अपनी प्यारी गौओंको कभी स्मरण नही करते? उनके ही आने की आशासे जीवित रहनेवाले व्रजवासियोंको क्या वे भूल सकेंगे? वृन्दावन, यमुना, गोवर्धन आज भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! गोवर्धन सिर उठाकर उनका मार्ग देख रहा है! वृन्दावन और यमुना उनके विरहमें सूखते जा रहे हैं! उद्धव! क्या सचमुच वे आयेंगे? क्या उनका सुन्दर मुखड़ा, उनकी तोतेकी ठोर-सी नाक, उनकी मुस्कान और उनकी चितवनका आनंद मेरी इन आँखोंको प्राप्त हो सकेगा? 


*                            कुंजनमें भौंरपुंज गुंजरत स्याम स्याम,  
                                      बोलत बिहंग त्यों कुरंग स्याम नाम है!
                        धेनु तृन मुख धरि स्यामई पुकारती हैं,        
                                   जमुना-तरंग सोर स्याम सब जाम है!!
बैठतमें बागतमें सोवतमें जागतमें,         
                स्याम-रट लागत न रागत बिराम है! 
कृष्णचन्द्र बिरह मवासी व्रजबासी सबै,       
           'रघुराज' हेरी रहे स्याम स्याम स्याम है!!
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Wednesday 7 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव

 
                सभी भक्तों को होली की शुभकामनाएँ


फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार
 
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श्रीदामाने कहा -- 'क्या श्रीकृष्ण इतने निर्मोही हो गये? परन्तु ऐसी सम्भावना नहीं है! उनका ह्रदय बड़ा कोमल है! वे जब गौओंको चराकर लौटते थे, रातमें हमलोग अपने घर चले जाते थे और वे अपनी माँके पास जाकर सोते थे तब रातमें भी वे हमारे लिये छटपटाया करते थे! स्वप्नमें भी हमारा नाम लेकर पुकारा करते थे! प्रातः काल होते  ही हमलोगोंके पास आनेके लिये उतावले हो उठते थे! यदि माँ यशोदा सावधान न रहतीं तो वे बिना कुछ खाये-पिये हमलोगोंके पास दौड़ आते थे! दिनभर हमारे साथ खेलते थे, खाते थे,हमें तनिक भी कष्ट नहीं होने देते थे! वे ही हमारे श्रीकृष्ण, वही हमारा कन्हैया मथुरामें जाकर इतना निष्ठुर हो गया! यह कैसे सोचें,कैसे समझें, कैसे विश्वास करें?'

'उद्धव! तुम कहते  हो की एक-न -एक दिन वे हमें अवश्य मिलेंगे! परन्तु तुम जानते नहीं की उनके बिना एक क्षण युगके समान, एक घड़ी मन्वन्तरके समान,एक पहर कल्पके समान और एक दिन द्वीपरार्धके समान व्यतीत होता है! हम एक क्षण भी उन्हें नहीं भूल सकते! जब वे हमारे साथ खेलते थे, तब दिन-का-दिन पलक मारते बीत जाता था! आज उनके बिना हमारा  जीवन भार हो गया है! सारा संसार शून्य -सरीखा मालुम होता है! वे ही वन हैं, वे ही वृक्ष-लताएँ है, जिनके निचे कोमल कोंपलोंकी शय्यापर श्रीकृष्ण लेट जाते थे, हम बड़े-बड़े पत्तोंसे हवा करके उनके श्रमबिंदु सुखाते थे! उनके चरण-कमलोंको अपनी गोदमें लेकर अपने ह्रदयसे सटाते थे! उनके हाथ अपने हाथमें लेकर दिव्य सुखका अनुभव करते थे! वही यमुना है जिसमें हमलोग घण्टों जलक्रीडा करते थे! वही व्रजभूमि है जिसमें हमलोग लोटते थे! परन्तु वही सब रहनेसे क्या हुआ, श्रीकृष्णके बिना सब काटने दौड़ता हैं, उनकी और आँखें उठाकर देखातक नहीं जाता! उद्धव! हुम सत्य कहते   हैं, हमारी पीड़ा तब और भी बढ़ जाती है जब ये गौएँ रँभाती हुई अपना सिर उठाकर मथुराकी और देखती हैं! ये बछड़े जब किसीको दुरसे आते देखते हैं तो अपनी माँका दूद पीना छोड़कर मानो श्रीकृष्ण ही आ रहे हों, इस भावसे उधर देखने लगते हैं! यदि हमें उनके आनेकी आशा न होती तो अबतक हमारे प्राण न रहते!' 


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Tuesday 6 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव





फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार

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व्रजभूमि प्रेमकी भूमि है! लीलाकी भूमि है! वहाँके एक-एक रजकण पूर्ण रसमय हैं, वहाँके एक-एक अणुसे अनन्त-अनन्त आनन्दकी धारा प्रवाहित होती है! वहाँकी लताएँ साधारण नहीं है! मृदुलताकी लताएँ हैं! वहाँके वृक्षोंकी पंक्ति रसिकोंकी जमात है! वहाँकी नदियाँ प्रेमके अमृतसे भरी रहती हैं! वहाँके वायु-मंडलमें श्रीकृष्णके विग्रहकी दिव्य सुरभि प्रवाहित हुआ करती है! वहाँकी गौएँ साक्षात उपनिषदें हैं! वहाँका गौरस ब्रह्मरस है! वहाँके ग्वाल, गोपियाँ सब श्रीकृष्णके अंग हैं! श्रीकृष्ण ही व्रजके रूपमें प्रकट हैं! श्रीकृष्ण व्रजमय हैं,श्रीकृष्णमय व्रज है! वहाँ प्रेम,आनन्द, शांतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है! 

सन्ध्याका समय था, गौएँ वृन्दावनकी  और लौट रही थीं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते हुए जा रहे थे! किसीकी दृष्टि दुरसे उड़ती हुई धुलपर पड़ी, मानो व्रजकी रजरासी पहले स्नान कराकेकिसीको व्रजमें आनेका अधिकार बना रही हो! जब रथ दिखने लगा तब किसीने कहा --' देखो वह रथ आ रहा है!' किसीने कहा --'श्रीकृष्ण ही होंगे!' किसीने कहा -- 'हाँ,हाँ, देखो पीताम्बर, माला और कुण्डल दिखने लगे हैं! शरीर भी श्यामवर्णका ही है! वही रथ, वही घोड़े परन्तु श्रीकृष्ण अकेले क्यों हैं? क्या दाऊ भैया वहीं रह गये? कन्हैयासे आये बिना नहीं रहा गया होगा, इसीसे वे अकेले चले आये होंगे!' सब-के-सब ग्वालबाल उद्धवके रथकी और दौड़ पड़े! उस समय उनके मनमें कितना उल्लास रहा होगा! 

ग्वालबालोंने पास जाकर पहचाना! ' ये तो श्रीकृष्ण नहीं हैं! हमारे ऐसे भाग्य कहाँ की वे आवें! परन्तु उसी रथपर वैसे ही वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित यह कौन है?' वे इस प्रकार सोच ही रहे थे की उद्धव रथ खड़ा करके नीचे उतर पड़े, मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करके ह्रदयसे लगा लिया! उन्होंने कहा -- 'मैं श्री कृष्ण का सेवक उनके रहस्यसंदेशोंको लेकर यहाँ आया हुआ हूँ! उन्होंने बड़े प्रेमसे तुमलोगोंका स्मरण करके मुझे यहाँ भेजा है! घबरानेकी कोई बात नहीं है, एक-न-एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें मिलेंगे ही! भला तुमलोगोंको छोड़कर वे कैसे रह सकते हैं?'   

[७]

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Monday 5 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




फल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार


प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे....


'उद्धव! व्रजका एक-एक स्थान, वहाँका एक-एक वृक्ष, एक -एक लता मुझे स्मरण आ रही है, मैं उन्हें भूल नहीं रहा हूँ! वहाँके सारस, हंस, मयूर, कोकिल सभी मुझे याद आ रहे हैं! वहाँकी वे हरिण और हरिणीयाँ, जो मेरे पास आकर मेरा शरीर खुजलाती थीं, मेरे ह्रदयमें वैसी ही चेष्टा करती हुई दीख रही हैं! वहाँके भौरोंकी गुंजार अब भी मेरे कानोंको भर रही है! वहाँके पक्षियोंका  कलरव अब भी मेरे मनको मोहित कर रहा है! उद्धव! तुम जाओ, अब तनिक भी विलम्ब मत करो!'

सम्भव है, गोपियोंके प्रेमका वर्णन सुनकर उद्धवके मनमें यह अभिलाषा रही हो की मैं व्रजमें जाकर उनका प्रेम देखूँ! अथवा शायद वे ज्ञानमें ही डूबते रहे हों, भगवान् ने प्रेमरसके आस्वादनके लिये उन्हें व्रजमें भेजा हो; कुछ भी हो, भगवान् ने उन्हें व्रजमें भेजा और उन्होंने अविलम्ब आज्ञाका पालन किया! उद्धव भगवान् का सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और संध्या होते-होते वे व्रजकी सीमामें पहुँच  गए! वहाँकी हरी-हरी वनपंक्तियाँ सुर्यकी लाल-लाल किरणोंसे अनुरंजित हो रही थीं, मानों व्रजभुमिने उद्धवके स्वागतके लिये सहस्त्र -सहस्त्र लाल पताकाएँ फहरा दी हों! उद्धवका रथ वृन्दावनकी और बढ़ रहा था! 

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Saturday 3 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव


फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार


प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे....

'मेरे वे सखा, मेरे संगी, जिनके साथ मैं खेलता था, जिनसे मेरा ऊँच-नीचका तनिक भी व्यवहार नहीं था, जो घुल-मिलकर मुझसे एक हो गये थे, आज भी गौओंको लेकर जंगलमें चराने आते होंगे! और दिनभर टकटकी लगाकर मथुराकी और देखते रहते होंगे! उद्धव! वे मेरे जीवन-सखा हैं! सहचर हैं! मेरी लीलाके सहकारी हैं! उनके साथ मैं जंगलमें खता था! वे अपने घरसे अच्छी-अच्छी चीजें ला-लाकर पहले मुझे खिलाया करते थे! गौएँ दूर चली जाती तो वे मुझे नहीं जाने देते, स्वयं ही जाकर हाँक लाते थे! उनपर तनिक सी भी आपत्ति आती तो वे मुझे पुकारने लगते, सच्चे ह्रदय से पुकारते! ब्रह्मा उन्हें हर ले गये! मैंने वर्षभरतक उनका रूप धारण किया! ब्रह्मा छक गये! इन्द्र ने उनका अनिष्ट करना चाहा, मैंने सात दिनोंतक अपनी ऊँगलीपर गौवर्धन उठा रखा! उनके साथ मैं उछलता था, कूदता था, खेलता था, उनकी स्मृति मुझे रह -रहकर आया करती है! तुम जाओ! उन्हें केवल तुम्हीं समझा सकते हो! 

'मेरी गौएँ हैं! मैं जब उनके पीछे -पीछे चलता था तो वे सर घुमा-घुमाकर मुझे देख लिया करती थीं! जब मैं बाँसुरीमें उनका नाम लेकर पुकारता तब वे चाहे कहीं भी होतीं, मेरे पास दौड़ चली आतीं! जब मैं उनकी ललरियोंको सहलाने लगता, तब वे अपना सिर उठाकर प्रेमसे मुझे देखा करतीं और उनके थनोंसे दूध गिरने लगता था! जब मैं बाँसुरी बजाता, तब मुझे घेरकर खड़ी हो जातीं  और उनके मुँहमें जो घास होती, उसे उगलना और निगलना भी भूल जातीं! उस दिन जब मैं कालिय- कुण्डमें कूद गया था, तब वे सब मेरे पीछे उसमें घुसने जा रही थीं! वे बड़े बलसे रोकी जा सकीं और जबतक मैं निकला नहीं, तबतक किनारे खड़ी होकर रोती तथा रँभाती रहीं! वे अब मुझे न देखकर कितनी पीड़ित, कितनी व्यथित होंगी? उद्धव! वे तुम्हें देखकर कुछ सान्त्वना प्राप्त करेंगी! मेरी ही -जैसी आकृति और मेरे ही -जैसे वस्त्रोंको देखकर वे तुमसे प्रेम करेंगी और जब तुम उन्हें सहलाओगे तब वे प्रसन्नता -लाभ  करेंगी!'   


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Friday 2 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे... 


श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी सखा उद्धवको एकांतमें ले जाकर उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बड़े ही प्रेमसे कहा! उस समय श्रीकृष्णके मुखमण्डलपर करुनाका संचार हो गया था! उनकी आँखें प्रेमसे भरी हुई थीं! उन्होंने उद्धवसे कहा -' प्यारे उद्धव! तुम्हें मेरा एक काम करना होगा! यह काम केवल तुम्हारे ही करनेयोग्य है! तुम व्रजमें जाओ! वहाँ मेरे सच्चे माता-पिता रहते हैं! मैं उनकी गोदमें खेलता था, वे दुलारके साथ मुझे अपने हाथों खिलाते थे, आँखोंकी पुतलीकी भाँती मुझे जोगवते ही उनका सारा समय बीतता था! यदि मेरे कलेवा करनेमें तनिक भी देर हो जाती थी तो वे छटपटा उठते थे! मैं हठ करके गौओंको चराने चला जाता था तो दिनभर उनकी आँखें वनकी ही और लगी रहती थीं! मेरे बिना उनका जीवन भार हो गया होगा! मक्खन-मिश्री देखकर उन्हें मेरी याद आती होगी, बाँसुरी देखकर वे बेसुध हो जाते होंगे, मेरी प्यारी गौएँ जब मुझे ढूँढती  हुई -सी इधर -उधर भटकती होगीं, तब उनका कलेजा फटने लगता होगा! उन्हें केवल तुम्हीं सांत्वना दे सकते हो! मेरे ह्रदयकी बात जाननेवाले  उद्धव! उन्हें प्रसन्न करनेकी क्षमता केवल तुममें ही है! 

'मेरी गोपियाँ हैं, उन्हें मेरे वियोगका कितना दुःख है, वे मेरे लिये बिना पानीकी मछलीकी भाँती किस प्रकार तडफड़ा रही होंगी, इसका अनुमान और वर्णन नहीं किया जा सकता! उद्धव! मैंने कई बार एकांतमें तुमसे उनकी चर्चा की है! उन्होंने अपना सर्वस्व मुझे समर्पित कर दिया है, उनका जीवन मेरी प्रसन्नताके लिये है! उन्होंने अपनी आत्मा, अपना ह्रदय मुझे दे दिया हैं! वे मुझे सोचा करती हैं, मन-ही-मन मेरी सेवाकी भावना करके अपना समय बिताया करती हैं! उन्होंने अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें मिला दिया है और उन सब कामोंको छोड़दिया है जो मेरी प्रीतिके बाधक हैं! और तो क्या , उन्होंने मेरे लिये दुस्त्यज स्वजन और दुस्त्याज आर्यपथका त्याग कर दिया है! वे मुझे ही अपना प्रियतम समझती हैं, मेरे विरहमें उनकी आत्मा छटपटा रही होगी! वे विरहसे, उत्कंठासे विह्वल हो रही होंगी! उन्हें यमुना देखकर मेरे जल- विहारकी याद आती होगी, लता-कुंज और वन -वीथियोंको देखकर उन्हें मेरी रहस्य -क्रीडाका ध्यान आ जाता होगा! कहाँतक कहूँ! व्रजकी एक-एक वस्तु वहाँका एक-एक  अणु, एक -एक परमाणु उन्हें मेरी याद दिलाकर बड़ी व्यथा देता होगा! उद्धव ! तुम निश्चय समझो, वे आँख उठाकर उनकी और देखतीतक नहीं, अबतक उन्होंने प्राणत्याग कर दिया होता यदि पुनः उन्हें मेरे व्रजमें जानेकी आशा नहीं होती! वे मेरी गोपियाँ हैं, उनकी आत्मा मेरी आत्मा है! वे बड़े कष्ट से जीवित रह रही हैं! जाओ, तुम उन्हें मेरा सन्देश सुनाओ और समझा -बुझाकर किसी प्रकार उनकी विरह- व्याधि कुछ कम करनेकी चेष्टा करो!  

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Thursday 1 March 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




प्रेमी भक्त उद्धव:.......गत ब्लॉग से आगे... 


भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके  एकान्त -प्रेमी थे!

भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र  संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते  हैं! भगवान् ने  एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंका प्रेम प्रकाशमें लाकर उससे जगतका कल्याण करनेके लिये रची! सभी बातें ठीक हैं, भगवान् की लीलामें भक्तोंकी अभिलाषा, भगवान् की दयालुता, किसी भक्तका हित और जगतका कल्याण रहता ही हैं! हाँ, तो भगवान् ने एक लीला रची!   

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भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके  एकान्त -प्रेमी थे!


भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र  संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते  हैं! भगवान् ने  एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंका प्रेम प्रकाशमें लाकर उससे जगतका कल्याण करनेके लिये रची! सभी बातें ठीक हैं, भगवान् की लीलामें भक्तोंकी अभिलाषा, भगवान् की दयालुता, किसी भक्तका हित और जगतका कल्याण रहता ही हैं! हाँ, तो भगवान् ने एक लीला रची!   
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Ram