प्रेमी भक्त उद्धव
चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
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भगवत्सम्बंधके जितने भाव हैं, उनमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य --ये तीन भाव प्रधान हैं! यों तो भगवान् के साथ होनेवाले सभी सम्बन्ध उत्तम ही हैं परन्तु व्रजभूमिमें इन्हीं तीनोंकी विशेषता है! इन तीनोंमें भी माधुर्यभाव परम भाव है और वह रहस्य रस है! जो भगवान् के सख्य और वात्सल्यभावसे परिचित नहीं, इस मधुरतम रसमें उनका प्रवेश नहीं हो सकता! मधुर भाव क्या हैं? आत्माका आत्मामें रमण! भगवान् का अपनी आत्मस्वरूपा एवं अंतरंगा शक्तियोंके साथ, जो की भगवन्मय ही हैं, दिव्य क्रीडा! आनंद और प्रेमका संयोग! त्रिगुणसे परे, प्रकृतिसे परे जो आत्माका आत्मस्वरूप ही रस है उसका आस्वादन! इसे उज्जवल रस भी कहते हैं!
इस उज्जवल रसमें एक होनेपर भी दो प्रकारकी अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं! एक मिलनकी और दूसरी बिछोहकी! भगवान् से मिलन और उनके साथ रस-क्रीडाका अवसर विरलेही भाग्यवानोंको मिलता है! उसे चाहनेपर भी गोपियोंका पद- रज ह्रदयमें धारण किये बिना कोई नहीं पा सकता! अधिकांश लोग ऐसे ही हैं, जो भगवान् से बिछुड़े हुए हैं और यदि चाहें तो इस बिछोहके द्वारा ही भगवान् के उस दिव्य रसका लाभ कर सकते हैं! बिछोहके मार्गमें भी कई बाधाएँ हैं, इस मार्गका साधक पद-पदपर निराश हो सकता है, उसके मनमें यह भाव आ सकता है कि इतने दिन हो गये, परन्तु श्रीकृष्ण नहीं आये! अब वे नहीं आवेंगे! यह सोचकर वह साधनासे विरत हो सकता है! परन्तु ऐसा होना ठीक नहीं है! इस बातको हम गोपियोंसे सीख सकते हैं!
मथुरा वृन्दावनसे तीन ही कोसपर थी! श्रीकृष्ण वहाँ दो दिनके लिये आ सकते थे अथवा गोपियाँ ही कुछ दिनोंके लिये वहाँ जा सकती थीं! परन्तु ऐसा करनेसे उनके जीवनमें वियोगका आदर्श पूरा नहीं उतरता! गोपियाँ श्रीकृष्णसे अलग थोड़े ही हैं! श्रीकृष्ण गोपियोंसे अलग थोड़े ही हैं! यह वियोगकी लीला वियोगी साधकोंके आदर्शके लिये है! यदि बीचमें ही श्रीकृष्ण और गोपियोंका मिलन हो जाता तो वियोग-साधनाका आदर्श नहीं बनता! इसी आदर्शसे सिक्षा ग्रहण करनेके लिये या यों कहिये कि इसी आदर्शको जगतमें प्रकट करनेके लिये उद्धव व्रजभूमिमें गोपियोंके पास आये हुए हैं!
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