Wednesday 29 January 2014

वशीकरण -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, त्रयोदशी, बुधवार, वि० स० २०७०

वशीकरण  -२-

द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
 

गत ब्लॉग से आगे....यशस्विनी सत्यभामा की बात सुनकर परम पतिव्रता द्रौपदी बोली-‘हे सत्यभामा ! तुमने मुझे (जप, तप, मन्त्र, औषध, वशीकरण-विद्या, जवानी और अन्जानादी से पति को वश में करने की ) दुराचारिणी स्त्रियों के वर्ताव की बात कैसे पूछी ? तुम स्वयं बुद्धिमती हो, महाराज श्रीकृष्ण की प्यारी पटरानी हो, तुम्हे ऐसी बाते पूचन औचित नहीं । मैं तुम्हारी बातों का क्या उत्तर दूँ ?

देखों यदि कभी पति इस बात को जान लेता है की स्त्री मुझपर मन्त्र-तन्त्र आदि चलाती है तो वह साँप वाले घर के समान उसे सदा बचता और उदिग्न रहता है । जिसके मन में उद्वेग होता है उसको कभी शान्ति नही मिलती और अशान्तों को कभी सुख नही मिलता । हे कल्याणी ! मन्त्र आदि से पति कभी वश में नहीं होता । शत्रुलोग ही उपाय द्वारा शत्रुओं के नाश के लिए विष आदि दिया करते है । वे ही ऐसे चूर्ण दे देते है जिनके जीभ पर रखते ही, या शरीर पर लगाते ही प्राण चले जाते है ।

 कितनी ही पापिनी स्त्रियों ने पतियों को वश में करने के लोभ से दवाईयां दे कर किसी  को जलोदर का रोगी, किसी को कोढ़ी, किसी को बूढा, किसी को नपुंसक, किसी को जड, किसी को अँधा और किसी को बहरा बना दिया है । इस प्रकार पापियों की बात मानने वाली पापाचारिणी स्त्रियाँ अपने पतियों को वश करने में दुखित कर डालती है । स्त्रियों को किसी प्रकार से किसी दिन भी पतियों का अनहित करना उचित नही है ।...शेष अगले ब्लॉग में                                          
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 
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Tuesday 28 January 2014

वशीकरण -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

वशीकरण  -१-

द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
 

भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा एक समय वन में पाण्डवों के यहाँ अपने पति के साथ सखी द्रौपदी से मिलने गयी । बहुत दिनों बाद परस्पर मिलन हुआ था । इससे दोनों को बड़ी ख़ुशी हुई । दोनों एक जगह बैठकर आनन्द से अपने-अपने घरों की बात करने लगी । वन में भी द्रौपदी को बड़ी प्रसन्न और पाँचों पतियों द्वारा सम्मानित देखकर सत्यभामा को आश्चर्य हुआ । सत्यभामा ने सोचा की भिन्न-भिन्न प्रकृति के पांच पति होने पर भी द्रौपदी सबको समान-भाव से खुश किस तरह रखती है । द्रौपदी के कोई वशीकरण तो नही सीख रखा है ।
 
यह सोचकर उसने द्रौपदी से कहाँ-‘सखी ! तुम लोकपालों के समान दृढशरीर महावीर पाण्डवों के साथ कैसे बर्तति हों ? वे तुमपर किसी दिन भी क्रोध नही करते, तुम्हारे कहने के अनुसार ही चलते है और तुम्हारे मुहँ की और ताका करते है, तुम्हारे सिवा और किसी का स्मरण भी नही करते । इसका वास्तविक कारण क्या है ?
 
क्या किसी व्रत, उपवास, तप, स्नान, औषध और कामशास्त्रमें कही हुई वशीकरण-विद्या से अथवा तुम्हारी स्थिर जवानी या किसी प्रकार का जप, होम और अंजन आदि औषधि से ऐसा हो गया है ? हे पान्चाली ! तुम मुझे ऐसा कोई सोभाग्य और यश देने वाला प्रयोग बताओं-

‘जिससे मैं रख सकूँ श्यामको अपने वश में ।’
-जिससे मैं अपने अराध्यदेव प्राणप्रिय श्रीकृष्ण को निरन्तर वश में रख सकूँ । ...शेष अगले ब्लॉग में  
 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Monday 27 January 2014

सच्चा भिखारी -१२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, एकादशी, सोमवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -१२-

 गत ब्लॉग से आगे....जगत ! देख जाओं, आज इस कंगाल के ऐश्वर्य को देख जाओं ! जो कल राह का भिखारी था, वही आज रत्नसिंघासन पर आसीन है । देख जाओं ! आज पर्णकुटीर में त्रिभुवनव्यापिनी माधुरी छा रही है । संसार ! तुम जिस भिखारी को उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे, जिस पद-दलित समझते थे, देख जाओं, आज वही भिखारी दीनता के रूप को भेदकर अखिल विश्वब्रह्माण्ड में वर्णीय हो गया है ।

भिखारी ! जगत की चुटकियों की और न देखों । जगत के अपमान की और दृष्टी मत डालों । विविद विपत्तियों से डरकर मत कापों । तुम अपना काम अचल चित से किये जाओं । जितना ही बढ़ा-विघ्न और संकट बढ़ेंगे, उतना ही यह समझों की तुम्हे गोद में लेने के लिए जगत-जननी का हाथ तुम्हारी और बढ़ रहा है । स्नेहमयी माता पुत्र को गोद में लेने से पहले अंघोछे से उसके शरीर को रगड़-रगड़ कर साफ़ करती है ।

साधक ! इसी प्रकार जगतजननी भी तुम्हे गोद में लेने से पूर्व एक बार रगडेगी । इस रगड़ से घबराना नहीं-डरना नहीं । यह समझना की, इस वेदना से तुम्हारी यम-वेदना विध्वंस हो गयी है । इस कष्ट से तुम्हारा सारा कष्ट नष्ट हो गया है, अतएव साधक ! हताश न होना !

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Sunday 26 January 2014

सच्चा भिखारी -११-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, दशमी, रविवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -११-

 गत ब्लॉग से आगे....घर के पास पहुच कर ब्राह्मण ने देखा तो झोपडी नहीं है । वहां एक बड़ा सुन्दर महल बना हुआ है । ब्राह्मण सुदामा ने सोचा, किसी राजा ने जमीन छीनकर महल बनवा लिया होगा । ब्राह्मण को बड़ी चिन्ता हुई । फूँस की मडैया और पतिव्रता ब्राह्मणी भी गयी । इतने में सुदामा देखते है की उनकी स्त्री महल के झरोखों में खड़ी उन्हें पुकार रही है । ब्राह्मण ने सोचा, दुष्ट राजा ने स्त्री को भी हर लिया है, पर वह बुला क्यों रही है ? ब्राह्मण डॉ कर दौड़े । बड़ी कठिनता से नौकर उन्हें समझा-बुझाकर घर में ले गए । गृहणी ने बहुत ही नम्रता से चरणों में प्रणाम करके कहा, ‘प्राणेश्वर  ! डरे नहीं । यह अतुल सम्पति आपकी ही है, आपके मित्र ने आपको यह भेट दी है ।’

सुदामा बोले, ‘मैंने तो उनसे कुछ माँगा नहीं था ।’

ब्राह्मणी ने कहाँ, ‘आपने प्रत्यक्ष नहीं माँगा, इसी से उन्होंने आपको प्रत्यक्ष में कुछ भी नहीं दिया ।’ अन्तर्यामी यो ही किया करते है । ब्राह्मण की दोनों आँखों में आसूंओं की धारा बह चली । प्राणसखा के प्रेम की स्मृति में सुदामा भावावेश से विहल हो उठे ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Saturday 25 January 2014

सच्चा भिखारी -१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, नवमी, शनिवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -१०-


गत ब्लॉग से आगे....सखा को साथ लेकर भगवान् अन्तपुर में पधारे । पटरानियों ने मिलकर सुदामा के चरण धोये । उन्हें पलंग पर बिठाकर भगवान् स्वयं चमर डुलाने लगे । भगवान् ने प्रेम से कहाँ, ‘सखे बहुत दिन बाद तुम मिले हो, मेरे लिए क्या लाये हो ?’ सुदामा ने लज्जा से सर नीचे किया । इतने बड़े धनी को चिउडों की टूटी कनी देते सुदामा को बड़ा संकोच हुआ, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी बगल से पुटलिया छीन ली और चिउड़ा फांकने लगे ।

भक्त के प्रेमभरे उपहार की वे उपेक्षा क्यों करते ? भगवान् ने एक मुट्ठी फांककर ज्यों ही दूसरी हाथ में ली, त्योही भगवती  रुक्मणिजी ने उन्हें रोक लिया । भगवान् मुट्ठी छोड़कर मुस्कुराने लगे । तदन्तर वे बोले-भक्तमाल रचयिता महाराज श्री रघुराज सिंहजी कहते है –

ऐसे सुनी प्यारी वचन, ज्दुनंदन मुस्काई ।

मन्द मन्द बोले वचन, आनन्द उर न समाई ।।

व्रज में यशोदा मैया मन्दिर में माखन औं ।

मिश्री मही मोहन त्यों मोदक मलाई है ।

खायों मैं अनेक बार तैसे मथुरा में आई,
व्यंजन अनेक  मोहि जननी जेवाई हैं ।

तैसे द्वारिका में जदुवंशिन के गेह-गेह,
सहित अनेक पायों भोजन में लाई है ।

रघुराज आजलों त्रिलोकहूँ में मीत ऐसी ,
राउर  के चाउरते पाई ना मिठाई है ।

खायों अनेकन यागन भागन मेवा रमा कर वागन ढीठे,
देवसमाज के साधुसमाज के लेत निवेदन नाही उबीठे ।

मीत जू साँची कहों रघुराज इते कस वै भये स्वाद ते सीठे,
पायों नहीं कतहूँ अस मैं जस राउर चाऊर लागत मीठे ।।

सुदामा के चिउडों की महिमा का वर्णन करने के बाद सभी सुदामा की सेवा में लग लाये । कुछ दिन मित्र के घर रहने के बाद सुदामा ने विदा माँगी । भगवान् ने संकोच से अनुमति दे दी । ब्राह्मण खाली हाथ लौट चले ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत 
 

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Friday 24 January 2014

सच्चा भिखारी -९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, अष्टमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -९-

 
गत ब्लॉग से आगे.... ब्राह्मणी बोली ‘स्वामिन ! मैं कहाँ कहती हूँ की आप उनके पास जाकर धन मांगे । मैं तो यही कहती हूँ, जब वे आपके बालसखा है, तब एक बार उनसे मिलने में क्या हानि है ? आप उनसे कुछ भी मांगिएगा नहीं ।’ स्त्री के बहुत समझाने-बुझाने पर सुदामा ने सोचा की चलो, इसी बहाने मित्र के दर्शन तो होंगे और वे वहाँ से चल पड़े । थोड़े से चिउडों की कनी पल्ले बाँध ली ।     

सुदामा जी द्वारका पहुचे  । वहाँ के बड़े-बड़े सोने के महलों को देखकर उनकी आँखे चौंधियां गयी । श्रीकृष्ण के महल पर पहुच कर उन्होंने द्वारपाल से कहाँ, ‘जाओ, अपने स्वामी से कह दो की आपके एक बालसखा मिलने आये है ।’ महलों की छटा देखकर गरीब ब्राह्मण सोचने लगा की कहीं श्रीकृष्ण मुझे भूल तो नहीं गए होंगे । परन्तु अन्तर्यामि से कुछ भी छुपा नहीं था । उनको पता लगा की पुराने प्राणसखा सुदामा द्वार पर खड़े है । भगवान् पलंग पर लेट रहे थे, श्रीरुक्मणि जी चरणसेवा कर रही थी । भगवान् चमक कर उठे और दरवाजे पर खड़े हुए बाल-बंधू को आदर के साथ अन्दर लिवा लाने के लिए दौड़े । पटरानियाँ भी पीछे-पीछे दौड़ी ।

साधक ! तुम उनकी और एक पैर आगे बढोगे तो वे तीन पैर बढ़ेंगे । उनकी अतुल दया ऐसी ही है ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Thursday 23 January 2014

सच्चा भिखारी -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, सप्तमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -८-

 
गत ब्लॉग से आगे....   हम दीन-हीन कंगाल हैं, द्वार पर पड़े रहना ही हमारा कर्तव्य है । उनका कर्तव्य वे जानते है, हमे उसके लिए क्यों चिंता करनी चाहिये ?  सेवक का दुःख-दर्द दूर करना चाहिये, इस बात को प्रभु स्वयं सोचेंगे, हमे तो मन में कुछ भी नहीं कहना चाहिये । यही निष्काम-भिखारी की भाषा है । यथार्थ भिखारी तो प्रभु के दर्शन पाने के लिए ही व्याकुल रहता है । उनका दर्शन होने पर माँगने की नौबत ही नहीं आती, सारे अभाव पहले ही मिट जाते है, समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती है  । भिखारी की घास-पात की झोपडी अमूल्य रत्नराशी से भर जाती है । फिर माँगने का मौका ही कहाँ रहता है ? श्रीमद्भागवत में कथा है-

सुदामा पण्डित लड़कपन से ही भगवान् श्रीकृष्ण के सखा थे-दोनों मित्र एक ही गुरूजी के यहाँ साथ ही पढ़ा करते थे । विद्या पढ़ लेने पर दोनों को अलग होना पड़ा । बहुत दिन बीत गए । परस्पर कभी मिलना नहीं हुआ । भगवान श्रीकृष्ण  द्वारका के राजराजेश्वर हुए और गरीब सुदामा अपने गाँव में भीख माँग कर काम चलाने लगा । सुदामा की गृहस्थी बड़ी ही कठिनता से चलती थी ।

एक दिन उनकी स्त्री ने कहा-‘आप इतने बड़े पण्डित होकर भी कुछ कमाई नहीं करते । फिर इस विद्या से क्या लाभ होगा ?’

सुदामा बोले-‘ब्राह्मणी ! मेरी विद्या इतनी तुच्छ नहीं है की मैं केवल नगण्य धन कमाने में लगाऊ ?’

इस पर ब्राह्मणी बोली,’अच्छी बात है आप इसे धन कमाने में मत लगाईये १ परन्तु आप कहाँ करते थे ‘श्रीकृष्ण मेरे बालमित्र है’, सुना है वे इस समय द्वारका के राजा है, उनसे मिलने पर तो सहज ही आपको खूब धन मिल सकता है ।’ सुदामा ने कहा, तुम तो खूब सलाह दे रही हों ! भगवान् से मेरी मित्रता है, इसलिए क्या मैं उनसे धन मांगूँ ? मुझसे ऐसा नहीं होगा । मैं भक्ति को इतनी छोटी चीज नहीं समझता, जो तुच्छ धन के बदले में उड़ा दी जाय ! तुम पगली हो रही हो इसी से ऐसा कह रही हो ।’ ......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Wednesday 22 January 2014

सच्चा भिखारी -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, षष्ठी, बुधवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -७-

 
गत ब्लॉग से आगे....पूर्ण दीनतामय भाव के सूक्ष्म सूत्र का अवलम्बन करके ही भावस्वरूप भगवान् प्रगट होते है । पापियों के अत्याचार से जब पृथ्वी पर दीनता छा जाती है, पुण्य का पूर्ण अभाव हो जाता है, तभी भगवान का अवतार होता है ।  साठ हज़ार शिष्यों को साथ लेकर जिस समय ऋषि दुर्वासा वन में पांडवो की कुटिया पर पहुचे, उस समय द्रौपदी के सूर्यप्रदत पात्र में अन्न का एक कण भी नहीं था ।

उस पूर्ण आभाव  के समय-पूरी दीनता के काल में-द्रौपदी ने पूर्णरूप प्रभु को कातरस्वर में पुकार कर कहाँ था-‘हे द्वारकाधीश ! इस कुसमय में दर्शन दो ! दीनबन्धो ! विपत्ति के इस तीरहीन समुन्द्र में तुम्हे देखकर कुछ भरोसा होगा ।’

द्रौपदी की आर्त-प्रार्थना सुनकर जगत-प्रभु स्थिर नहीं रह सके । ऐश्वर्यशालिनी रुक्मिणी और सत्यभामा को छोड़कर भिखारिणी दरिद्रा  द्रौपदी की और दौड़े । द्वारका के अतुलनीय ऐश्वर्यस्तम्भ को देखकर अरण्यवासी पाण्डवों की पर्णकुटी में विभूतिस्वरुप प्रखर प्रभा प्रकाशित हो गयी । द्रौपदी ने कहा, ‘नाथ ! क्या इतनी देर करके आना चाहिये ?’

भगवान बोले, ‘तुमने मुझको द्वारकाधीश के नाम से क्यों पुकारा था, प्राणेश्वर क्यों नहीं कहाँ ? जानती नही हों, द्वारका यहाँ से कितनी दूर है ? इसी से आने में देर हुई ।’

जो हमारे प्राणों के अन्दर की प्रत्येक क्रिया को जानते है, उनके सामने माँगने के लिए मुहँ खोलना बुद्धिमानी नहीं है । भीख की झोली बगल में लेकर दरवाजे पर खड़े होते ही वे दया करते है । बस, हमे तो चुपचाप उनकी सेवा करनी चाहिये ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Tuesday 21 January 2014

सच्चा भिखारी -६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, पंचमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -६-

 

गत ब्लॉग से आगे....भीख ही ऐश्वर्य शक्ति को बुलाती है । जो ‘भिक्षायां नैव नैव च’ कहते है, वे भ्रम में ऐसा कहते है । यथार्थ भिखारी बन जाने पर तो तो ऐश्वर्य-शक्ति दौड़ी हुई आकर उसका आश्रय लेती है । इसी से तो जगददात्री अन्नपूर्णा राजराजेश्वरी भिक्षुकप्रवर महादेव की गृहिणी बनी है ।

महापण्डित महाप्रभु ने भिखारी बनकर ही-कंथा-कौपीन धारण करके ही-तर्काभिमान चूर्ण करके ही अमूल्य ‘नीलकान्त-मणि’ को प्राप्त किया था । यह भिक्षा ही उसके राज्य की व्यवस्था है । पूर्ण दीन, पूर्ण निरभिमानी हुए बिना वह प्रियतम नहीं मिल सकता । दीं बनकर यही समझना होगा की ‘मेरा’ कुछ भी नहीं है । वही मेरा सर्वस्वधन है । ‘मैं’ कुछ भी नहीं हूँ , विराटरूप से विश्व में एकमात्र वही विराजित है । वास्तव में वही तो सबकी सत्ता (आत्मा) रूप से स्थित है ।

तुम और मैं (देहेन्द्रियादी जडपिण्ड) पीछे से आकर उसको भगानेवाले कौन है ? हमे इतना घमण्ड किस बात पर है ? यह मनुष्य की देह मिट्टीसे ही पैदा हुई  है और एक दिन पुन: मिट्टी ही हो जायेगी । फिर अभी से मिट्टी क्यों नहीं बन जाते । भगवान् के सखा अर्जुन ने मिट्टी होकर ही-दींन बनकर कहाँ था-

शिष्यस्तेअहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम ।

इसलिए गीताका अमृतमय उपदेश देकर भगवान् ने उसके ज्ञानचक्षु खोल दिए ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Monday 20 January 2014

सच्चा भिखारी -५-

।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ कृष्ण, चतुर्थी, सोमवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -५-

गत ब्लॉग से आगे.... जो चीज बहुत दूर होती है, उसी का मिलना कठिन होता है । भगवान् जगत-प्रभु तो तुम्हारे निकट से भी निकट देश में रहते है, परन्तु वे तुम्हारे पास क्यों आवे ? तुम तो स्वयं ही प्रभु (अहं) बन रहे हो । जगतप्रभु के लिए तुमने जो हृद्यासन बिछा रखा है, वह तो बहुत ही क्षुद्र है । इतने छोटे आसन पर वे और तुम दोनों एक साथ नहीं बैठ सकते ।

इसीसे गोसाई जी महाराज ने कहाँ है-
जहाँ राम तहाँ काम नहि, जहाँ काम नहि राम ।
‘तुलसी’ कबहू की रही सके, रवि रजनी एक ठाम ।।

जहाँ श्रीराम रहते है, वहाँ काम या विषय-परायण ‘अहम’ नही रह सकता और जहाँ यह काम निवास करता है, वहाँ राम नहीं रहते । सूर्य और रात्रि कभी एक साथ रह सकते है ? अतएव ‘मैं’ और ‘भगवान’ दोनों अन्धकार-प्रकाश की भान्ति एक साथ नहीं रह सकते । ‘मैं’ इस पद को हटाना पड़ेगा । तभी ‘वे’ यहाँ पधारकर विराजित हो सकेंगे । वे तो दुर्लभ नहीं है । साधक ! झूठमूठ ही भगवान् को दुर्लभ बताकर उनपर कलंक क्यों लगाते हो ? वे तुम्हारे ह्रदय-देश में निवास करने के लिए आते है, तुम्हारे ह्रदय-कपाट खुले नहीं रहते, इसीसे ध्यान के समय श्रीराधाकृष्णकी मूर्ती-से वे तुम्हारे ‘सामने’ खड़े रहते है । यह कलंक वास्तव में हमारा है, उनका नहीं ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  


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Sunday 19 January 2014

सच्चा भिखारी -४-

।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ कृष्ण, तृतीया, रविवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  --

गत ब्लॉग से आगे....वास्तव में भिखारी होना, नम्र बनना, निरभिमान होना जितना कठिन है, भगवान् को प्राप्त करना उतना कठिन नही है । एक सच्ची घटना है । एक आधुनिक सभ्यताभिमानी बाबु साहब बीमार हुए, बहुत तरह से इलाज करवाया गया, परन्तु कुछ भी लाभ नही हुआ । एलोपैथिक, होम्योपैथिक , वैद्यक, हकीमी आदि सभी तरह के इलाज हुए परन्तु रोग दूर नही हुआ । अन्त में श्रद्धालु गृहिणी की सलाह से देवकार्य करना निश्चय हुआ । पंडितजी ने सूर्य की उपासना बतलाई । 

कहा की ‘बाबु जी प्रतिदिन प्रात:काल सूर्यनारायण को साष्टांग प्रणाम करके अर्ध्य दे ।’ बाबु ने कहाँ, ‘साष्टांग प्रणाम कैसा होता है, मैं नही जानता, आप दिखला दे  ।’ पंडितजी को तो अभ्यास था ही, उन्होंने पृथ्वी पर लेटकर साष्टांग प्रणाम की विधि बतला दी । इस प्रणाम का ढंग देखकर बाबु बड़े असमजंसमें पड़ गए, परन्तु क्या करे, बड़े कष्ट से घुटने नीचे किये, माथा भी कुछ झुकाया परन्तु जमीन पर पड़ने की कल्पना आते ही वे दु:खी हो गए । 

उन्होंने उठकर पंडितजी से कहाँ-‘महाराज ! बीमारी दूर हो या न हो, मुझसे ऐसा बेढंगा प्रणाम नही होगा ।’ सारांश यह की जिसके शरीर-मन-प्राण अभिमान के विष से जर्जरित है वह देवता के चरणों में अपना सर क्यों झुकायेगा ? जगत में जो पार्थिव अभिमान फूट निकला है । महारूद्र के संहार-शूल का दर्शन किये बिना वह मुरझायेगा नही । ऐसे अभिमान का त्याग करना जितना कठिन है, भगवान को प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  



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Ram