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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष शुक्ल,तृतीया, शनिवार, वि० स० २०७०
भक्त के लक्षण -१-
भगवान को भक्तो का बड़ा महत्व
है ।
वे जगत के लिए आदर्श होते है; क्योकि भगवद्भक्ति के प्रताप से उनमे दुर्लभ दैवी गुण अनिवार्यरूप से प्रकट
हो जाते है, जो उनके लिए स्वाभाविक लक्षण होते है । भक्त का स्वरुप
जानने के लिये उन लक्षणों का जानना आवश्यक है । उनमे से कुछ ये
है -।
१.
भक्त अज्ञानी नहीं
होता, वह भगवान के प्रभाव, गुण, रहस्य को तत्व से जानने वाला होता है । प्रेम के लिए
ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है । किसी न किसी अंश में जाने बिना
उससे प्रेम नहीं हो सकता और प्रेम होने पर ही उसका गुह्तम यथार्थ रहस्य जाना जाता
है ।
भक्त भगवान के गुह्तम रहस्य को जानता है, इसलिए भगवान के प्रति उसका प्रेम उतरोतर
बढ़ता ही रहता है ।
भगवान रससार है ।
उपनिषद
भगवान को ‘रसो वै स:’ कहते है । इस प्रेम में भी
द्वैत नहीं भासता ! प्रेम की प्रबलता से
ही राधा जी कृष्ण बन जाती है और श्री कृष्ण राधा जी । कबीर साहब कहते
है –
जब में
था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नायँ ।
प्रेम-गली
अति साँकरी, यामे दो न समायँ ।।
वस्तुत: ज्ञानी और भक्त की स्थिति में कोई अन्तर
नहीं होता ।
भेद इतना ही है, ज्ञानी ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’
कहता है और भक्त ‘वासुदेव: सर्वमिति’ अथवा गोसाइजी
की भाषा में वह कहता है –
सिय राममय सब जग जानी ।
करऊँ
प्रनाम जोरि जग पानी ।। .........शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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