श्री
कृष्ण नाम की महिमा
अलमलमियमेव
प्राणिनां पातकानां
निरसनविषये
या कृष्ण कृष्ण वाणी।
यदि
भवति मुकुन्दे भक्तिरानन्दसान्द्रा
विलुठति
चरणाब्जे मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मीः॥
(सर्वज्ञमुनि)
"कृष्ण, कृष्ण' इस प्रकार
उच्चारण करने वाले जो वाणी है, यही प्राणियों के पातकोंको
दूर करनेमें पूर्णतः समर्थ है। यदि मुकुन्दमें आनन्दघन स्वरूपा भक्ति हो जाती है तो
मोक्ष-साम्राज्यकी लक्ष्मी उस भक्त चरणकमलमें स्वयं आकर लोटने लगती है।'
कः
परेतनगरीपुरन्दरः को भवेदथ तदीयकिंकरः।
कृष्णनाम
जगदेकमंगलं कण्ठपीठमुररीकरोति चेत्॥
'यदि जगत् का एकमात्र मंगल करनेवाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार
कर लेता है तो यमपुरीका स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?'
ब्रह्माण्डानां
कोटिसंख्याधिकाना मैश्वर्यं यच्चेतना वा
यदंशः।
आविर्भूतं
तन्मह: कृष्ण नाम तन्मे साध्यं साधनं जीवनं तो च॥
'करोड़ोंकी संख्यासे भी अधिक ब्रह्माण्ड का जो ऐश्वर्य अथवा जो चेतना है,
वह जिसका अंशमात्र है, वही तेज:पुंज 'कृष्ण' नामके रूपमें प्रकट हुआ है। वह 'कृष्ण' नाम ही मेरा साध्य, साधन
और जीवन है।'
स्वर्गार्थीया
व्यवसितिरसौ दीनयत्येव लोकान्
मोक्षापेक्षा
जनयति जनं केवलं क्लेशभाजम्।
योगाभ्यासः
परमविरसस्तादृशैः किं प्रयासैः
सर्वे
त्यक्त्वा मम तु रसना कृष्ण कृष्णेति रौतु॥
'स्वर्गकी प्राप्तिके लिये जो व्यवसाय (निश्चय अथवा उद्योग) है, वह लोगोंको दीन ही बनाता है। मोक्ष की जो अभिलाषा है, वह मनुष्यको केवल क्लेश का भागी बनाती है और योगाभ्यास तो अत्यन्त नीरस
वस्तु है। अत: वैसे प्रयासों से मेरा क्या प्रयोजन है। मेरी जिह्वा तो सब कुछ
छोड़कर केवल कृष्ण, कृष्ण' की रट लगाती
रहे।'
आकृष्टि:
कृतचेतसां सुमहतामुच्चाटनं चांहसा-
माचाण्डालमभूल्लोकसुलभो वश्यश्च मोक्षश्रियः ।
नो
दीक्षां न च दक्षिणां न च पुरश्चर्यां मनागीक्षते
मन्त्रोऽयं
रसनास्पृगेव फलति श्रीकृष्णनामात्मकः॥
'यह कृष्ण नाम रूपी मन्त्र शुद्धचेता महात्माओं के चित्त को (हठात्)
अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला तथा बड़े-से-बड़े पापों का मूलोच्छेद करनेवाला है। मोक्ष
रूपिणी लक्ष्मी के लिये तो यह वशीकरण ही है। इतना ही नहीं, यह
केवल गूँगे को छोड़कर चाण्डाल से लेकर उत्तम जाति तक के सभी मनुष्यों के लिये सुलभ
है। दीक्षा, दक्षिणा और पुरश्चरण का यह तनिक भी विचार नहीं
करता। यह मन्त्र जिह्वा का स्पर्श करते ही सभी के लिये पूर्ण फलद होता है।'
कृष्णस्य
नानाविधकीर्तनेषु तन्नामसंकीर्तनमेव मुख्यम्।
तत्प्रेमसम्पज्जनने
स्वयं द्राक्- शक्ति ततः श्रेष्ठतमं मतं तत् ॥
‘श्रीकृष्ण
के नाना प्रकार के कीर्तनों में उनका नाम कीर्तन ही मुख्य है। वह
श्रीकृष्ण-प्रेमरूपा सम्पत्ति को शीघ्र उत्पन्न करने में स्वयं समर्थ है। इसलिये
वह सब साधनों से श्रेष्ठतम माना गया है।'
नामसंकीर्तनं
प्रोक्तं कृष्णस्य प्रेमसम्पदि।
बलिष्ठं
साधनं श्रेष्ठं परमाकर्षमन्त्रवत्॥
‘श्रीकृष्ण
का नाम कीर्तन प्रेम सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये प्रबल एवं श्रेष्ठ साधन कहा गया
है। वह श्रेष्ठ आकर्षण-मन्त्र की भांति चित्त को अत्यन्त आकृष्ट करनेवाला है।'
तदेव
मन्यते भक्तेः फलं तद्रसिकैर्जनैः।
भगवत्प्रेम
सम्पत्तौ सदैवाव्यभिचारतः ॥
‘अत:
नाम रसिक भक्तजन उन कृष्ण नाम को ही भक्ति का फल मानते हैं,
क्योंकि भगवत्प्रेम की प्राप्तिमें वह कभी व्यभिचार (असफल) नहीं
हुआ।'
सल्लक्षणं
प्रेमभरस्य कृष्णे कैश्चिद् रसज्ञैरुत कथ्यते तत्।
प्रेम्णो
भरेणैव निजेष्टनाम संकीर्तनं हि स्फुरति स्फुटं तत्॥
‘कितने
ही रसज्ञ जन उस कृष्ण नाम को ही कृष्ण विषयक अत्यन्त प्रेम का उत्तम लक्षण बताते
हैं,
क्योंकि अधिक प्रेम से ही अपने इष्टदेव के नामका संकीर्तन स्पष्ट रूप
से स्फुरित होता है।'
कृष्णः
शरच्चन्द्रमसं कौमुदी कुमुदाकरम्।
जगौ
गोपीजनस्त्वेकं कृष्णनाम पुनः पुनः ॥
(विष्णुपुराण ५। १३५२)
'रास के समय श्रीकृष्णचन्द्र शरत्कालीन चन्द्रमा, उसकी
चाँदनी और कुमुद समूह का गुणगान करने लगे। परंतु गोपियों ने तो बारम्बार केवल एक
श्रीकृष्ण नाम का ही गान किया।'
रासगेयं
जगौ कृष्णो यावत्तारतरध्वनिः ।
साधु
कृष्णेति कृष्णेति तावता द्विगुणं जगुः॥
(विष्णुपुराण ५। १३।५६)
'श्रीकृष्णचन्द्र जितने उच्च स्वर से रासोचित गान गाते थे, उससे दूने स्वर में गोपियाँ केवल 'साधु कृष्ण! धन्य
कृष्ण!' के गीत गाती थीं।'
सकृदपि
परिगीतं श्रद्धया हेलया वा
भृगुवर
नरमात्रं तारयेत् कृष्णनाम।
'श्रद्धासे, अवहेलना से - कैसे भी एक बार भी किया हुआ
कृष्ण नाम का कीर्तन मनुष्य मात्र को तार देता है।'
श्रीकृष्णनामामृतमात्मह्लादं
प्रेम्णा समास्वादनमङ्गिपूर्वम्।
यत्
सेव्यते जिह्विकयाविरामं तस्यातुलं जल्पतु को महत्त्वम् ॥
'(फिर) अपने मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाले श्रीकृष्ण नामामृत का प्रेम से
रसास्वादन की चेष्टा के साथ जो जिह्वा द्वारा अविराम सेवन किया जाता है, उसकी अनुपम महत्ता का कौन वर्णन कर सकता है।'
सर्वमंगलमंगल्यमायुष्यं
व्याधिनाशनम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं
दिव्यं वासुदेवस्य कीर्तनम्॥
'वासुदेव' नाम का दिव्य कीर्तन सम्पूर्ण मंगलोंमें भी
परम मंगलकारी, आयु की वृद्धि करनेवाला, रोगनाशक तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है।
परिहासोपहास्याद्यैर्विष्णोर्गृह्णन्ति
नाम ये।
कृतार्थास्तेऽपि
मनुजास्तेभ्योऽपीह नमो नमः॥
'जो परिहास और उपहास आदिके द्वारा भगवान विष्णु के नाम लेते हैं, वे मनुष्य भी कृतार्थ हैं। उनके प्रति भी यहाँ मेरी ओर से बारम्बार
नमस्कार है।'
सर्वत्र
सर्वकालेषु येऽपि कुर्वन्ति पातकम्।
नामसंकीर्तनं
कृत्वा यान्ति विष्णोः परं पदम्॥
'जो सर्वत्र और सर्वदा पापाचरण करते हैं, वे भी हरि नाम
संकीर्तन करके विष्णु परम धाम में चले जाते हैं।'
नारायणाच्युतानन्त
वासुदेवेति यो नरः।
सततं
कीर्तयेद् भूमिं यान्ति मल्लयतां स हि॥
‘जो
मनुष्य नारायण, अच्युत, अनन्त
और वासुदेव आदि नामोंका सदा कीर्तन करता है, वह मुझमें लीन
होनेवाले भक्तोंकी भूमिको प्राप्त होता है।’
प्राणप्रयाणपाथेयं
संसारव्याधिभेषजम्।
दुःखशोकपरित्राणं
हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
'हरि' यह दो अक्षरों का नाम प्राणप्रयाण के पथ का
पाथेय है, संसार रूपी
रोग की औषधि है तथा दुःख और शोक से सबकी सदा रक्षा करनेवाला है।'
विचेयानि
विचार्याणि विचिन्त्यानि पुनः पुनः।
कृपणस्य
धनानीव त्वन्नामानि भवन्तु नः॥
'हे भगवन्! जैसे कृपण मनुष्य बारम्बार धनका संचय, विचार
एवं चिन्तन करता है, उसी तरह हमारे लिये आपके नाम ही
पुन:-पुन: संग्रहणीय, विचारणीय एवं चिन्तनीय हों।'
सहस्त्र
नाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत्फलम्।
एकवृत्त्या
तु कृष्णस्य नामैकं तत प्रयच्छति ॥
'पवित्र सहस्रनाम की तीन आवृत्तियाँ करनेसे जो फल मिलता है, उसे कृष्ण-नाम एक ही बार के उच्चारण से सुलभ कर देता है।'
- परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर
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