Wednesday, 29 February 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




प्रेमी भक्त उद्धव :......गत ब्लॉग से आगे... 

क्रमशः उद्धव आठ बरसके हुए! यज्ञोपवीत-संसकार हुआ! विद्याध्ययन करनेके  लिये गुरुकुलमें गए! साधारण गुरुकुलमें नहीं, देवताओंके गुरुकुलमें, देवताओंके पुरोहित आचार्य बृहस्पतिके पास! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य प्राप्त करते इन्हें विलम्ब नहीं हुआ! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य है -- भगवान् से प्रेम! वह इन्हें प्राप्त था ही! अब उसको समझनेमें क्या विलम्ब होता! वास्तवमें जिनकी बुद्धि सुद्ध है;जपसे,तपसे,भजनसे जिन्होंने अपने मस्तिष्क को साफ़ कर लिया है, सभी बाते उनकी समझमें शीघ्र ही आ जाती हैं! यह देखा गया है की सन्ध्या न करनेवालोंकी अपेक्षा सन्ध्या करनेवाले विद्यार्थी अधिक समझदार होते हैं! भगवान् सविता उनकी बुद्धि सुद्ध कर देते हैं! उद्धवमें भगवान् की भक्ति थी, साधना थी, वे बृहस्पतिसे बुद्धिसम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञातव्योंका ज्ञान प्राप्त करके उनकी अनुमतिसे मथुरा लौट आये! 

मथुरामें  उनका बड़ा ही सम्मान था! सब लोग उनके ज्ञानके, उनकी नीतिके और उनकी मन्त्रणाके कायल थे! यदुवंशियोंमें जब कोई काम करनेमें मतभेद होता, कोई उलझन सामने आ जाती, उनसे कोई समस्या हल न होती तो वे उद्धवके पास जाते और उद्धव बड़ी ही योग्यताके साथ उलझनोंको सुलझा देते, सारी समस्याको हल कर देते! सब उनकी बुद्धिपर, उनके शास्त्रज्ञानपर लट्टू थे, उनका पूरा विश्वास करते थे! और वे भी सबकी सेवा करते हुए, सबका हित करते हुए कंसकी दुर्नीतियोंसे लोगोंको बचाते हुए भगवान् के भजनमें तल्लीन रहते थे! 


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Tuesday, 28 February 2012



प्रेमी भक्त उद्धव 


न तथा में प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकरः !
न च संकर्षणो न श्रीनैवात्मा च यथा भवान्!! (भगवान् श्रीकृष्ण)


' हे उद्धव! शंकर, ब्रम्हा, बलराम, लक्ष्मी और स्वंय अपना आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है,जितने प्रियतम तुम हो!'


भगवान् श्रीकृष्णमें परमप्रेमका होना ही भक्ति है! यों तो भक्तिके अवान्तर भेद बहुत-से हैं परन्तु साधारणतः भक्तिके दो भेद हैं -- एक साधनभक्ति और दूसरी साध्यभक्ति! साधानभक्तिके  द्वारा अन्तः करण शुद्ध होता है, उसके सुद्ध होनेपर आत्मतत्त्वका, भगवत् -तत्त्वका बोध होता है और उसके बाद पराभक्ति अथवा साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है! पराभाक्तिसे रहित जो ज्ञान है, वह परम ज्ञान नहीं है, केवल साधानज्ञान है, परोक्षज्ञान है! पराभक्ति और परमज्ञान एक ही वस्तु हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है! परमज्ञान अथवा परमभक्तिका प्राप्त होना ही जीवनकी सफलता है! जबतक यह प्राप्त नहीं होती तबतक जीव भटकता रहता है! यह किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर उद्धवका जीवन है! उनके जीवनमें क्रमशः साधनभक्ति, साधनज्ञान, पराभक्ति और परमज्ञानका उदय हुआ है! वे भगवान् के प्रेमी भक्त हैं, उनके तत्त्वके परमज्ञानी हैं, उनके पार्षद हैं और उनके स्वरुप ही हैं! 


मथुराके यदुवंशियोंमें वासुदेवके सगे भाई देवभाग बहुत ही प्रसिद्ध  थे! वे भगवान् के भक्त थे, देवता और ब्राम्हणोंके उपासक थे, संतोंपर उनकी अपार श्रद्धा थी और उनकी धर्मपत्नी भी उन्हींके अनुकूल आचरण करनेवाली सती साध्वी थीं! जिन दीनों भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें अवतीर्ण हुए,उन्हीं दीनों इन दम्पतिके गर्भसे उद्धवका जन्म हुआ! उद्धव भगवान् के नित्य पार्षद हैं! जब भगवान् मथुरामें आये तब वे कैसे न आते? वे आये जबतक रहे, भगवान् की सेवामें लगे रहे! उनके मनमें दूसरी कोई इच्छा ही नहीं थी, यंत्रकी भाँती भगवान् की इच्छाका पालन करते थे! 


बचपनमें ही ये भगवान् के परमभक्त थे! खेलमें भी भगवान् के ही खेल खेलते! किसी पेड़के नीचे भगवान् की मिट्टीकी मूर्ति बना लेते! यमुनामें स्नान कर आते! लताओंसे सुन्दर-सुन्दर फूल तोड़ लाते! फलोंसे भगवान् को भोग लगाते और उनकी पूजामें इतने तल्लीन हो जाते कि शारीरकी सुधि नहीं रहती! कभी उनके नामोंका कीर्तन करते , कभी उनके गुणोंका गायन करते और कभी उनकी लीलाओंके चिंतनमें मस्त हो जाते! सारा दिन बीत जाता, उन्हें भोजनकी याद भी नहीं आती! माता बुलाने जातीं - 'बेटा! देर हो रही है, चलो कलेवा कर लो! भोजन ठंडा हो रहा है, दिन बीत गया, क्या तुम मेरी बात ही नहीं सुनते! आओ लल्ला! में तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले चलूँ, अपने हाथोंसे खिलाऊँ !' परन्तु उद्धव सुनते ही नहीं, भगवान् की पूजामें तन्मय रहते! कभी सुनते भी तो तोतली जबानसे कह देते -- ' माँ, अभी तो मेरी पूजा ही पूरी नहीं हुई है, मेरे भगवान् ने अभी खाया ही नहीं, में कैसे चलूँ? में कैसे खाऊँ? पांच बरसकी अवस्थामें उद्धवकी यह भक्तिनिष्ठा देखकर माता चकित रह जाती! पूजा पूरी हो जानेपर प्रेमसे गोदमें उठा ले जाती और खिलाती- पिलाती!   
                                                                                                                                [1]

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Saturday, 25 February 2012

गत ब्लॉग से आगे ...

७.जगतका स्मरण छोड़कर नित्य-निरन्तर भगवानके स्वरूप,नाम,गुण,लीला आदिका प्रेमके साथ स्मरण करना।
८.प्रतिदिन नियत संख्यामें,जितना सुविधापूर्वक कर सकें षोडस-मंत्र का जप करना/दिनभर रटते रहना। सुविधा हो तो कुछसमयतक इसीका कीर्तन करना।
९.स्वसुख-वाञ्छाका, निज-इन्द्रिय-तृप्तिका, अपने मनके अनुकूल भोग-मोक्षकी इच्छाका सर्वथा परित्याग करके भगवान श्रीकृष्णको ही प्रियतम रूप से भजना तथा प्रत्येक कर्य केवल उन्हींके सुखार्थ करना।
१०.आगे बढ़े हुये साधक "मंञ्जरी" भावसे उपासना कर सकते हैं।"मंञ्जरी" भाव का अर्थ--- अपनेको श्रीराधाजी की किंकरी मानकर आठों पहर श्रीराधामाधवके सुख-सेवा-सम्पादनमें अपनेको खो देना--केवल सेवामय बनादेना।
११.अपने साधन-भजन तथा भगवतकृपासे होनेवाली अनुभूतियों को यथासाध्य गुप्त रखना।
१२.सम्मान-पूजा-प्रतिष्ठाको विषके समान समझकर उनसे सदा बचना।बुरा कार्य न करना, पर अपमान को अमृत समझ उसका आदर करना।
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Friday, 24 February 2012

अमृत कण

१.भगवत्प्रेम ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझना और इसे हर हालतमें निरन्तर लक्ष्य में रखकर ही सब काअम करना।
२.जहाँतक बने, सहज ही स्वरूपतः भोग-त्याग तथा भोगासक्तिका त्याग करना। जगत् के किसीभी प्राणी पदार्थ-परिस्थितिमें राग न रखना।
३. अभिमान,मद,गर्व आदिको तनिक-सा भी आश्रय न देकर सदा अपने को अकिञ्चन, भगवानके सामने दीनातिदीन मानना।
४.कहीं भी ममता न रखकर सारी ममता एकमात्र भगवान प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणोंमें केन्द्रित करना।
५.जगतके सारे कार्य उन भगवानकी चरण-सेवाके भावसे ही करना।
६.किसीभी प्राणीमें द्वेष-द्रोह न रखकर, सबमें श्रीराधामाधवकी अभिव्यक्ति मानकर सबके साथ विनयका, यथासाध्य उनके सुख-हित-सम्पादनका बर्ताव करना। सबका सम्मान करना,पर कभी स्वयं कभी मान न चाहना,न कभी स्वीकार करना।
(शेष अगले ब्लाग में)
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Wednesday, 15 February 2012

प्रेमी भक्त उद्धव





प्रेमी भक्त उद्धव  :.........गत ब्लॉग से आगे ...

मथुराके यदुवंशियोंमें वासुदेवके सगे भाई देवभाग बहुत ही प्रसिद्ध  थे! वे भगवान् के भक्त थे, देवता और ब्राम्हणोंके उपासक थे, संतोंपर उनकी अपार श्रद्धा थी और उनकी धर्मपत्नी भी उन्हींके अनुकूल आचरण करनेवाली सती साध्वी थीं! जिन दीनों भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें अवतीर्ण हुए,उन्हीं दीनों इन दम्पतिके गर्भसे उद्धवका जन्म हुआ! उद्धव भगवान् के नित्य पार्षद हैं! जब भगवान् मथुरामें आये तब वे कैसे न आते? वे आये जबतक रहे, भगवान् की सेवामें लगे रहे! उनके मनमें दूसरी कोई इच्छा ही नहीं थी, यंत्रकी भाँती भगवान् की इच्छाका पालन करते थे! 

बचपनमें ही ये भगवान् के परमभक्त थे! खेलमें भी भगवान् के ही खेल खेलते! किसी पेड़के नीचे भगवान् की मिट्टीकी मूर्ति बना लेते! यमुनामें स्नान कर आते! लताओंसे सुन्दर-सुन्दर फूल तोड़ लाते! फलोंसे भगवान् को भोग लगाते और उनकी पूजामें इतने तल्लीन हो जाते कि शारीरकी सुधि नहीं रहती! कभी उनके नामोंका कीर्तन करते , कभी उनके गुणोंका गायन करते और कभी उनकी लीलाओंके चिंतनमें मस्त हो जाते! सारा दिन बीत जाता, उन्हें भोजनकी याद भी नहीं आती! माता बुलाने जातीं - 'बेटा! देर हो रही है, चलो कलेवा कर लो! भोजन ठंडा हो रहा है, दिन बीत गया, क्या तुम मेरी बात ही नहीं सुनते! आओ लल्ला! में तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले चलूँ, अपने हाथोंसे खिलाऊँ !' परन्तु उद्धव सुनते ही नहीं, भगवान् की पूजामें तन्मय रहते! कभी सुनते भी तो तोतली जबानसे कह देते -- ' माँ, अभी तो मेरी पूजा ही पूरी नहीं हुई है, मेरे भगवान् ने अभी खाया ही नहीं, में कैसे चलूँ? में कैसे खाऊँ? पांच बरसकी अवस्थामें उद्धवकी यह भक्तिनिष्ठा देखकर माता चकित रह जाती! पूजा पूरी हो जानेपर प्रेमसे गोदमें उठा ले जाती और खिलाती- पिलाती!   

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Tuesday, 14 February 2012

प्रेमी भक्त उद्धव




प्रेमी भक्त उद्धव 

 न तथा में प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकरः !
   न च संकर्षणो न श्रीनैवात्मा च यथा भवान्!! (भगवान् श्रीकृष्ण)

' हे उद्धव! शंकर, ब्रम्हा, बलराम, लक्ष्मी और स्वंय अपना आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है,जितने प्रियतम तुम हो!'

भगवान् श्रीकृष्णमें परमप्रेमका होना ही भक्ति है! यों तो भक्तिके अवान्तर भेद बहुत-से हैं परन्तु साधारणतः भक्तिके दो भेद हैं -- एक साधनभक्ति और दूसरी साध्यभक्ति! साधानभक्तिके  द्वारा अन्तः करण शुद्ध होता है, उसके सुद्ध होनेपर आत्मतत्त्वका, भगवत् -तत्त्वका बोध होता है और उसके बाद पराभक्ति अथवा साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है! पराभाक्तिसे रहित जो ज्ञान है, वह परम ज्ञान नहीं है, केवल साधानज्ञान है, परोक्षज्ञान है! पराभक्ति और परमज्ञान एक ही वस्तु हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है! परमज्ञान अथवा परमभक्तिका प्राप्त होना ही जीवनकी सफलता है! जबतक यह प्राप्त नहीं होती तबतक जीव भटकता रहता है! यह किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर उद्धवका जीवन है! उनके जीवनमें क्रमशः साधनभक्ति, साधनज्ञान, पराभक्ति और परमज्ञानका उदय हुआ है! वे भगवान् के प्रेमी भक्त हैं, उनके तत्त्वके परमज्ञानी हैं, उनके पार्षद हैं और उनके स्वरुप ही हैं! 

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Monday, 13 February 2012




जगतमें धनविषयक मान्यता पृथक -पृथक है -- किसीका धन विद्या है, किसका धन बुद्धि है, किसीका धन विषय हैं, किसका सम्पत्ति, किसीका धन सोना, किसीका धन परलौकिक सुख! पर सर्वस्व-समर्पण- मयी श्रीराधाके जीवनका धन क्या है -- श्रीकृष्ण! 


जहाँ प्रेमका प्रारम्भ होता है, वहीं त्यागकी पराकाष्ठा होती है! त्याग जहाँ पूर्णताको प्राप्त हो जाता है, पहुँच जाता है, वहाँसे भगवत्प्रेमका आरम्भ होता है! 


भगवत्प्रेमी सर्वदा, सर्वथा मुक्त होते हैं, मायका राज्य उनके समीप नहीं जा पाता! वह तो दुसरे ही विलीन हो जाता है! जैसे पौ फटना आरम्भ होते ही अन्धकार मरने लगता है, उसी प्रकार प्रेम - सूर्यके उदयकी तो बात ही क्या, प्रेमके उषः कालमें ही मायाका अन्धकार सारित हो जाता है, मिट जाता है, मर जाता है! 


भगवान् की मधुर लिलामें उनका ऐश्वर्य छिपा रहता है, क्रियाशील नहीं होता! जिन भगवान् के भयसे भय काँपता है, जिनके भयसे काल, यमराज आदि अपने- अपने कर्तव्यमें संलग्न हैं, वे ही श्रीकृष्ण वात्सल्यकी मूर्ति श्रीयशोदा मैयाकी डाँटसे भयभीत हो जाते हैं! 


भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वरुप, लीला आदिसे माधुर्यका इतना प्रसार करते हैं कि सबका चित्त उनकी और खींचता चलता है! उनकी आकर्षण -लीला निरंतर चलती रहती है!


मधुर लीलामें ऐश्वर्य आता है तो वह सेवा करनेके लिये; छिपकर माधुर्यको कम करने या हटानेके लिये नहीं! 


प्रेमिमें जब प्रियतम भगवान् से मिलनकी इच्छा जगती है, तब वह मार्गकी कठिनाइयोंकी और दृष्टि नहीं डालता! बस, मिलनकी त्वरामें वह चल पड़ता है! फिर चाहे वह मार्गकी गर्मीसे जलकर भस्म क्यों न हो जाय, उसकी उसे कुछ परवा नहीं! वह प्रियतमसे मिले बिना रह नहीं सकता! एक कथा आती है -- भगवान् श्रीश्यामसुन्दर पहाड़पर सघन छायामें जाकर बैठ गये! पहाड़पर जानेका रास्ता पथरीला, सीधी चढ़ाई, मार्गमें एक भी पेड़ नहीं और मध्याह्नका समय! एक सखिको प्रियतमके समीप जाना है! वह पहाड़पर चढ़ने लगी! देखनेवालोंने उसे रोका -- 'इतनी कड़ी धुपमें पहाड़पर कैसे चढोगी, झुलस जाओगी' पर उसने किसीकी एक बात भी नहीं सुनी! तप्त पत्थरोंपर जब उसके चरण टिकते थे, तब उसे अनुभव होता कि कोई शीतल गद्दी बिछी हुई है और ऊपर कोई शीतल छाया करता चला जा रहा है! प्रत्येक चरण उसे प्रियतमके निकट अनुभव करा रहा था; बस, इसी हेतुसे उसे ऐसा सुखद अनुभव हो रहा था! यह है प्रेमकी विलक्षणता! 


गोपी -प्रेममें राग्का अभाव नहीं है, परन्तु वह राग सब जगहसे सिमट कर, भुक्ति और मुक्तिके दुर्गम प्रलोभन व् पर्वतोंको लाँघकर केवल श्रीकृष्णमें अर्पण हो गया है! इहलोक और परलोकमें  गोपियाँ श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसीको भी नहीं जानतीं ! 


जिनको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति करनी है उनको अखंड भजनका अभ्यास करना चाहिये! जो मनुष्य भजन बिना मुक्त और भगवत्प्रेमकी प्राप्ति चाहता है वह भूलता है! विषयसे मन हटाकर यदि भगवान् में न लगाया जाय तो वह वापस दौड़कर वहीं चला जायगा! 

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Saturday, 11 February 2012




'प्रेम' का अर्थ है -- भगवत्प्रेम ! 'प्रेम' के नामपर जगतमें 'काम' चलता है! वह हमारी चर्चाका विषय नहीं है! भगवत्प्रेमकी प्राप्ति सहजमें नहीं होती! बहुत ऊँची साधानाकी शिद्धिके पश्चात् भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है ! 


भगवत्प्रेम क्या है -- यह कोई बता नहीं सकता! कहनेके लिये कुछ सांकेतिकरूपसे समझनेके लिये कह सकते हैं -- यह भगवान् की अपनेमें ही अपनेसे ही अपनी लीला है! 


भगवान् के साथ खेले -- ऐसा भगवान् का साथी कौन है? भगवान् जिस खेलको खेलें, ऐसा खेल कौन -सा है? वास्तवमें उनके योग्य न कोई साथी है न कोई खेल ही! अतएव भगवान् ही प्रेमास्पद हैं, भगवान् ही प्रेमी हैं और भगवान् ही प्रेम हैं! 


स्वयं ही प्रेमी और प्रेमास्पद बनकर -- एक - दुसरेकी प्रीतिके आश्रायालंबन और विषयालंबन बनकर जो भगवान् की परम दिव्य अचिन्त्यानंत गौरवमयी पवित्रतम लीला चलती है -- वास्तवमें इसे ही भगवत्प्रेम कहते हैं! इस प्रेममें ऐसा माना जाता है और यह परम सत्य है कि भगवान् ही स्वंय अपने आनंद- स्वरुपको -- अपने भावस्वरूपको लेकर अनंत लीलारूप धारण किये रहते हैं! 


भगवान् श्रीकृष्ण ही 'राधा' स्वरुपमें लीला करते हैं! अतएव श्रीराधा भगवान् से सर्वथा अभिन्न हैं! श्रीराधाके बिना श्रीकृष्णका और श्रीकृष्णके बिना श्रीराधाका अस्तित्व नहीं! दोनोंका अविनाभाव - सम्बन्ध है! रसराज महाभावके प्रेमके विषय बनते हैं और महाभाव रसराजके प्रेमका विषय बनता है! इस प्रकार परस्पर बड़ी पवित्र लीला चलती है! 


श्रीराधा महाभावरूपा हैं और श्रीराधाके आराध्य, प्रेमास्पद, परमश्रेष्ट हैं -- रसराज श्रीकृष्ण! 


श्रीराधाके भावोंका, श्रीराधाके अचिन्त्यानंत भाव -समुद्रकी परम विभिन्न परमानंदमयी तरंगोंका न तो कोई वर्णन कर सकता है, न गणना और न इनके स्वरुपका विशलेषण! अनादिकालसे अनंतकालतक प्रेमकी विशुद्ध परमाल्हादमयी तरंगें -- रसमयी मधुर तरंगें उठती रहती हैं और बड़े-बड़े प्रेमी भक्त, बड़े -बड़े भाग्यशाली ऋषि -मुनि और कोई-कोई देवता ही उन रस - मधुर-तरंगोंके दर्शन कर पाते हैं, आस्वादन तो बहुत दूर! 


श्रीराधाके प्रेमकी विभिन्न तरंगोंका वर्णन नहीं हो सकता-- केवल शाखाचन्द्रन्यायसे संकेतमात्र होता है! जैसे किसीको द्वितीयाका चन्द्रमा दिखलाना है तो यह कहा जाता है कि 'देखिये, सामने उस डालसे इतना ऊपर चन्द्रमा दिखायी दे रहा है!' डालसे उतना ऊपर चन्द्रमा नहीं है, पर डालका संकेत करके चन्द्रमाको दिखानेकी प्रक्रिया होती है! इसी प्रकार श्रीराधाके गुणोंका, भावोंका संकेतमात्र किया जाता है, वर्णन नहीं! वर्णन तो असम्भव है!  

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Friday, 10 February 2012




भगवान् ने गीतामें घोषणा की है -- 'जीवनके अन्तकालमें जो मेरा स्मरण करते हुए शारीरको छोड़कर जाता है -- ऐसा कोई भी हो, वह मुझको प्राप्त होता है -- इसमें संदेह नहीं है!' जगतमें भी हम देखते हैं कि छायाचित्र लेनेमें कैमरेका स्विच दबानेके समय सामनेवालेकी जैसी आकृति होती है, वैसी ही फोटो आती है! भगवान् की इस घोषणाका हम दुरूपयोग करते हैं और कहते हैं कि 'जब अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर लेनेमात्रसे भगवान् की प्राप्ति हो जायगी तो अभी अन्य जरूरी- जरूरी काम कर लिये जायँ, अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर  लेंगे! इसपर भगवान् ने सावधान किया है कि 'जीवनभर जिस कार्यमें मन रहेगा, अन्तकालमें उसीका स्मरण होगा-- यह निशचय है! अतएव सब समय मेरा स्मरण करते हुए जगतका काम करो!' जीवनभर मुझे भुलाये रहकर अन्तकालमें मेरे स्मरणकी आशा कदापि न करो; यह धोखा है! इससे सावधान हो जाओ! 


कुछ करना नहीं है, केवल अपने मुखको भगवान् के सम्मुख मोड़ देना है! भगवान् के सम्मुख होते ही भगवान् के विरोधी अपने-आप विमुख हो जायँगे! भोग-विमुखता और भगवत -सम्मुखता -- दोनों साथ -साथ होती हैं! भोगका अर्थ है -- भगवान् से रहित स्थिति!  


भगवान् को सर्वत्र देखकर, सब जीवोंमें उनकी अनुभूति  करके जीवमात्रकी सेवामें संलग्न रहना -- यह संतका  सहज स्वाभाव होता है! संत सदैव  सचेष्ट रहता है कि उसकी प्रत्येक चेष्टा भगवान् की पूजा होती रहे! 


जो भगवान् से भोग चाहता है, वह भोगोंका गुलाम है; उसके आराध्य भगवान् नहीं, भोग हैं! भगवान् उसके साध्य नहीं होते, भगवान् उसके लिये भोग-प्राप्ति करानेके साधनमात्र होते हैं! 


भगवान् के लिये जीना, भगवान् के लिये मरना जिसके जीवनका  स्वाभाव है, वह प्रेमका निगूढ़. भाजन है! ऐसे जीवनके लिये भगवान् से प्रार्थना  करनी चाहिये! 

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Thursday, 9 February 2012




अन्याश्रयका सर्वथा त्याग 'निर्भरता' है और निर्भरता आती है विश्वाससे! यदपि विश्वास भगवान् की कृपासे ही होता है, फिर भी जीवसे भगवान् इतनी अपेक्षा अवश्य रखते हैं कि 'वह मुझे अपना मान ले' 'भगवान् ही मेरे है' -- जहाँ यह विश्वास हुआ कि निर्भरता स्वतः आ जाती है! 


साधकके सामने दो चीजें आती हैं प्रधान-रूपसे --प्रलोभन और भय! कहीं उसकी पूजा होने लगती है, सम्मान होने लगता है, खानेको अच्छा मिलता है, उसके मतका आदर होता है-- आदि-आदि प्रलोभन आते हैं और साधक उनमें रम जाता है और कहीं शरीरके आराम-त्याग्का भय, भोगोंके विनाशका भय, लोक-निन्दाका भय, अपमानका भय आदि आते हैं और साधक विचलित होकर साधनका त्याग कर देता है! जो साधक उपर्युक्त प्रलोभनों एवं भयोंकी परवाह न करके अपनी साधनामें दत्तचित्त रहता है, वह लक्ष्यतक पहुँच जाता है! 


' दैन्य' का अर्थ यह नहीं है कि साधक अपनेको इतना पतित मान ले कि उसके मनमें यह बात आ जाय कि वह भगवान् का कैसे हो सकता है! इसके विपरीत उसके मनमें यह भाव आना चाहिये कि में अपनी अयोग्यताके कारण और किसीका हो नहीं सकता, पर भगवान् तो पतितपावन हैं; अतएव वे मेरे हैं, में उनका हूँ! 


खाली घरमें घुसनेका भगवान् का स्वाभाव है! जबतक अपने अन्तः करनमें हम कुछ छिपाकर रखते हैं, तबतक भगवान् आते हैं  और झाँककर लौट जाते हैं! इसलिये अपने हृदयको सर्वथा खाली कर दें-- दीन-हीन हो जाँय -- किसी भी साधन-गुनका अभिमान अपनेमें न रखें!  
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Wednesday, 8 February 2012




अग्नि सबको प्राप्त है! उसका किस प्रकार प्रयोग  करना, यह प्रयोग करनेवालेपर निर्भर करता है! ऐसे ही कर्म  करनेकी शक्ति भगवान् ने प्रदान कर रखी है; अब इस शक्तिका प्रयोग किस प्रकारके कर्मोंमें करना -- यह हमपर निर्भर करता है! यदि हम अहंकारसे प्रेरित होकर, किसी विकारको लेकर कर्म करेंगे तो वह दोषयुक्त कर्म होगा तथा उसका बुरा फल हमें भोगना ही पड़ेगा; हम उससे बच नहीं सकते! 


पापकर्म करना मनुष्यका स्वाभाव नहीं है! पापकर्म होते हैं हमारे अन्तः करणमें संचित वासनाओंको लेकर! अतएव पहले उन वासनाओंका निराकरण करना चाहिये! 


संसारके अर्थ-भोग जिनके पास जितने अधिक हैं, वे उतने ही अधिक संतप्त हैं और वे दूसरोंको अधिक संतप्त करते हैं! 


माँगना बहुत बुरा, पर माँगना ही हो तो भगवान् से माँगे और भगवान् को ही माँगे!


भगवान् की शरणागतिके दो रूप संतोंने बताये हैं -- जैसे (१) -- अपने पुरुषार्थसे, अपने प्रयत्नसे भगवान् के शरणापन्न होना तथा (२) -- भगवान् की शरणागत-वत्सलतापर विश्वास करके भगवान् के अपनी शरणमें लेनेकी प्रतीक्षा करना! जगतमें इनके उदाहरण हैं -- बंदरीका बच्चा एवं बिल्लीका बच्चा ! बंदरीका बच्चा स्वयं अपनी औरसे उछलकर माँकी छातीसे चिपक जाता है, पर बिल्लीका बच्चा  अपनी औरसे सक्रिय नहीं होता! बिल्ली स्वयं दाँतोंसे पकड़कर चाहे जब तथा चाहे जहाँ बच्चे ले जाती है! रामकृष्ण परमहंसने दुसरे प्रकारके साधनको बहुत श्रेष्ट बताया है! इस साधनमें पुरुषार्थ न करना नहीं है, पर अपने पुरुषार्थ-साधानपर निर्भरताका भाव नहीं रहता! 
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Friday, 3 February 2012




हमारी भोगोंमें सुखकी आस्था इतनी दृढ़मूल हो रही है की वैराग्यके शब्दोंसे वह दूर नहीं होती! किसी महान विपत्तिका प्रहार तथा भगवान् अथवा उनके किसी प्रेमिजनकी कृपा ही इस आस्थाको दूर कर सकते हैं! 


शरणागत वही हो पाता है, जो दीन है! जिसे अपनी बुद्धि, सामर्थ्य, योग्यताका अभिमान है, वह किसीके शरण क्यों होना चाहेगा! जब अपना सारा बल, बलोंकी आशा-भरोसा टूट जाते हैं, तब वह भगवान् की और ताकता है और उनका आश्रय चाहता है! 


शरणागतमें दो चीजें अनिवार्यरूपसे आती हैं -- निर्भयता एवं निशिचन्तता ! जबतक भय एवं 
चिंता बने हैं,  तबतक न तो अपने दैन्यपर विश्वास हुआ है और न भगवान् की शरणागत- वत्सलतापर! बिना इन दोनों चीजोंपर विश्वास हुए काम बनना असम्भव है! 


भगवान् की कृपा दोनोंकी सम्पत्ति है! हम दीन हो जाय तो भगवत्कृपापर हमारा स्वाभाविक अधिकार हो जाय! 


भजन-साधन करना चाहिये, पर इनका अभिमान मनमें न जगे, इस बातकी सावधानी रखनी चाहिये! भजन-साधनके होनेमें भगवान् की कृपाको ही हेतु माने! भगवान् की कृपाका निरंतर स्मरण रहे और अपने पुरुषार्थकी विस्मृति; बस, काम बन जाता है! 
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Ram