उद्धवको 'वासुदेवः सर्वम' का उपदेश
मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ।।१।।
सुद्धान्तः करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे।।१।।
इति सर्वानी भूतानि मद्भावेन महाद्युते ।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रीतः ।।२।।
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येर्के स्फुलिंगके।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ।।३।।
निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और इन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये।।२-३।।
नारेष्वभिक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोचिरात् ।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियन्ति हि।।४।।
जब निरंतर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दीनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं।।४।।
विसृज्य स्म्यामानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकिम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भुमावाश्वचाण्डालगोखरम् ।।५।।
अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; 'मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है' ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर साष्टांग दंडवत् -प्रणाम करे ।।५।।