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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण, अमावस्या, सोमवार,
वि० स० २०७०
प्रार्थना -३-
गत ब्लॉग से आगे...
हे प्रभों ! कहाँ मैं क्षुद्र-सी परिधि में रहने वाला क्षुद्रतम कीट और कहाँ
तुम अपने एक-एक रोम में अनन्त ब्रह्मांडो को धारण करनेवाले कल्पनातीत महामहिम महान
! मैं तुम्हारी थाह कहाँ पाऊ और कैसे पाऊँ ! परन्तु हे सर्वाधार ! यह तो सत्य है
की अनन्त ब्रह्मांडों में से किसी एक क्षुद्रतम कीट होने पर भी हूँ तो तुम्हारे ही
द्वार धारण किया हुआ न ? प्रभो ! बस, इस तत्व को कभी भूलने न पाऊँ और सदा सर्वदा
अपने को तुम्हारे ही आधारपर स्थित देखूँ, अपने को तुम्हारेही अंदर समझूँ !
* * * * * * * * *
हे प्रभो ! मैं दुखों से दबा हूँ, तापों से संतृप्त हूँ, अभावों से आकुल हूँ,
व्यवस्थाओं से व्याकुल हूँ, अपमानों से पीड़ित हूँ, अपकीर्ति से कलंकित हूँ,
व्याधियों से ग्रस्त हूँ और भयों से त्रस्त हूँ । मेरे सामने दुखी दुनिया में
दूसरा कौन होगा ? सारे दुखों का पहाड़ मानों मुझ पर ही टूट पड़ा है । परन्तु हे मेरे
प्रियतम ! क्या यह सच नहीं है की यह सब तुम्हारी भेजी हुई सौगात है । तुम्हारा ही
प्रेम से दिया हुआ उपहार है ! इस सत्य को जानने पर भी हे मेरे प्यारे ! फिर मुझे
इनकी प्राप्ति में असंतोष क्यों होता है ? तुम्हारी दी हुई प्रत्येक वस्तु में
तुम्हारे ह्रदय के निर्मल प्रेम को देख कर, ओ मेरे ह्रदयधन ! तुम्हारे प्रत्येक
विधान में तुम्हारा कोमल कर-स्पर्श पाकर मैं परम सुखी हो सकूँ । ऐसा प्रेमियों का-सा
विलक्ष्ण ह्रदय दे दो नाथ !...शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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