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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल, द्वितीया, बुधवार,
वि० स० २०७०
प्रार्थना -५-
गत ब्लॉग से आगे...
हे प्रभो ! बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध आकाशमें उड़नेवाले
पक्षियोंकी चित्र-विचित्र वर्णों की बनावट और उनकी सुमधुर काकली, सरोवरोंमें और
नदियों में इधर-से-उधर फुदकनेवाली मछलियों की मोहिनी सूरत और पुष्पोंके रस पर
मंडराती हुई तितलियों की कलापूर्ण रचना, सब मनको हरण किये डालती हैं । यह सुन्दरता,
सौरभ, कला और यह मीठा स्वर, हे सौन्दर्य और माधुर्यके अनन्त सागर ! तुम्हारे ही तो
जलकण हैं । बस, हे अखिल सौन्दर्यमाधुर्य निधि ! ऐसी कृपा करों, जिससे मैं इस बात
को सदा स्मरण रख सकूँ और प्रत्येक सौन्दर्य-माधुर्यकी बहती धाराका सहारा लेकर
तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यका कुछ अंशों में तो उपभोग करूँ !
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हे प्रभों ! मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दो, जो सदा बढती रहे । विषयों की सारी
आसक्ति और कामना उसका ईधन बनकर उसे और भी प्रचण्ड कर दे कि फिर वह तुम्हारी
दर्शन-सुधा-वृष्टिके बिना कभी बुझे ही नहीं !
हे प्रभो ! जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यकी किरणों का स्पर्श पाते ही जल उठती है,
वैसे ही हे नाथ ! तुम्हारे भक्त साधुओं का जाने-अनजाने संग पाते ही मेरे मन में
तुम्हारे प्रेम की आग भड़क उठे । हे अनन्त ब्रह्मांडो में अनन्त सूर्यों के प्रकाशक
! मेरे मन को सूर्यकान्तमणि के सदृश बना दो !...शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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