Thursday, 14 February 2019

पदरत्नाकर

[ ४२ ]
राग जंगलातीन ताल

हे राधा-माधव!  तुम दोनों दो मुझको चरणोंमें स्थान।
दासी मुझे बनाकर रक्खो, सेवाका अवसर दो दान॥
मैं अति मूढ़, चाकरीकी चतुराईका न तनिक-सा ज्ञान।
दीन नवीन सेविकापर दो समुद उँडेल सनेह अमान॥
रजकण सरस चरण-कमलोंका खो देगा सारा अज्ञान।
ज्योतिमयी रसमयी सेविका मैं बन जाऊँगी सज्ञान॥
राधा-सखी-मञ्जरीको रख सम्मुख मैं आदर्श महान।
हो पदानुगत उसके, नित्य करूँगी मैं सेवा सविधान॥
झाड़ू दूँगी मैं निकुञ्जमें, साफ करूँगी पादत्रान।
हौले-हौले हवा करूँगी सुखद व्यजन ले सुरभित आन॥
देखा नित्य करूँगी मैं तुम दोनोंकी मोहनि मुसकान।
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Wednesday, 13 February 2019

पदरत्नाकर

[ ४०]
राग भीमपलासीताल कहरवा

श्यामा-श्याम युगल चरणोंमें करुण प्रार्थना है यह आज।
सुनो दयामयि!  करुणामय हे!  महाभावरूपा!  रसराज!  ॥
गोकुलचन्द्र, गोपिकावल्लभ, राधाप्रिय, हे आनँदकन्द!  ।
दिव्यरसामृत-सरिता जिनके रस-लोलुप सत्-चित्-आनन्द॥
मङ्गलमय यश सुनूँ तुम्हारा, करूँ नाम-यश-गुण नित गान।
उभय पाद-पद्मोंकी सेवा करूँ नित्य तज सब अभिमान॥
कृष्णप्रिया-शिरोमणि रसमयि! रसमय प्रभु! हे श्यामा-श्याम! ।
रहै बरसती कृपा तुम्हारी नित्य अधम जनपर अविराम॥
रक्खो सदा शरणमें ही निज इस पामरको विरद विचार।
जर्जर देह-प्राण-मन अब तो रहें न पलभर तुम्हें बिसार॥
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Tuesday, 12 February 2019

पदरत्नाकर

[ ३८ ]
राग भैरवीताल कहरवा

श्रीराधामाधव!  कर हमपर सहज कृपावर्षां भगवान
ठुकरा सकें सभी भोगोंको जिससे, दें यह शुभ वरदान॥
सहज त्याग दें लोक और परलोकोंके हम सारे भोग।
लुभा सकें न दिव्य लोकोंके भोग, मोक्षका शुचि संयोग॥
बने रहें हम रज-निकुञ्जकी क्षुद्र मञ्जरीं सेवारूप।
सखी दासियोंकी दासी अतिशय नगण्य, अति दीन अनूप॥
पड़ती रहे सदा हमपर उन सखि-मञ्जरियोंकी पद-धूल।
    करती रहे कृतार्थ, बनाती रहे हमें सेवा-अनुकूल॥
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Monday, 11 February 2019

पदरत्नाकर


[ ३०]
राग जंगलाताल कहरवा

माधव!  मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।
खूब रिझाऊँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
नाचूँगी, गाऊँगी, मैं फिर खूब मचाऊँगी हुड़दंग।
खूब हँसाऊँगी हँस-हँस मैं, दिखा-दिखा नित नूतन रंग॥
धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजाऊँगी सब अङ्ग
मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-उमंग।
आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्ट-कल्पना भङ्ग॥
तुम्हें पिलाऊँगी मीठा रस, स्वयं रहूँगी सदा असङ्ग।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङ्ग॥
प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥

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Ram