Friday, 23 December 2011

शरीर से प्राण कब चले जाये पता नहीं, अतः सदा तैयार रहना चाहिये । वह तैयारी है - भगवान की नित्य निरन्तर मधुर स्मृति और भोगों से सर्वथा उपरत रहना ।

जिसको हम सदा के लिए अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ ।

प्रेम रूप सूर्य का उदय होते ही मोह रूप अन्धकार मिट जाता है । प्रेम से इच्छाऒं की निवृत्ति और मोह से इच्छाऒं की उत्पत्ति होती है । प्रेम अपने से, और मोह शरीर से होता है । प्रेम एक से और मोह अनेक से होता है । प्रेम के उदय होते ही विषय विकार मिट जातें हैं । प्रेमी को अनेक में एक ही मालूम होता है ।

एक ही भगवान अनेक रूपों में दीख रहे हैं, इसलिए सबकी सेवा भगवान की ही सेवा है ।
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Tuesday, 20 December 2011





देहाभिमान ही पाप है और यही सबसे बड़ी अपवित्रता है! या तो अपनेको ईश्वरका पवित्र अभिन्न अंश आत्मा मानो या उस प्राणेश्वर प्रभुका दास मानो, आत्मा तो पवित्र और बलवान है ही, प्रभुका दास भी स्वामीकी सत्तासे, मालिकके बलसे मालिकके समान ही पवित्र और बलवान बन जाता है! 


ईश्वरकी कभी सीमा न बाँधों, वह अनिर्वचनीय है, साकार भी है, निराकार भी है तथा दोनोंसे विलक्षण भी है! भक्त उसे जिस भावसे भजता है, वह उसी भावमें प्रत्येक्ष है; यही तो ईश्वरत्व है! 


ईश्वरका स्वरूप या सृष्टिरचनाके सिद्धान्तका निर्णय करनेके बखेड़ेमें न पड़कर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक किसी भी एक मार्गको पकड़कर आगे बढ़ना शुरू कर दो! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ोगे, रहस्य आप ही खुलता जायगा! चलना शुरू न कर, व्यर्थ ही निर्णयमें लगे रहोगे तो किसी-न-किसीके मतके आग्रही बनकर जीवनको लड़ाई-झगडेमें ही वर्थ खो दोगे, तत्त्वकी प्राप्ति शास्त्रार्थसे नहीं होती, गुरुदेवकी सेवा और उनके बतलाये हुए मार्गपर श्रद्धापूर्वक चलनेसे ही होती है! 





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Thursday, 15 December 2011




ईश्वर सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है, इस बातको कभी न भूलो ! ईश्वरको साथ जाननेका भाव तुम्हें निर्भय और निष्पाप बनानेमें बड़ा मददगार होगा! यह कल्पना नहीं है, सचमुच ही ईश्वर सदा सबके साथ है! 


ईश्वरके अस्तित्वपर विश्वास बढ़ाओ, जिस दिन ईश्वरकी सत्ताका पूर्ण निश्चय हो जायगा, उस दिन तुम पापरहित और ईश्वरके सम्मुख हुए बिना नहीं रह सकोगे !


अपनेको सदा बलवान् निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र बनाओ, ऐसा बनाने के लिये यह निश्चय करना होगा कि मैं वास्तवमें ऐसा ही हूँ! असलमें बात भी यही है! तुम शारीर नहीं,आत्मा हो! आत्मा सदा ही बलवान्, निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र है; देहको 'मैं' माननेसे  ही निर्बलता, बीमारी, अशक्ति और अपवित्रता आती है ! 


देहको 'मैं' मानकर कभी अपनेको बलवान्, निरोग, शक्ति-सम्पन्न और पवित्र मत समझो, यों समझोगे तो झूठा अभिमान बढ़ेगा; क्योंकि देहमें ये गुण हैं ही नहीं!   
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Wednesday, 14 December 2011


पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार





घंटेभरके लिये भी कोई आदमी तुमसे मिले तो अपने प्रेमपूर्ण सरल व्यवहारसे उसके हृदयमें अमृत भर दो, सावधान रहो, तुम्हारे पाससे कोई विष न ले जाय! हृदयसे विषको सर्वथा निकालकर अमृत भर लो और पद-पदपर केवल वही अमृत वितरण करो! 


वर्ण, जाती, विद्या, धन या पदमें बड़े हो, इसलिये अपनेको बड़ा मत समझो; याद रखो, सबमें एक ही राम रम रहा है! छोटा-बड़ा व्यवहार है न कि  आत्मा ! 


व्यवहारमें सब प्रकारकी समता असम्भव और हानिकर है, इससे व्यवहारमें आवश्यकतानुसार विषमता रखते हुए भी मनमें समता रखो ! आत्मरूपसे सबको एक-समझो! किसीको अपनेसे छोटा समझकर उससे घृणा न करो, न अपनेमें बड़प्पनका अभिमान ही आने दो ! 


बड़ा वही है, जो अपनेको सबसे छोटा मानता है! यह मंत्र सदा स्मरण रखो ! 
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Tuesday, 13 December 2011




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मनके पैदा होनेवाले प्रत्येक संकल्पके साथ राग-द्वेष रहता है, उसीके अनुसार वह सुख या दुःख का अनुभव करता है तथा इसी राग द्वेषके कारण दूसरोंमें गुण या दोष दिखेते हैं ! जिसमे राग होता है, उसके दोष भी गुण दीखते हैं और जिसमें द्वेष होता है, उसका गुण भी दोष दीखता है ! राग-द्वेषका चश्मा उतरे बिना किसीके यथार्थ रूपकी जानकारी नहीं हो सकती !


मनमें उठनेवाली प्रत्येक स्फुरणाके द्रष्टा बन जाओ,स्फुरणाओंका शीघ्र ही नाश हो जायगा; मनको वशमें करनेका यह बहुत सुन्दर तरीका है ! इसी प्रकार राग-द्वेषके द्रष्टा बननेसे राग-द्वेषके नष्ट होनेमें सहायता मिलेगी ! 


जीवन बहुत थोड़ा है, सबसे प्रेमपूर्वक हिल-मिलकर चलो, सबसे अच्छा बर्ताव करो, अमृतका विस्तार कर जाओ, विषकी बूँद भी कहीं न डालो! तुम्हारा प्रेमपूर्वक व्यवहार अमृत है और द्वेषपूर्ण व्यवहार ही विष है ! 

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Monday, 12 December 2011



याद रखो कि उपकार या सेवा करनेवालेके प्रति कृतज्ञ होकर मनुष्य जगत् की एक बड़ी सेवा करता है, क्योंकि इससे उपकार  करनेवालेके चित्तको सुख पहुँचता है, उसका उत्साह बढ़ जाता है और उसके मनमे उपकार या सेवा करनेकी भावना और भी प्रबल हो उठती है! कृतज्ञके प्रति परमात्मा की प्रसन्नता और कृत्घ्नके प्रति कोप होता है! इससे कृतज्ञ बनो और  उपकारीके उपकारको कभी न भूलो! 


हमें जो दूसरोंमें दोष दिखायी देते हैं, इसका प्रधान कारण अक्सर हमारे चित्तकी दूषित वृत्ति ही  होती है! अपने चित्तको निर्दोष बना लो, फिर जगत् में दोषी बहुत ही कम दीखेंगे! 


अपने दोषोंको देखनेकी आदत डालो, बड़ी सावधानीसे ही अपने मनके दोषोंको देखो, तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारा मन दोषोंसे भरा है, फिर दूसरोंके दोष देखनेकी तुम्हें फुरसत नहीं मिलेगी ! 








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Saturday, 10 December 2011




याद रखो 


दुसरेके द्वारा तुम्हारा तनिक-सा भी उपकार या भला हो अथवा तुम्हें सुख पहुँचे तो उसका ह्रदय से उपकार मानो, उसके प्रति कृतज्ञ बनो, यह मत समझो कि  यह काम मेरे प्रारब्धसे हुआ है, इसमें उसका मेरे ऊपर क्या उपकार है, वह तो निमित्तमात्र है! बल्कि यह समझो कि उसने निमित्त बनकर तुमपर बड़ी ही दया कि है! उसके उपकारको जीवनभर स्मरण रखो, स्थिति बदल जानेपर उसे भूल न जाओ और सदा उसकी सेवा करने तथा उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा करो; काम पडनेपर     हजारों आदमियोंके सामने भी उसका उपकार स्वीकार करनेमें संकोच न करो; ऐसा करनेसे परस्पर प्रेम बढेगा, आनन्द और शान्तिकी वृद्धि होगी, लोगोंमें दुसरोंको सुख पहुँचानेकी प्रवृत्ति  और इच्छा अधिकाधिक उत्पन्न होगी; सहानुभूति और सेवाके भाव बढेंगे!  
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Friday, 9 December 2011




गत ब्लॉग से आगे .....


उसके प्रति द्वेष कभी न करो! द्वेष करोगे तो तुम्हारे मनमें वैर, हिंसा  आदि अनेक नये -नये पापोंके संस्कार पैदा हो जायँगे, उसका मन भी शुद्ध नहीं  रहेगा, उसमें पहले वैर न रहा होगा तो अब तुम्हारे असद्व्यव्हारसे पैदा हो जायगा! द्वेषाग्निसे दोनोंका ह्रदय जलेगा, वैर-भावना परस्पर दोनोंको दु:खी करेगी और पापमें डालेगी ! अतएव इस बातको सर्वथा भूल जाओ की अमुकने कभी मेरा कोई अनिष्ट किया है 


पापी मनुष्य ही अपने पापोंका दोष हल्का करने या पापोंमें प्रवृत्त होनेके लिये शास्त्रोंका मनमाना अर्थ कर उससे अपना मनोरथ सिद्ध किया चाहते हैं ! भगवान् श्रीकृष्णमें कलंक नहीं है, पापियोंकी पापवासना ही उनमें कलंकका आरोप करती है ! 


श्रीकृष्णका उदाहरण देकर पाप करनेवाले ही कलंकी हैं, श्रीकृष्णका निर्मल चरित्र तो नित्य ही निष्कलंक है ! 
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Thursday, 8 December 2011




भूल जाओ 


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सम्भव है कि  उससे किसी परिस्थितिमें पड़कर भ्रमसे ऐसा काम बन गया  हो, जिससे तुम्हें कष्ट पहुँचा हो, परन्तु अन वह अपने कियेपर पछताता हो, उसके हृदयमें पश्चातापकी आग जल रही हो और वह संकोचमें पड़ा हुआ हो, ऐसी अवस्थामें तुम्हारा कर्त्तव्य है कि उसके साथ प्रेम करो, अच्छे -से अच्छा व्यवहार करो! उससे स्पष्ट कह दो कि भाई  ! तुम पश्चाताप क्यों  कर रहे हो? तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है ? मुझे जो कष्ट हुआ है सो मेरे पूर्वकृत  कर्मका फल है ! तुमने तो मेरा उपकार किया है जो मुझे अपना कर्मफल भुगातनेमें कारण बने हो, संकोच छोड़ दो !  तुम्हारे सच्चे हृदयकी इन सच्ची बातोंसे उसके हृदयकी  आग बुझ जायगी, वह चेतेगा,आइन्दे किसीका बुरा न करेगा ! यदि वास्तवमें कुबुद्धिवश उसने जानकार ही  तुम्हें कष्ट पहुँचाया होगा और इस बातसे उसके मनमें पश्चातापके बदले आनन्द होता होगा तो तुम्हारे अच्छे  बर्ताव और प्रेम-व्यव्हारसे उसके हृदयमें पश्चाताप उत्पन्न  होगा, तुम्हारी महत्ता के सामने उसका सिर आप ही झुक जायगा ! उसका ह्रदय पवित्र हो जायगा! यह निश्चय है! कदाचित् ऐसा न हो तो भी तुम्हारा कोई हर्ज नहीं, तुम्हारा अपना मन तो सुन्दर प्रेमके व्यवहारसे शुद्ध और शीतल रहेगा ही !  
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Wednesday, 7 December 2011




भूल जाओ 


दुसरेके द्वारा तुम्हारा कभी कोई अनिष्ट हो जाय तो उसके लिये दुःख न करो; उसे अपने पहले किये हुए बुरे कर्मका फल समझो, यह विचार कभी मनमें मत आने दो कि 'अमुकने मेरा अनिष्ट कर दिया है, यह निश्चय समझो कि ईश्वरके दरबारमें अन्याय नहीं होता, तुम्हारा जो अनिष्ट हुआ है या तुमपर जो  विपत्ति आयी है, वह अवश्य ही तुम्हारे पूर्वकृत कर्मका फल है, वास्तवमें बिना कारण तुम्हे कोई कदापि कष्ट नहीं पहुँचा सकता ! न यही सम्भव है कि कार्य पहले हो और कारण पीछे बने, इसलिये तुम्हे जो कुछ भी दुःख प्राप्त होता है, सो अवश्य ही तुम्हारे अपने कर्मोंका फल है; ईश्वर तो तुम्हे पापमुक्त करनेके लिये दयावश न्यायपूर्वक फलका विधान करता है ! जिसके द्वारा तुम्हे दुःख पहुँचा है उसे तो केवल निमित्त समझो; वह बेचारा अज्ञान और मोहवश निमित्त बन गया है; उसने तो अपने ही हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारी है और तुम्हे कष्ट पहुँचानेमें निमित्त बनकर अपने लिये दु;खोंको निमन्त्रण दिया है; यह तो समझते ही होंगे कि जो स्वयं दु:खोकों बुलाता है वह बुद्धिमान् नहीं है, भुला हुआ है; अतः वह दयाका पात्र है ! उसपर क्रोध न करो, बदलेमें उसका बुरा न चाहो, कभी उसकी अनिष्टकामना न करो, बल्कि भगवान् से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! इस भूले हुए जीवको सन्मार्गपर चढ़ा दो! इसकी सदबुद्धिको जाग्रत कर दो; इसका भ्रमवश किया हुआ अपराध क्षमा  करो ! 
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Tuesday, 6 December 2011


                                    गीता -जयन्ती




याद रखो 
  
यदि कभी किसी जीवको तुम्हारे द्वारा कुछ भी कष्ट पहुँच जाय  तो उससे क्षमा माँगो, अभिमान छोड़कर उसके सामने हाथ जोड़कर उससे दया- भिक्षा चाहो, हजार आदमियोंके सामने भी अपना अपराध स्वीकार करनेमें संकोच न करो, परिस्थिति बदल जानेपर भी अपनी बात  न बदलो, उसे सुख पहुँचाकर उसकी सेवा करके अपने प्रति उसके ह्रदयमें सहानुभूति और प्रेम उत्पन्न कराओ ! यह ख़याल मत करो कि कोई मेरा क्या कर सकता है ? मैं सब तरहसे बलवान् हूँ, धन,विद्या,पद आदिके कारण बड़ा हूँ ! वह कमजोर-अशक्त मेरा क्या बिगाड़ सकेगा? ईश्वरके दरबारमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है! वहाँके न्यायपर तुम्हारे धन, विद्या और पदोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ! कमजोर-गरीबकी दुःखभरी आह तुम्हारे अभिमानको चूर्ण करनेमें समर्थ होगी! तुम्हारे द्वारा दुसरेके अनिष्ट होनेकी छोटी-से-छोटी घटना भी तुम्हारे हृदयमें सदा शूलकी तरह चुभने चाहिये, तभी तुम्हारा ह्रदय शीतल होगा और तुम पापमुक्त हो सकोगे ! 
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Monday, 5 December 2011



याद रखो 


तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीका कभी कुछ भी अनिष्ट हो जाय या उसे दुःख पहुँच जाय तो इसके लिये बहुत ही पश्चात्ताप करो ! यह ख़याल मत करो कि उसके भाग्यमें तो दुःख बदा ही था, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, मैं निमित्त न बनता तो उसको कर्मका फल ही कैसे मिलता, उसके भाग्य से ही ऐसा हुआ है, मेरा इसमें क्या दोष है, उसके भाग्यमें जो कुछ भी हो इससे तुम्हें मतलब नहीं ! तुम्हारे लिये ईश्वर और शास्त्रकी यही आज्ञा है कि तुम किसीका अनिष्ट न करो! तुम किसीका बुरा करते हो तो अपराध करते हो और इसका दण्ड तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा; उसे कर्मफल भुगतानेके लिये ईश्वर आप ही कोई दूसरा निमित्त बनाते, तुमने निमित्त बनकर पापका बोझा क्यों उठाया? 


याद रखो कि तुम्हें जब दुसरेके द्वारा जरा-सा भी कष्ट मिलता है, तब तुम्हें कितना दुःख होता  है, इसी प्रकार उसे भी होता है! इसलिये कभी भूलकर भी किसीके अनिष्टकी भावना ही न करो, ईश्वरसे सदा यह प्रार्थना करते रहो कि ' हे भगवन् ! मुझे ऐसी सदबुद्धि दो जिससे मैं तुम्हारी सृष्टिमें तुम्हारी किसी भी संतानका अनिष्ट करने या उसे दुःख पहुँचानेमें कारण न बनूँ ! सदैव सबकी सच्ची हित-कामना करो और यथासाध्य सेवा करनेकी वृत्ति रखो! कोढ़ी, अपाहिज, दु;खी-दरिद्रको देखकर यह समझकर कि 'यह अपने बुरे कर्मोंका फल भोग रहा है; जैसा किया था वैसा ही पाता है'-- उसकी उपेक्षा न करो, उससे घृणा न करो और रुखा व्यवहार करके उसे कभी कष्ट न पहुँचाओ ! वह चाहे पूर्वका कितना ही पापी क्यों न हो, तुम्हारा काम उसके पाप देखनेका नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य तो अपनी शक्तिके अनुसार उसकी भलाई करना तथा उसकी सेवा करना ही है! यही भगवान् की तुम्हारे प्रति आज्ञा है ! यह न कर सको तो कम-से-कम इतना तो जरुर ख़याल रखो जिससे तुम्हारे द्वारा न तो किसीको कुछ भी कष्ट पहुँचे और न किसका अनिष्ट ही हो! तुम किसीसे घृणा करके उसे दुःख पहुँचाते हो तो पाप करते हो, जिसका बुरा फल तुम्हें जरुर भोगना पड़ेगा ! 

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Sunday, 4 December 2011


                                         भूल जाओ 




तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीकी कभी कोई सेवा हो जाय तो यह अभिमान न करो कि मैंने उसका उपकार किया है ! यह निश्चय समझो कि उसको तुम्हारे द्वारा बनी हुई सेवासे जो सुख मिला है सो निश्चय ही उसके किसी शुभकर्मका फल है! तुम तो उसमें केवल निमित्त बने हो, ईश्वरका धन्यवाद करो  जो उसने तुम्हें किसीको सुख पहुँचानेमें निमित्त बनाया और उस प्राणीका उपकार मानो जो उसने तुम्हारी सेवा स्वीकार कि ! वह यदि तुम्हारा उपकार माने या कृतज्ञता प्रकट करे तो मन-ही-मन सकुचाओ और भगवान् से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! तुम्हारे कार्यमें मुझे यह झूठी बढाई क्यों मिल रही है ? और उससे नम्रतापूर्वक कहो कि भाई ! तुम ईश्वरके प्रति कृतज्ञ होओ, जिसने तुम्हारे लिये ऐसा विधान किया और पुनः -पुनः सत्कर्म करते रहो, जिनके फलस्वरूप तुम्हें बार-बार सुख ही मिले! मैं तो निमित्त-मात्र हूँ, मेरी बढाई करके मुझे अभिमानी न बनाओ !


उसपर कभी अहसान न करो कि मैंने तुम्हारा उपकार किया है ! अहसान करोगे तो उसपर भारी बोझ  पड़ जायगा ! वह दु:खी होगा, आइन्दे तुम्हारी सेवा स्वीकार करनेमें उसे संकोच होगा ! उसके अहसान न माननेसे तुम्हें दुःख होगा, तुम उसे कृतघ्न समझोगे, परिणाममें तुम्हारे और उसके दोनोंके हृदयोंमें द्वेष उत्पन्न हो जायगा ! इस बातको भूल ही जाओ कि मैंने किसीकी सेवा की है !  




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Saturday, 3 December 2011






निर्दोष सत्यकार्यको किसी भय, संकोच या अल्प मतिके कारण कभी छोड़ना नहीं चाहिये ! कार्यकी निर्दोषता,उसकी उपकारिता और तुम्हारी श्रद्धा, नेकनीयत तथा टेकके प्रभावसे आज नहीं तो कुछ समय बाद लोग उस कार्यको जरुर अच्छा समझेंगे ! 


याद रखना चाहिये कि संसारके सुखोंकी अपेक्षा परमात्मसुख अतयन्त विलक्षण है, अतः संसार-सुखके लिये परमात्मसुखकी चेष्टामें कभी बाधा नहीं पहुँचानी चाहिये ! 


कर्त्तव्यमें प्रमाद न करना ही सफलताकी कुंजी है और उसीपर परमात्माकी कृपा होती है, आलसी और कर्तव्यविमुख लोग उसके योग्य नहीं ! 


किसीके मुँहसे कोई बात अपने विरूद्ध सुनते ही उसे अपना विरोधी मत मान बैठो, विरोधका कारण ढूँढो और उसे मिटानेकी सच्चे हृदयसे चेष्टा करो! हो सकता है तुमसे ही कोई दोष हो जो तुम्हें अबतक न दिख पड़ा हो अथवा वह ही बिना बुरी नियतके ही किसी परिस्थितिके प्रवाहमें बह गया हो ! ऐसी स्थितिमें शान्ति और प्रेमसे काम लेना चाहिये ! 


अपने हृदयको सदा टटोलते रहना ही साधकका कर्त्तव्य है, उसमें घृणा, द्वेष, हिंसा,वैर,मान-अहंकार , कामना आदि अपना डेरा न जमा लें ! बुरा कहलाना अच्छा है; परन्तु अच्छा कहलाकर बुरा बने रहना बहुत ही बुरा है !  

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Friday, 2 December 2011






जो भगवान् का भक्त बनना चाहता है, उसे सबसे पहले अपना ह्रदय सुद्ध करना चाहिये और नित्य एकान्तमें भगवान् से यह कातर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! ऐसी कृपा करो जिससे मेरे हृदयमें तुम्हे हर घड़ी हाजिर देखकर तनिक-सी पापवासना भी उठने और ठहरने न पावे ! तदनन्तर उस निर्मल ह्रदय-देशमें तुम अपना स्थिर आसन जमा लो और मैं पल-पलमें तुम्हे निरख-निरखकर निरतशय आनन्दमें मग्न होता रहूँ ! 


फिर भगवन् ! तुम्हारे लिये मैं सारे भागोंको विषम रोग समझकर उनका भी त्याग कर दूँ  और केवल तुम्हें लेकर ही मौज करूँ ! इन्द्र और ब्रम्हाका पद भी उस मौजके सामने तुच्छ -- अति तुच्छ हो जाय !


फिर शंकराचार्यकी तरह मैं भी गाया करूँ --
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ! 
सामुद्रो ही तरग्ड: व्कचन समुद्रो न तारंग : !!


बाहरी पवित्रताकी अपेक्षा हृदयकी पवित्रता मनुष्यके चरित्रको उज्जवल बनानेमें बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्यको काम,क्रोध,हिंसा, वैर , दम्भ आदि दुर्गन्धभरे कूड़ेको बाहर फेंककर हृदयको सदा साफ रखना चाहिये ! 


बाहरसे निर्दोष कहलानेका प्रयत्न न कर मनसे निर्दोष बनना चाहिये! मनसे निर्दोष मनुष्यको दुनिया दोषी बतलावे तो भी कोई हानि नहीं; परन्तु मनमें दोष रखकर बाहरसे निर्दोष कहलाना हानिकारक है! 
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Thursday, 1 December 2011




धन, सम्पत्ति या मित्रोंको पाकर अभिमान न करो, जिस परमात्माने तुम्हें यह सब कुछ दिया है उसका उपकार मानो !


भक्त वही है जिसका अन्तः करण समस्त पाप-तापोंसे रहित होकर केवल अपने इष्टदेव परमात्माका नित्य-निकेतन बन गया है !


भक्तका ह्रदय ही जब पापोंसे शुन्य होता है, तब उसकी शारीरिक क्रियाओंमें तो पापको स्थान ही कहाँ है ? जो रात-दिन पापमें लगे रहकर भी अपनेको भक्त समझते हैं, वे या तो जगत् को ठगनेके लिये ऐसा करते हैं अथवा स्वयं अपनी विवेक-हीन बुद्धिसे ठगे गए हैं ! 


भक्त और साधु बनना चाहिये, कहलाना नहीं चाहिये !  जो कहलानेके लिये भक्त बनना चाहते हैं, वे पापोंसे ठगे जाते हैं !  ऐसे लोगोंपर सांसे पहला आक्रमण दम्भका होता है ! 


भक्ति अपने सुखके लिये हुआ करती है, दुनियाको दिखलानेके लिये नहीं, जहाँ दिखलानेका भाव है, वहाँ कृत्रिमता है !


भगवान् की ओरसे कृत्रिम मनुष्यको कोपका और अकृत्रिमको करुणाका प्रसाद मिलता है l  कोपका प्रसाद जलाकर, तपाकर उसे शुद्ध करता है और करुणाका प्रसाद तो उस शुद्ध हुए पुरुषको ही मिलता है!


अपने विरोधीको अनुकूल बनानेका सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसके साथ सरल और सच्चा प्रेम करो !  वह तुमसे द्वेष करे, तुम्हारा अनिष्ट करे तब भी तुम तो प्रेम ही करो !  प्रतिहिंसाको स्थान दिया तो जरूर गिर जाओगे ! 
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Ram