Thursday, 30 November 2017

गीताचिन्तन

।।श्रीहरि:।।
गीताजयन्ती की शुभकामनाएं। 
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Wednesday, 29 November 2017

पदरत्नाकर

१८

राग पीलूताल कहरवा

निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दास।
करते निसि-दिन नरकमय बिषय-समुद्र निवास॥
नरक-कीट ज्यों नरकमें मूढ़ मानता मोद।
भोग-नरकमें पड़े हम त्यों कर रहे विनोद॥
नहीं दिव्य रस कल्पना, नहीं त्याग का भाव।
कुरस, विरस, नित अरसका दुखमय मनमें चाव॥
हे राधे रासेश्वरी!   रसकी पूर्ण निधान।
हे महान महिमामयी!   अमित श्याम-सुख-खान॥
पाप-ताप हारिणि, हरणि सत्वर सभी अनर्थ।
परम दिव्य रसदायिनी पञ्चम शुचि पुरुषार्थ॥
यद्यपि हैं सब भाँति हम अति अयोग्य, अघबुद्धि।
सहज कृपामयि!   कीजिये पामर जनकी शुद्धि॥
अति उदार!   अब दीजिये हमको यह वरदान।
मिले मञ्जरीका हमें दासी-दासी-स्थान॥

[ १९ ]
राग वसन्तताल कहरवा

हे राधे!   हे श्याम-प्रियतमे!   हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपञ्च-रत, नित्य मलीन ॥
शुचितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-ज्ञानी-योगीका भी नहीं यहाँ प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे!   यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू देंसौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप तमाम ॥
होगा दम्भ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि!   हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि!   दीनवत्सला!   ऐसा करो स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर पद-पङ्कज-मधुका पान ॥

[ २०]
दोहा

राग पीलूताल कहरवा

स्याम-स्वामिनी राधिके!   करौ कृपा कौ दान।
सुनत रहैं मुरली मधुर, मधुमय बानी कान॥
पद-पंकज-मकरंद नित पियत रहैं दृग-भृंग।
करत रहैं सेवा परम सतत सकल सुचि अंग॥
रसना नित पाती रहै दुर्लभ भुक्त प्रसाद।
बानी नित लेती रहै नाम-गुननि-रस-स्वाद॥
लगौ रहै मन अनवरत तुम में आठौं जाम।
अन्य स्मृति सब लोप हों सुमिरत छबि अभिराम॥
बढ़त रहै नित पलहिं-पल दिब्य तुम्हारौ प्रेम।
सम होवैं सब छंद पुनि, बिसरैं जोगच्छेम॥
भक्ति-मुक्ति की सुधि मिटै, उछलैं प्रेम-तरंग।
राधा-माधव सरस सुधि करै तुरत भव-भंग॥


[ २१ ]
राग भीमपलासीतीन ताल

श्रीराधा!   कृष्णप्रिया!   सकल सुमङ्गल-मूल।
सतत नित्य देती रहो पावन निज-पद-धूल॥
मिटें जगतके द्वन्द्व सब, हों विनष्टसब शूल।
इह-पर जीवन रहे नित तव सेवा अनुकूल॥
देवि!   तुम्हारी कृपासे करें कृपा श्रीश्याम।
दोनोंके पदकमलमें उपजे भक्ति ललाम॥
महाभाव, रसराज तुम दोनों करुणाधाम।

निज जन कर, देते रहो निर्मल रस अविराम॥



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Tuesday, 28 November 2017

पदरत्नाकर

[ १६ ]
राग खमाचतीन ताल

दयामयि स्वामिनि परम उदार! 
पद-किंकरि की किंकरि-किंकरि करौ मोय स्वीकार॥
दूर करौं निकुंज-मग-कंटक-कुस सब सदा बुहार।
स्वच्छ करौं तव पगतरि पावन, धूर-धार सब झार॥
देखौं दूरहि तैं तव प्रियतम संग सुललित बिहार।
नित्य निहारत रहौं, मिलै कछु सेवा की सनकार॥
पद-सेवन कौ बढ़ै चाव नित काल अनंत अपार।
अर्पित रहै सदा सेवा में अंग-अंग अनिवार॥
कबहुँ न जगै दूसरी तृस्ना, कबहुँ न अन्य बिचार।
रहै न कितहूँ कछु मेरौपन’, ‘अहंकारहोय छार॥
होयँ तुम्हारे मन के ही, बस, मेरे सब ब्यौहार।
बनौ रहै नित तुम्हरौ ही सुख मेरौ प्रानाधार॥

[ १७ ]
राग आसावरीतीन ताल

राधाजू!   मोपै आजु ढरौ।
निज, निज प्रीतम की पद-रज-रति मोय प्रदान करौ॥
बिषम बिषय-रस की सब आसा-ममता तुरत हरौ।
भुक्ति-मुक्ति की सकल कामना सत्वर नास करौ॥
निज चाकर-चाकर-चाकर की सेवा-दान करौ।
राखौ सदा निकुंज निभृत में झाड़ूदार  बरौ॥

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Monday, 27 November 2017

पदरत्नाकर

[ ५ ]
दोहा

श्रीराधारानी-चरन बंदौं बारंबार।
जिन के कृपा-कटाच्छ तें रीझैं नंदकुमार॥
जिन के पद-रज-परस तें स्याम होयँ बेभान।
बंदौं तिन पद-रज-कननि मधुर रसनि के खान॥
जिन के दरसन हेतु नित बिकल रहत घनस्याम।
तिन चरननि में बसै मन मेरौ आठौं जाम॥
जिन पद-पंकज पर मधुप मोहन-दृग मँडऱात।
तिन की नित झाँकी करन मेरौ मन ललचात॥
राअच्छर कौं सुनत ही मोहन होत बिभोर।
बसै निरंतर नाम सो राधानित मन मोर॥

[ ६ ]
राग पीलूताल कहरवा

बंदौं श्रीराधा-चरन पावन परम उदार।
भय-बिषाद-अग्यान हर, प्रेम-भक्ति-दातार॥

[ ७ ]
राग पीलूताल कहरवा

श्रीराधारानी-चरन बिनवौं बारंबार।
बिषय-बासना नास करि, करौ प्रेम-संचार॥
तुम्हरी अनुकंपा अमित, अबिरत अकल अपार।
मोपर सदा अहैतुकी बरसत रहत उदार॥
अनुभव करवावौ तुरत, जाते मिटैं बिकार।
रीझैं परमानंदघन मोपै नंदकुमार॥
पर्यौ रहौं नित चरन-तल, अर्यौ प्रेम-दरबार।
प्रेम मिलै, मोय दुहुन के पद-कमलनि सुखसार॥

[ ८ ]
राग भैरवीताल कहरवा

बंदौं राधा-पद-कमल अमल सकल सुख-धाम।
जिन के परसन हित रहत लालाइत नित स्याम॥
जयति स्याम-स्वामिनि परम निरमल रस की खान।
जिन पद बलि-बलि जात नित माधव प्रेम-निधान॥

[ ९ ]
राग माँड़ताल कहरवा

रसिक स्याम की जो सदा रसमय जीवनमूरि।
ता पद-पंकज की सतत बंदौं पावन धूरि॥
जयति निकुंजबिहारिनी, हरनि स्याम-संताप।
जिन की तन-छाया तुरत हरत मदन-मन-दाप॥

[ १०]
राग तोड़ीतीन ताल

बंदौं राधा-पद-रज पावन।
स्याम-सुसेवित, परम पुन्यमय, त्रिबिध ताप बिनसावन॥
अनुपम परम, अपरिमित महिमा, सुर-मुनि-मन तरसावन।

सर्बाकर्षक रसिक कृष्नघन दुर्लभ सहज मिलावन॥

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Sunday, 26 November 2017

पदरत्नाकर

[ ४ ]
राग केदारताल कहरवा

दुर्लभ परम त्यागमय पावन प्रेम-मूर्ती आदर्श महान।
महाभावरूपा श्रीराधा, जिनके प्रेमवश्य भगवान॥
नहीं तनिक भी स्व-सुख-वासना, नहीं मोह-माया-मद-मान।
प्रियतम-पद-पूर्णार्पित जीवन, जगके सारे द्वन्द्व समान॥
मुक्ति-बन्ध वैराग्य-भोगके ग्रहण-त्यागका कभी न ध्यान।
प्रियतम-सुख ही सब कार्योंमें करता नित्य प्रेरणा-दान॥
प्रेममयी शुचितम श्रीराधाके पद-रज-कण रसकी खान।
वे स्वीकार करें इस जन नगण्यके नमस्कार निर्मान॥



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Saturday, 25 November 2017

पदरत्नाकर

[ ३ ]
तर्ज लावनीताल कहरवा

जिनका शुचि सौन्दर्य-सुधा-रसनिधि नित नव बढ़ता रहता।
जिनका मधु माधुर्य माधुरी नित नव रस भरता रहता॥
नित नवीन निरुपम भावोंका जिनमें सदा उदय होता।
जिनमें अतुल तरंगें नित नव उठतीं नहिं विराम होता॥
जिनमें अवगाहन कर कभी न होते तृप्त स्वयं भगवान।
रसमय स्वयं सदा जिनका रस करते लोलुपकी ज्यों पान॥
जिनको निज स्वरूप-सद्‍गुण-आनँदका कभी न होता भान।
शुचि सुन्दरता, मधुर माधुरीका होता न तनिक अभिमान॥
जो अपनेको सदा समझतीं सभी भाँतिसे दीन-मलीन।
देती रहतीं, नित्य मानतीं पर लेनेवाली अति हीन॥
ऐसी जो प्रियतमा श्यामकी, त्याग-मूर्ती, गुणवती उदार।
उन श्रीराधापद-कमलोंमें नमस्कार है बारंबार॥
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Monday, 20 November 2017

पदरत्नाकर

[३०]
राग जंगलाताल कहरवा

माधव! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।
खूब रिझाऊँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
नाचूँगी, गाऊँगी, मैं फिर खूब मचाऊँगी हुड़दंग।
खूब हँसाऊँगी हँस-हँसमैं, दिखा-दिखा नित नूतन रंग॥
धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजाऊँगी सब अङ्ग
मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मनकी, भर मनमें उत्साह-उमंग।
आनँदके मधु झटकेसे सब होंगी कष्ट-कल्पना भङ्ग॥
तुम्हें पिलाऊँगी मीठा रस, स्वयं रहूँगी सदा असङ्ग।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसङ्ग॥
प्यार तुम्हारा भरे हृदयमें, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥



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Ram