१८
राग पीलू—ताल कहरवा
निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दास।
करते निसि-दिन नरकमय बिषय-समुद्र
निवास॥
नरक-कीट ज्यों नरकमें मूढ़ मानता मोद।
भोग-नरकमें पड़े हम त्यों कर रहे
विनोद॥
नहीं दिव्य रस कल्पना, नहीं त्याग का भाव।
कुरस, विरस, नित अरसका दुखमय मनमें चाव॥
हे राधे रासेश्वरी! रसकी
पूर्ण निधान।
हे महान महिमामयी! अमित
श्याम-सुख-खान॥
पाप-ताप हारिणि, हरणि सत्वर सभी अनर्थ।
परम दिव्य रसदायिनी पञ्चम शुचि
पुरुषार्थ॥
यद्यपि हैं सब भाँति हम अति अयोग्य, अघबुद्धि।
सहज कृपामयि! कीजिये
पामर जनकी शुद्धि॥
अति उदार! अब
दीजिये हमको यह वरदान।
मिले मञ्जरीका हमें दासी-दासी-स्थान॥
[ १९ ]
राग वसन्त—ताल कहरवा
हे राधे! हे
श्याम-प्रियतमे! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपञ्च-रत, नित्य मलीन ॥
शुचितम, दिव्य
तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-ज्ञानी-योगीका भी नहीं यहाँ
प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें
करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे! यह
सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय
दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें—सौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप
तमाम ॥
होगा दम्भ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव
पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि! दीनवत्सला! ऐसा
करो स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर
पद-पङ्कज-मधुका पान ॥
[ २०]
दोहा
राग पीलू—ताल कहरवा
स्याम-स्वामिनी राधिके! करौ
कृपा कौ दान।
सुनत रहैं मुरली मधुर, मधुमय बानी कान॥
पद-पंकज-मकरंद नित पियत रहैं दृग-भृंग।
करत रहैं सेवा परम सतत सकल सुचि अंग॥
रसना नित पाती रहै दुर्लभ भुक्त
प्रसाद।
बानी नित लेती रहै नाम-गुननि-रस-स्वाद॥
लगौ रहै मन अनवरत तुम में आठौं जाम।
अन्य स्मृति सब लोप हों सुमिरत छबि
अभिराम॥
बढ़त रहै नित पलहिं-पल दिब्य तुम्हारौ
प्रेम।
सम होवैं सब छंद पुनि, बिसरैं जोगच्छेम॥
भक्ति-मुक्ति की सुधि मिटै, उछलैं प्रेम-तरंग।
राधा-माधव सरस सुधि करै तुरत भव-भंग॥
[ २१ ]
राग भीमपलासी—तीन ताल
श्रीराधा! कृष्णप्रिया! सकल
सुमङ्गल-मूल।
सतत नित्य देती रहो पावन निज-पद-धूल॥
मिटें जगतके द्वन्द्व सब, हों विनष्टसब शूल।
इह-पर जीवन रहे नित तव सेवा अनुकूल॥
देवि! तुम्हारी
कृपासे करें कृपा श्रीश्याम।
दोनोंके पदकमलमें उपजे भक्ति ललाम॥
महाभाव, रसराज तुम
दोनों करुणाधाम।
निज जन कर, देते रहो निर्मल रस अविराम॥
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