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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, षष्ठी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
एक लालसा -१-
जीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने
पर जब उसके अतिरिक्त अन्य सभी लौकिक-परलौकिक पदार्थों के प्रति वैराग्य हो जाता
है, तब साधक के हृदय में कुछ दैवी भावों का विकास होता है । उसका अन्त:करण शुद्ध
सात्विक बनता जाता है । इन्द्रियाँ वश में हो जाती है, मन विषयों से हट कर
परमात्मा में एकाग्र हो जाता है, सुख-दुःख, शीतोष्ण का सहन सहज में ही हो जाता है,
संसार के कार्यों से उपरामता होने लगती है, परमात्मा और उसकी प्राप्ति के साधनो
में तथा सन्तशास्त्रों की वाणी में परम श्रद्धा हो जाती है, परमात्मा को छोड़ कर
दुसरे किसी पदार्थ में मेरी तृप्ति होगी या मुझे परम सुख मिलेगा, यह शंका सर्वथा
मिटकर चित का समाधान हो जाता है । फिर उसे एक परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा
नहीं लगता, उसकी सारी क्रियाए केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए होती है । वह सब
कुछ छोड़ कर एक परमात्मा को ही चाहता है । इसी का नाम मुमुक्षा या शुभेच्छा है । ..शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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