Friday, 31 August 2012

नि:स्वार्थ प्रेम और सच्चरित्रता की महिमा





                   संसार का मिलना बिछुड़ने के लिए ही हुआ करता है l जहाँ राग होता है, वहां विछोह में दुःख और स्मृति में सुख-सा प्रतीत होता है l जहाँ द्वेष होता है, वहां विछोह में सुख और स्मृति में दुःख होता है l राग-द्वेष से परे नि:स्वार्थ प्रेम की एक स्थिति होती है, वहां माधुर्य-ही-माधुर्य है  l  स्वार्थ ही विष और त्याग ही अमृत है l जिस प्रेम  में जितना स्वार्थ-त्याग होता है, उतना ही उसका स्वरुप उज्जवल होता है l प्रेम का वास्तविक  स्वरुप तो त्यागपूर्ण है, उसमें तो केवल प्रेमास्पद का सुख-ही-सुख है l अपने सुख की तो स्मृति ही नहीं है l 
                   धन कमाने में उन्नति हो यह तो व्यवहारिक दृष्टि से वांछनीय है ही l  परन्तु जीवन का उद्धेश्य यही नहीं है l जीवन का असली उद्धेश्य महान चरित्रबल को प्राप्त करना है, जिससे भगवत्प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है l  धन, यश, पद, गौरव, मान, संतान - सब कुछ हो, परन्तु यदि मनुष्य में सच्चरित्रता नहीं है, तो वह वस्तुत:मनुष्यत्वहीन है l सच्चरित्रता ही मनुष्यत्व है l 
                   धन कमाने की इच्छा ऐसी प्रबल और मोहमयी न होनी चाहिए जिससे न्याय और सत्य पथ छोड़ना पड़े, दूसरों का न्याय स्वत्व छीना जाये और गरीबों की रोटी पर हाथ जाये l जहाँ विलासता अधिक होती है . खर्च बेशुमार होता है, भोगासक्ति बड़ी होती है, झूठी प्रेस्टिज का भार चढ़ा रहता है, वहां धन की आवश्यकता बहुत बढ़ जाती है और वैसी हालत में न्यायान्याय का विचार नहीं रहता l गीता में आसुरी सम्पत्ति के वर्णन में भगवान् ने कहा है - 'कामोपभोग-परायण पुरुष अन्याय से अर्थोपार्जन करता है  l ' बुद्धिमान पुरुष को इतनी बातों पर ध्यान रखना चाहिए - विलासिता न बढे, फिजूलखर्ची न हो, जीवन यथासाध्य सादा हो , इज्जत का ढकोसला न रखा जाये, भोगियों की नक़ल न की जाये और परधन को विष के समान समझा जाये l इन बातों को ध्यान में रखकर सत्य की रक्षा करते हुए ही धनोपार्जन की चेष्टा करनी चाहिए और यदि धन प्राप्त हो तो उसे भगवान् की चीज़ मानकर अपने निर्वाहमात्र का उसमें अधिकार समझकर शेष धन से भगवान् की सेवा करनी चाहिए l   सेवा करके अभिमान नहीं करना चाहिए l  हो सके तो नित्य कुछ सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय और भगवद्भजन भी अवश्य करना चाहिए l 

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                         
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Thursday, 30 August 2012

जीवन की सार्थकता




काम
, क्रोध, लोभ, मोह और प्रमाद आदि का नाश भगवत्कृपा से भगवान् पर पूर्ण विश्वास होने पर ही होता है l इस से पहले वे किसी--किसी रूप में रहते ही हैं l श्रीभगवान के नाम का जप जैसे बने, वैसे ही करते रहिये l करते-करते नाम के प्रताप से विश्वास बढेगा, न घबराइयेगा , न इससे हार मानियेगा l भगवान् का आश्रय चाहनेवाला तो इनका नाश करके ही दम लेता है l इनके नाश का उपाय बस भगवद्विश्वास है - जो भजन से प्राप्त होता है l

मैं तो तुच्छ प्राणी हूँ l आप विश्वास कीजिये, श्रीभगवान हम सभी के सुहृद हैं और वे सर्वज्ञ हैं, इसलिए हमारी स्थिति से पूरे जानकर भी हैं तथा इसी के साथ वे सर्वशक्तिमान भी हैं l बस, उन पर विश्वास कीजिये l फिर निश्चय ही परम कल्याण होगा, और आपको सच्ची सुख-शान्ति मिल जाएगी l साधन-बल से कुछ नहीं होना है - यह मान लिया सो ठीक है l साधन का बल रखिये भी मत l बल रखिये भगवत्कृपा का l क्या छोटे बच्चे को माँ के आश्रय के सिवा और कोई बल होता है ? अहाहा ! भगवान् रुपी माँ सदा अपना अंचल फैलाये हमें गोद लेने को तैयार है l हम नहीं, वे ही हमारे लिए सतृष्ण नयनों से बाट देख रही हैं l बस, उनकी गोद में चढ़ जाइये ! फिर जीवन सार्थक है ही l लोक-परलोक-सुधार-(३५३)
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Wednesday, 29 August 2012

विपत्ति और निन्दा से लाभ


     

 
             सचमुच  विपत्ति में ही मनुष्य के धैर्य और धर्म का पता लगता है; परन्तु यह विश्वास रखिये, जिनका जीवन केवल आराम से ही बीतता है उनके लिए जीवन में पूर्ण विकास और पूर्ण परिणति बहुत कठिन हो जाती है l  वे न तो अपने को भलीभांति परख - पहचान सकते हैं और न दूसरे की यथार्थ स्थिति का ही अनुभव कर सकते हैं l इसी से बुद्धिमान लोग विपत्ति से घबराते नहीं l वे जानते हैं कि जो लोग 'हाँ हजूर' कहनेवाले खुशामदियों और तारीफ के पुल बांधनेवाले स्वार्थियों से घिरे रहकर इन्द्रिय सुखभोग के आराम में लगे रहते हैं, वे भगवत्कृपा के परम लाभ से प्राय: वंचित ही रहते हैं l विपत्ति में धीरज न छोड़कर उसे भगवान् के दें मानकर सम्पत्ति के रूप में परिणत कर लेना चाहिए l फिर विपत्ति का दुःख मिटते देर न लगेगी l          
              यही बात निन्दा करने वाले भाइयों के सम्बन्ध में समझिये l आप यह माने कि आपकी जितनी भी निन्दा होती है, उतने ही आपके पातक घुलते हैं l निन्दा करनेवाले तो बिना पैसे के धोबी हैं, हमारे अन्दर जरा भी मैल नहीं रहने देना चाहते l हमारे पाप धोने जाकर जो स्वाभाविक ही हमारे पाप का हिस्सा लेने को तैयार हैं, वे क्या हमारे कम उपकारी हैं ? एक तरह से उनका यह त्याग है l आपकी निन्दा होती है, यह वस्तुत: बहुत अच्छा होता है l आप तो भाग्यवान हैं, जो आप को इतने निन्दा करनेवाले मिल जाते हैं l निन्दकों से कभी न तो द्वेष करना चाहिए, न उन्हें रोकना चाहिए और न मन में बदला लेने कि ही कोई भावना करनी चाहिए l हाँ, उनके बतलाये हुए दोषों पर धीरज तथा शान्ति के साथ विचार करना चाहिए और उनमें से एक भी दोष जान पड़े तो उसे दृढ़ता और साहस के साथ दूर करके मन-ही-मन निन्दकों का उपकार मानना चाहिए l भगवान् और धर्म का दृढ सहारा पकडे रखकर साहस तथा धैर्य के साथ विपत्ति का सामना करना चाहिए l भगवान् ने कहा है  -
             मच्चित्त:       सर्वदुर्गाणि       मत्प्रसादात्तरिषयसि  l 
                                                                        (गीता १८ / ५८)
               'मुझ में चित्त लगाने पर तू मेरी कृपा से सारे संकटों से पार हो जायेगा l ' भगवान् के इन वचनों पर विश्वास करके उनमें चित्त लगाना चाहिए ल

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)  
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Tuesday, 28 August 2012

धन का सदुपयोग






अब आगे.........
           
              सन्तों  की इस उक्ति को याद रखना चाहिए l नीचे लिखी सात बातें सदा याद रखने की हैं  -
              १- नौकर और मजदूरों को अपने से नीचा समझकर उनका अपमान न करें l उनको अपने धन का हिस्सेदार समझें और जहांतक हो उन्हें इतनी मजदूरी  दें जिससे उनके बाल-बच्चों को अन्न-वस्त्र का कभी अभाव न हो l  विपत्ति, रोग और अभाव के समय सहानुभूतिपूर्ण ह्रदय से उनकी विशेष सेवा करें l
               २- हो सके तो सब में भगवद बुद्धि  करके भगवत्सेवा के भाव से सबके साथ यथायोग्य बर्ताव करते हुए उनकी सेवा करें  l
               ३- दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा दूसरों से हम अपने प्रति चाहते हैं l
               ४- सब में आत्मभाव रखकर यथासाध्य दूसरों के दुखों को अपना दुःख समझकर उनका दुःख दूर करने के चेष्टा करें l
               ५- सन्तों  का तो यह स्वभाव होता है कि वे अपने दुःख की तो परवा नहीं करते, परन्तु दूसरों के दुःख और अध्:पतन से असह्य पीड़ा का अनुभव करते हैं l सन्तों के इस आदर्श पर बराबर विचार करें l
                ६- मरने के बाद धन यहीं रह जायेगा l अपने हाथ से भगवान् की सेवा में लगा दिए जाने से धन की सार्थकता है l इस सिद्धान्त को सत्य मानकर  अपने ही हाथों दान, भेंट आदि के रूप में सत्कारपूर्वक व्यय कर देना चाहिए l
                ७- अभावग्रस्त लोग सहायता माँगें तो तंग आकर उनका कभी जरा भी अपमान नहीं करें l बल्कि यथाशक्ति उनकी सेवा करें l इसीमें धन का सदुपयोग है l

             
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)    
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Monday, 27 August 2012

धन का सदुपयोग





अब आगे.........


              आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है l वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्त्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है l वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है l
              १- भगवान् की चीज़ भगवान् की सेवा में लगी, आप बेईमानी से बचे और भगवान् के दरबार में ईमानदारी का इनाम पाने के अधिकारी हो गए l
              २-धन का सदुपयोग हुआ तो आपकी सदगति में कारण है - धन की तीन गति होती हैं - दान, भोग और नाश l आपका कमाया हुआ धन आपके या दूसरे किसी के द्वारा बुरे काम में लगता तो आपको दुर्गति भोगनी पड़ती l
              ३- दान से आपकी कीर्ति हुई, उसका और उसके परिवार का आशीर्वाद मिला l किसी को उचित वेतन या हिस्सा देकर रखा तो आपके व्यापार क काम ठीक चला, जिससे आपको लाभ पहुँचा l अच्छे आदमियों से आपकी प्रीति और मैत्री हुई तो समय पर विपत्ति में आपकी सहायता देनेवाली होगी l
               ४- आपको तृप्ति हुई, जिससे आनन्द प्राप्त हुआ l इस प्रकार वस्तुत: आपको ही उपकार हुआ l
                'देकर भूल जाएँ और लेकर याद रखें  l ' किसी का भला कर के भूल जाएँ और बुरा करके याद रखें l किसी के द्वारा अपना बुरा होने पर भूल जाएँ  और भला होने पर याद रखें l '


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)     
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Sunday, 26 August 2012

धन का सदुपयोग






           भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है l आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवक मात्र  हैं l इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए l दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें l यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है l अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए, और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं l
            आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए l न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं l धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता l  नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं l धन या पद का न तो कभी घमंड करना चाहिए और न धन के या पद के बल पर किसी को अपने से नीचा मान कर उसका तिरस्कार करना चाहिए l बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसी को कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े - सिर न झुकाना पड़े l आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है l वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है l


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Saturday, 25 August 2012

धन का सदुपयोग





           भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है l आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवक मात्र  हैं l इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए l दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें l यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है l अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए, और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं l
            आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए l न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं l धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता l  नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं l धन या पद का न तो कभी घमंड करना चाहिए और न धन के या पद के बल पर किसी को अपने से नीचा मान कर उसका तिरस्कार करना चाहिए l बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसी को कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े - सिर न झुकाना पड़े l आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है l वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है l


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Friday, 24 August 2012

भगवान् की चाह





            न तो घर छोड़ने से ही भगवत्प्राप्ति होती है और न घर में फँसे रहने से ही l भगवत्प्राप्ति होती है - भगवान् को पाने की तीव्र आकांक्षा  से प्रेरित होकर की जाने वाली अखंड साधना से l इस साधना से पहले आवश्यकता है भगवान् की चाह होनी l   चाह इतनी बढे कि उसके सामने अन्य सारी इच्छाएं दब जाएँ - मर जाएँ l किसी भी वस्तु में मन न लगे - दिल न अटके l फिर चाहे घर में रहें या घर से बाहर l कहीं रहा जाये, जब तक शरीर है तब तक शरीर से कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा l ऐसी निपुणता के साथ  कि किसी को जरा भी असंतोष न हो l पिता समझे ऐसा सुपुत्र किसी के नहीं है, माता समझे मेरा बेटा सब से बढ़कर सुपूत है l भाई समझे कि यह तो राम या भरत-सा भाई है; स्त्री समझे कि ऐसा स्वामी मुझे बड़े पुण्य से मिला है l स्वामी समझे - ऐसी पतिव्रता साध्वी स्त्री तो बस एक यही है l इसी प्रकार हमारे व्यवहार से - जिनसे भी हमारा काम पड़े छोटे-बड़े -सभी संतुष्ट और परितृप्त हों, सभी हमसे अमृत लाभ करें l परन्तु हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य पर लगी रहे l हमारा सोना-जागना, खाना-पीना, कहना-सुनना, लेना-देना, रोना-हँसना सभी हो केवल भगवान् के लिए - भगवान् की प्राप्ति के लिए l अपने लिए कुछ भी न हो l अपने को भी श्रीभगवान के ही अर्पण कर दिया जाये l फिर किसी भी स्थिति में न दुःख होगा, न चिन्ता व्यापेगी और न संसार के किसी काम में अड़चन आयेगी l मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, हँसना-रोना सभी भगवान् की लीला के मधुर अंग हो जायेंगे l इस प्रकार का अभ्यास करके देखिये l कुछ ही दिनों में अपूर्व शान्ति और आनन्द का अनुभव होगा l पाप-ताप तो अपने-आप ही दूर हो जायेंगे l

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Thursday, 23 August 2012

धनवानों का कर्त्तव्य

             भारत में अभी ऐसे बहुत-से पुरुष हैं जो बहुत सुख से खाते-पीते हैं और चाहें तो बहुतों के पेट की ज्वाला मिटा सकते हैं l खाने के पदार्थ भी - अन्न, चारा-घास इत्यादि भी कीमत देने पर काफी परिमाण में मिल सकते हैं l ऐसा होते हुए भी आज लाखों प्राणी अन्न और चारे-दाने बिना मरे जाते हैं, यह बहुत ही खेद की बात है l मैं आपको सच लिख रहा हूँ, जब खाने बैठता हूँ और अपने सामने थाली में घी से चुपड़ी हुई रोटियां तथा कई  तरह की तरकारियाँ देखता हूँ और सोने  के समय जब रुई की गद्दी पर सिर के नीचे तकिया लगाकर रजाई ओढ़कर सोना चाहता हूँ तब प्राय: उन कन्कालमात्र  नंगे, भूखे, अपने ही जैसे नर-नारियों के चित्र आँखों के सामने आ जाते हैं l भगवान् के राज्य में सब न्याय ही होता है परन्तु अपनी ये सुख की सामग्रियां तो वस्तुत: बहुत ही दुःख देने वाली वस्तु मालूम होती है l यह है तो बड़े दुःख की बात कि एक देश के - एक ही घर में दस भाई-बहनों में आठ-नौ नंगे, भूखे रहें और दो-एक पेट भर खाकर सुख कि नींद सोयें l मैं  उन सभी भाइयों से, जो कुछ संपन्न हैं, कम-से-कम जो अपने तथा अपने बाल-बच्चों का अच्छी तरह भरण-पोषण करने के बाद विलासिता में मौज-शौक में धन नष्ट करते हैं या बहुत कुछ बचाकर रख लेते हैं, कहना चाहता हूँ कि धन का व्यर्थ व्यय करना छोड़कर अथवा आगे के लिए जोड़ रखने कि धुन लगाकर गरीब, दुखी मनुष्यों और पशुओं के प्राण बचाने में उसे लगाइए l तभी आपके धन के सार्थकता है l  नहीं तो धन से आपका सम्बन्ध तो छूट ही जायेगा; उसे छोड़कर आप चले जायेंगे या आपको छोड़कर वह दूसरों के हाथ में चला जायेगा l पछ्तावामात्र आपके पास रह जायेगा l
              भगवान्  ने कहा है - 'यज्ञ करने के बाद शेष बचे हुए अन्न को खोनेवाले उत्तम पुरुष सब पापों से छूटते हैं ; परन्तु  जो पापी मनुष्य केवल अपने ही भरण-पोषण के लिए पकाते (धन  पैदा करते ) हैं वे तो पाप ही खाते हैं l '

लोक-परलोक-सुधार-१ (३५३)

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Wednesday, 22 August 2012

विषयों में सुख नहीं है






          मौत के मुँह में पड़े हुए मनुष्य का भोगों की तृष्णा रखना वैसा ही है जैसा कालसर्प के मुँह में पड़े हुए मेंढक का मच्छरों की ओर झपटना l पता नहीं कब मौत आ जाये l इसलिए भोगों से मन हटाकर दिन-रात भगवान् में मन लगाना चाहिए l जब तक स्वास्थ्य अच्छा है तभी तक भजन में आसानी से मन लगाया जा सकता है l अस्वस्थ होने पर बिना अभ्यास के भगवान् का स्मरण होना भी कठिन हो जायेगा l इसी से भक्त प्रार्थना करता है  -
           'श्रीकृष्ण ! मेरा यह मनरूपी राजहंस तुम्हारे चरणकमल रुपी पिंजरे में आज ही प्रवेश कर जाये l प्राण निकलते समय जब कफ-वात-पित्त से कंठ रुक जायेगा, इन्द्रियां अशक्त हो जाएँगी तब स्मरण तो दूर रहा, तुम्हारा नामोच्चारण भी नहीं हो सकेगा  l ' अतएव अभी से मन को भगवान् में लगाना और जीभ से उनके नाम का जप आरम्भ कर देना चाहिए l
           धन-ऐश्वर्य, कुटुम्ब-परिवार सभी क्षणभंगुर हैं l इनकी प्राप्ति में सुख तो है ही नहीं वरं दुःख ही बढ़ता है l संसार में ऐसा कोई भी विचारशील पुरुष नहीं है जो विवेक-बुद्धि से यह कह सकता हो कि इनमें से किसी से भी उसे कोई सुख मिला है l यहाँ कि प्रत्येक स्थिति में विरोधी स्थिति वर्तमान है  - सुख चाहते हैं मिलता है दुःख, स्वास्थ्य चाहते हैं तो आती है बीमारी, प्रकाश के पीछे अंधकार लगा है, जवानी के साथ बुढ़ापा सटा है, जीवन का विरोधी मरण सिर पर सवार  है  l यह तो मूर्खता है, जो हम विषयों में सुख मानकर दुर्लभ मानव जीवन को खो रहे हैं l
            परन्तु विचार कर देखिये, मनुष्य सचमुच इसी तरह अपने अमृत-से मानव-जीवन को विषय-विष बटोरने और चाटने में ही खो रहा है l इसी से उसे एक के बाद दूसरे - लगातार दुखों कि परम्परा में ही रहना पड़ता है l याद रखना चाहिए, यहाँ की कोई भी चीज़, कोई भी सम्बन्धी उसको दुखों से नहीं छुड़ा सकता l  भगवान् का भजन ही एक ऐसी चीज़ है, जो मनुष्य को दुःख के सारे बन्धनों से छुड़ा सकता है l अतएव मन लगाकर खूब भजन कीजिये  l  बस रटते रहिये -
            गोविन्द गोविन्द  हरे  मुरारे  गोविन्द गोविन्द  रथांगपाणे
            गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण गोविन्द दामोदर माधवेति ll    

पुस्तक - लोक-परलोक-सुधार (३५३), गीता प्रेस , गोरखपुर
                
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Tuesday, 21 August 2012

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश






         

  भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु उन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, ऐसा सोचकर वे अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे - 'पिताजी ! माताजी ! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिए सर्वदा उत्कंठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगंड और किशोर अवस्था का सुख हम से नहीं पा सके l दुर्देववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य  ही नहीं मिला l पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं l  तब कहीं जाकर यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कि प्राप्ति का साधन बनता है l यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता कि सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता l  जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप कि शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं l जो पुरुष समर्थ हो कर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, संतान, गुरु, ब्राह्मण, और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता - वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान ही है l पिताजी ! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गए, क्योंकि कंस के भय से सदा उद्विगन्चित्त रहने के कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे l मेरी माँ और मेरे पिताजी ! आप दोनों हमें क्षमा करें l हाय ! दुष्ट कंस ने आपको इतने-इतने कष्ट दिए , परन्तु हम परतंत्र रहने के कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके' l
               अपनी लीला से मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्री हरि कि इस वाणी से मोहित हो देवकी-वासुदेव ने उन्हें गोद में उठा लिया और ह्रदय से चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया l वे स्नेह-पाश से बंधकर पूर्णत: मोहित हो गए और आंसुओं की धारा से उनके अभिषेक करने लगे l यहाँ तक कि आंसुओं के कारण गला रुंध जाने से वे कुछ बोल भी न सके l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

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Monday, 20 August 2012

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं -



 १९ भगवन् ! मुझे निरन्तर तुम्हारी संनिधि का अनुभव होता रहे,तुम्हारी संरक्षता की अनुभूति होती रहे । तुम्हारे दिव्य प्रेम, समता, अभय , तेज, बल, शक्ति, साहस , और धैर्य आदि दिव्य गुणों  का प्रकाश तुम्हारी कृपा से निरन्तर बना रहे । 

२० भगवन् ! मन में किसी के लिए भी न कभी अमंगल –कामना जगे, न मेरे द्वारा किसी का अमंगल हो, न किसी के अमंगल मेरे मन में कभी प्रसन्नता हो | दूसरों के दु:खों को कभी मैं अपने लिए सुख न मान सकूँ और मेरे सुख दूसरों के दु:खों का स्थान लेते रहें ।

२१ भगवन् ! जीवन में मुझे अपने पूर्व-कर्मवश जो कुछ भी दुःख-संकट-विपत्ति प्राप्त हों, उनमें सदा-सर्वदा मैं तुम्हारा मंगलमय स्पर्श प्राप्त करके सुखी रहूँ और प्रत्येक परिस्थिति में मन तुम्हारा कृतज्ञ बना रहे ।

२२ भगवन् ! मैं जगत को सदा-सर्वदा तुम्हारे सौन्दर्य –माधुर्य से भरा देखूं । सूर्य की प्रखर किरणों में तुम्हारा प्रकाश , चन्द्रमा की शीतल ज्योत्स्ना में तुम्हारी सुधामयी आभा, प्रस्फुटित पुष्पों की मधुर सुगंध में तुम्हारा अंग-सौरभ और शिशु मृदु मधुर हँसी में तुम्हारी मुसकराहट देखकर प्रसन्न-प्रमुदित होता रहूँ ।

२३ भगवन् ! इसी प्रकार रोग-दारुण पीड़ा में, वियोग की विषम वेदना में , विपत्ति की काली घटा में , संहार की भयंकर घोर आंधी में और काल के कराल मुख में तुम्हारी लीलामधुरी के दर्शन कर नित्य निर्भय और प्रसन्न रहूँ । एवं तुम्हारी लीलाचातुरी देख देखकर मुग्ध होता रहूँ ।

२४ भगवन् ! किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा मुझ पर संकट-दुःख–विपत्ति आती दिखाई दे तो मैं उसे निश्चित रूप से यही समझूँ और यही अनुभव करूँ कि निश्चय ही यह मेरे अपने ही किये हुए पूर्व कृत कर्मों का फल है, जिसका तुम्हारी मंगलमयी कृपा शक्ति के द्वारा मुझे शुद्ध बना देने के लिए निर्माण हुआ है । वह दूसरा भाई तो निमित्तमात्र है । भगवन् ! तुम उसे क्षमा करो और वह इस ‘निमित्त’ बनने के कारण परिणाम में दुःख को न प्राप्त हो ।

प्रार्थना-पीयूष कोड – 368 श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर
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Sunday, 19 August 2012

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

 १३ भगवन् ! स्वास्थ्य , धन-सम्पति , पद-अधिकार, यश . कीर्ति , परिवार , संतान , लोक परलोक, आदि आदि किसी भी वस्तु या स्थिति में मेरा ममत्व कभी न जागे । कोई भी वास्तु मिली हुयी हो तो उसे तुम्हारी समझकर उसकी एक ईमानदार और विश्वासी सेवक या स्वामी के द्वारा नियुक्त व्यवस्थापक की भांति देख-रेख करूँ और तुम्हारे इच्छानुसार ही तुम्हारी सेवा में ही उसका उपयोग करूँ , अपनी समझकर दान-भोग नहीं और इन सबके संग्रह-संचय में मोहवस कभी भी तुम्हारी और तुम्हारे तत्वज्ञ ऋषि-मुनियों की शास्त्र-वाणी के विरुद्ध कोई विचार या क्रिया कभी न हो ।

१४ भगवन् ! किसी भी वास्तु का उपार्जन और संरक्षण केवल तुम्हारी सेवा के लिए ही जो , भोग के लिए कदापि नहीं । तुम्हारे प्रसाद रूप में मैं अपने लिए उतनी ही वस्तु का उपयोग करूँ, जो जीवन निर्वाह के लिए न्यून-से-न्यून रूप से आवश्यक हो । 

१५ भगवन् ! किसी भी वस्तु पर मैं कभी अपना अधिकार न मानूँ । तुम्हारी दी हुयी वस्तु को तुम्हारी आज्ञानुसार तुम्हारी सेवा में लगाने के लिए ही उसकी देख-भाल करता रहूँ और निरभिमान रहकर तुम्हारी सेवा में यथायोग्य लगता रहूँ ।

१६ भगवन् ! तुम्हारे प्रेमी भक्तों में. तुम्हारे तत्त्व को जानने वाले ज्ञानियों में , तुम्हारी प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से कर्म करने वालों में, तुम्हारी प्रसन्नता के लिए योग-साधना करने वालों में और प्रेम पूर्वक तुम्हारा नाम गुणगान करनेवाले भावुकों में मेरी श्रद्धा-भक्ति बनी रहे और यथासाध्य उनकी विनम्र सेवा करने का अवसर मिले तो मैं अपने को धन्य समझूँ । उनके चरणों में सदा मेरा विनीत भाव और पूज्यभाव बना रहे ।

१७ भगवन् ! जगत के सभी स्वरूपों में और सभी परिवर्तनों में निरन्तर तुम्हारी लीला के दर्शन हों । अनुकूलता-प्रतिकूलता जनित सुख-दुःख की कल्पना ही न उठे और लीला-दर्शन-जनित आनन्द में मैं नित्य मुग्ध बना रहूँ । सारे द्वंद्वों को तुम्हारी लीला में आत्मसात कर ले । प्रसूति गृह की  मंगलमयी दीप-शिखामें और चिता की अग्नि-ज्वाला में समान भाव से तुम्हारी लीला के मंगलमय दर्शन हों ।

१८ भगवन् ! कामना, वासना , लालसा, इच्छा , स्पृहा , अपेक्षा, अभिलाषा, आदि सब केवल तुम्हारे मधुर मंजुल चरण युगलों की अनन्य प्रीतिमें ही नियुक्त रहें, किसी अन्य विषय की और कभी जायँ ही नहीं, या इनके लिए तुम्हारे मंगलमय चरण-युगलों को छोड़कर अन्य किसी वस्तु या स्थिति का अस्तित्व न रह जाय ।
 
प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से कोड- 368 श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )
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Saturday, 18 August 2012

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

७ भगवन् ! मेरे संकट दु:खसे किसी भी दु:खी संकटग्रस्त प्राणीका दुःख संकट दूर होता हो तो मुझे बार बार दुःख संकट दिए जाये और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक वरण करने की शक्ति दी जाय । किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार की सेवा करने का मुझे सौभाग्य और सुअवसर मिल जाय मैं अपने को धन्य समझूँ और तुम्हारे दिये हुए प्रत्येक साधन से तुम्हारी ही सेवा की भावनासे उनकी सेवा करूँ । पर मन में तनिक भी अभिमान न उत्पन्न हो, वरन् यह अनुभूति हो कि तुमने अपनी ही वस्तु स्वीकार करके मुझपर बड़ा अनुग्रह किया ।

८ भगवन् ! तुम्हारे विशुद्ध प्रेम के अतिरिक्त मेरे मन में अन्य किसी वास्तु अथवा स्थिति को प्राप्त करनेकी कभी कामना ही न उत्पन्न हो और मैं तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु अथवा प्राणी में आसक्त न होऊं ।

भगवन् ! मेरे जीवन में केवल तुमको प्रसन्न करनेवाले भाव,विचार और कार्यों का ही समावेश हो | क्षणभर के लिए भी बुद्धि,चित, मन और इन्द्रियों द्वारा अन्य किसी भाव, विचार और क्रिया की सम्भावना ही न रहे ।

१० भगवन् ! मेरा मन नित्य-निरंतर तुम्हारे मधुर मनोहर स्वरुप,लीला, गुण और नाम के ध्यान-चिंतन में ही लगा रहे ।वाणी निरन्तर तुम्हारे नाम-गुणों का गान करती रहे और शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया द्वारा केवल तुम्हारी ही सेवा हो । 

११ भगवन् ! मैं केवल यन्त्र की भांति काम करता रहूँ ।कहीं भी,किसी भी अवस्था में, किसी भी प्रकार की अहंता, ममता और आसक्ति , न उत्पन्न हो जाय । 

१२ भगवन् ! मेरे जीवन में सारी आभ्यन्तरिक और बाह्य चेष्ठाएँ केवल तुम्हारी संतुष्टि के लिए ही तथा तुम्हारी इच्छा के अनुकूल ही हों ।
प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से कोड- 368 श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )

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Friday, 17 August 2012

पुरुषोत्तम मास के नियम

पुरुषोत्तम मास के नियम -
पुरुषोत्तम मास का दूसरा नाम मल मास है | ‘मलकहते हैं पाप को और पुरुषोत्तमनाम है भगवान् का | इसलिए हमें इसका अर्थ यों लगाना चाहिए की पापों को छोडकर भगवान पुरुषोत्तम में प्रेम करें और वो ऐसा करें की इस एक महीने का प्रेम अनंत कालके लिए चिरस्थायी हो जाए | भगवान में प्रेम करना ही तो जीवन का परम-पुरुषार्थ है, इसी केलिए तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन और सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है | हमारे ऋषियों ने पर्वों और शुभ दिनों की रचना कर उस विवेक को निरंतर जागृत रखने के लिए सुलभ साधन बना दिया है, इसपर भी यदि हम ना चेतें तो हमारी बड़ी भूल है |
इस पुरुषोत्तम मास में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करनेके लिए यदि सबही नर-नारी निम्नलिखित नियमों को महीनेभर तक सावधानी के साथ पालें तो उन्हें बहुत कुछ लाभ होने की संभावना है |
१. प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठें |
२. गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक १५ वे अध्याय का प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ करें | श्रीमद भागवत का पाठ करें, सुनें | संस्कृत के श्लोक ना पढ़ सकें तो अर्थों का ही पाठ करलें |
३. स्त्री-पुरुष दोनों एक मतसे महीनेभर तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें | जमीनपर सोवें |
४. प्रतिदिन घंटे भर किसी भी नियत समयपर मौन रहकर अपनी-अपनी रूचि और विश्वास के अनुसार भगवान् का भजन करें |
५. जान-बूझकर झूठ ना बोलें | किसीकी निंदा ना करें |
६. भोजन और वस्त्रों में जहां तक बन सके, पूरी शुद्धि और सादगी बरतें | पत्तेपर भोजन करें, भोजन में हविष्यान्न ही खाएं |
७. माता,पिता,गुरु,स्वामी आदि बड़ों के चरणोंमें प्रतिदिन प्रणाम करें | भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की पूजा करें|
पुरुषोत्तम मास में दान देनेका और त्याग करनेका बड़ा महत्त्व माना गया है, इसलिए जहां तक बन सके, जिसके पास जो चीज़ हो वाही योग्य पात्र के प्रति दान देकर परमात्मा की सेवा करनी चाहिए | त्याग करनेमें तो सबसे पहले पापों का त्याग करना ही जरूरी है | जो भाई या बहन हिम्मत करके कर सकें, वे जीवन भर के लिए झूठ, क्रोध और दूसरों की जान-बूझकर बुराई करना छोड़ दें |
जीवन भर का व्रत लेनेकी हिम्मत ना हो सकें तो जितने अधिक दिनों का ले सकें, उतना ही लें | परन्तु जो भाई-बहन दिलकी कमजोरी, इन्द्रियों की आसक्ति, बुरी संगती अथवा बिगड़ी हुयी आदत के कारण मांस खाते हैं और मदिरा-पान करते हैं तथा पर-स्त्री और पर-पुरुष से अनुचित संबंध रखते हैं, उनसे तो हम हाथ-जोड़कर प्रार्थना करते हैं की वे इन बुराईयोंको सदा के लिए छोडकर दयामय प्रभुसे अब तक की भूल के लिए क्षमा मांगे |
जो भाई-बहन ऊपर लिखे सातों नियम जीवन-भर पाल सकें तो पालने की चेष्ठा करें, कम-से-कम चातुर्मास नहीं तो पुरुषोत्तम महीने भर तक तो जरूर पालें और भविष्य में सदा इसे पालने के लिए अपनेको तैयार करें | अपनी कमजोरी देखकर निराश ना हों, दया के सागर और परम करुनामय भगवान का आश्रय लेनेसे असंभव भी संभव हो जाता है* |
*जितने नियम कम-से-कम पालन कर सकें उतने अवश्य ही पालें |
*********************************************************************************** पूर्ण समर्पण , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ३५२ **************************************************************************

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Thursday, 16 August 2012

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –



प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं
भगवन ! तुम्हारा मंगलमय संकल्प पूर्ण हो |

२ भगवन! तुम्हारी मंगलमयी चाह पूर्ण हो| मेरे मनमे कोई चाह उत्पन्न ही न हो, हो तो तुम्हारी चाह के अनुकूल हो| तुम्हारी चाह के अतिरिक्त और कोई चाह कभी उत्पन्न ही न हो | कदाचित तुम्हारी चाह के प्रतिकूल कोई चाह उत्पन्न हो तो उसे कभी पूरा न करना |

भगवन् ! समस्त चर-अचर प्राणियों में मैं सदा तुम्हारा दर्शन कर सकूँ और तुम्हारी दी हुयी प्रत्येक सामग्री से और शक्ति से यथासाध्य सबकी सेवा कर सकूँ |

 ४ भगवन् !अखिल विश्व ब्रह्माण्ड के मंगल में ही मुझे अपना मंगल दिखाई दे | मेरे मन में कोई भी इसी मंगल कामना न हो , जो किसी भी प्राणी के मंगल से विरुद्ध हो

भगवन् ! मेरा स्वअसीम रूप से अखिल विश्व में विस्तृत हो जाय | अखिल विश्व का 'स्वार्थ' ही मेरा 'स्वार्थ' हो | मेरा कोई भी स्वार्थ ऐसा न हो, जो अखिल विश्व के किसी भी प्राणी के स्वार्थका बाधक हो और साधक न हो

भगवन् ! मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास तुम्हारी मंगलमयी स्मृति में सना रहे  और मेरी प्रत्येक चेष्ठा केवल तुम्हारी सेवाके लिए हो |

प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से  कोड- 368 श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )

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Ram