Monday 5 November 2012

प्रेम में आत्मसुख-कामना को स्थान नहीं


          'प्रेम' की परिभाषा शब्दों में नहीं होती | अनुभूति के लिए शब्द हैं ही नहीं l  परन्तु जो प्रेम चाहते हैं, उनको कम-से-कम निजसुख-कामना का त्याग सर्वथा और सर्वदा कर देना ही होगा l  जैसे प्रकाश के साथ अन्धकार नहीं रह सकता, इसी प्रकार 'प्रेम' के साथ 'काम' नहीं रह सकता |
'तुलसी कबहूँ कि रहि सके, रबि रजनी इक ठाम l '
           प्रेम चाहनेवालों को पहले अपना मन देख लेना चाहिए कि उसमें निज-सुख की, अपनी इच्छा-पूर्ति की, मान-सत्कार की चाह है या नहीं l  इन्द्रियों का सुख चाहिए  तो इन्द्रिय-विषयों का सेवन कीजिये, पद-अधिकार चाहिए तो पद-अधिकार-प्राप्ति  के साधन में लगिए और मान-सत्कार चाहिए तो लोगों को अपना कृतज्ञ बनाइये, धन-मान-सेवा आदि के द्वारा l  प्रेम के राज्य में मान की इच्छा, धन की इच्छा, पद-अधिकार की इच्छा, आत्मेंद्रिय-सुख की इच्छा नहीं रह सकती l  वहां तो प्रेमास्पद के या प्रेमदेवता के प्रति सर्वसमर्पण हो जाता है, प्रेमास्पद का प्रत्येक भाव, उस की प्रत्येक चेष्टा अनुकूल बन जाती है l  उसका दुःख देना, डाँटना, खीझना, गरजना या पत्थर बरसाना, सारे स्वार्थों  का नाश कर देना, अपमान-तिरस्कार करना, निन्दा करना और अपने से दूर हटा देना - सभी कुछ सुन्दर और सुखदायक अनुभूत होता है l
           'मेघ गरज-गरजकर बड़ी रुखी और कर्कश ध्वनि करता हुए कठोर पत्थर तो बरसाता ही है, साथ ही बड़ी डांट-डपट के साथ  गरजकर-तड़पकर वज्र भी गिराता है l  फिर भी, क्या चातक अपने प्रियतम मेघ के सिवा कभी किसी दूसरे की ओर ताकता है ? इतना ही नहीं - मेघ बिजली गिराकर ओले बरसाकर, बिजली चमकाकर, गरजकर वर्षा की झड़ी लगाकर और आंधी के प्रबल झोंके देकर अपनी सच्ची खीझ प्रकट करता है l इतने प्रत्यक्ष दोषों का अनुभव करके भी चातक को अपने प्रियतम की ओर देखकर तनिक भी रोष नहीं होता l उसे अपने प्रियतम के दोष दीखते ही नहीं, वरं उसको मेघ के इन कृत्यों में अपने प्रति उसका अनुराग ही दिखाई देता है और वह उसी पर रीझ जाता है  l

सुख-शान्ति का मार्ग [३३३]                          
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Ram