Monday, 15 July 2013

अयोध्याकाण्ड - २ (अ) , -श्री रामचरितमानस , गीताप्रेस, गोरखपुर



श्री रामचरितमानस
अयोध्याकाण्ड
द्वितीय  सोपान-मंगलाचरण

चौपाई  :
*  तब  सुमंत्र  नृप  बचन  सुनाए।  करि  बिनती  रथ  रामु  चढ़ाए॥
चढ़ि  रथ  सीय  सहित  दोउ  भाई।  चले  हृदयँ  अवधहि  सिरु  नाई॥1॥
भावार्थ:-तब  (वहाँ  पहुँचकर)  सुमंत्र  ने  राजा  के  वचन  श्री  रामचन्द्रजी  को  सुनाए  और  विनती  करके  उनको  रथ  पर  चढ़ाया।  सीताजी  सहित  दोनों  भाई  रथ  पर  चढ़कर  हृदय  में  अयोध्या  को  सिर  नवाकर  चले॥1॥ 
*  चलत  रामु  लखि  अवध  अनाथा।  बिकल  लोग  सब  लागे  साथा॥
कृपासिंधु  बहुबिधि  समुझावहिं।  फिरहिं  प्रेम  बस  पुनि  फिरि  आवहिं॥2॥
भावार्थ:-श्री  रामचन्द्रजी  को  जाते  हुए  और  अयोध्या  को  अनाथ  (होते  हुए)  देखकर  सब  लोग  व्याकुल  होकर  उनके  साथ  हो  लिए।  कृपा  के  समुद्र  श्री  रामजी  उन्हें  बहुत  तरह  से  समझाते  हैं,  तो  वे  (अयोध्या  की  ओर)  लौट  जाते  हैं,  परन्तु  प्रेमवश  फिर  लौट  आते  हैं॥2॥ 
*  लागति  अवध  भयावनि  भारी।  मानहुँ  कालराति  अँधिआरी॥
घोर  जंतु  सम  पुर  नर  नारी।  डरपहिं  एकहि  एक  निहारी॥3॥
भावार्थ:-अयोध्यापुरी  बड़ी  डरावनी  लग  रही  है,  मानो  अंधकारमयी  कालरात्रि  ही  हो।  नगर  के  नर-नारी  भयानक  जन्तुओं  के  समान  एक-दूसरे  को  देखकर  डर  रहे  हैं॥3॥ 
*  घर  मसान  परिजन  जनु  भूता।  सुत  हित  मीत  मनहुँ  जमदूता॥
बागन्ह  बिटप  बेलि  कुम्हिलाहीं।  सरित  सरोवर  देखि    जाहीं॥4॥
भावार्थ:-घर  श्मशान,  कुटुम्बी  भूत-प्रेत  और  पुत्र,  हितैषी  और  मित्र  मानो  यमराज  के  दूत  हैं।  बगीचों  में  वृक्ष  और  बेलें  कुम्हला  रही  हैं।  नदी  और  तालाब  ऐसे  भयानक  लगते  हैं  कि  उनकी  ओर  देखा  भी  नहीं  जाता॥4॥
दोहा  :
*  हय  गय  कोटिन्ह  केलिमृग  पुरपसु  चातक  मोर।
पिक  रथांग  सुक  सारिका  सारस  हंस  चकोर॥83॥
भावार्थ:-करोड़ों  घोड़े,  हाथी,  खेलने  के  लिए  पाले  हुए  हिरन,  नगर  के  (गाय,  बैल,  बकरी  आदि)  पशु,  पपीहे,  मोर,  कोयल,  चकवे,  तोते,  मैना,  सारस,  हंस  और  चकोर-॥83॥ 
चौपाई  :
*  राम  बियोग  बिकल  सब  ठाढ़े।  जहँ  तहँ  मनहुँ  चित्र  लिखि  काढ़े॥
नगरु  सफल  बनु  गहबर  भारी।  खग  मृग  बिपुल  सकल  नर  नारी॥1॥
भावार्थ:-श्री  रामजी  के  वियोग  में  सभी  व्याकुल  हुए  जहाँ-तहाँ  (ऐसे  चुपचाप  स्थिर  होकर)  खड़े  हैं,  मानो  तसवीरों  में  लिखकर  बनाए  हुए  हैं।  नगर  मानो  फलों  से  परिपूर्ण  बड़ा  भारी  सघन  वन  था।  नगर  निवासी  सब  स्त्री-पुरुष  बहुत  से  पशु-पक्षी  थे।  (अर्थात  अवधपुरी  अर्थ,  धर्म,  काम,  मोक्ष  चारों  फलों  को  देने  वाली  नगरी  थी  और  सब  स्त्री-पुरुष  सुख  से  उन  फलों  को  प्राप्त  करते  थे।)॥1॥ 
*  बिधि  कैकई  किरातिनि  कीन्ही।  जेहिं  दव  दुसह  दसहुँ  दिसि  दीन्ही॥
सहि    सके  रघुबर  बिरहागी।  चले  लोग  सब  ब्याकुल  भागी॥2॥
भावार्थ:-विधाता  ने  कैकेयी  को  भीलनी  बनाया,  जिसने  दसों  दिशाओं  में  दुःसह  दावाग्नि  (भयानक  आग)  लगा  दी।  श्री  रामचन्द्रजी  के  विरह  की  इस  अग्नि  को  लोग  सह    सके।  सब  लोग  व्याकुल  होकर  भाग  चले॥2॥
*  सबहिं  बिचारु  कीन्ह  मन  माहीं।  राम  लखन  सिय  बिनु  सुखु  नाहीं॥
जहाँ  रामु  तहँ  सबुइ  समाजू।  बिनु  रघुबीर  अवध  नहिं  काजू॥3॥
भावार्थ:-सबने  मन  में  विचार  कर  लिया  कि  श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  के  बिना  सुख  नहीं  है।  जहाँ  श्री  रामजी  रहेंगे,  वहीं  सारा  समाज  रहेगा।  श्री  रामचन्द्रजी  के  बिना  अयोध्या  में  हम  लोगों  का  कुछ  काम  नहीं  है॥3॥ 
*  चले  साथ  अस  मंत्रु  दृढ़ाई।  सुर  दुर्लभ  सुख  सदन  बिहाई॥
राम  चरन  पंकज  प्रिय  जिन्हही।  बिषय  भोग  बस  करहिं  कि  तिन्हही॥4॥
भावार्थ:-ऐसा  विचार  दृढ़  करके  देवताओं  को  भी  दुर्लभ  सुखों  से  पूर्ण  घरों  को  छोड़कर  सब  श्री  रामचन्द्रजी  के  साथ  चले  पड़े।  जिनको  श्री  रामजी  के  चरणकमल  प्यारे  हैं,  उन्हें  क्या  कभी  विषय  भोग  वश  में  कर  सकते  हैं॥4॥ 
दोहा  :
*  बालक  बृद्ध  बिहाइ  गृहँ  लगे  लोग  सब  साथ।
तमसा  तीर  निवासु  किय  प्रथम  दिवस  रघुनाथ॥84॥
भावार्थ:-बच्चों  और  बूढ़ों  को  घरों  में  छोड़कर  सब  लोग  साथ  हो  लिए।  पहले  दिन  श्री  रघुनाथजी  ने  तमसा  नदी  के  तीर  पर  निवास  किया॥84॥ 
चौपाई  :
*  रघुपति  प्रजा  प्रेमबस  देखी।  सदय  हृदयँ  दुखु  भयउ  बिसेषी॥
करुनामय  रघुनाथ  गोसाँई।  बेगि  पाइअहिं  पीर  पराई॥1॥
भावार्थ:-प्रजा  को  प्रेमवश  देखकर  श्री  रघुनाथजी  के  दयालु  हृदय  में  बड़ा  दुःख  हुआ।  प्रभु  श्री  रघुनाथजी  करुणामय  हैं।  पराई  पीड़ा  को  वे  तुरंत  पा  जाते  हैं  (अर्थात  दूसरे  का  दुःख  देखकर  वे  तुरंत  स्वयं  दुःखित  हो  जाते  हैं)॥1॥ 
*  कहि  सप्रेम  मृदु  बचन  सुहाए।  बहुबिधि  राम  लोग  समुझाए॥
किए  धरम  उपदेस  घनेरे।  लोग  प्रेम  बस  फिरहिं    फेरे॥2॥
भावार्थ:-प्रेमयुक्त  कोमल  और  सुंदर  वचन  कहकर  श्री  रामजी  ने  बहुत  प्रकार  से  लोगों  को  समझाया  और  बहुतेरे  धर्म  संबंधी  उपदेश  दिए,  परन्तु  प्रेमवश  लोग  लौटाए  लौटते  नहीं॥2॥ 
*  सीलु  सनेहु  छाड़ि  नहिं  जाई।  असमंजस  बस  भे  रघुराई॥
लोग  सोग  श्रम  बस  गए  सोई।  कछुक  देवमायाँ  मति  मोई॥3॥
भावार्थ:-शील  और  स्नेह  छोड़ा  नहीं  जाता।  श्री  रघुनाथजी  असमंजस  के  अधीन  हो  गए  (दुविधा  में  पड़  गए)।  शोक  और  परिश्रम  (थकावट)  के  मारे  लोग  सो  गए  और  कुछ  देवताओं  की  माया  से  भी  उनकी  बुद्धि  मोहित  हो  गई॥3॥ 
*  जबहिं  जाम  जुग  जामिनि  बीती।  राम  सचिव  सन  कहेउ  सप्रीती॥
खोज  मारि  रथु  हाँकहु  ताता।  आन  उपायँ  बनिहि  नहिं  बाता॥4॥
भावार्थ:-जब  दो  पहर  बीत  गई,  तब  श्री  रामचन्द्रजी  ने  प्रेमपूर्वक  मंत्री  सुमंत्र  से  कहा-  हे  तात!  रथ  के  खोज  मारकर  (अर्थात  पहियों  के  चिह्नों  से  दिशा  का  पता    चले  इस  प्रकार)  रथ  को  हाँकिए।  और  किसी  उपाय  से  बात  नहीं  बनेगी॥4॥ 
दोहा  :
*  राम  लखन  सिय  जान  चढ़ि  संभु  चरन  सिरु  नाइ।
सचिवँ  चलायउ  तुरत  रथु  इत  उत  खोज  दुराइ॥85॥
भावार्थ:-शंकरजी  के  चरणों  में  सिर  नवाकर  श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  रथ  पर  सवार  हुए।  मंत्री  ने  तुरंत  ही  रथ  को  इधर-उधर  खोज  छिपाकर  चला  दिया॥85॥
चौपाई  : 
*  जागे  सकल  लोग  भएँ  भोरू।  गे  रघुनाथ  भयउ  अति  सोरू॥
रथ  कर  खोज  कतहुँ  नहिं  पावहिं।  राम  राम  कहि  चहुँ  दिसि  धावहिं॥1॥
भावार्थ:-सबेरा  होते  ही  सब  लोग  जागे,  तो  बड़ा  शोर  मचा  कि  रघुनाथजी  चले  गए।  कहीं  रथ  का  खोज  नहीं  पाते,  सब  'हा  राम!  हा  राम!'  पुकारते  हुए  चारों  ओर  दौड़  रहे  हैं॥1॥ 
*  मनहुँ  बारिनिधि  बूड़  जहाजू।  भयउ  बिकल  बड़  बनिक  समाजू॥
एकहि  एक  देहिं  उपदेसू।  तजे  राम  हम  जानि  कलेसू॥2॥
भावार्थ:-मानो  समुद्र  में  जहाज  डूब  गया  हो,  जिससे  व्यापारियों  का  समुदाय  बहुत  ही  व्याकुल  हो  उठा  हो।  वे  एक-दूसरे  को  उपदेश  देते  हैं  कि  श्री  रामचन्द्रजी  ने,  हम  लोगों  को  क्लेश  होगा,  यह  जानकर  छोड़  दिया  है॥2॥ 
*  निंदहिं  आपु  सराहहिं  मीना।  धिग  जीवनु  रघुबीर  बिहीना॥
जौं  पै  प्रिय  बियोगु  बिधि  कीन्हा।  तौ  कस  मरनु    मागें  दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-वे  लोग  अपनी  निंदा  करते  हैं  और  मछलियों  की  सराहना  करते  हैं।  (कहते  हैं-)  श्री  रामचन्द्रजी  के  बिना  हमारे  जीने  को  धिक्कार  है।  विधाता  ने  यदि  प्यारे  का  वियोग  ही  रचा,  तो  फिर  उसने  माँगने  पर  मृत्यु  क्यों  नहीं  दी!॥3॥ 
*  एहि  बिधि  करत  प्रलाप  कलापा।  आए  अवध  भरे  परितापा॥
बिषम  बियोगु    जाइ  बखाना।  अवधि  आस  सब  राखहिं  प्राना॥4॥
भावार्थ:-इस  प्रकार  बहुत  से  प्रलाप  करते  हुए  वे  संताप  से  भरे  हुए  अयोध्याजी  में  आए।  उन  लोगों  के  विषम  वियोग  की  दशा  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता।  (चौदह  साल  की)  अवधि  की  आशा  से  ही  वे  प्राणों  को  रख  रहे  हैं॥4॥ 
दोहा  :
*  राम  दरस  हित  नेम  ब्रत  लगे  करन  नर  नारि।
मनहुँ  कोक  कोकी  कमल  दीन  बिहीन  तमारि॥86॥
भावार्थ:-(सब)  स्त्री-पुरुष  श्री  रामचन्द्रजी  के  दर्शन  के  लिए  नियम  और  व्रत  करने  लगे  और  ऐसे  दुःखी  हो  गए  जैसे  चकवा,  चकवी  और  कमल  सूर्य  के  बिना  दीन  हो  जाते  हैं॥86॥ 
चौपाई  :
*  सीता  सचिव  सहित  दोउ  भाई।  सृंगबेरपुर  पहुँचे  जाई॥
उतरे  राम  देवसरि  देखी।  कीन्ह  दंडवत  हरषु  बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी  और  मंत्री  सहित  दोनों  भाई  श्रृंगवेरपुर  जा  पहुँचे।  वहाँ  गंगाजी  को  देखकर  श्री  रामजी  रथ  से  उतर  पड़े  और  बड़े  हर्ष  के  साथ  उन्होंने  दण्डवत  की॥1॥
*  लखन  सचिवँ  सियँ  किए  प्रनामा।  सबहि  सहित  सुखु  पायउ  रामा॥
गंग  सकल  मुद  मंगल  मूला।  सब  सुख  करनि  हरनि  सब  सूला॥2॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी,  सुमंत्र  और  सीताजी  ने  भी  प्रणाम  किया।  सबके  साथ  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सुख  पाया।  गंगाजी  समस्त  आनंद-मंगलों  की  मूल  हैं।  वे  सब  सुखों  को  करने  वाली  और  सब  पीड़ाओं  को  हरने  वाली  हैं॥2॥
*  कहि  कहि  कोटिक  कथा  प्रसंगा।  रामु  बिलोकहिं  गंग  तरंगा॥
सचिवहि  अनुजहि  प्रियहि  सुनाई।  बिबुध  नदी  महिमा  अधिकाई॥3॥
भावार्थ:-अनेक  कथा  प्रसंग  कहते  हुए  श्री  रामजी  गंगाजी  की  तरंगों  को  देख  रहे  हैं।  उन्होंने  मंत्री  को,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  को  और  प्रिया  सीताजी  को  देवनदी  गंगाजी  की  बड़ी  महिमा  सुनाई॥3॥
*  मज्जनु  कीन्ह  पंथ  श्रम  गयऊ।  सुचि  जलु  पिअत  मुदित  मन  भयऊ॥
सुमिरत  जाहि  मिटइ  श्रम  भारू।  तेहि  श्रम  यह  लौकिक  ब्यवहारू॥4॥
भावार्थ:-इसके  बाद  सबने  स्नान  किया,  जिससे  मार्ग  का  सारा  श्रम  (थकावट)  दूर  हो  गया  और  पवित्र  जल  पीते  ही  मन  प्रसन्न  हो  गया।  जिनके  स्मरण  मात्र  से  (बार-बार  जन्म  ने  और  मरने  का)  महान  श्रम  मिट  जाता  है,  उनको  'श्रम'  होना-  यह  केवल  लौकिक  व्यवहार  (नरलीला)  है॥4॥ 

श्री  राम  का  श्रृंगवेरपुर  पहुँचना,  निषाद  के  द्वारा  सेवा 
दोहा  :
*  सुद्ध  सच्चिदानंदमय  कंद  भानुकुल  केतु।
चरितकरत  नर  अनुहरत  संसृति  सागर  सेतु॥87॥
भावार्थ:-शुद्ध  (प्रकृतिजन्य  त्रिगुणों  से  रहित,  मायातीत  दिव्य  मंगलविग्रह)  सच्चिदानंद-कन्द  स्वरूप  सूर्य  कुल  के  ध्वजा  रूप  भगवान  श्री  रामचन्द्रजी  मनुष्यों  के  सदृश  ऐसे  चरित्र  करते  हैं,  जो  संसार  रूपी  समुद्र  के  पार  उतरने  के  लिए  पुल  के  समान  हैं॥87॥
चौपाई  :
*  यह  सुधि  गुहँ  निषाद  जब  पाई।  मुदित  लिए  प्रिय  बंधु  बोलाई॥
लिए  फल  मूल  भेंट  भरि  भारा।  मिलन  चलेउ  हियँ  हरषु  अपारा॥1॥
भावार्थ:-जब  निषादराज  गुह  ने  यह  खबर  पाई,  तब  आनंदित  होकर  उसने  अपने  प्रियजनों  और  भाई-बंधुओं  को  बुला  लिया  और  भेंट  देने  के  लिए  फल,  मूल  (कन्द)  लेकर  और  उन्हें  भारों  (बहँगियों)  में  भरकर  मिलने  के  लिए  चला।  उसके  हृदय  में  हर्ष  का  पार  नहीं  था॥1॥ 
*  करि  दंडवत  भेंट  धरि  आगें।  प्रभुहि  बिलोकत  अति  अनुरागें॥
सहज  सनेह  बिबस  रघुराई।  पूँछी  कुसल  निकट  बैठाई॥2॥
भावार्थ:-दण्डवत  करके  भेंट  सामने  रखकर  वह  अत्यन्त  प्रेम  से  प्रभु  को  देखने  लगा।  श्री  रघुनाथजी  ने  स्वाभाविक  स्नेह  के  वश  होकर  उसे  अपने  पास  बैठाकर  कुशल  पूछी॥2॥ 
*  नाथ  कुसल  पद  पंकज  देखें।  भयउँ  भागभाजन  जन  लेखें॥
देव  धरनि  धनु  धामु  तुम्हारा।  मैं  जनु  नीचु  सहित  परिवारा॥3॥
भावार्थ:-निषादराज  ने  उत्तर  दिया-  हे  नाथ!  आपके  चरणकमल  के  दर्शन  से  ही  कुशल  है  (आपके  चरणारविन्दों  के  दर्शन  कर)  आज  मैं  भाग्यवान  पुरुषों  की  गिनती  में    गया।  हे  देव!  यह  पृथ्वी,  धन  और  घर  सब  आपका  है।  मैं  तो  परिवार  सहित  आपका  नीच  सेवक  हूँ॥3॥ 
*  कृपा  करिअ  पुर  धारिअ  पाऊ।  थापिय  जनु  सबु  लोगु  सिहाऊ॥
कहेहु  सत्य  सबु  सखा  सुजाना।  मोहि  दीन्ह  पितु  आयसु  आना॥4॥
भावार्थ:-अब  कृपा  करके  पुर  (श्रृंगवेरपुर)  में  पधारिए  और  इस  दास  की  प्रतिष्ठा  बढ़ाइए,  जिससे  सब  लोग  मेरे  भाग्य  की  बड़ाई  करें।  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कहा-  हे  सुजान  सखा!  तुमने  जो  कुछ  कहा  सब  सत्य  है,  परन्तु  पिताजी  ने  मुझको  और  ही  आज्ञा  दी  है॥4॥ 
दोहा  :
*  बरष  चारिदस  बासु  बन  मुनि  ब्रत  बेषु  अहारु।
ग्राम  बासु  नहिं  उचित  सुनि  गुहहि  भयउ  दुखु  भारु॥88॥
भावार्थ:-(उनकी  आज्ञानुसार)  मुझे  चौदह  वर्ष  तक  मुनियों  का  व्रत  और  वेष  धारण  कर  और  मुनियों  के  योग्य  आहार  करते  हुए  वन  में  ही  बसना  है,  गाँव  के  भीतर  निवास  करना  उचित  नहीं  है।  यह  सुनकर  गुह  को  बड़ा  दुःख  हुआ॥88॥ 
चौपाई  :
*  राम  लखन  सिय  रूप  निहारी।  कहहिं  सप्रेम  ग्राम  नर  नारी॥
ते  पितु  मातु  कहहु  सखि  कैसे।  जिन्ह  पठए  बन  बालक  ऐसे॥1॥
भावार्थ:-श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  के  रूप  को  देखकर  गाँव  के  स्त्री-पुरुष  प्रेम  के  साथ  चर्चा  करते  हैं।  (कोई  कहती  है-)  हे  सखी!  कहो  तो,  वे  माता-पिता  कैसे  हैं,  जिन्होंने  ऐसे  (सुंदर  सुकुमार)  बालकों  को  वन  में  भेज  दिया  है॥1॥ 
*  एक  कहहिं  भल  भूपति  कीन्हा।  लोयन  लाहु  हमहि  बिधि  दीन्हा॥
तब  निषादपति  उर  अनुमाना।  तरु  सिंसुपा  मनोहर  जाना॥2॥
भावार्थ:-कोई  एक  कहते  हैं-  राजा  ने  अच्छा  ही  किया,  इसी  बहाने  हमें  भी  ब्रह्मा  ने  नेत्रों  का  लाभ  दिया।  तब  निषाद  राज  ने  हृदय  में  अनुमान  किया,  तो  अशोक  के  पेड़  को  (उनके  ठहरने  के  लिए)  मनोहर  समझा॥2॥
*  लै  रघुनाथहिं  ठाउँ  देखावा।  कहेउ  राम  सब  भाँति  सुहावा॥
पुरजन  करि  जोहारु  घर  आए।  रघुबर  संध्या  करन  सिधाए॥3॥
भावार्थ:-उसने  श्री  रघुनाथजी  को  ले  जाकर  वह  स्थान  दिखाया।  श्री  रामचन्द्रजी  ने  (देखकर)  कहा  कि  यह  सब  प्रकार  से  सुंदर  है।  पुरवासी  लोग  जोहार  (वंदना)  करके  अपने-अपने  घर  लौटे  और  श्री  रामचन्द्रजी  संध्या  करने  पधारे॥3॥
*  गुहँ  सँवारि  साँथरी  डसाई।  कुस  किसलयमय  मृदुल  सुहाई॥
सुचि  फल  मूल  मधुर  मृदु  जानी।  दोना  भरि  भरि  राखेसि  पानी॥4॥
भावार्थ:-गुह  ने  (इसी  बीच)  कुश  और  कोमल  पत्तों  की  कोमल  और  सुंदर  साथरी  सजाकर  बिछा  दी  और  पवित्र,  मीठे  और  कोमल  देख-देखकर  दोनों  में  भर-भरकर  फल-मूल  और  पानी  रख  दिया  (अथवा  अपने  हाथ  से  फल-मूल  दोनों  में  भर-भरकर  रख  दिए)॥4॥ 
दोहा  :
*  सिय  सुमंत्र  भ्राता  सहित  कंद  मूल  फल  खाइ।
सयन  कीन्ह  रघुबंसमनि  पाय  पलोटत  भाइ॥89॥
भावार्थ:-सीताजी,  सुमंत्रजी  और  भाई  लक्ष्मणजी  सहित  कन्द-मूल-फल  खाकर  रघुकुल  मणि  श्री  रामचन्द्रजी  लेट  गए।  भाई  लक्ष्मणजी  उनके  पैर  दबाने  लगे॥89॥ 
चौपाई  :
*  उठे  लखनु  प्रभु  सोवत  जानी।  कहि  सचिवहि  सोवन  मृदु  बानी॥
कछुक  दूरि  सजि  बान  सरासन।  जागन  लगे  बैठि  बीरासन॥1॥
भावार्थ:-फिर  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  को  सोते  जानकर  लक्ष्मणजी  उठे  और  कोमल  वाणी  से  मंत्री  सुमंत्रजी  को  सोने  के  लिए  कहकर  वहाँ  से  कुछ  दूर  पर  धनुष-बाण  से  सजकर,  वीरासन  से  बैठकर  जागने  (पहरा  देने)  लगे॥1॥
*  गुहँ  बोलाइ  पाहरू  प्रतीती।  ठावँ  ठावँ  राखे  अति  प्रीती॥
आपु  लखन  पहिं  बैठेउ  जाई।  कटि  भाथी  सर  चाप  चढ़ाई॥2॥
भावार्थ:-गुह  ने  विश्वासपात्र  पहरेदारों  को  बुलाकर  अत्यन्त  प्रेम  से  जगह-जगह  नियुक्त  कर  दिया  और  आप  कमर  में  तरकस  बाँधकर  तथा  धनुष  पर  बाण  चढ़ाकर  लक्ष्मणजी  के  पास  जा  बैठा॥2॥
*  सोवत  प्रभुहि  निहारि  निषादू।  भयउ  प्रेम  बस  हृदयँ  बिषादू॥
तनु  पुलकित  जलु  लोचन  बहई।  बचन  सप्रेम  लखन  सन  कहई॥3॥
भावार्थ:-प्रभु  को  जमीन  पर  सोते  देखकर  प्रेम  वश  निषाद  राज  के  हृदय  में  विषाद  हो  आया।  उसका  शरीर  पुलकित  हो  गया  और  नेत्रों  से  (प्रेमाश्रुओं  का)  जल  बहने  लगा।  वह  प्रेम  सहित  लक्ष्मणजी  से  वचन  कहने  लगा-॥3॥
*  भूपति  भवन  सुभायँ  सुहावा।  सुरपति  सदनु    पटतर  पावा॥
मनिमय  रचित  चारु  चौबारे।  जनु  रतिपति  निज  हाथ  सँवारे॥4॥
भावार्थ:-महाराज  दशरथजी  का  महल  तो  स्वभाव  से  ही  सुंदर  है,  इन्द्रभवन  भी  जिसकी  समानता  नहीं  पा  सकता।  उसमें  सुंदर  मणियों  के  रचे  चौबारे  (छत  के  ऊपर  बँगले)  हैं,  जिन्हें  मानो  रति  के  पति  कामदेव  ने  अपने  ही  हाथों  सजाकर  बनाया  है॥4॥ 
दोहा  :
*  सुचि  सुबिचित्र  सुभोगमय  सुमन  सुगंध  सुबास।
पलँग  मंजु  मनि  दीप  जहँ  सब  बिधि  सकल  सुपास॥90॥
भावार्थ:-  जो  पवित्र,  बड़े  ही  विलक्षण,  सुंदर  भोग  पदार्थों  से  पूर्ण  और  फूलों  की  सुगंध  से  सुवासित  हैं,  जहाँ  सुंदर  पलँग  और  मणियों  के  दीपक  हैं  तथा  सब  प्रकार  का  पूरा  आराम  है,॥90॥
चौपाई  :
*  बिबिध  बसन  उपधान  तुराईं।  छीर  फेन  मृदु  बिसद  सुहाईं॥
तहँ  सिय  रामु  सयन  निसि  करहीं।  निज  छबि  रति  मनोज  मदु  हरहीं॥1॥
भावार्थ:-जहाँ  (ओढ़ने-बिछाने  के)  अनेकों  वस्त्र,  तकिए  और  गद्दे  हैं,  जो  दूध  के  फेन  के  समान  कोमल,  निर्मल  (उज्ज्वल)  और  सुंदर  हैं,  वहाँ  (उन  चौबारों  में)  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  रात  को  सोया  करते  थे  और  अपनी  शोभा  से  रति  और  कामदेव  के  गर्व  को  हरण  करते  थे॥1॥ 
*  ते  सिय  रामु  साथरीं  सोए।  श्रमित  बसन  बिनु  जाहिं    जोए॥
मातु  पिता  परिजन  पुरबासी।  सखा  सुसील  दास  अरु  दासी॥2॥
भावार्थ:-वही  श्री  सीता  और  श्री  रामजी  आज  घास-फूस  की  साथरी  पर  थके  हुए  बिना  वस्त्र  के  ही  सोए  हैं।  ऐसी  दशा  में  वे  देखे  नहीं  जाते।  माता,  पिता,  कुटुम्बी,  पुरवासी  (प्रजा),  मित्र,  अच्छे  शील-स्वभाव  के  दास  और  दासियाँ-॥2॥
*  जोगवहिं  जिन्हहि  प्रान  की  नाईं।  महि  सोवत  तेइ  राम  गोसाईं॥
पिता  जनक  जग  बिदित  प्रभाऊ।  ससुर  सुरेस  सखा  रघुराऊ॥3॥
भावार्थ:-सब  जिनकी  अपने  प्राणों  की  तरह  सार-संभार  करते  थे,  वही  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  आज  पृथ्वी  पर  सो  रहे  हैं।  जिनके  पिता  जनकजी  हैं,  जिनका  प्रभाव  जगत  में  प्रसिद्ध  है,  जिनके  ससुर  इन्द्र  के  मित्र  रघुराज  दशरथजी  हैं,॥3॥ 
*  रामचंदु  पति  सो  बैदेही।  सोवत  महि  बिधि  बाम    केही॥
सिय  रघुबीर  कि  कानन  जोगू।  करम  प्रधान  सत्य  कह  लोगू॥4॥
भावार्थ:-और  पति  श्री  रामचन्द्रजी  हैं,  वही  जानकीजी  आज  जमीन  पर  सो  रही  हैं।  विधाता  किसको  प्रतिकूल  नहीं  होता!  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  क्या  वन  के  योग्य  हैं?  लोग  सच  कहते  हैं  कि  कर्म  (भाग्य)  ही  प्रधान  है॥4॥ 
दोहा  :
*  कैकयनंदिनि  मंदमति  कठिन  कुटिलपन  कीन्ह। 
जेहिं  रघुनंदन  जानकिहि  सुख  अवसर  दुखु  दीन्ह॥91॥
भावार्थ:-कैकयराज  की  लड़की  नीच  बुद्धि  कैकेयी  ने  बड़ी  ही  कुटिलता  की,  जिसने  रघुनंदन  श्री  रामजी  और  जानकीजी  को  सुख  के  समय  दुःख  दिया॥91॥ 
चौपाई  :
*  भइ  दिनकर  कुल  बिटप  कुठारी।  कुमति  कीन्ह  सब  बिस्व  दुखारी॥
भयउ  बिषादु  निषादहि  भारी।  राम  सीय  महि  सयन  निहारी॥1॥
भावार्थ:-वह  सूर्यकुल  रूपी  वृक्ष  के  लिए  कुल्हाड़ी  हो  गई।  उस  कुबुद्धि  ने  सम्पूर्ण  विश्व  को  दुःखी  कर  दिया।  श्री  राम-सीता  को  जमीन  पर  सोते  हुए  देखकर  निषाद  को  बड़ा  दुःख  हुआ॥1॥ 

लक्ष्मण-निषाद  संवाद,  श्री  राम-सीता  से  सुमन्त्र  का  संवाद,  सुमंत्र  का  लौटना 
*  बोले  लखन  मधुर  मृदु  बानी।  ग्यान  बिराग  भगति  रस  सानी॥
काहु    कोउ  सुख  दुख  कर  दाता।  निज  कृत  करम  भोग  सबु  भ्राता॥2॥
भावार्थ:-तब  लक्ष्मणजी  ज्ञान,  वैराग्य  और  भक्ति  के  रस  से  सनी  हुई  मीठी  और  कोमल  वाणी  बोले-  हे  भाई!  कोई  किसी  को  सुख-दुःख  का  देने  वाला  नहीं  है।  सब  अपने  ही  किए  हुए  कर्मों  का  फल  भोगते  हैं॥2॥
*  जोग  बियोग  भोग  भल  मंदा।  हित  अनहित  मध्यम  भ्रम  फंदा॥
जनमु  मरनु  जहँ  लगि  जग  जालू।  संपति  बिपति  करमु  अरु  कालू॥3॥
भावार्थ:-संयोग  (मिलना),  वियोग  (बिछुड़ना),  भले-बुरे  भोग,  शत्रु,  मित्र  और  उदासीन-  ये  सभी  भ्रम  के  फंदे  हैं।  जन्म-मृत्यु,  सम्पत्ति-विपत्ति,  कर्म  और  काल-  जहाँ  तक  जगत  के  जंजाल  हैं,॥3॥
*  दरनि  धामु  धनु  पुर  परिवारू।  सरगु  नरकु  जहँ  लगि  ब्यवहारू॥
देखिअ  सुनिअ  गुनिअ  मन  माहीं।  मोह  मूल  परमारथु  नाहीं॥4॥
भावार्थ:-धरती,  घर,  धन,  नगर,  परिवार,  स्वर्ग  और  नरक  आदि  जहाँ  तक  व्यवहार  हैं,  जो  देखने,  सुनने  और  मन  के  अंदर  विचारने  में  आते  हैं,  इन  सबका  मूल  मोह  (अज्ञान)  ही  है।  परमार्थतः  ये  नहीं  हैं॥4॥
दोहा  :
*  सपनें  होइ  भिखारि  नृपु  रंकु  नाकपति  होइ।
जागें  लाभु    हानि  कछु  तिमि  प्रपंच  जियँ  जोइ॥92॥
भावार्थ:-जैसे  स्वप्न  में  राजा  भिखारी  हो  जाए  या  कंगाल  स्वर्ग  का  स्वामी  इन्द्र  हो  जाए,  तो  जागने  पर  लाभ  या  हानि  कुछ  भी  नहीं  है,  वैसे  ही  इस  दृश्य-प्रपंच  को  हृदय  से  देखना  चाहिए॥92॥ 
चौपाई  :
*  अस  बिचारि  नहिं  कीजिअ  रोसू।  काहुहि  बादि    देइअ  दोसू॥
मोह  निसाँ  सबु  सोवनिहारा।  देखिअ  सपन  अनेक  प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-ऐसा  विचारकर  क्रोध  नहीं  करना  चाहिए  और    किसी  को  व्यर्थ  दोष  ही  देना  चाहिए।  सब  लोग  मोह  रूपी  रात्रि  में  सोने  वाले  हैं  और  सोते  हुए  उन्हें  अनेकों  प्रकार  के  स्वप्न  दिखाई  देते  हैं॥1॥ 
*  एहिं  जग  जामिनि  जागहिं  जोगी।  परमारथी  प्रपंच  बियोगी॥
जानिअ  तबहिं  जीव  जग  जागा।  जब  सब  बिषय  बिलास  बिरागा॥2॥
भावार्थ:-इस  जगत  रूपी  रात्रि  में  योगी  लोग  जागते  हैं,  जो  परमार्थी  हैं  और  प्रपंच  (मायिक  जगत)  से  छूटे  हुए  हैं।  जगत  में  जीव  को  जागा  हुआ  तभी  जानना  चाहिए,  जब  सम्पूर्ण  भोग-विलासों  से  वैराग्य  हो  जाए॥2॥ 
*  होइ  बिबेकु  मोह  भ्रम  भागा।  तब  रघुनाथ  चरन  अनुरागा॥
सखा  परम  परमारथु  एहू।  मन  क्रम  बचन  राम  पद  नेहू॥3॥
भावार्थ:-विवेक  होने  पर  मोह  रूपी  भ्रम  भाग  जाता  है,  तब  (अज्ञान  का  नाश  होने  पर)  श्री  रघुनाथजी  के  चरणों  में  प्रेम  होता  है।  हे  सखा!  मन,  वचन  और  कर्म  से  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होना,  यही  सर्वश्रेष्ठ  परमार्थ  (पुरुषार्थ)  है॥3॥
*  राम  ब्रह्म  परमारथ  रूपा।  अबिगत  अलख  अनादि  अनूपा॥
सकल  बिकार  रहित  गतभेदा।  कहि  नित  नेति  निरूपहिं  बेदा॥4॥
भावार्थ:-श्री  रामजी  परमार्थस्वरूप  (परमवस्तु)  परब्रह्म  हैं।  वे  अविगत  (जानने  में    आने  वाले)  अलख  (स्थूल  दृष्टि  से  देखने  में    आने  वाले),  अनादि  (आदिरहित),  अनुपम  (उपमारहित)  सब  विकारों  से  रहति  और  भेद  शून्य  हैं,  वेद  जिनका  नित्य  'नेति-नेति'  कहकर  निरूपण  करते  हैं॥4॥
दोहा  :
*  भगत  भूमि  भूसुर  सुरभि  सुर  हित  लागि  कृपाल।
करत  चरित  धरि  मनुज  तनु  सुनत  मिटहिं  जग  जाल॥93॥
भावार्थ:-वही  कृपालु  श्री  रामचन्द्रजी  भक्त,  भूमि,  ब्राह्मण,  गो  और  देवताओं  के  हित  के  लिए  मनुष्य  शरीर  धारण  करके  लीलाएँ  करते  हैं,  जिनके  सुनने  से  जगत  के  जंजाल  मिट  जाते  हैं॥93॥

मासपारायण,  पंद्रहवाँ  विश्राम 
चौपाई  :
*  सखा  समुझि  अस  परिहरि  मोहू।  सिय  रघुबीर  चरन  रत  होहू॥
कहत  राम  गुन  भा  भिनुसारा।  जागे  जग  मंगल  सुखदारा॥1॥
भावार्थ:-हे  सखा!  ऐसा  समझ,  मोह  को  त्यागकर  श्री  सीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  करो।  इस  प्रकार  श्री  रामचन्द्रजी  के  गुण  कहते-कहते  सबेरा  हो  गया!  तब  जगत  का  मंगल  करने  वाले  और  उसे  सुख  देने  वाले  श्री  रामजी  जागे॥1॥
*  सकल  सौच  करि  राम  नहावा।  सुचि  सुजान  बट  छीर  मगावा॥
अनुज  सहित  सिर  जटा  बनाए।  देखि  सुमंत्र  नयन  जल  छाए॥
भावार्थ:-शौच  के  सब  कार्य  करके  (नित्य)  पवित्र  और  सुजान  श्री  रामचन्द्रजी  ने  स्नान  किया।  फिर  बड़  का  दूध  मँगाया  और  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  सहित  उस  दूध  से  सिर  पर  जटाएँ  बनाईं।  यह  देखकर  सुमंत्रजी  के  नेत्रों  में  जल  छा  गया॥2॥
*  हृदयँ  दाहु  अति  बदन  मलीना।  कह  कर  जोर  बचन  अति  दीना॥
नाथ  कहेउ  अस  कोसलनाथा।  लै  रथु  जाहु  राम  कें  साथा॥3॥
भावार्थ:-उनका  हृदय  अत्यंत  जलने  लगा,  मुँह  मलिन  (उदास)  हो  गया।  वे  हाथ  जोड़कर  अत्यंत  दीन  वचन  बोले-  हे  नाथ!  मुझे  कौसलनाथ  दशरथजी  ने  ऐसी  आज्ञा  दी  थी  कि  तुम  रथ  लेकर  श्री  रामजी  के  साथ  जाओ,॥3॥
*  बनु  देखाइ  सुरसरि  अन्हवाई।  आनेहु  फेरि  बेगि  दोउ  भाई॥
लखनु  रामु  सिय  आनेहु  फेरी।  संसय  सकल  सँकोच  निबेरी॥4॥
भावार्थ:-वन  दिखाकर,  गंगा  स्नान  कराकर  दोनों  भाइयों  को  तुरंत  लौटा  लाना।  सब  संशय  और  संकोच  को  दूर  करके  लक्ष्मण,  राम,  सीता  को  फिरा  लाना॥4॥ 
दोहा  :
*  नृप  अस  कहेउ  गोसाइँ  जस  कहइ  करौं  बलि  सोइ।
करि  बिनती  पायन्ह  परेउ  दीन्ह  बाल  जिमि  रोइ॥94॥
भावार्थ:-  महाराज  ने  ऐसा  कहा  था,  अब  प्रभु  जैसा  कहें,  मैं  वही  करूँ,  मैं  आपकी  बलिहारी  हूँ।  इस  प्रकार  से  विनती  करके  वे  श्री  रामचन्द्रजी  के  चरणों  में  गिर  पड़े  और  बालक  की  तरह  रो  दिए॥94॥ 
चौपाई  :
*  तात  कृपा  करि  कीजिअ  सोई।  जातें  अवध  अनाथ    होई॥
मंत्रिहि  राम  उठाइ  प्रबोधा।  तात  धरम  मतु  तुम्ह  सबु  सोधा॥1॥
भावार्थ:-(और  कहा  -)  हे  तात  !  कृपा  करके  वही  कीजिए  जिससे  अयोध्या  अनाथ    हो  श्री  रामजी  ने  मंत्री  को  उठाकर  धैर्य  बँधाते  हुए  समझाया  कि  हे  तात  !  आपने  तो  धर्म  के  सभी  सिद्धांतों  को  छान  डाला  है॥1॥ 
*  सिबि  दधीच  हरिचंद  नरेसा।  सहे  धरम  हित  कोटि  कलेसा॥
रंतिदेव  बलि  भूप  सुजाना।  धरमु  धरेउ  सहि  संकट  नाना॥2॥
भावार्थ:-शिबि,  दधीचि  और  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  धर्म  के  लिए  करोड़ों  (अनेकों)  कष्ट  सहे  थे।  बुद्धिमान  राजा  रन्तिदेव  और  बलि  बहुत  से  संकट  सहकर  भी  धर्म  को  पकड़े  रहे  (उन्होंने  धर्म  का  परित्याग  नहीं  किया)॥2॥ 
*  धरमु    दूसर  सत्य  समाना।  आगम  निगम  पुरान  बखाना॥
मैं  सोइ  धरमु  सुलभ  करि  पावा।  तजें  तिहूँ  पुर  अपजसु  छावा॥3॥
भावार्थ:-वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  कहा  गया  है  कि  सत्य  के  समान  दूसरा  धर्म  नहीं  है।  मैंने  उस  धर्म  को  सहज  ही  पा  लिया  है।  इस  (सत्य  रूपी  धर्म)  का  त्याग  करने  से  तीनों  लोकों  में  अपयश  छा  जाएगा॥3॥ 
*  संभावित  कहुँ  अपजस  लाहू।  मरन  कोटि  सम  दारुन  दाहू॥
तुम्ह  सन  तात  बहुत  का  कहउँ।  दिएँ  उतरु  फिरि  पातकु  लहऊँ॥4॥
भावार्थ:-प्रतिष्ठित  पुरुष  के  लिए  अपयश  की  प्राप्ति  करोड़ों  मृत्यु  के  समान  भीषण  संताप  देने  वाली  है।  हे  तात!  मैं  आप  से  अधिक  क्या  कहूँ!  लौटकर  उत्तर  देने  में  भी  पाप  का  भागी  होता  हूँ॥4॥ 
दोहा  :
*  पितु  पद  गहि  कहि  कोटि  नति  बिनय  करब  कर  जोरि।
चिंता  कवनिहु  बात  कै  तात  करिअ  जनि  मोरि॥95॥
भावार्थ:-आप  जाकर  पिताजी  के  चरण  पकड़कर  करोड़ों  नमस्कार  के  साथ  ही  हाथ  जोड़कर  बिनती  करिएगा  कि  हे  तात!  आप  मेरी  किसी  बात  की  चिन्ता    करें॥95॥ 
चौपाई  :
*  तुम्ह  पुनि  पितु  सम  अति  हित  मोरें।  बिनती  करउँ  तात  कर  जोरें॥
सब  बिधि  सोइ  करतब्य  तुम्हारें।  दुख    पाव  पितु  सोच  हमारें॥1॥
भावार्थ:-आप  भी  पिता  के  समान  ही  मेरे  बड़े  हितैषी  हैं।  हे  तात!  मैं  हाथ  जोड़कर  आप  से  विनती  करता  हूँ  कि  आपका  भी  सब  प्रकार  से  वही  कर्तव्य  है,  जिसमें  पिताजी  हम  लोगों  के  सोच  में  दुःख    पावें॥1॥
*  सुनि  रघुनाथ  सचिव  संबादू।  भयउ  सपरिजन  बिकल  निषादू॥
पुनि  कछु  लखन  कही  कटु  बानी।  प्रभु  बरजे  बड़  अनुचित  जानी॥2॥
भावार्थ:-श्री  रघुनाथजी  और  सुमंत्र  का  यह  संवाद  सुनकर  निषादराज  कुटुम्बियों  सहित  व्याकुल  हो  गया।  फिर  लक्ष्मणजी  ने  कुछ  कड़वी  बात  कही।  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उसे  बहुत  ही  अनुचित  जानकर  उनको  मना  किया॥2॥ 
*  सकुचि  राम  निज  सपथ  देवाई।  लखन  सँदेसु  कहिअ  जनि  जाई॥
कह  सुमंत्रु  पुनि  भूप  सँदेसू।  सहि    सकिहि  सिय  बिपिन  कलेसू॥3॥
भावार्थ:-श्री  रामचन्द्रजी  ने  सकुचाकर,  अपनी  सौगंध  दिलाकर  सुमंत्रजी  से  कहा  कि  आप  जाकर  लक्ष्मण  का  यह  संदेश    कहिएगा।  सुमंत्र  ने  फिर  राजा  का  संदेश  कहा  कि  सीता  वन  के  क्लेश    सह  सकेंगी॥3॥ 
*  जेहि  बिधि  अवध  आव  फिरि  सीया।  होइ  रघुबरहि  तुम्हहि  करनीया॥
नतरु  निपट  अवलंब  बिहीना।  मैं    जिअब  जिमि  जल  बिनु  मीना॥4॥
भावार्थ:-अतएव  जिस  तरह  सीता  अयोध्या  को  लौट  आवें,  तुमको  और  श्री  रामचन्द्र  को  वही  उपाय  करना  चाहिए।  नहीं  तो  मैं  बिल्कुल  ही  बिना  सहारे  का  होकर  वैसे  ही  नहीं  जीऊँगा  जैसे  बिना  जल  के  मछली  नहीं  जीती॥4॥ 
दोहा  :
*  मइकें  ससुरें  सकल  सुख  जबहिं  जहाँ  मनु  मान।
तहँ  तब  रहिहि  सुखेन  सिय  जब  लगि  बिपति  बिहान॥96॥
भावार्थ:-सीता  के  मायके  (पिता  के  घर)  और  ससुराल  में  सब  सुख  हैं।  जब  तक  यह  विपत्ति  दूर  नहीं  होती,  तब  तक  वे  जब  जहाँ  जी  चाहें,  वहीं  सुख  से  रहेंगी॥96॥ 
चौपाई  :
*  बिनती  भूप  कीन्ह  जेहि  भाँती।  आरति  प्रीति    सो  कहि  जाती॥
पितु  सँदेसु  सुनि  कृपानिधाना।  सियहि  दीन्ह  सिख  कोटि  बिधाना॥1॥
भावार्थ:-राजा  ने  जिस  तरह  (जिस  दीनता  और  प्रेम  से)  विनती  की  है,  वह  दीनता  और  प्रेम  कहा  नहीं  जा  सकता।  कृपानिधान  श्री  रामचन्द्रजी  ने  पिता  का  संदेश  सुनकर  सीताजी  को  करोड़ों  (अनेकों)  प्रकार  से  सीख  दी॥1॥ 
*  सासु  ससुर  गुर  प्रिय  परिवारू।  फिरहु    सब  कर  मिटै  खभारू॥
सुनि  पति  बचन  कहति  बैदेही।  सुनहु  प्रानपति  परम  सनेही॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने  कहा-)  जो  तुम  घर  लौट  जाओ,  तो  सास,  ससुर,  गुरु,  प्रियजन  एवं  कुटुम्बी  सबकी  चिन्ता  मिट  जाए।  पति  के  वचन  सुनकर  जानकीजी  कहती  हैं-  हे  प्राणपति!  हे  परम  स्नेही!  सुनिए॥2॥ 
*  प्रभु  करुनामय  परम  बिबेकी।  तनु  तजि  रहति  छाँह  किमि  छेंकी॥
प्रभा  जाइ  कहँ  भानु  बिहाई।  कहँ  चंद्रिका  चंदु  तजि  जाई॥3॥
भावार्थ:-हे  प्रभो!  आप  करुणामय  और  परम  ज्ञानी  हैं।  (कृपा  करके  विचार  तो  कीजिए)  शरीर  को  छोड़कर  छाया  अलग  कैसे  रोकी  रह  सकती  है?  सूर्य  की  प्रभा  सूर्य  को  छोड़कर  कहाँ  जा  सकती  है?  और  चाँदनी  चन्द्रमा  को  त्यागकर  कहाँ  जा  सकती  है?॥3॥ 
*  पतिहि  प्रेममय  बिनय  सुनाई।  कहति  सचिव  सन  गिरा  सुहाई॥
तुम्ह  पितु  ससुर  सरिस  हितकारी।  उतरु  देउँ  फिरि  अनुचित  भारी॥4॥
भावार्थ:-इस  प्रकार  पति  को  प्रेममयी  विनती  सुनाकर  सीताजी  मंत्री  से  सुहावनी  वाणी  कहने  लगीं-  आप  मेरे  पिताजी  और  ससुरजी  के  समान  मेरा  हित  करने  वाले  हैं।  आपको  मैं  बदले  में  उत्तर  देती  हूँ,  यह  बहुत  ही  अनुचित  है॥4॥
दोहा  :
*  आरति  बस  सनमुख  भइउँ  बिलगु    मानब  तात।
आरजसुत  पद  कमल  बिनु  बादि  जहाँ  लगि  नात॥97॥
भावार्थ:-किन्तु  हे  तात!  मैं  आर्त्त  होकर  ही  आपके  सम्मुख  हुई  हूँ,  आप  बुरा    मानिएगा।  आर्यपुत्र  (स्वामी)  के  चरणकमलों  के  बिना  जगत  में  जहाँ  तक  नाते  हैं,  सभी  मेरे  लिए  व्यर्थ  हैं॥97॥
चौपाई  : 
*  पितु  बैभव  बिलास  मैं  डीठा।  नृप  मनि  मुकुट  मिलित  पद  पीठा॥
सुखनिधान  अस  पितु  गृह  मोरें।  पिय  बिहीन  मन  भाव    भोरें॥1॥
भावार्थ:-मैंने  पिताजी  के  ऐश्वर्य  की  छटा  देखी  है,  जिनके  चरण  रखने  की  चौकी  से  सर्वशिरोमणि  राजाओं  के  मुकुट  मिलते  हैं  (अर्थात  बड़े-बड़े  राजा  जिनके  चरणों  में  प्रणाम  करते  हैं)  ऐसे  पिता  का  घर  भी,  जो  सब  प्रकार  के  सुखों  का  भंडार  है,  पति  के  बिना  मेरे  मन  को  भूलकर  भी  नहीं  भाता॥1॥
*  ससुर  चक्कवइ  कोसल  राऊ।  भुवन  चारिदस  प्रगट  प्रभाऊ॥
आगें  होइ  जेहि  सुरपति  लेई।  अरध  सिंघासन  आसनु  देई॥2॥
भावार्थ:-मेरे  ससुर  कोसलराज  चक्रवर्ती  सम्राट  हैं,  जिनका  प्रभाव  चौदहों  लोकों  में  प्रकट  है,  इन्द्र  भी  आगे  होकर  जिनका  स्वागत  करता  है  और  अपने  आधे  सिंहासन  पर  बैठने  के  लिए  स्थान  देता  है,॥2॥ 
*  ससुरु  एतादृस  अवध  निवासू।  प्रिय  परिवारु  मातु  सम  सासू॥
बिनु  रघुपति  पद  पदुम  परागा।  मोहि  केउ  सपनेहुँ  सुखद    लागा॥3॥
भावार्थ:-ऐसे  (ऐश्वर्य  और  प्रभावशाली)  ससुर,  (उनकी  राजधानी)  अयोध्या  का  निवास,  प्रिय  कुटुम्बी  और  माता  के  समान  सासुएँ-  ये  कोई  भी  श्री  रघुनाथजी  के  चरण  कमलों  की  रज  के  बिना  मुझे  स्वप्न  में  भी  सुखदायक  नहीं  लगते॥3॥
*  अगम  पंथ  बनभूमि  पहारा।  करि  केहरि  सर  सरित  अपारा॥
कोल  किरात  कुरंग  बिहंगा।  मोहि  सब  सुखद  प्रानपति  संगा॥4॥
भावार्थ:-दुर्गम  रास्ते,  जंगली  धरती,  पहाड़,  हाथी,  सिंह,  अथाह  तालाब  एवं  नदियाँ,  कोल,  भील,  हिरन  और  पक्षी-  प्राणपति  (श्री  रघुनाथजी)  के  साथ  रहते  ये  सभी  मुझे  सुख  देने  वाले  होंगे॥4॥ 
दोहा  :
*  सासु  ससुर  सन  मोरि  हुँति  बिनय  करबि  परि  पायँ।
मोर  सोचु  जनि  करिअ  कछु  मैं  बन  सुखी  सुभायँ॥98॥
भावार्थ:-अतः  सास  और  ससुर  के  पाँव  पड़कर,  मेरी  ओर  से  विनती  कीजिएगा  कि  वे  मेरा  कुछ  भी  सोच    करें,  मैं  वन  में  स्वभाव  से  ही  सुखी  हूँ॥98॥ 
चौपाई  :
*  प्राननाथ  प्रिय  देवर  साथा।  बीर  धुरीन  धरें  धनु  भाथा॥
नहिं  मग  श्रमु  भ्रमु  दुख  मन  मोरें।  मोहि  लगि  सोचु  करिअ  जनि  भोरें॥1॥
भावार्थ:-वीरों  में  अग्रगण्य  तथा  धनुष  और  (बाणों  से  भरे)  तरकश  धारण  किए  मेरे  प्राणनाथ  और  प्यारे  देवर  साथ  हैं।  इससे  मुझे    रास्ते  की  थकावट  है,    भ्रम  है  और    मेरे  मन  में  कोई  दुःख  ही  है।  आप  मेरे  लिए  भूलकर  भी  सोच    करें॥1॥
*  सुनि  सुमंत्रु  सिय  सीतलि  बानी।  भयउ  बिकल  जनु  फनि  मनि  हानी॥
नयन  सूझ  नहिं  सुनइ    काना।  कहि    सकइ  कछु  अति  अकुलाना॥2॥
भावार्थ:-सुमंत्र  सीताजी  की  शीतल  वाणी  सुनकर  ऐसे  व्याकुल  हो  गए  जैसे  साँप  मणि  खो  जाने  पर।  नेत्रों  से  कुछ  सूझता  नहीं,  कानों  से  सुनाई  नहीं  देता।  वे  बहुत  व्याकुल  हो  गए,  कुछ  कह  नहीं  सकते॥2॥
*  राम  प्रबोधु  कीन्ह  बहु  भाँती।  तदपि  होति  नहिं  सीतलि  छाती॥
जतन  अनेक  साथ  हित  कीन्हे।  उचित  उतर  रघुनंदन  दीन्हे॥3॥
भावार्थ:-श्री  रामचन्द्रजी  ने  उनका  बहुत  प्रकार  से  समाधान  किया।  तो  भी  उनकी  छाती  ठंडी    हुई।  साथ  चलने  के  लिए  मंत्री  ने  अनेकों  यत्न  किए  (युक्तियाँ  पेश  कीं),  पर  रघुनंदन  श्री  रामजी  (उन  सब  युक्तियों  का)  यथोचित  उत्तर  देते  गए॥3॥
*  मेटि  जाइ  नहिं  राम  रजाई।  कठिन  करम  गति  कछु    बसाई॥
राम  लखन  सिय  पद  सिरु  नाई।  फिरेउ  बनिक  जिमि  मूर  गवाँई॥4॥
भावार्थ:-श्री  रामजी  की  आज्ञा  मेटी  नहीं  जा  सकती।  कर्म  की  गति  कठिन  है,  उस  पर  कुछ  भी  वश  नहीं  चलता।  श्री  राम,  लक्ष्मण  और  सीताजी  के  चरणों  में  सिर  नवाकर  सुमंत्र  इस  तरह  लौटे  जैसे  कोई  व्यापारी  अपना  मूलधन  (पूँजी)  गँवाकर  लौटे॥4॥
दोहा  : 
*  रथु  हाँकेउ  हय  राम  तन  हेरि  हेरि  हिहिनाहिं।
देखि  निषाद  बिषाद  बस  धुनहिं  सीस  पछिताहिं॥99॥
भावार्थ:-सुमंत्र  ने  रथ  को  हाँका,  घोड़े  श्री  रामचन्द्रजी  की  ओर  देख-देखकर  हिनहिनाते  हैं।  यह  देखकर  निषाद  लोग  विषाद  के  वश  होकर  सिर  धुन-धुनकर  (पीट-पीटकर)  पछताते  हैं॥99॥ 

केवट  का  प्रेम  और  गंगा  पार  जाना 
चौपाई  :
*  जासु  बियोग  बिकल  पसु  ऐसें।  प्रजा  मातु  पितु  जिइहहिं  कैसें॥
बरबस  राम  सुमंत्रु  पठाए।  सुरसरि  तीर  आपु  तब  आए॥1॥
भावार्थ:-जिनके  वियोग  में  पशु  इस  प्रकार  व्याकुल  हैं,  उनके  वियोग  में  प्रजा,  माता  और  पिता  कैसे  जीते  रहेंगे?  श्री  रामचन्द्रजी  ने  जबर्दस्ती  सुमंत्र  को  लौटाया।  तब  आप  गंगाजी  के  तीर  पर  आए॥1॥
*  मागी  नाव    केवटु  आना।  कहइ  तुम्हार  मरमु  मैं  जाना॥
चरन  कमल  रज  कहुँ  सबु  कहई।  मानुष  करनि  मूरि  कछु  अहई॥2॥
भावार्थ:-श्री  राम  ने  केवट  से  नाव  माँगी,  पर  वह  लाता  नहीं।  वह  कहने  लगा-  मैंने  तुम्हारा  मर्म  (भेद)  जान  लिया।  तुम्हारे  चरण  कमलों  की  धूल  के  लिए  सब  लोग  कहते  हैं  कि  वह  मनुष्य  बना  देने  वाली  कोई  जड़ी  है,॥2॥ 
*  छुअत  सिला  भइ  नारि  सुहाई।  पाहन  तें    काठ  कठिनाई॥
तरनिउ  मुनि  घरिनी  होइ  जाई।  बाट  परइ  मोरि  नाव  उड़ाई॥3॥
भावार्थ:-जिसके  छूते  ही  पत्थर  की  शिला  सुंदरी  स्त्री  हो  गई  (मेरी  नाव  तो  काठ  की  है)।  काठ  पत्थर  से  कठोर  तो  होता  नहीं।  मेरी  नाव  भी  मुनि  की  स्त्री  हो  जाएगी  और  इस  प्रकार  मेरी  नाव  उड़  जाएगी,  मैं  लुट  जाऊँगा  (अथवा  रास्ता  रुक  जाएगा,  जिससे  आप  पार    हो  सकेंगे  और  मेरी  रोजी  मारी  जाएगी)  (मेरी  कमाने-खाने  की  राह  ही  मारी  जाएगी)॥3॥ 
*  एहिं  प्रतिपालउँ  सबु  परिवारू।  नहिं  जानउँ  कछु  अउर  कबारू॥
जौं  प्रभु  पार  अवसि  गा  चहहू।  मोहि  पद  पदुम  पखारन  कहहू॥4॥
भावार्थ:-मैं  तो  इसी  नाव  से  सारे  परिवार  का  पालन-पोषण  करता  हूँ।  दूसरा  कोई  धंधा  नहीं  जानता।  हे  प्रभु!  यदि  तुम  अवश्य  ही  पार  जाना  चाहते  हो  तो  मुझे  पहले  अपने  चरणकमल  पखारने  (धो  लेने)  के  लिए  कह  दो॥4॥ 
छन्द  : 
*  पद  कमल  धोइ  चढ़ाइ  नाव    नाथ  उतराई  चहौं।
मोहि  राम  राउरि  आन  दसरथसपथ  सब  साची  कहौं॥
बरु  तीर  मारहुँ  लखनु  पै  जब  लगि    पाय  पखारिहौं।
तब  लगि    तुलसीदास  नाथ  कृपाल  पारु  उतारिहौं॥
भावार्थ:-हे  नाथ!  मैं  चरण  कमल  धोकर  आप  लोगों  को  नाव  पर  चढ़ा  लूँगा,  मैं  आपसे  कुछ  उतराई  नहीं  चाहता।  हे  राम!  मुझे  आपकी  दुहाई  और  दशरथजी  की  सौगंध  है,  मैं  सब  सच-सच  कहता  हूँ।  लक्ष्मण  भले  ही  मुझे  तीर  मारें,  पर  जब  तक  मैं  पैरों  को  पखार    लूँगा,  तब  तक  हे  तुलसीदास  के  नाथ!  हे  कृपालु!  मैं  पार  नहीं  उतारूँगा। 
सोरठा  :
*  सुनि  केवट  के  बैन  प्रेम  लपेटे  अटपटे।
बिहसे  करुनाऐन  चितइ  जानकी  लखन  तन॥100॥
भावार्थ:-केवट  के  प्रेम  में  लपेटे  हुए  अटपटे  वचन  सुनकर  करुणाधाम  श्री  रामचन्द्रजी  जानकीजी  और  लक्ष्मणजी  की  ओर  देखकर  हँसे॥100॥ 
चौपाई  : 
*  कृपासिंधु  बोले  मुसुकाई।  सोइ  करु  जेहिं  तव  नाव    जाई॥
बेगि  आनु  जलपाय  पखारू।  होत  बिलंबु  उतारहि  पारू॥1॥
भावार्थ:-कृपा  के  समुद्र  श्री  रामचन्द्रजी  केवट  से  मुस्कुराकर  बोले  भाई!  तू  वही  कर  जिससे  तेरी  नाव    जाए।  जल्दी  पानी  ला  और  पैर  धो  ले।  देर  हो  रही  है,  पार  उतार  दे॥1॥ 
*  जासु  नाम  सुमिरत  एक  बारा।  उतरहिं  नर  भवसिंधु  अपारा॥
सोइ  कृपालु  केवटहि  निहोरा।  जेहिं  जगु  किय  तिहु  पगहु  ते  थोरा॥2॥
भावार्थ:-एक  बार  जिनका  नाम  स्मरण  करते  ही  मनुष्य  अपार  भवसागर  के  पार  उतर  जाते  हैं  और  जिन्होंने  (वामनावतार  में)  जगत  को  तीन  पग  से  भी  छोटा  कर  दिया  था  (दो  ही  पग  में  त्रिलोकी  को  नाप  लिया  था),  वही  कृपालु  श्री  रामचन्द्रजी  (गंगाजी  से  पार  उतारने  के  लिए)  केवट  का  निहोरा  कर  रहे  हैं!॥2॥ 
*  पद  नख  निरखि  देवसरि  हरषी।  सुनि  प्रभु  बचन  मोहँ  मति  करषी॥
केवट  राम  रजायसु  पावा।  पानि  कठवता  भरि  लेइ  आवा॥3॥
भावार्थ:-प्रभु  के  इन  वचनों  को  सुनकर  गंगाजी  की  बुद्धि  मोह  से  खिंच  गई  थी  (कि  ये  साक्षात  भगवान  होकर  भी  पार  उतारने  के  लिए  केवट  का  निहोरा  कैसे  कर  रहे  हैं),  परन्तु  (समीप  आने  पर  अपनी  उत्पत्ति  के  स्थान)  पदनखों  को  देखते  ही  (उन्हें  पहचानकर)  देवनदी  गंगाजी  हर्षित  हो  गईं।  (वे  समझ  गईं  कि  भगवान  नरलीला  कर  रहे  हैं,  इससे  उनका  मोह  नष्ट  हो  गया  और  इन  चरणों  का  स्पर्श  प्राप्त  करके  मैं  धन्य  होऊँगी,  यह  विचारकर  वे  हर्षित  हो  गईं।)  केवट  श्री  रामचन्द्रजी  की  आज्ञा  पाकर  कठौते  में  भरकर  जल  ले  आया॥3॥ 
*  अति  आनंद  उमगि  अनुरागा।  चरन  सरोज  पखारन  लागा॥
बरषि  सुमन  सुर  सकल  सिहाहीं।  एहि  सम  पुन्यपुंज  कोउ  नाहीं॥4॥
भावार्थ:-अत्यन्त  आनंद  और  प्रेम  में  उमंगकर  वह  भगवान  के  चरणकमल  धोने  लगा।  सब  देवता  फूल  बरसाकर  सिहाने  लगे  कि  इसके  समान  पुण्य  की  राशि  कोई  नहीं  है॥4॥ 
दोहा  :
*  पद  पखारि  जलु  पान  करि  आपु  सहित  परिवार।
पितर  पारु  करि  प्रभुहि  पुनि  मुदित  गयउ  लेइ  पार॥101॥
भावार्थ:-चरणों  को  धोकर  और  सारे  परिवार  सहित  स्वयं  उस  जल  (चरणोदक)  को  पीकर  पहले  (उस  महान  पुण्य  के  द्वारा)  अपने  पितरों  को  भवसागर  से  पार  कर  फिर  आनंदपूर्वक  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  को  गंगाजी  के  पार  ले  गया॥101॥
चौपाई  :
*  उतरि  ठाढ़  भए  सुरसरि  रेता।  सीय  रामुगुह  लखन  समेता॥
केवट  उतरि  दंडवत  कीन्हा।  प्रभुहि  सकुच  एहि  नहिं  कछु  दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-निषादराज  और  लक्ष्मणजी  सहित  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  (नाव  से)  उतरकर  गंगाजी  की  रेत  (बालू)  में  खड़े  हो  गए।  तब  केवट  ने  उतरकर  दण्डवत  की।  (उसको  दण्डवत  करते  देखकर)  प्रभु  को  संकोच  हुआ  कि  इसको  कुछ  दिया  नहीं॥1॥
*  पिय  हिय  की  सिय  जाननिहारी।  मनि  मुदरी  मन  मुदित  उतारी॥
कहेउ  कृपाल  लेहि  उतराई।  केवट  चरन  गहे  अकुलाई॥2॥
भावार्थ:-पति  के  हृदय  की  जानने  वाली  सीताजी  ने  आनंद  भरे  मन  से  अपनी  रत्न  जडि़त  अँगूठी  (अँगुली  से)  उतारी।  कृपालु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  केवट  से  कहा,  नाव  की  उतराई  लो।  केवट  ने  व्याकुल  होकर  चरण  पकड़  लिए॥2॥
*  नाथ  आजु  मैं  काह    पावा।  मिटे  दोष  दुख  दारिद  दावा॥
बहुत  काल  मैं  कीन्हि  मजूरी।  आजु  दीन्ह  बिधि  बनि  भलि  भूरी॥3॥ 
भावार्थ:-(उसने  कहा-)  हे  नाथ!  आज  मैंने  क्या  नहीं  पाया!  मेरे  दोष,  दुःख  और  दरिद्रता  की  आग  आज  बुझ  गई  है।  मैंने  बहुत  समय  तक  मजदूरी  की।  विधाता  ने  आज  बहुत  अच्छी  भरपूर  मजदूरी  दे  दी॥3॥
*  अब  कछु  नाथ    चाहिअ  मोरें।  दीन  दयाल  अनुग्रह  तोरें॥
फिरती  बार  मोहि  जो  देबा।  सो  प्रसादु  मैं  सिर  धरि  लेबा॥4॥
भावार्थ:-हे  नाथ!  हे  दीनदयाल!  आपकी  कृपा  से  अब  मुझे  कुछ  नहीं  चाहिए।  लौटती  बार  आप  मुझे  जो  कुछ  देंगे,  वह  प्रसाद  मैं  सिर  चढ़ाकर  लूँगा॥4॥ 
दोहा  :
*  बहुत  कीन्ह  प्रभु  लखन  सियँ  नहिं  कछु  केवटु  लेइ।
बिदा  कीन्ह  करुनायतन  भगति  बिमल  बरु  देइ॥102॥
भावार्थ:-  प्रभु  श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  ने  बहुत  आग्रह  (या  यत्न)  किया,  पर  केवट  कुछ  नहीं  लेता।  तब  करुणा  के  धाम  भगवान  श्री  रामचन्द्रजी  ने  निर्मल  भक्ति  का  वरदान  देकर  उसे  विदा  किया॥102॥
चौपाई  :
*  तब  मज्जनु  करि  रघुकुलनाथा।  पूजि  पारथिव  नायउ  माथा॥
सियँ  सुरसरिहि  कहेउ  कर  जोरी।  मातु  मनोरथ  पुरउबि  मोरी॥1॥
भावार्थ:-फिर  रघुकुल  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  ने  स्नान  करके  पार्थिव  पूजा  की  और  शिवजी  को  सिर  नवाया।  सीताजी  ने  हाथ  जोड़कर  गंगाजी  से  कहा-  हे  माता!  मेरा  मनोरथ  पूरा  कीजिएगा॥1॥ 
*  पति  देवर  सँग  कुसल  बहोरी।  आइ  करौं  जेहिं  पूजा  तोरी॥
सुनि  सिय  बिनय  प्रेम  रस  सानी।  भइ  तब  बिमल  बारि  बर  बानी॥2॥
भावार्थ:-जिससे  मैं  पति  और  देवर  के  साथ  कुशलतापूर्वक  लौट  आकर  तुम्हारी  पूजा  करूँ।  सीताजी  की  प्रेम  रस  में  सनी  हुई  विनती  सुनकर  तब  गंगाजी  के  निर्मल  जल  में  से  श्रेष्ठ  वाणी  हुई-॥2॥ 
*  सुनु  रघुबीर  प्रिया  बैदेही।  तब  प्रभाउ  जग  बिदित    केही॥
लोकप  होहिं  बिलोकत  तोरें।  तोहि  सेवहिं  सब  सिधि  कर  जोरें॥3॥
भावार्थ:-हे  रघुवीर  की  प्रियतमा  जानकी!  सुनो,  तुम्हारा  प्रभाव  जगत  में  किसे  नहीं  मालूम  है?  तुम्हारे  (कृपा  दृष्टि  से)  देखते  ही  लोग  लोकपाल  हो  जाते  हैं।  सब  सिद्धियाँ  हाथ  जोड़े  तुम्हारी  सेवा  करती  हैं॥3॥ 
*  तुम्ह  जो  हमहि  बड़ि  बिनय  सुनाई।  कृपा  कीन्हि  मोहि  दीन्हि  बड़ाई॥
तदपि  देबि  मैं  देबि  असीसा।  सफल  होन  हित  निज  बागीसा॥4॥
भावार्थ:-तुमने  जो  मुझको  बड़ी  विनती  सुनाई,  यह  तो  मुझ  पर  कृपा  की  और  मुझे  बड़ाई  दी  है।  तो  भी  हे  देवी!  मैं  अपनी  वाणी  सफल  होने  के  लिए  तुम्हें  आशीर्वाद  दूँगी॥4॥ 
दोहा  :
*  प्राननाथ  देवर  सहित  कुसल  कोसला  आइ।
पूजिहि  सब  मनकामना  सुजसु  रहिहि  जग  छाइ॥103॥
भावार्थ:-तुम  अपने  प्राणनाथ  और  देवर  सहित  कुशलपूर्वक  अयोध्या  लौटोगी।  तुम्हारी  सारी  मनःकामनाएँ  पूरी  होंगी  और  तुम्हारा  सुंदर  यश  जगतभर  में  छा  जाएगा॥103॥ 
चौपाई  :
*  गंग  बचन  सुनि  मंगल  मूला।  मुदित  सीय  सुरसरि  अनुकूला॥
तब  प्रभु  गुहहि  कहेउ  घर  जाहू।  सुनत  सूख  मुखु  भा  उर  दाहू॥1॥
भावार्थ:-मंगल  के  मूल  गंगाजी  के  वचन  सुनकर  और  देवनदी  को  अनुकूल  देखकर  सीताजी  आनंदित  हुईं।  तब  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  निषादराज  गुह  से  कहा  कि  भैया!  अब  तुम  घर  जाओ!  यह  सुनते  ही  उसका  मुँह  सूख  गया  और  हृदय  में  दाह  उत्पन्न  हो  गया॥1॥ 
*  दीन  बचन  गुह  कह  कर  जोरी।  बिनय  सुनहु  रघुकुलमनि  मोरी॥
नाथ  साथ  रहि  पंथु  देखाई।  करि  दिन  चारि  चरन  सेवकाई॥2॥
भावार्थ:-गुह  हाथ  जोड़कर  दीन  वचन  बोला-  हे  रघुकुल  शिरोमणि!  मेरी  विनती  सुनिए।  मैं  नाथ  (आप)  के  साथ  रहकर,  रास्ता  दिखाकर,  चार  (कुछ)  दिन  चरणों  की  सेवा  करके-॥2॥ 
*  जेहिं  बन  जाइ  रहब  रघुराई।  परनकुटी  मैं  करबि  सुहाई॥
तब  मोहि  कहँ  जसि  देब  रजाई।  सोइ  करिहउँ  रघुबीर  दोहाई॥3॥
भावार्थ:-हे  रघुराज!  जिस  वन  में  आप  जाकर  रहेंगे,  वहाँ  मैं  सुंदर  पर्णकुटी  (पत्तों  की  कुटिया)  बना  दूँगा।  तब  मुझे  आप  जैसी  आज्ञा  देंगे,  मुझे  रघुवीर  (आप)  की  दुहाई  है,  मैं  वैसा  ही  करूँगा॥3॥ 
*  सहज  सनेह  राम  लखि  तासू।  संग  लीन्ह  गुह  हृदयँ  हुलासू॥
पुनि  गुहँ  ग्याति  बोलि  सब  लीन्हे।  करि  परितोषु  बिदा  तब  कीन्हे॥4॥
भावार्थ:-उसके  स्वाभाविक  प्रेम  को  देखकर  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उसको  साथ  ले  लिया,  इससे  गुह  के  हृदय  में  बड़ा  आनंद  हुआ।  फिर  गुह  (निषादराज)  ने  अपनी  जाति  के  लोगों  को  बुला  लिया  और  उनका  संतोष  कराके  तब  उनको  विदा  किया॥4॥ 

प्रयाग  पहुँचना,  भरद्वाज  संवाद,  यमुनातीर  निवासियों  का  प्रेम 
दोहा  :
*  तब  गनपति  सिव  सुमिरि  प्रभु  नाइ  सुरसरिहि  माथ।
सखा  अनुज  सिय  सहित  बन  गवनु  कीन्ह  रघुनाथ॥104॥
भावार्थ:-तब  प्रभु  श्री  रघुनाथजी  गणेशजी  और  शिवजी  का  स्मरण  करके  तथा  गंगाजी  को  मस्तक  नवाकर  सखा  निषादराज,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  सहित  वन  को  चले॥104॥ 
चौपाई  :
*  तेहि  दिन  भयउ  बिटप  तर  बासू।  लखन  सखाँ  सब  कीन्ह  सुपासू॥
प्रात  प्रातकृत  करि  रघुराई।  तीरथराजु  दीख  प्रभु  जाई॥1॥
भावार्थ:-उस  दिन  पेड़  के  नीचे  निवास  हुआ।  लक्ष्मणजी  और  सखा  गुह  ने  (विश्राम  की)  सब  सुव्यवस्था  कर  दी।  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सबेरे  प्रातःकाल  की  सब  क्रियाएँ  करके  जाकर  तीर्थों  के  राजा  प्रयाग  के  दर्शन  किए॥1॥
*  सचिव  सत्य  श्रद्धा  प्रिय  नारी।  माधव  सरिस  मीतु  हितकारी॥
चारि  पदारथ  भरा  भँडारू।  पुन्य  प्रदेस  देस  अति  चारू॥2॥
भावार्थ:-उस  राजा  का  सत्य  मंत्री  है,  श्रद्धा  प्यारी  स्त्री  है  और  श्री  वेणीमाधवजी  सरीखे  हितकारी  मित्र  हैं।  चार  पदार्थों  (धर्म,  अर्थ,  काम  और  मोक्ष)  से  भंडार  भरा  है  और  वह  पुण्यमय  प्रांत  ही  उस  राजा  का  सुंदर  देश  है॥2॥
*  छेत्रु  अगम  गढ़ु  गाढ़  सुहावा।  सपनेहुँ  नहिं  प्रतिपच्छिन्ह  पावा॥
सेन  सकल  तीरथ  बर  बीरा।  कलुष  अनीक  दलन  रनधीरा॥3॥
भावार्थ:-प्रयाग  क्षेत्र  ही  दुर्गम,  मजबूत  और  सुंदर  गढ़  (किला)  है,  जिसको  स्वप्न  में  भी  (पाप  रूपी)  शत्रु  नहीं  पा  सके  हैं।  संपूर्ण  तीर्थ  ही  उसके  श्रेष्ठ  वीर  सैनिक  हैं,  जो  पाप  की  सेना  को  कुचल  डालने  वाले  और  बड़े  रणधीर  हैं॥3॥ 
*  संगमु  सिंहासनु  सुठि  सोहा।  छत्रु  अखयबटु  मुनि  मनु  मोहा॥
चवँर  जमुन  अरु  गंग  तरंगा।  देखि  होहिं  दुख  दारिद  भंगा॥4॥
भावार्थ:-((गंगा,  यमुना  और  सरस्वती  का)  संगम  ही  उसका  अत्यन्त  सुशोभित  सिंहासन  है।  अक्षयवट  छत्र  है,  जो  मुनियों  के  भी  मन  को  मोहित  कर  लेता  है।  यमुनाजी  और  गंगाजी  की  तरंगें  उसके  (श्याम  और  श्वेत)  चँवर  हैं,  जिनको  देखकर  ही  दुःख  और  दरिद्रता  नष्ट  हो  जाती  है॥4॥ 
दोहा  :
*  सेवहिं  सुकृती  साधु  सुचि  पावहिं  सब  मनकाम।
बंदी  बेद  पुरान  गन  कहहिं  बिमल  गुन  ग्राम॥105॥
भावार्थ:-पुण्यात्मा,  पवित्र  साधु  उसकी  सेवा  करते  हैं  और  सब  मनोरथ  पाते  हैं।  वेद  और  पुराणों  के  समूह  भाट  हैं,  जो  उसके  निर्मल  गुणगणों  का  बखान  करते  हैं॥105॥
चौपाई  :
*  को  कहि  सकइ  प्रयाग  प्रभाऊ।  कलुष  पुंज  कुंजर  मृगराऊ॥
अस  तीरथपति  देखि  सुहावा।  सुख  सागर  रघुबर  सुखु  पावा॥1॥
भावार्थ:-पापों  के  समूह  रूपी  हाथी  के  मारने  के  लिए  सिंह  रूप  प्रयागराज  का  प्रभाव  (महत्व-माहात्म्य)  कौन  कह  सकता  है।  ऐसे  सुहावने  तीर्थराज  का  दर्शन  कर  सुख  के  समुद्र  रघुकुल  श्रेष्ठ  श्री  रामजी  ने  भी  सुख  पाया॥1॥ 
*  कहि  सिय  लखनहि  सखहि  सुनाई।  श्री  मुख  तीरथराज  बड़ाई॥
करि  प्रनामु  देखत  बन  बागा।  कहत  महातम  अति  अनुरागा॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने  अपने  श्रीमुख  से  सीताजी,  लक्ष्मणजी  और  सखा  गुह  को  तीर्थराज  की  महिमा  कहकर  सुनाई।  तदनन्तर  प्रणाम  करके,  वन  और  बगीचों  को  देखते  हुए  और  बड़े  प्रेम  से  माहात्म्य  कहते  हुए-॥2॥
*  एहि  बिधि  आइ  बिलोकी  बेनी।  सुमिरत  सकल  सुमंगल  देनी॥
मुदित  नहाइ  कीन्हि  सिव  सेवा।  पूजि  जथाबिधि  तीरथ  देवा॥3॥
भावार्थ:-इस  प्रकार  श्री  राम  ने  आकर  त्रिवेणी  का  दर्शन  किया,  जो  स्मरण  करने  से  ही  सब  सुंदर  मंगलों  को  देने  वाली  है।  फिर  आनंदपूर्वक  (त्रिवेणी  में)  स्नान  करके  शिवजी  की  सेवा  (पूजा)  की  और  विधिपूर्वक  तीर्थ  देवताओं  का  पूजन  किया॥3॥
*  तब  प्रभु  भरद्वाज  पहिं  आए।  करत  दंडवत  मुनि  उर  लाए॥
मुनि  मन  मोद    कछु  कहि  जाई।  ब्रह्मानंद  रासि  जनु  पाई॥4॥
भावार्थ:-(स्नान,  पूजन  आदि  सब  करके)  तब  प्रभु  श्री  रामजी  भरद्वाजजी  के  पास  आए।  उन्हें  दण्डवत  करते  हुए  ही  मुनि  ने  हृदय  से  लगा  लिया।  मुनि  के  मन  का  आनंद  कुछ  कहा  नहीं  जाता।  मानो  उन्हें  ब्रह्मानन्द  की  राशि  मिल  गई  हो॥4॥
दोहा  :
*  दीन्हि  असीस  मुनीस  उर  अति  अनंदु  अस  जानि।
लोचन  गोचर  सुकृत  फल  मनहुँ  किए  बिधि  आनि॥106॥
भावार्थ:-मुनीश्वर  भरद्वाजजी  ने  आशीर्वाद  दिया।  उनके  हृदय  में  ऐसा  जानकर  अत्यन्त  आनंद  हुआ  कि  आज  विधाता  ने  (श्री  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  सहित  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  के  दर्शन  कराकर)  मानो  हमारे  सम्पूर्ण  पुण्यों  के  फल  को  लाकर  आँखों  के  सामने  कर  दिया॥106॥ 
चौपाई  :
*  कुसल  प्रस्न  करि  आसन  दीन्हे।  पूजि  प्रेम  परिपूरन  कीन्हे॥
कंद  मूल  फल  अंकुर  नीके।  दिए  आनि  मुनि  मनहुँ  अमी  के॥1॥
भावार्थ:-कुशल  पूछकर  मुनिराज  ने  उनको  आसन  दिए  और  प्रेम  सहित  पूजन  करके  उन्हें  संतुष्ट  कर  दिया।  फिर  मानो  अमृत  के  ही  बने  हों,  ऐसे  अच्छे-अच्छे  कन्द,  मूल,  फल  और  अंकुर  लाकर  दिए॥1॥ 
*  सीय  लखन  जन  सहित  सुहाए।  अति  रुचि  राम  मूल  फल  खाए॥
भए  बिगतश्रम  रामु  सुखारे।  भरद्वाज  मृदु  बचन  उचारे॥2॥
भावार्थ:-सीताजी,  लक्ष्मणजी  और  सेवक  गुह  सहित  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उन  सुंदर  मूल-फलों  को  बड़ी  रुचि  के  साथ  खाया।  थकावट  दूर  होने  से  श्री  रामचन्द्रजी  सुखी  हो  गए।  तब  भरद्वाजजी  ने  उनसे  कोमल  वचन  कहे-॥2॥
*  आजु  सफल  तपु  तीरथ  त्यागू।  आजु  सुफल  जप  जोग  बिरागू॥
सफल  सकल  सुभ  साधन  साजू।  राम  तुम्हहि  अवलोकत  आजू॥3॥
भावार्थ:-हे  राम!  आपका  दर्शन  करते  ही  आज  मेरा  तप,  तीर्थ  सेवन  और  त्याग  सफल  हो  गया।  आज  मेरा  जप,  योग  और  वैराग्य  सफल  हो  गया  और  आज  मेरे  सम्पूर्ण  शुभ  साधनों  का  समुदाय  भी  सफल  हो  गया॥3॥
*  लाभ  अवधि  सुख  अवधि    दूजी।  तुम्हरें  दरस  आस  सब  पूजी॥
अब  करि  कृपा  देहु  बर  एहू।  निज  पद  सरसिज  सहज  सनेहू॥4॥
भावार्थ:-लाभ  की  सीमा  और  सुख  की  सीमा  (प्रभु  के  दर्शन  को  छोड़कर)  दूसरी  कुछ  भी  नहीं  है।  आपके  दर्शन  से  मेरी  सब  आशाएँ  पूर्ण  हो  गईं।  अब  कृपा  करके  यह  वरदान  दीजिए  कि  आपके  चरण  कमलों  में  मेरा  स्वाभाविक  प्रेम  हो॥4॥
दोहा  :
*  करम  बचन  मन  छाड़ि  छलु  जब  लगि  जनु    तुम्हार।
तब  लगि  सुखु  सपनेहुँ  नहीं  किएँ  कोटि  उपचार॥107॥
भावार्थ:-  जब  तक  कर्म,  वचन  और  मन  से  छल  छोड़कर  मनुष्य  आपका  दास  नहीं  हो  जाता,  तब  तक  करोड़ों  उपाय  करने  से  भी,  स्वप्न  में  भी  वह  सुख  नहीं  पाता॥107॥
चौपाई  :
*  सुनि  मुनि  बचन  रामु  सकुचाने।  भाव  भगति  आनंद  अघाने॥
तब  रघुबर  मुनि  सुजसु  सुहावा।  कोटि  भाँति  कहि  सबहि  सुनावा॥1॥
भावार्थ:-मुनि  के  वचन  सुनकर,  उनकी  भाव-भक्ति  के  कारण  आनंद  से  तृप्त  हुए  भगवान  श्री  रामचन्द्रजी  (लीला  की  दृष्टि  से)  सकुचा  गए।  तब  (अपने  ऐश्वर्य  को  छिपाते  हुए)  श्री  रामचन्द्रजी  ने  भरद्वाज  मुनि  का  सुंदर  सुयश  करोड़ों  (अनेकों)  प्रकार  से  कहकर  सबको  सुनाया॥1॥ 
*  सो  बड़  सो  सब  गुन  गन  गेहू।  जेहि  मुनीस  तुम्ह  आदर  देहू॥
मुनि  रघुबीर  परसपर  नवहीं।  बचन  अगोचर  सुखु  अनुभवहीं॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने  कहा-)  हे  मुनीश्वर!  जिसको  आप  आदर  दें,  वही  बड़ा  है  और  वही  सब  गुण  समूहों  का  घर  है।  इस  प्रकार  श्री  रामजी  और  मुनि  भरद्वाजजी  दोनों  परस्पर  विनम्र  हो  रहे  हैं  और  अनिर्वचनीय  सुख  का  अनुभव  कर  रहे  हैं॥2॥ 
*  यह  सुधि  पाइ  प्रयाग  निवासी।  बटु  तापस  मुनि  सिद्ध  उदासी॥
भरद्वाज  आश्रम  सब  आए।  देखन  दसरथ  सुअन  सुहाए॥3॥
भावार्थ:-यह  (श्री  राम,  लक्ष्मण  और  सीताजी  के  आने  की)  खबर  पाकर  प्रयाग  निवासी  ब्रह्मचारी,  तपस्वी,  मुनि,  सिद्ध  और  उदासी  सब  श्री  दशरथजी  के  सुंदर  पुत्रों  को  देखने  के  लिए  भरद्वाजजी  के  आश्रम  पर  आए॥3॥ 
*  राम  प्रनाम  कीन्ह  सब  काहू।  मुदित  भए  लहि  लोयन  लाहू॥
देहिं  असीस  परम  सुखु  पाई।  फिरे  सराहत  सुंदरताई॥4॥
भावार्थ:-श्री  रामचन्द्रजी  ने  सब  किसी  को  प्रणाम  किया।  नेत्रों  का  लाभ  पाकर  सब  आनंदित  हो  गए  और  परम  सुख  पाकर  आशीर्वाद  देने  लगे।  श्री  रामजी  के  सौंदर्य  की  सराहना  करते  हुए  वे  लौटे॥4॥ 
दोहा  :
*  राम  कीन्ह  बिश्राम  निसि  प्रात  प्रयाग  नहाइ।
चले  सहितसिय  लखन  जन  मुदित  मुनिहि  सिरु  नाइ॥108॥
भावार्थ:-श्री  रामजी  ने  रात  को  वहीं  विश्राम  किया  और  प्रातःकाल  प्रयागराज  का  स्नान  करके  और  प्रसन्नता  के  साथ  मुनि  को  सिर  नवाकर  श्री  सीताजी,  लक्ष्मणजी  और  सेवक  गुह  के  साथ  वे  चले॥108॥ 
चौपाई  :
*  राम  सप्रेम  कहेउ  मुनि  पाहीं।  नाथ  कहिअ  हम  केहि  मग  जाहीं॥
मुनि  मन  बिहसि  राम  सन  कहहीं।  सुगम  सकल  मग  तुम्ह  कहुँ  अहहीं॥1॥
भावार्थ:-(चलते  समय)  बड़े  प्रेम  से  श्री  रामजी  ने  मुनि  से  कहा-  हे  नाथ!  बताइए  हम  किस  मार्ग  से  जाएँ।  मुनि  मन  में  हँसकर  श्री  रामजी  से  कहते  हैं  कि  आपके  लिए  सभी  मार्ग  सुगम  हैं॥1॥ 
*  साथ  लागि  मुनि  सिष्य  बोलाए।  सुनि  मन  मुदित  पचासक  आए॥
सबन्हि  राम  पर  प्रेम  अपारा।  सकल  कहहिं  मगु  दीख  हमारा॥2॥
भावार्थ:-फिर  उनके  साथ  के  लिए  मुनि  ने  शिष्यों  को  बुलाया।  (साथ  जाने  की  बात)  सुनते  ही  चित्त  में  हर्षित  हो  कोई  पचास  शिष्य    गए।  सभी  का  श्री  रामजी  पर  अपार  प्रेम  है।  सभी  कहते  हैं  कि  मार्ग  हमारा  देखा  हुआ  है॥2॥ 
*  मुनि  बटु  चारि  संग  तब  दीन्हे।  जिन्ह  बहु  जनम  सुकृत  सब  कीन्हे॥
करि  प्रनामु  रिषि  आयसु  पाई।  प्रमुदित  हृदयँ  चले  रघुराई॥3॥
भावार्थ:-तब  मुनि  ने  (चुनकर)  चार  ब्रह्मचारियों  को  साथ  कर  दिया,  जिन्होंने  बहुत  जन्मों  तक  सब  सुकृत  (पुण्य)  किए  थे।  श्री  रघुनाथजी  प्रणाम  कर  और  ऋषि  की  आज्ञा  पाकर  हृदय  में  बड़े  ही  आनंदित  होकर  चले॥3॥ 
*  ग्राम  निकट  जब  निकसहिं  जाई।  देखहिं  दरसु  नारि  नर  धाई॥
होहिं  सनाथ  जनम  फलु  पाई।  फिरहिं  दुखित  मनु  संग  पठाई॥4॥
भावार्थ:-जब  वे  किसी  गाँव  के  पास  होकर  निकलते  हैं,  तब  स्त्री-पुरुष  दौड़कर  उनके  रूप  को  देखने  लगते  हैं।  जन्म  का  फल  पाकर  वे  (सदा  के  अनाथ)  सनाथ  हो  जाते  हैं  और  मन  को  नाथ  के  साथ  भेजकर  (शरीर  से  साथ    रहने  के  कारण)  दुःखी  होकर  लौट  आते  हैं॥4॥ 
दोहा  :
*  बिदा  किए  बटु  बिनय  करि  फिरे  पाइ  मन  काम।
उतरि  नहाए  जमुन  जल  जो  सरीर  सम  स्याम॥109॥
भावार्थ:-तदनन्तर  श्री  रामजी  ने  विनती  करके  चारों  ब्रह्मचारियों  को  विदा  किया,  वे  मनचाही  वस्तु  (अनन्य  भक्ति)  पाकर  लौटे।  यमुनाजी  के  पार  उतरकर  सबने  यमुनाजी  के  जल  में  स्नान  किया,  जो  श्री  रामचन्द्रजी  के  शरीर  के  समान  ही  श्याम  रंग  का  था॥109॥ 
चौपाई  :
*  सुनत  तीरबासी  नर  नारी।  धाए  निज  निज  काज  बिसारी॥
लखन  राम  सिय  सुंदरताई।  देखि  करहिं  निज  भाग्य  बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-यमुनाजी  के  किनारे  पर  रहने  वाले  स्त्री-पुरुष  (यह  सुनकर  कि  निषाद  के  साथ  दो  परम  सुंदर  सुकुमार  नवयुवक  और  एक  परम  सुंदरी  स्त्री    रही  है)  सब  अपना-अपना  काम  भूलकर  दौड़े  और  लक्ष्मणजी,  श्री  रामजी  और  सीताजी  का  सौंदर्य  देखकर  अपने  भाग्य  की  बड़ाई  करने  लगे॥1॥ 
*  अति  लालसा  बसहिं  मन  माहीं।  नाउँ  गाउँ  बूझत  सकुचाहीं॥
जे  तिन्ह  महुँ  बयबिरिध  सयाने।  तिन्ह  करि  जुगुति  रामु  पहिचाने॥2॥
भावार्थ:-उनके  मन  में  (परिचय  जानने  की)  बहुत  सी  लालसाएँ  भरी  हैं।  पर  वे  नाम-गाँव  पूछते  सकुचाते  हैं।  उन  लोगों  में  जो  वयोवृद्ध  और  चतुर  थे,  उन्होंने  युक्ति  से  श्री  रामचन्द्रजी  को  पहचान  लिया॥2॥ 
*  सकल  कथा  तिन्ह  सबहि  सुनाई।  बनहि  चले  पितु  आयसु  पाई॥
सुनि  सबिषाद  सकल  पछिताहीं।  रानी  रायँ  कीन्ह  भल  नाहीं॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने  सब  कथा  सब  लोगों  को  सुनाई  कि  पिता  की  आज्ञा  पाकर  ये  वन  को  चले  हैं।  यह  सुनकर  सब  लोग  दुःखित  हो  पछता  रहे  हैं  कि  रानी  और  राजा  ने  अच्छा  नहीं  किया॥3॥ 
  

तापस  प्रकरण 
*  तेहि  अवसर  एक  तापसु  आवा।  तेजपुंज  लघुबयस  सुहावा॥
कबि  अलखित  गति  बेषु  बिरागी।  मन  क्रम  बचन  राम  अनुरागी॥4॥
भावार्थ:-उसी  अवसर  पर  वहाँ  एक  तपस्वी  आया,  जो  तेज  का  पुंज,  छोटी  अवस्था  का  और  सुंदर  था।  उसकी  गति  कवि  नहीं  जानते  (अथवा  वह  कवि  था  जो  अपना  परिचय  नहीं  देना  चाहता)।  वह  वैरागी  के  वेष  में  था  और  मन,  वचन  तथा  कर्म  से  श्री  रामचन्द्रजी  का  प्रेमी  था॥4॥
दोहा  :
*  सजल  नयन  तन  पुलकि  निज  इष्टदेउ  पहिचानि।
परेउ  दंड  जिमि  धरनितल  दसा    जाइ  बखानि॥110॥
भावार्थ:-अपने  इष्टदेव  को  पहचानकर  उसके  नेत्रों  में  जल  भर  आया  और  शरीर  पुलकित  हो  गया।  वह  दण्ड  की  भाँति  पृथ्वी  पर  गिर  पड़ा,  उसकी  (प्रेम  विह्वल)  दशा  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता॥110॥
चौपाई  :
*  राम  सप्रेम  पुलकि  उर  लावा।  परम  रंक  जनु  पारसु  पावा॥
मनहुँ  प्रेमु  परमारथु  दोऊ।  मिलत  धरें  तन  कह  सबु  कोऊ॥1॥
भावार्थ:-श्री  रामजी  ने  प्रेमपूर्वक  पुलकित  होकर  उसको  हृदय  से  लगा  लिया।  (उसे  इतना  आनंद  हुआ)  मानो  कोई  महादरिद्री  मनुष्य  पारस  पा  गया  हो।  सब  कोई  (देखने  वाले)  कहने  लगे  कि  मानो  प्रेम  और  परमार्थ  (परम  तत्व)  दोनों  शरीर  धारण  करके  मिल  रहे  हैं॥1॥
*  बहुरि  लखन  पायन्ह  सोइ  लागा।  लीन्ह  उठाइ  उमगि  अनुरागा॥
पुनि  सिय  चरन  धूरि  धरि  सीसा।  जननि  जानि  सिसु  दीन्हि  असीसा॥2॥
भावार्थ:-फिर  वह  लक्ष्मणजी  के  चरणों  लगा।  उन्होंने  प्रेम  से  उमंगकर  उसको  उठा  लिया।  फिर  उसने  सीताजी  की  चरण  धूलि  को  अपने  सिर  पर  धारण  किया।  माता  सीताजी  ने  भी  उसको  अपना  बच्चा  जानकर  आशीर्वाद  दिया॥2॥
*  कीन्ह  निषाद  दंडवत  तेही।  मिलेउ  मुदित  लखि  राम  सनेही॥
पिअत  नयन  पुट  रूपु  पियुषा।  मुदित  सुअसनु  पाइ  जिमि  भूखा॥3॥
भावार्थ:-फिर  निषादराज  ने  उसको  दण्डवत  की।  श्री  रामचन्द्रजी  का  प्रेमी  जानकर  वह  उस  (निषाद)  से  आनंदित  होकर  मिला।  वह  तपस्वी  अपने  नेत्र  रूपी  दोनों  से  श्री  रामजी  की  सौंदर्य  सुधा  का  पान  करने  लगा  और  ऐसा  आनंदित  हुआ  जैसे  कोई  भूखा  आदमी  सुंदर  भोजन  पाकर  आनंदित  होता  है॥3॥
*  ते  पितु  मातु  कहहु  सखि  कैसे।  जिन्ह  पठए  बन  बालक  ऐसे॥
राम  लखन  सिय  रूपु  निहारी।  होहिं  सनेह  बिकल  नर  नारी॥4॥
भावार्थ:-(इधर  गाँव  की  स्त्रियाँ  कह  रही  हैं)  हे  सखी!  कहो  तो,  वे  माता-पिता  कैसे  हैं,  जिन्होंने  ऐसे  (सुंदर  सुकुमार)  बालकों  को  वन  में  भेज  दिया  है।  श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  के  रूप  को  देखकर  सब  स्त्री-पुरुष  स्नेह  से  व्याकुल  हो  जाते  हैं॥4॥
                

यमुना  को  प्रणाम,  वनवासियों  का  प्रेम 
दोहा  :
*  तब  रघुबीर  अनेक  बिधि  सखहि  सिखावनु  दीन्ह।।
राम  रजायसु  सीस  धरि  भवन  गवनु  तेइँ  कीन्ह॥111॥
भावार्थ:-तब  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सखा  गुह  को  अनेकों  तरह  से  (घर  लौट  जाने  के  लिए)  समझाया।  श्री  रामचन्द्रजी  की  आज्ञा  को  सिर  चढ़ाकर  उसने  अपने  घर  को  गमन  किया॥111॥
चौपाई  :
*  पुनि  सियँ  राम  लखन  कर  जोरी।  जमुनहि  कीन्ह  प्रनामु  बहोरी॥
चले  ससीय  मुदित  दोउ  भाई।  रबितनुजा  कइ  करत  बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-फिर  सीताजी,  श्री  रामजी  और  लक्ष्मणजी  ने  हाथ  जोड़कर  यमुनाजी  को  पुनः  प्रणाम  किया  और  सूर्यकन्या  यमुनाजी  की  बड़ाई  करते  हुए  सीताजी  सहित  दोनों  भाई  प्रसन्नतापूर्वक  आगे  चले॥1॥
*  पथिक  अनेक  मिलहिं  मग  जाता।  कहहिं  सप्रेम  देखि  दोउ  भ्राता॥
राज  लखन  सब  अंग  तुम्हारें।  देखि  सोचु  अति  हृदय  हमारें॥2॥
भावार्थ:-रास्ते  में  जाते  हुए  उन्हें  अनेकों  यात्री  मिलते  हैं।  वे  दोनों  भाइयों  को  देखकर  उनसे  प्रेमपूर्वक  कहते  हैं  कि  तुम्हारे  सब  अंगों  में  राज  चिह्न  देखकर  हमारे  हृदय  में  बड़ा  सोच  होता  है॥2॥
*  मारग  चलहु  पयादेहि  पाएँ।  ज्योतिषु  झूठ  हमारें  भाएँ॥
अगमु  पंथु  गिरि  कानन  भारी।  तेहि  महँ  साथ  नारि  सुकुमारी॥3॥
भावार्थ:-(ऐसे  राजचिह्नों  के  होते  हुए  भी)  तुम  लोग  रास्ते  में  पैदल  ही  चल  रहे  हो,  इससे  हमारी  समझ  में  आता  है  कि  ज्योतिष  शास्त्र  झूठा  ही  है।  भारी  जंगल  और  बड़े-बड़े  पहाड़ों  का  दुर्गम  रास्ता  है।  तिस  पर  तुम्हारे  साथ  सुकुमारी  स्त्री  है॥3॥ 
*  करि  केहरि  बन  जाइ    जोई।  हम  सँग  चलहिं  जो  आयसु  होई॥
जाब  जहाँ  लगि  तहँ  पहुँचाई।  फिरब  बहोरि  तुम्हहि  सिरु  नाई॥4॥
भावार्थ:-हाथी  और  सिंहों  से  भरा  यह  भयानक  वन  देखा  तक  नहीं  जाता।  यदि  आज्ञा  हो  तो  हम  साथ  चलें।  आप  जहाँ  तक  जाएँगे,  वहाँ  तक  पहुँचाकर,  फिर  आपको  प्रणाम  करके  हम  लौट  आवेंगे॥4॥ 
दोहा  :
*  एहि  बिधि  पूँछहिं  प्रेम  बस  पुलक  गात  जलु  नैन।
कृपासिंधु  फेरहिं  तिन्हहि  कहि  बिनीत  मृदु  बैन॥112॥
भावार्थ:-इस  प्रकार  वे  यात्री  प्रेमवश  पुलकित  शरीर  हो  और  नेत्रों  में  (प्रेमाश्रुओं  का)  जल  भरकर  पूछते  हैं,  किन्तु  कृपा  के  समुद्र  श्री  रामचन्द्रजी  कोमल  विनययुक्त  वचन  कहकर  उन्हें  लौटा  देते  हैं॥112॥ 
चौपाई  :
*  जे  पुर  गाँव  बसहिं  मग  माहीं।  तिन्हहि  नाग  सुर  नगर  सिहाहीं॥
केहि  सुकृतीं  केहि  घरीं  बसाए।  धन्य  पुन्यमय  परम  सुहाए॥1॥
भावार्थ:-जो  गाँव  और  पुरवे  रास्ते  में  बसे  हैं,  नागों  और  देवताओं  के  नगर  उनको  देखकर  प्रशंसा  पूर्वक  ईर्षा  करते  और  ललचाते  हुए  कहते  हैं  कि  किस  पुण्यवान्‌  ने  किस  शुभ  घड़ी  में  इनको  बसाया  था,  जो  आज  ये  इतने  धन्य  और  पुण्यमय  तथा  परम  सुंदर  हो  रहे  हैं॥1॥ 
*  जहँ  जहँ  राम  चरन  चलि  जाहीं।  तिन्ह  समान  अमरावति  नाहीं॥
पुन्यपुंज  मग  निकट  निवासी।  तिन्हहि  सराहहिं  सुरपुरबासी॥2॥
भावार्थ:-जहाँ-जहाँ  श्री  रामचन्द्रजी  के  चरण  चले  जाते  हैं,  उनके  समान  इन्द्र  की  पुरी  अमरावती  भी  नहीं  है।  रास्ते  के  समीप  बसने  वाले  भी  बड़े  पुण्यात्मा  हैं-  स्वर्ग  में  रहने  वाले  देवता  भी  उनकी  सराहना  करते  हैं-॥2॥
*  जे  भरि  नयन  बिलोकहिं  रामहि।  सीता  लखन  सहित  घनस्यामहि॥
जे  सर  सरित  राम  अवगाहहिं।  तिन्हहि  देव  सर  सरित  सराहहिं॥3॥
भावार्थ:-जो  नेत्र  भरकर  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  सहित  घनश्याम  श्री  रामजी  के  दर्शन  करते  हैं,  जिन  तालाबों  और  नदियों  में  श्री  रामजी  स्नान  कर  लेते  हैं,  देवसरोवर  और  देवनदियाँ  भी  उनकी  बड़ाई  करती  हैं॥3॥
*  जेहि  तरु  तर  प्रभु  बैठहिं  जाई।  करहिं  कलपतरु  तासु  बड़ाई॥
परसि  राम  पद  पदुम  परागा।  मानति  भूमि  भूरि  निज  भागा॥4॥
भावार्थ:-जिस  वृक्ष  के  नीचे  प्रभु  जा  बैठते  हैं,  कल्पवृक्ष  भी  उसकी  बड़ाई  करते  हैं।  श्री  रामचन्द्रजी  के  चरणकमलों  की  रज  का  स्पर्श  करके  पृथ्वी  अपना  बड़ा  सौभाग्य  मानती  है॥4॥
दोहा  :
*  छाँह  करहिं  घन  बिबुधगन  बरषहिं  सुमन  सिहाहिं।
देखत  गिरि  बन  बिहग  मृग  रामु  चले  मग  जाहिं॥113॥
भावार्थ:-रास्ते  में  बादल  छाया  करते  हैं  और  देवता  फूल  बरसाते  और  सिहाते  हैं।  पर्वत,  वन  और  पशु-पक्षियों  को  देखते  हुए  श्री  रामजी  रास्ते  में  चले  जा  रहे  हैं॥113॥
चौपाई  :
*  सीता  लखन  सहित  रघुराई।  गाँव  निकट  जब  निकसहिं  जाई॥
सुनि  सब  बाल  बृद्ध  नर  नारी।  चलहिं  तुरत  गृह  काजु  बिसारी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी  और  लक्ष्मणजी  सहित  श्री  रघुनाथजी  जब  किसी  गाँव  के  पास  जा  निकलते  हैं,  तब  उनका  आना  सुनते  ही  बालक-बूढ़े,  स्त्री-पुरुष  सब  अपने  घर  और  काम-काज  को  भूलकर  तुरंत  उन्हें  देखने  के  लिए  चल  देते  हैं॥1॥
*  राम  लखन  सिय  रूप  निहारी।  पाइ  नयन  फलु  होहिं  सुखारी॥
सजल  बिलोचन  पुलक  सरीरा।  सब  भए  मगन  देखि  दोउ  बीरा॥2॥
भावार्थ:-श्री  राम,  लक्ष्मण  और  सीताजी  का  रूप  देखकर,  नेत्रों  का  (परम)  फल  पाकर  वे  सुखी  होते  हैं।  दोनों  भाइयों  को  देखकर  सब  प्रेमानन्द  में  मग्न  हो  गए।  उनके  नेत्रों  में  जल  भर  आया  और  शरीर  पुलकित  हो  गए॥2॥
*  बरनि    जाइ  दसा  तिन्ह  केरी।  लहि  जनु  रंकन्ह  सुरमनि  ढेरी॥
एकन्ह  एक  बोलि  सिख  देहीं।  लोचन  लाहु  लेहु  छन  एहीं॥3॥
भावार्थ:-उनकी  दशा  वर्णन  नहीं  की  जाती।  मानो  दरिद्रों  ने  चिन्तामणि  की  ढेरी  पा  ली  हो।  वे  एक-एक  को  पुकारकर  सीख  देते  हैं  कि  इसी  क्षण  नेत्रों  का  लाभ  ले  लो॥3॥
*  रामहि  देखि  एक  अनुरागे।  चितवत  चले  जाहिं  सँग  लागे॥
एक  नयन  मग  छबि  उर  आनी।  होहिं  सिथिल  तन  मन  बर  बानी॥4॥
भावार्थ:-कोई  श्री  रामचन्द्रजी  को  देखकर  ऐसे  अनुराग  में  भर  गए  हैं  कि  वे  उन्हें  देखते  हुए  उनके  साथ  लगे  चले  जा  रहे  हैं।  कोई  नेत्र  मार्ग  से  उनकी  छबि  को  हृदय  में  लाकर  शरीर,  मन  और  श्रेष्ठ  वाणी  से  शिथिल  हो  जाते  हैं  (अर्थात्‌  उनके  शरीर,  मन  और  वाणी  का  व्यवहार  बंद  हो  जाता  है)॥4॥
दोहा  :
*  एक  देखि  बट  छाँह  भलि  डासि  मृदुल  तृन  पात।
कहहिं  गवाँइअ  छिनुकु  श्रमु  गवनब  अबहिंकि  प्रात॥114॥
भावार्थ:-कोई  बड़  की  सुंदर  छाया  देखकर,  वहाँ  नरम  घास  और  पत्ते  बिछाकर  कहते  हैं  कि  क्षण  भर  यहाँ  बैठकर  थकावट  मिटा  लीजिए।  फिर  चाहे  अभी  चले  जाइएगा,  चाहे  सबेरे॥114॥
चौपाई  :
*  एक  कलस  भरि  आनहिं  पानी।  अँचइअ  नाथ  कहहिं  मृदु  बानी॥
सुनि  प्रिय  बचन  प्रीति  अति  देखी।  राम  कृपाल  सुसील  बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-कोई  घड़ा  भरकर  पानी  ले  आते  हैं  और  कोमल  वाणी  से  कहते  हैं-  नाथ!  आचमन  तो  कर  लीजिए।  उनके  प्यारे  वचन  सुनकर  और  उनका  अत्यन्त  प्रेम  देखकर  दयालु  और  परम  सुशील  श्री  रामचन्द्रजी  ने-॥1॥ 
*  जानी  श्रमित  सीय  मन  माहीं।  घरिक  बिलंबु  कीन्ह  बट  छाहीं॥
मुदित  नारि  नर  देखहिं  सोभा।  रूप  अनूप  नयन  मनु  लोभा॥2॥
भावार्थ:-मन  में  सीताजी  को  थकी  हुई  जानकर  घड़ी  भर  बड़  की  छाया  में  विश्राम  किया।  स्त्री-पुरुष  आनंदित  होकर  शोभा  देखते  हैं।  अनुपम  रूप  ने  उनके  नेत्र  और  मनों  को  लुभा  लिया  है॥2॥ 
*  एकटक  सब  सोहहिं  चहुँ  ओरा।  रामचन्द्र  मुख  चंद  चकोरा॥
तरुन  तमाल  बरन  तनु  सोहा।  देखत  कोटि  मदन  मनु  मोहा॥3॥
भावार्थ:-सब  लोग  टकटकी  लगाए  श्री  रामचन्द्रजी  के  मुख  चन्द्र  को  चकोर  की  तरह  (तन्मय  होकर)  देखते  हुए  चारों  ओर  सुशोभित  हो  रहे  हैं।  श्री  रामजी  का  नवीन  तमाल  वृक्ष  के  रंग  का  (श्याम)  शरीर  अत्यन्त  शोभा  दे  रहा  है,  जिसे  देखते  ही  करोड़ों  कामदेवों  के  मन  मोहित  हो  जाते  हैं॥3॥ 
*  दामिनि  बरन  लखन  सुठि  नीके।  नख  सिख  सुभग  भावते  जी  के॥
मुनि  पट  कटिन्ह  कसें  तूनीरा।  सोहहिं  कर  कमलनि  धनु  तीरा॥4॥
भावार्थ:-बिजली  के  से  रंग  के  लक्ष्मणजी  बहुत  ही  भले  मालूम  होते  हैं।  वे  नख  से  शिखा  तक  सुंदर  हैं  और  मन  को  बहुत  भाते  हैं।  दोनों  मुनियों  के  (वल्कल  आदि)  वस्त्र  पहने  हैं  और  कमर  में  तरकस  कसे  हुए  हैं।  कमल  के  समान  हाथों  में  धनुष-बाण  शोभित  हो  रहे  हैं॥4॥ 
दोहा  :
*  जटा  मुकुट  सीसनि  सुभग  उर  भुज  नयन  बिसाल।
सरद  परब  बिधु  बदन  बर  लसत  स्वेद  कन  जाल॥115॥
भावार्थ:-उनके  सिरों  पर  सुंदर  जटाओं  के  मुकुट  हैं,  वक्षः  स्थल,  भुजा  और  नेत्र  विशाल  हैं  और  शरद  पूर्णिमा  के  चन्द्रमा  के  समान  सुंदर  मुखों  पर  पसीने  की  बूँदों  का  समूह  शोभित  हो  रहा  है॥115॥
चौपाई  :
*  बरनि    जाइ  मनोहर  जोरी।  सोभा  बहुत  थोरि  मति  मोरी॥
राम  लखन  सिय  सुंदरताई।  सब  चितवहिं  चित  मन  मति  लाई॥1॥
भावार्थ:-उस  मनोहर  जोड़ी  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता,  क्योंकि  शोभा  बहुत  अधिक  है  और  मेरी  बुद्धि  थोड़ी  है।  श्री  राम,  लक्ष्मण  और  सीताजी  की  सुंदरता  को  सब  लोग  मन,  चित्त  और  बुद्धि  तीनों  को  लगाकर  देख  रहे  हैं॥1॥ 
*  थके  नारि  नर  प्रेम  पिआसे।  मनहुँ  मृगी  मृग  देखि  दिआ  से॥
सीय  समीप  ग्रामतिय  जाहीं।  पूँछत  अति  सनेहँ  सकुचाहीं॥2॥
भावार्थ:-प्रेम  के  प्यासे  (वे  गाँवों  के)  स्त्री-पुरुष  (इनके  सौंदर्य-माधुर्य  की  छटा  देखकर)  ऐसे  थकित  रह  गए  जैसे  दीपक  को  देखकर  हिरनी  और  हिरन  (निस्तब्ध  रह  जाते  हैं)!  गाँवों  की  स्त्रियाँ  सीताजी  के  पास  जाती  हैं,  परन्तु  अत्यन्त  स्नेह  के  कारण  पूछते  सकुचाती  हैं॥2॥ 
*  बार  बार  सब  लागहिं  पाएँ।  कहहिं  बचन  मृदु  सरल  सुभाएँ॥
राजकुमारि  बिनय  हम  करहीं।  तिय  सुभायँ  कछु  पूँछत  डरहीं॥3॥
भावार्थ:-बार-बार  सब  उनके  पाँव  लगतीं  और  सहज  ही  सीधे-सादे  कोमल  वचन  कहती  हैं-  हे  राजकुमारी!  हम  विनती  करती  (कुछ  निवेदन  करना  चाहती)  हैं,  परन्तु  स्त्री  स्वभाव  के  कारण  कुछ  पूछते  हुए  डरती  हैं॥3॥ 
*  स्वामिनि  अबिनय  छमबि  हमारी।  बिलगु    मानब  जानि  गवाँरी॥
राजकुअँर  दोउ  सहज  सलोने।  इन्ह  तें  लही  दुति  मरकत  सोने॥4॥
भावार्थ:-हे  स्वामिनी!  हमारी  ढिठाई  क्षमा  कीजिएगा  और  हमको  गँवारी  जानकर  बुरा    मानिएगा।  ये  दोनों  राजकुमार  स्वभाव  से  ही  लावण्यमय  (परम  सुंदर)  हैं।  मरकतमणि  (पन्ने)  और  सुवर्ण  ने  कांति  इन्हीं  से  पाई  है  (अर्थात  मरकतमणि  में  और  स्वर्ण  मंे  जो  हरित  और  स्वर्ण  वर्ण  की  आभा  है,  वह  इनकी  हरिताभ  नील  और  स्वर्ण  कान्ति  के  एक  कण  के  बराबर  भी  नहीं  है।)॥4॥
दोहा  :
*  स्यामल  गौर  किसोर  बर  सुंदर  सुषमा  ऐन।
सरद  सर्बरीनाथ  मुखु  सरद  सरोरुह  नैन॥116॥
भावार्थ:-श्याम  और  गौर  वर्ण  है,  सुंदर  किशोर  अवस्था  है,  दोनों  ही  परम  सुंदर  और  शोभा  के  धाम  हैं।  शरद  पूर्णिमा  के  चन्द्रमा  के  समान  इनके  मुख  और  शरद  ऋतु  के  कमल  के  समान  इनके  नेत्र  हैं॥116॥

मासपारायण,  सोलहवाँ  विश्राम
नवाह्नपारायण,  चौथा  विश्राम 
चौपाई  :
*  कोटि  मनोज  लजावनिहारे।  सुमुखि  कहहु  को  आहिं  तुम्हारे॥
सुनि  सनेहमय  मंजुल  बानी।  सकुची  सिय  मन  महुँ  मुसुकानी॥1॥
भावार्थ:-हे  सुमुखि!  कहो  तो  अपनी  सुंदरता  से  करोड़ों  कामदेवों  को  लजाने  वाले  ये  तुम्हारे  कौन  हैं?  उनकी  ऐसी  प्रेममयी  सुंदर  वाणी  सुनकर  सीताजी  सकुचा  गईं  और  मन  ही  मन  मुस्कुराईं॥1॥
*  तिन्हहि  बिलोकि  बिलोकति  धरनी।  दुहुँ  सकोच  सकुचति  बरबरनी॥
सकुचि  सप्रेम  बाल  मृग  नयनी।  बोली  मधुर  बचन  पिकबयनी॥2॥
भावार्थ:-उत्तम  (गौर)  वर्णवाली  सीताजी  उनको  देखकर  (संकोचवश)  पृथ्वी  की  ओर  देखती  हैं।  वे  दोनों  ओर  के  संकोच  से  सकुचा  रही  हैं  (अर्थात    बताने  में  ग्राम  की  स्त्रियों  को  दुःख  होने  का  संकोच  है  और  बताने  में  लज्जा  रूप  संकोच)।  हिरन  के  बच्चे  के  सदृश  नेत्र  वाली  और  कोकिल  की  सी  वाणी  वाली  सीताजी  सकुचाकर  प्रेम  सहित  मधुर  वचन  बोलीं-॥2॥ 
*  सहज  सुभाय  सुभग  तन  गोरे।  नामु  लखनु  लघु  देवर  मोरे॥
बहुरि  बदनु  बिधु  अंचल  ढाँकी।  पिय  तन  चितइ  भौंह  करि  बाँकी॥3॥
भावार्थ:-ये  जो  सहज  स्वभाव,  सुंदर  और  गोरे  शरीर  के  हैं,  उनका  नाम  लक्ष्मण  है,  ये  मेरे  छोटे  देवर  हैं।  फिर  सीताजी  ने  (लज्जावश)  अपने  चन्द्रमुख  को  आँचल  से  ढँककर  और  प्रियतम  (श्री  रामजी)  की  ओर  निहारकर  भौंहें  टेढ़ी  करके,॥3॥ 
*  खंजन  मंजु  तिरीछे  नयननि।  निज  पति  कहेउ  तिन्हहि  सियँ  सयननि॥
भईं  मुदित  सब  ग्रामबधूटीं।  रंकन्ह  राय  रासि  जनु  लूटीं॥4॥
भावार्थ:-खंजन  पक्षी  के  से  सुंदर  नेत्रों  को  तिरछा  करके  सीताजी  ने  इशारे  से  उन्हें  कहा  कि  ये  (श्री  रामचन्द्रजी)  मेरे  पति  हैं।  यह  जानकर  गाँव  की  सब  युवती  स्त्रियाँ  इस  प्रकार  आनंदित  हुईं,  मानो  कंगालों  ने  धन  की  राशियाँ  लूट  ली  हों॥4॥
दोहा  :
*  अति  सप्रेम  सिय  पाँय  परि  बहुबिधि  देहिं  असीस।
सदा  सोहागिनि  होहु  तुम्ह  जब  लगि  महि  अहि  सीस॥117
भावार्थ:-वे  अत्यन्त  प्रेम  से  सीताजी  के  पैरों  पड़कर  बहुत  प्रकार  से  आशीष  देती  हैं  (शुभ  कामना  करती  हैं),  कि  जब  तक  शेषजी  के  सिर  पर  पृथ्वी  रहे,  तब  तक  तुम  सदा  सुहागिनी  बनी  रहो,॥117॥
चौपाई  : 
*  पारबती  सम  पतिप्रिय  होहू।  देबि    हम  पर  छाड़ब  छोहू॥
पुनि  पुनि  बिनय  करिअ  कर  जोरी।  जौं  एहि  मारग  फिरिअ  बहोरी॥1॥
भावार्थ:-और  पार्वतीजी  के  समान  अपने  पति  की  प्यारी  होओ।  हे  देवी!  हम  पर  कृपा    छोड़ना  (बनाए  रखना)।  हम  बार-बार  हाथ  जोड़कर  विनती  करती  हैं,  जिसमें  आप  फिर  इसी  रास्ते  लौटें,॥1॥ 
*  दरसनु  देब  जानि  निज  दासी।  लखीं  सीयँ  सब  प्रेम  पिआसी॥
मधुर  बचन  कहि  कहि  परितोषीं।  जनु  कुमुदिनीं  कौमुदीं  पोषीं॥2॥
भावार्थ:-और  हमें  अपनी  दासी  जानकर  दर्शन  दें।  सीताजी  ने  उन  सबको  प्रेम  की  प्यासी  देखा  और  मधुर  वचन  कह-कहकर  उनका  भलीभाँति  संतोष  किया।  मानो  चाँदनी  ने  कुमुदिनियों  को  खिलाकर  पुष्ट  कर  दिया  हो॥2॥ 
*  तबहिं  लखन  रघुबर  रुख  जानी।  पूँछेउ  मगु  लोगन्हि  मृदु  बानी॥
सुनत  नारि  नर  भए  दुखारी।  पुलकित  गात  बिलोचन  बारी॥3॥
भावार्थ:-उसी  समय  श्री  रामचन्द्रजी  का  रुख  जानकर  लक्ष्मणजी  ने  कोमल  वाणी  से  लोगों  से  रास्ता  पूछा।  यह  सुनते  ही  स्त्री-पुरुष  दुःखी  हो  गए।  उनके  शरीर  पुलकित  हो  गए  और  नेत्रों  में  (वियोग  की  सम्भावना  से  प्रेम  का)  जल  भर  आया॥3॥ 
*  मिटा  मोदु  मन  भए  मलीने।  बिधि  निधि  दीन्ह  लेत  जनु  छीने॥
समुझि  करम  गति  धीरजु  कीन्हा।  सोधि  सुगम  मगु  तिन्ह  कहि  दीन्हा॥4॥
भावार्थ:-उनका  आनंद  मिट  गया  और  मन  ऐसे  उदास  हो  गए  मानो  विधाता  दी  हुई  सम्पत्ति  छीने  लेता  हो।  कर्म  की  गति  समझकर  उन्होंने  धैर्य  धारण  किया  और  अच्छी  तरह  निर्णय  करके  सुगम  मार्ग  बतला  दिया॥4॥
दोहा  :
*  लखन  जानकी  सहित  तब  गवनु  कीन्ह  रघुनाथ।
फेरे  सब  प्रिय  बचन  कहि  लिए  लाइ  मन  साथ॥118॥
भावार्थ:-तब  लक्ष्मणजी  और  जानकीजी  सहित  श्री  रघुनाथजी  ने  गमन  किया  और  सब  लोगों  को  प्रिय  वचन  कहकर  लौटाया,  किन्तु  उनके  मनों  को  अपने  साथ  ही  लगा  लिया॥118॥
चौपाई  :
*  फिरत  नारि  नर  अति  पछिताहीं।  दैअहि  दोषु  देहिं  मन  माहीं॥
सहित  बिषाद  परसपर  कहहीं।  बिधि  करतब  उलटे  सब  अहहीं॥1॥
भावार्थ:-लौटते  हुए  वे  स्त्री-पुरुष  बहुत  ही  पछताते  हैं  और  मन  ही  मन  दैव  को  दोष  देते  हैं।  परस्पर  (बड़े  ही)  विषाद  के  साथ  कहते  हैं  कि  विधाता  के  सभी  काम  उलटे  हैं॥1॥
*  निपट  निरंकुस  निठुर  निसंकू।  जेहिं  ससि  कीन्ह  सरुज  सकलंकू॥
रूख  कलपतरु  सागरु  खारा।  तेहिं  पठए  बन  राजकुमारा॥2॥
भावार्थ:-वह  विधाता  बिल्कुल  निरंकुश  (स्वतंत्र),  निर्दय  और  निडर  है,  जिसने  चन्द्रमा  को  रोगी  (घटने-बढ़ने  वाला)  और  कलंकी  बनाया,  कल्पवृक्ष  को  पेड़  और  समुद्र  को  खारा  बनाया।  उसी  ने  इन  राजकुमारों  को  वन  में  भेजा  है॥2॥
*  जौं  पै  इन्हहिं  दीन्ह  बनबासू।  कीन्ह  बादि  बिधि  भोग  बिलासू॥
  बिचरहिं  मग  बिनु  पदत्राना।  रचे  बादि  बिधि  बाहन  नाना॥3॥
भावार्थ:-जब  विधाता  ने  इनको  वनवास  दिया  है,  तब  उसने  भोग-विलास  व्यर्थ  ही  बनाए।  जब  ये  बिना  जूते  के  (नंगे  ही  पैरों)  रास्ते  में  चल  रहे  हैं,  तब  विधाता  ने  अनेकों  वाहन  (सवारियाँ)  व्यर्थ  ही  रचे॥3॥
*    महि  परहिं  डासि  कुस  पाता।  सुभग  सेज  कत  सृजत  बिधाता॥
तरुबर  बास  इन्हहि  बिधि  दीन्हा।  धवल  धाम  रचि  रचि  श्रमु  कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-जब  ये  कुश  और  पत्ते  बिछाकर  जमीन  पर  ही  पड़े  रहते  हैं,  तब  विधाता  सुंदर  सेज  (पलंग  और  बिछौने)  किसलिए  बनाता  है?  विधाता  ने  जब  इनको  बड़े-बड़े  पेड़ों  (के  नीचे)  का  निवास  दिया,  तब  उज्ज्वल  महलों  को  बना-बनाकर  उसने  व्यर्थ  ही  परिश्रम  किया॥4॥
दोहा  : 
*  जौं    मुनि  पट  धर  जटिल  सुंदर  सुठि  सुकुमार।
बिबिध  भाँति  भूषन  बसन  बादि  किए  करतार॥119॥
भावार्थ:-जो  ये  सुंदर  और  अत्यन्त  सुकुमार  होकर  मुनियों  के  (वल्कल)  वस्त्र  पहनते  और  जटा  धारण  करते  हैं,  तो  फिर  करतार  (विधाता)  ने  भाँति-भाँति  के  गहने  और  कपड़े  वृथा  ही  बनाए॥119॥
चौपाई  : 
*  जौं    कंदमूल  फल  खाहीं।  बादि  सुधादि  असन  जग  माहीं॥
एक  कहहिं    सहज  सुहाए।  आपु  प्रगट  भए  बिधि    बनाए॥1॥
भावार्थ:-जो  ये  कन्द,  मूल,  फल  खाते  हैं,  तो  जगत  में  अमृत  आदि  भोजन  व्यर्थ  ही  हैं।  कोई  एक  कहते  हैं-  ये  स्वभाव  से  ही  सुंदर  हैं  (इनका  सौंदर्य-माधुर्य  नित्य  और  स्वाभाविक  है)।  ये  अपने-आप  प्रकट  हुए  हैं,  ब्रह्मा  के  बनाए  नहीं  हैं॥1॥
*  जहँ  लगिबेद  कही  बिधि  करनी।  श्रवन  नयन  मन  गोचर  बरनी॥
देखहु  खोजि  भुअन  दस  चारी।  कहँ  अस  पुरुष  कहाँ  असि  नारी॥2॥
भावार्थ:-हमारे  कानों,  नेत्रों  और  मन  के  द्वारा  अनुभव  में  आने  वाली  विधाता  की  करनी  को  जहाँ  तक  वेदों  ने  वर्णन  करके  कहा  है,  वहाँ  तक  चौदहों  लोकों  में  ढूँढ  देखो,  ऐसे  पुरुष  और  ऐसी  स्त्रियाँ  कहाँ  हैं?  (कहीं  भी  नहीं  हैं,  इसी  से  सिद्ध  है  कि  ये  विधाता  के  चौदहों  लोकों  से  अलग  हैं  और  अपनी  महिमा  से  ही  आप  निर्मित  हुए  हैं)॥2॥
*  इन्हहि  देखि  बिधि  मनु  अनुरागा।  पटतर  जोग  बनावै  लागा॥
कीन्ह  बहुत  श्रम  ऐक    आए।  तेहिं  इरिषा  बन  आनि  दुराए॥3॥
भावार्थ:-इन्हें  देखकर  विधाता  का  मन  अनुरक्त  (मुग्ध)  हो  गया,  तब  वह  भी  इन्हीं  की  उपमा  के  योग्य  दूसरे  स्त्री-पुरुष  बनाने  लगा।  उसने  बहुत  परिश्रम  किया,  परन्तु  कोई  उसकी  अटकल  में  ही  नहीं  आए  (पूरे  नहीं  उतरे)।  इसी  ईर्षा  के  मारे  उसने  इनको  जंगल  में  लाकर  छिपा  दिया  है॥3॥
*  एक  कहहिं  हम  बहुत    जानहिं।  आपुहि  परम  धन्य  करि  मानहिं॥
ते  पुनि  पुन्यपुंज  हम  लेखे।  जे  देखहिं  देखिहहिं  जिन्ह  देखे॥4॥
भावार्थ:-कोई  एक  कहते  हैं-  हम  बहुत  नहीं  जानते।  हाँ,  अपने  को  परम  धन्य  अवश्य  मानते  हैं  (जो  इनके  दर्शन  कर  रहे  हैं)  और  हमारी  समझ  में  वे  भी  बड़े  पुण्यवान  हैं,  जिन्होंने  इनको  देखा  है,  जो  देख  रहे  हैं  और  जो  देखेंगे॥4॥
दोहा  :
*  एहि  बिधि  कहि  कहि  बचन  प्रिय  लेहिं  नयन  भरि  नीर।
किमि  चलिहहिं  मारग  अगम  सुठि  सुकुमार  सरीर॥120॥
भावार्थ:-इस  प्रकार  प्रिय  वचन  कह-कहकर  सब  नेत्रों  में  (प्रेमाश्रुओं  का)  जल  भर  लेते  हैं  और  कहते  हैं  कि  ये  अत्यन्त  सुकुमार  शरीर  वाले  दुर्गम  (कठिन)  मार्ग  में  कैसे  चलेंगे॥120॥ 
चौपाई  : 
*  नारि  सनेह  बिकल  बस  होहीं।  चकईं  साँझ  समय  जनु  सोहीं॥
मृदु  पद  कमल  कठिन  मगु  जानी।  गहबरि  हृदयँ  कहहिं  बर  बानी॥1॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ  स्नेहवश  विकल  हो  जाती  हैं।  मानो  संध्या  के  समय  चकवी  (भावी  वियोग  की  पीड़ा  से)  सोह  रही  हो।  (दुःखी  हो  रही  हो)।  इनके  चरणकमलों  को  कोमल  तथा  मार्ग  को  कठोर  जानकर  वे  व्यथित  हृदय  से  उत्तम  वाणी  कहती  हैं-॥1॥
*  परसत  मृदुल  चरन  अरुनारे।  सकुचति  महि  जिमि  हृदय  हमारे॥
जौं  जगदीस  इन्हहि  बनु  दीन्हा।  कस    सुमनमय  मारगु  कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-इनके  कोमल  और  लाल-लाल  चरणों  (तलवों)  को  छूते  ही  पृथ्वी  वैसे  ही  सकुचा  जाती  है,  जैसे  हमारे  हृदय  सकुचा  रहे  हैं।  जगदीश्वर  ने  यदि  इन्हें  वनवास  ही  दिया,  तो  सारे  रास्ते  को  पुष्पमय  क्यों  नहीं  बना  दिया?॥2॥
*  जौं  मागा  पाइअ  बिधि  पाहीं।    रखिअहिं  सखि  आँखिन्ह  माहीं॥
जे  नर  नारि    अवसर  आए।  तिन्ह  सिय  रामु    देखन  पाए॥3॥
भावार्थ:-यदि  ब्रह्मा  से  माँगे  मिले  तो  हे  सखी!  (हम  तो  उनसे  माँगकर)  इन्हें  अपनी  आँखों  में  ही  रखें!  जो  स्त्री-पुरुष  इस  अवसर  पर  नहीं  आए,  वे  श्री  सीतारामजी  को  नहीं  देख  सके॥3॥
*  सुनि  सुरूपु  बूझहिं  अकुलाई।  अब  लगि  गए  कहाँ  लगि  भाई॥
समरथ  धाइ  बिलोकहिं  जाई।  प्रमुदित  फिरहिं  जनमफलु  पाई॥4॥
भावार्थ:-उनके  सौंदर्य  को  सुनकर  वे  व्याकुल  होकर  पूछते  हैं  कि  भाई!  अब  तक  वे  कहाँ  तक  गए  होंगे?  और  जो  समर्थ  हैं,  वे  दौड़ते  हुए  जाकर  उनके  दर्शन  कर  लेते  हैं  और  जन्म  का  परम  फल  पाकर,  विशेष  आनंदित  होकर  लौटते  हैं॥4॥
दोहा  : 
*  अबला  बालक  बृद्ध  जन  कर  मीजहिं  पछिताहिं।
होहिं  प्रेमबस  लोग  इमि  रामु  जहाँ  जहँ  जाहिं॥121॥
भावार्थ:-(गर्भवती,  प्रसूता  आदि)  अबला  स्त्रियाँ,  बच्चे  और  बूढ़े  (दर्शन    पाने  से)  हाथ  मलते  और  पछताते  हैं।  इस  प्रकार  जहाँ-जहाँ  श्री  रामचन्द्रजी  जाते  हैं,  वहाँ-वहाँ  लोग  प्रेम  के  वश  में  हो  जाते  हैं॥121॥
चौपाई  : 
*  गाँव  गाँव  अस  होइ  अनंदू।  देखि  भानुकुल  कैरव  चंदू॥
जे  कछु  समाचार  सुनि  पावहिं।  ते  नृप  रानिहि  दोसु  लगावहिं॥1॥
भावार्थ:-सूर्यकुल  रूपी  कुमुदिनी  को  प्रफुल्लित  करने  वाले  चन्द्रमा  स्वरूप  श्री  रामचन्द्रजी  के  दर्शन  कर  गाँव-गाँव  में  ऐसा  ही  आनंद  हो  रहा  है,  जो  लोग  (वनवास  दिए  जाने  का)  कुछ  भी  समाचार  सुन  पाते  हैं,  वे  राजा-रानी  (दशरथ-कैकेयी)  को  दोष  लगाते  हैं॥1॥
*  कहहिं  एक  अति  भल  नरनाहू।  दीन्ह  हमहि  जोइ  लोचन  लाहू॥
कहहिं  परसपर  लोग  लोगाईं।  बातें  सरल  सनेह  सुहाईं॥2॥
भावार्थ:-कोई  एक  कहते  हैं  कि  राजा  बहुत  ही  अच्छे  हैं,  जिन्होंने  हमें  अपने  नेत्रों  का  लाभ  दिया।  स्त्री-पुरुष  सभी  आपस  में  सीधी,  स्नेहभरी  सुंदर  बातें  कह  रहे  हैं॥2॥
*  ते  पितु  मातु  धन्य  जिन्ह  जाए।  धन्य  सो  नगरु  जहाँ  तें  आए॥
धन्य  सो  देसु  सैलु  बन  गाऊँ।  जहँ-जहँ  जाहिं  धन्य  सोइ  ठाऊँ॥3॥
भावार्थ:-(कहते  हैं-)  वे  माता-पिता  धन्य  हैं,  जिन्होंने  इन्हें  जन्म  दिया।  वह  नगर  धन्य  है,  जहाँ  से  ये  आए  हैं।  वह  देश,  पर्वत,  वन  और  गाँव  धन्य  है  और  वही  स्थान  धन्य  है,  जहाँ-जहाँ  ये  जाते  हैं॥3॥ 
*  सुखु  पायउ  बिरंचि  रचि  तेही।    जेहि  के  सब  भाँति  सनेही॥
राम  लखन  पथि  कथा  सुहाई।  रही  सकल  मग  कानन  छाई॥4॥
भावार्थ:-ब्रह्मा  ने  उसी  को  रचकर  सुख  पाया  है,  जिसके  ये  (श्री  रामचन्द्रजी)  सब  प्रकार  से  स्नेही  हैं।  पथिक  रूप  श्री  राम-लक्ष्मण  की  सुंदर  कथा  सारे  रास्ते  और  जंगल  में  छा  गई  है॥4॥
दोहा  :
*  एहि  बिधि  रघुकुल  कमल  रबि  मग  लोगन्ह  सुख  देत।
जाहिं  चले  देखत  बिपिन  सिय  सौमित्रि  समेत॥122॥
भावार्थ:-रघुकुल  रूपी  कमल  को  खिलाने  वाले  सूर्य  श्री  रामचन्द्रजी  इस  प्रकार  मार्ग  के  लोगों  को  सुख  देते  हुए  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  सहित  वन  को  देखते  हुए  चले  जा  रहे  हैं॥122॥
चौपाई  : 
*  आगें  रामु  लखनु  बने  पाछें।  तापस  बेष  बिराजत  काछें॥
उभय  बीच  सिय  सोहति  कैसें।  ब्रह्म  जीव  बिच  माया  जैसें॥1॥
भावार्थ:-आगे  श्री  रामजी  हैं,  पीछे  लक्ष्मणजी  सुशोभित  हैं।  तपस्वियों  के  वेष  बनाए  दोनों  बड़ी  ही  शोभा  पा  रहे  हैं।  दोनों  के  बीच  में  सीताजी  कैसी  सुशोभित  हो  रही  हैं,  जैसे  ब्रह्म  और  जीव  के  बीच  में  माया!॥1॥
*  बहुरि  कहउँ  छबि  जसि  मन  बसई।  जनु  मधु  मदन  मध्य  रति  लसई॥
उपमा  बहुरि  कहउँ  जियँ  जोही।  जनु  बुध  बिधु  बिच  रोहिनि  सोही॥2॥
भावार्थ:-फिर  जैसी  छबि  मेरे  मन  में  बस  रही  है,  उसको  कहता  हूँ-  मानो  वसंत  ऋतु  और  कामदेव  के  बीच  में  रति  (कामेदव  की  स्त्री)  शोभित  हो।  फिर  अपने  हृदय  में  खोजकर  उपमा  कहता  हूँ  कि  मानो  बुध  (चंद्रमा  के  पुत्र)  और  चन्द्रमा  के  बीच  में  रोहिणी  (चन्द्रमा  की  स्त्री)  सोह  रही  हो॥2॥
*  प्रभु  पद  रेख  बीच  बिच  सीता।  धरति  चरन  मग  चलति  सभीता॥
सीय  राम  पद  अंक  बराएँ।  लखन  चलहिं  मगु  दाहिन  लाएँ॥3॥
भावार्थ:-प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  के  (जमीन  पर  अंकित  होने  वाले  दोनों)  चरण  चिह्नों  के  बीच-बीच  में  पैर  रखती  हुई  सीताजी  (कहीं  भगवान  के  चरण  चिह्नों  पर  पैर    टिक  जाए  इस  बात  से)  डरती  हुईं  मार्ग  में  चल  रही  हैं  और  लक्ष्मणजी  (मर्यादा  की  रक्षा  के  लिए)  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  दोनों  के  चरण  चिह्नों  को  बचाते  हुए  दाहिने  रखकर  रास्ता  चल  रहे  हैं॥3॥
*  राम  लखन  सिय  प्रीति  सुहाई।  बचन  अगोचर  किमि  कहि  जाई॥
खग  मृग  मगन  देखि  छबि  होहीं।  लिए  चोरि  चित  राम  बटोहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री  रामजी,  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  की  सुंदर  प्रीति  वाणी  का  विषय  नहीं  है  (अर्थात  अनिर्वचनीय  है),  अतः  वह  कैसे  कही  जा  सकती  है?  पक्षी  और  पशु  भी  उस  छबि  को  देखकर  (प्रेमानंद  में)  मग्न  हो  जाते  हैं।  पथिक  रूप  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उनके  भी  चित्त  चुरा  लिए  हैं॥4॥
दोहा  : 
*  जिन्ह  जिन्ह  देखे  पथिक  प्रिय  सिय  समेत  दोउ  भाइ।
भव  मगु  अगमु  अनंदु  तेइ  बिनु  श्रम  रहे  सिराइ॥123॥
भावार्थ:-प्यारे  पथिक  सीताजी  सहित  दोनों  भाइयों  को  जिन-जिन  लोगों  ने  देखा,  उन्होंने  भव  का  अगम  मार्ग  (जन्म-मृत्यु  रूपी  संसार  में  भटकने  का  भयानक  मार्ग)  बिना  ही  परिश्रम  आनंद  के  साथ  तय  कर  लिया  (अर्थात  वे  आवागमन  के  चक्र  से  सहज  ही  छूटकर  मुक्त  हो  गए)॥123॥
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Ram