॥श्री हरि:॥
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जला
दो उर मेरे विरहानल।
प्रियतम
! बिना तुम्हारे, बीते दु:खमय युग-सम
मेरा पल-पल॥
भोगासक्ति-कामना-ममता
जग-ज्वालाएँ सब जायें जल।
मिट
जाये सब दुःखयोनि आद्यन्तवन्त भोगोंका अरि-दल॥
जाग
उठे दैवी गुण, हो वैराग्य-राग-रंजित अन्तस्तल।
मिलन
तुम्हारा हो, मिल जाये मानव-जीवनका यथार्थ
फल॥
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हमें
प्रभु ! दो ऐसा वरदान।
तन-मन-धन
अर्पण कर सारा, करें सदा गुण-गान॥
कभी
न तुमसे कुछ भी चाहें, सुख-सम्पति-समान।
अतुल
भोग परलोक-लोकके खींच न पायें ध्यान॥
हानि-लाभ,
निन्दा-स्तुति सम हों, मान और अपमान।
सुख-दुख
विजय-पराजय सम हों, बन्धन-मोक्ष समान॥
निरखें
सदा माधुरी मूरति, निरुपम रसकी खान।
चरण-कमल-मकरन्द-सुधाका
करें प्रेमयुत पान॥
—परम
श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर
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