Tuesday, 16 July 2013

पदरत्नाकर



॥श्री हरि:॥

 
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जला दो उर मेरे विरहानल।
प्रियतम ! बिना तुम्हारे, बीते दु:खमय युग-सम मेरा पल-पल॥
भोगासक्ति-कामना-ममता जग-ज्वाला‌एँ सब जायें जल।
मिट जाये सब दुःखयोनि आद्यन्तवन्त भोगोंका अरि-दल॥
जाग उठे दैवी गुण, हो वैराग्य-राग-रंजित अन्तस्तल।
मिलन तुम्हारा हो, मिल जाये मानव-जीवनका यथार्थ फल॥


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हमें प्रभु ! दो ऐसा वरदान।
तन-मन-धन अर्पण कर सारा, करें सदा गुण-गान॥
कभी न तुमसे कुछ भी चाहें, सुख-सम्पति-समान।
अतुल भोग परलोक-लोकके खींच न पायें ध्यान॥
हानि-लाभ, निन्दा-स्तुति सम हों, मान और अपमान।
सुख-दुख विजय-पराजय सम हों, बन्धन-मोक्ष समान॥
निरखें सदा माधुरी मूरति, निरुपम रसकी खान।
चरण-कमल-मकरन्द-सुधाका करें प्रेमयुत पान॥
 

—परम श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर


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Ram