Sunday 28 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....गुरुपन-साधन अवस्था में मनुष्य के लिए गुरुभाव को प्राप्त हो जाना बहुत ही हानिकारक है | ऐसी अवस्था में, जब वह ही सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता, जब उसी का साधन पथ रुख जाता है, तब वह दूसरों को कैसे पार पहुचायेगा ! ऐसे ही कच्चे गुरुओं के सम्बन्ध में यह कहा जाता है-जैसे अन्धा अन्धों की लकड़ी पकड़कर अपने सहित सबको गड्ढे में डाल देता है, वैसी ही दशा इनकी होती है | परमार्थ पथ में गुरु बनने का अधिकार उसी को है, जो सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुका हो | जो स्वयं लक्ष्य तक नहीं पंहुचा है, वह यदि दूसरों को पहुचाने का ठेका लेने लगता है तो उसका परिणाम प्राय: बुरा ही होता है | शिष्यों में से कोई सेवा करता है तो उस प उसका मोह हो जाता है | कोई प्रतिकूल होता है तो उस पर क्रोध आता है | सेवक के विरोधी से द्वेष होता है | दलबंदी हो जाती है | जीवन बहिर्मुख होकर भाँती-भांति के झंझटों में लग जाता है | साधन छुट जाता है |उपदेश और दीक्षा देना ही जीवन का व्यापार बन जाता है | राग-द्वेष बढ़ते रहते हैं और अंत में वह सर्वथा गिर जाता है | साधन पथ में दूसरों को साथी बनाना, पिछड़े हुओं को साथ लेना, मित्र भाव से परस्पर सहायता करना, भूलें हुओं को मार्ग बताना, साथ में प्रकाश या भोजन हो तों दूसरों को भी उससे लाभ उठाने देना, मार्ग में बीमारों की सेवा करना, असक्तों को शक्ति भर साहस, शक्ति और धैर्य प्रदान करना तो साधक का परम कर्तव्य हैं | परन्तु गुरु बनकर उनसे सेवा कराना, पूजा प्राप्त करना, अपने को ऊचा मानकर उन्हें नीचा समझना, दीक्षा देना, सम्प्रदाय बनाना, अपने मत को आग्रह से चलाना, दूसरों की निन्दा करना और बड़प्पन बघारना आदि बाते भूल कर भी नहीं करनी चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    
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Ram