Wednesday, 31 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....जिन बेचारों के पेट पूरे नहीं भरते, उनके लिए तो कदाचित रात-दिन मजदूरी में लगे रहना और अधिक-से-अधिक कार्य का विस्तार करना क्षम्य भी हो सकता है; परन्तु जो सीधे या प्रकारांतर से धन की प्राप्ति के लिए ही कार्यों को बढ़ाते है; वे तो मेरी तुच्छ बुद्धि में भूल ही करते है | निष्काम भाव से करने की इच्छा रखने वाले पुरुष भी जब अधिक कार्यों में व्यस्त हो जाते है , तब प्राय निस्कामभाव चला जाता है और कहीं-कहीं तो ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो जाती है, जिसमे बाध्य होकर सकाम भव का आश्रय लेना पड़ता है | अतएव जहाँ तक बने, साधक पुरुष को संसारिक कार्य उतने ही करने चाहिये, जितने में गृहस्थी का खर्च सादगी से चल जाये, प्रतिदिन नियमित रूप से भजन-सधन को समय मिल सके, चित न अशान्त हो और न निक्कमेपन के कारण प्रमाद या आलस्य को ही अवसर मिले, कर्तव्य-पालन की तत्परता बनी रहे और मनुष्य-जीवन के मुख्य ध्येय ‘भगवत्प्राप्ति’ का कभी भूलकर भी विस्मरण न हो |

विघ्न और भी बहुत से है, पर प्रधान-प्रधान विघ्नों में ये आठ बड़े प्रबल है | साधक को चाहिये की वह दयामय सच्चिदानंदघन भगवान की कृपा पर विश्वास करके और उसी का आश्रय ग्रहण करके इन विघ्नों का नाश कर दे | प्रभु कृपा के बल से असम्भव भी सम्भव हो जाता है | मनुष्य प्रभु-कृपा पर जितना ही विश्वाश करता है उतना ही वह प्रभु की सुखमय गोद की और आगे बढ़ता है |       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!             
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Ram