जो चाहो तुम,
जैसे चाहो, करो वही तुम, उसी प्रकार।
बरतो नित निर्बाध सदा तुम
मुझको अपने मन-अनुसार॥
मुझे नहीं हो कभी,
किसी भी, तनिक दुःख-सुखका कुछ भान।
सदा परम सुख मिले तुम्हारे
मनकी सारी होती जान॥
भला-बुरा सब भला सदा ही;
जो तुम सोचो, करो विधान।
वही उच्चतम,
मधुर-मनोहर, हितकर परम तुम्हारा दान॥
कभी न मनमें उठे,
किसी भी भाँति, कहीं, कैसी
भी चाह।
उठे कदाचित् तो प्रभु उसे न
करना पूरी, कर परवाह॥
प्यारे ! यही प्रार्थना मेरी,
यही नित्य चरणोंमें माँग-
मिटे सभी ’मैं-मेरा’, बढ़ता रहे सतत अनन्य अनुराग॥
- श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार - भाईजी , पदरत्नाकर , पद- ७१
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