Wednesday, 17 July 2013

पदरत्नाकर



॥श्रीहरि:॥

८३
प्रभु ! तुम अपनौ बिरद सँभारौ।
हौं अति पतित, कुकर्मनिरत, मुख मधु, मन कौ बहु कारौ॥
तृस्ना-बिकल, कृपन, अति पीडित, काम-ताप सौं जारौ।
तदपि न छुटत विषय-सुख-‌आसा, करि प्रयत्न हौं हारौ॥
अब तौ निपट निरासा छा‌ई, रह्यौ न आन सहारौ।
एक भरोसौ तव करुना कौ, मारौ चाहें तारौ॥

८४
प्रभु ! मोहि दे‌उ साँचौ प्रेम।
भजौं केवल तुमहि, तजि पाखंड, झूँठे नेम॥
जरै बिषय-कुबासना, मन जगै सहज बिराग।
होय परम अनन्य तुहरे पद-कमल-‌अनुराग॥
परम श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर

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Ram