’भोगोंमें सुख है’-इस भारी भ्रमको हर लो, हे हरि ! सत्वर।
तुरत
मिटा दो दुःखद सुखकी आशाओंको, हे करुणाकर !॥
मधुर
तुम्हारे रूप-नाम-गुणकी स्मृति होती रहे निरन्तर।
देखूँ
सदा,
सभीमें तुमको, कभी न भूलूँ तुमको पलभर॥
ममता
एक तुम्हींमें हो, हो तुममें ही
आसक्ति-प्रीति वर।
बँधा
रहे मन प्रेमरज्जुसे चारु चरण-कमलोंमें, नटवर
!॥
दिखता
रहे मधुर-मनहर मुख कोटि-कोटि शरदिन्दु-सुखाकर।
सुनूँ
सदा मधुरातिमधुर मुनि-मन-उन्मादिनि मुरलीके स्वर॥
तन-मनके
प्रत्येक कार्यसे पूजूँ तुम्हें सदा, हृदयेश्वर।
सहज
सुहृद उदारचूड़ामणि ! दीन-हीन मुझको दो यह वर॥
- परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार- भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तकसे , पद- 72
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