हे
मेरे ! तुम, प्राण-प्राण ! तुम, जीवनके जीवन-आधान।
’मैं’ से रहित बना दो मुझको, हर
लो अहंकार-अभिमान॥
कर
दो मुझे अकिंचन पूरा, हर लो सभी
लोक-परलोक।
भर
जाओ उर अमित ज्योति तुम ! हर लो मिथ्या तम-आलोक॥
नटवर
! नाचो मनमाने तुम, मुझे नचाओ मन-अनुसार।
कण-कणपर
हो प्रकट तुम्हारा क्रियाशील अनुपद अधिकार॥
कठपुतलीकी
भाँति सर्वथा समत, नीरव, वाक्य-विहीन।
नाचें
सभी अंग-अवयव, हो तव रुचि रय रज्जु-आधीन॥
—परम
श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर
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