Monday, 31 December 2012

भगवत्स्मरण




भगवान् ने गीतामें घोषणा की है -- 'जीवनके अन्तकालमें जो मेरा स्मरण करते हुए शारीरको छोड़कर जाता है -- ऐसा कोई भी हो, वह मुझको प्राप्त होता है -- इसमें संदेह नहीं है!' जगतमें भी हम देखते हैं कि छायाचित्र लेनेमें कैमरेका स्विच दबानेके समय सामनेवालेकी जैसी आकृति होती है, वैसी ही फोटो आती है! भगवान् की इस घोषणाका हम दुरूपयोग करते हैं और कहते हैं कि 'जब अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर लेनेमात्रसे भगवान् की प्राप्ति हो जायगी तो अभी अन्य जरूरी- जरूरी काम कर लिये जायँ, अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर  लेंगे! इसपर भगवान् ने सावधान किया है कि 'जीवनभर जिस कार्यमें मन रहेगा, अन्तकालमें उसीका स्मरण होगा-- यह निशचय है! अतएव सब समय मेरा स्मरण करते हुए जगतका काम करो!' जीवनभर मुझे भुलाये रहकर अन्तकालमें मेरे स्मरणकी आशा कदापि न करो; यह धोखा है! इससे सावधान हो जाओ! 


कुछ करना नहीं है, केवल अपने मुखको भगवान् के सम्मुख मोड़ देना है! भगवान् के सम्मुख होते ही भगवान् के विरोधी अपने-आप विमुख हो जायँगे! भोग-विमुखता और भगवत -सम्मुखता -- दोनों साथ -साथ होती हैं! भोगका अर्थ है -- भगवान् से रहित स्थिति!  


भगवान् को सर्वत्र देखकर, सब जीवोंमें उनकी अनुभूति  करके जीवमात्रकी सेवामें संलग्न रहना -- यह संतका  सहज स्वाभाव होता है! संत सदैव  सचेष्ट रहता है कि उसकी प्रत्येक चेष्टा भगवान् की पूजा होती रहे! 


जो भगवान् से भोग चाहता है, वह भोगोंका गुलाम है; उसके आराध्य भगवान् नहीं, भोग हैं! भगवान् उसके साध्य नहीं होते, भगवान् उसके लिये भोग-प्राप्ति करानेके साधनमात्र होते हैं! 


भगवान् के लिये जीना, भगवान् के लिये मरना जिसके जीवनका  स्वाभाव है, वह प्रेमका निगूढ़. भाजन है! ऐसे जीवनके लिये भगवान् से प्रार्थना  करनी चाहिये!
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Sunday, 30 December 2012

भगवत्प्रेम



भाईजी के आराध्य

'प्रेम' का अर्थ है -- भगवत्प्रेम ! 'प्रेम' के नामपर जगतमें 'काम' चलता है! वह हमारी चर्चाका विषय नहीं है! भगवत्प्रेमकी प्राप्ति सहजमें नहीं होती! बहुत ऊँची साधना की सिद्धिके पश्चात् भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है !


भगवत्प्रेम क्या है -- यह कोई बता नहीं सकता! कहनेके लिये कुछ सांकेतिकरूप से समझनेके लिये कह सकते हैं -- यह भगवान् की अपनेमें ही अपनेसे ही अपनी लीला है!


भगवान् के साथ खेले -- ऐसा भगवान् का साथी कौन है? भगवान् जिस खेलको खेलें, ऐसा खेल कौन-सा है? वास्तवमें उनके योग्य न कोई साथी है न कोई खेल ही! अतएव भगवान् ही प्रेमास्पद हैं, भगवान् ही प्रेमी हैं और भगवान् ही प्रेम हैं!


स्वयं ही प्रेमी और प्रेमास्पद बनकर -- एक - दूसरेकी प्रीतिके आश्रयालंबन और विषयालंबन बनकर जो भगवान् की परम दिव्य अचिन्त्यानंत गौरवमयी पवित्रतम लीला चलती है -- वास्तवमें इसे ही भगवत्प्रेम कहते हैं! इस प्रेममें ऐसा माना जाता है और यह परम सत्य है कि भगवान् ही स्वंय अपने आनंद- स्वरुपको -- अपने भावस्वरूपको लेकर अनंत लीलारूप धारण किये रहते हैं!


भगवान् श्रीकृष्ण ही 'राधा' स्वरुपमें लीला करते हैं! अतएव श्रीराधा भगवान् से सर्वथा अभिन्न हैं! श्रीराधाके बिना श्रीकृष्णका और श्रीकृष्णके बिना श्रीराधाका अस्तित्व नहीं! दोनोंका अविनाभाव - सम्बन्ध है! रसराज महाभावके प्रेमके विषय बनते हैं और महाभाव रसराजके प्रेमका विषय बनता है! इस प्रकार परस्पर बड़ी पवित्र लीला चलती है!


श्रीराधा महाभावरूपा हैं और श्रीराधाके आराध्य, प्रेमास्पद, परमश्रेष्ठ हैं -- रसराज श्रीकृष्ण!


श्रीराधाके भावोंका, श्रीराधाके अचिन्त्यानंत भाव -समुद्रकी परम विभिन्न परमानंदमयी तरंगोंका न तो कोई वर्णन कर सकता है, न गणना और न इनके स्वरुपका विश्लेषण! अनादिकालसे अनंतकालतक प्रेमकी विशुद्ध परमाल्हादमयी तरंगें -- रसमयी मधुर तरंगें उठती रहती हैं और बड़े-बड़े प्रेमी भक्त, बड़े -बड़े भाग्यशाली ऋषि -मुनि और कोई-कोई देवता ही उन रस - मधुर-तरंगोंके दर्शन कर पाते हैं, आस्वादन तो बहुत दूर!


श्रीराधाके प्रेमकी विभिन्न तरंगोंका वर्णन नहीं हो सकता-- केवल शाखाचन्द्रन्यायसे संकेतमात्र होता है! जैसे किसीको द्वितीयाका चन्द्रमा दिखलाना है तो यह कहा जाता है कि 'देखिये, सामने उस डालसे इतना ऊपर चन्द्रमा दिखायी दे रहा है!' डालसे उतना ऊपर चन्द्रमा नहीं है, पर डालका संकेत करके चन्द्रमाको दिखानेकी प्रक्रिया होती है! इसी प्रकार श्रीराधाके गुणोंका, भावोंका संकेतमात्र किया जाता है, वर्णन नहीं! वर्णन तो असम्भव है! 
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Saturday, 29 December 2012

भगवत्कृपा




जो जितना दीन है, उसमें भगवान् की कृपाशक्तिका उतना ही अधिक प्रकाश है! 'दैन्य' भगवान् की कृपाके प्राकट्यके बीच लगे पर्देको फाड़ डालता है! 


जैसे ब्रम्हाजीकी वाणी एक  '' तीन अर्थ रखती है, वैसे ही गीता भगवान् श्री कृष्णकी वाणी है! उसके अनेक अर्थ अधिकारी-भेद से  होते हैं! यही हेतु है कि विभिन्न आचार्यों, टीकाकारोंने गीताके अर्थ पृथक् -पृथक् किये हैं! अधिकारी-भेदसे उन सब अर्थोंका सामंजस्य है! 


भगवान् की कृपा अधिकारी-भेद्की अपेक्षा नहीं  रखती! वह केवल देखती है की यह एकमात्र कृपाका आकांक्षी है कि नहीं! 


भगवान् की कृपा सबकी सम्पत्ति है, पर दोनोंकी सम्पत्ति विशेषरूपसे है; क्योंकि भगवान् 'दीनवत्सल' हैं!


अबोध बालक, जो बोलना नहीं जनता, किसी प्रकारका संकेत करना नहीं जानता, वह रोकर ही मनोव्यथा व्यक्त करता है! इसी प्रकार जिसके पास रोनेके सिवा कोई साधन नहीं, वह भगवान् के सामने कातर होकर रोये! जगतके सामने रोना अशुभ है, कायरता हैं; भगवान् के सामने रोना परम मंगलकारी है एवं परम बलका घोतक है! 


भगवान् की  कृपापर  भरोसा करके दीनभावसे भगवान् के शरणापन्न हो जाना चाहिये! जब हम भगवान् के शरणापन्न हो जाते हैं और भगवान् पास आ जाते हैं, तब उनके दैवी गुण स्वतः हममें आविर्भूत होते हैं! फिर बंधनोंको काटना नहीं पड़ता, बंधन अकुलाकर स्वतः छिन्न हो जाते हैं; ग्रन्थि खोलनी नहीं पड़ती, वह स्वतः खुल जाती है! 


हम कैसे भी हों, भगवान् की कृपा ऐसी विलक्षण है कि वह हमें सब प्रकारके दोषों- पापोंसे मुक्त करके भगवान् के चरणोंका आश्रय प्रदान कर देती है! अन्यथा दीन-हीनोंका काम कैसे बनता!
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Friday, 28 December 2012

संसारका सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है







संसारका सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है, पर सुखकी छिपी आशासे हम संसारके मिथ्या सौन्दर्यके प्रति लुब्ध हो रहे हैं! संसारके किसी भी प्राणी - पदार्थमें सौन्दर्य नहीं है -- इस सत्यपर विश्वास करके हम अपनी भ्रान्तिसे जितनी जल्दी छुट्टी पा लें, उसीमें हमारा भला है! 

कोई अपनी किसी साधानासे भगवान् को खरीदना चाहे तो यह उसकी मुर्खताके सिवा और कुछ नहीं है! कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसके विनिमयमें भगवान् मिल सकें ! भगवान् मिलते हैं अपनी सहज  कृपासे ही! कृपापर  विश्वास नहीं तथा कृपाको ग्रहण करनेका दैन्य नहीं है! ऐसी स्थितिमें कैसे काम बने? 'मैंने अभिमानका त्याग कर दिया, मुझमें अभिमान नहीं है' -- इन उक्तियोंमें भी अभिमानकी सत्ता विधमान है! 

'दैन्य' भक्तकी शोभा है! यह उसका पहला लक्षण है! भक्त अपनेको सर्वथा अकिंचन -- अभावग्रस्त पाता है और भगवान् को यही चाहिये! बस, भगवान् ऐसे भक्तके सामने प्रकट हो जाते  हैं!

भगवान् का बल निरन्तर हमारे पास रहनेपर भी सक्रिय नहीं होता, इसका कारण है कि हम उसे स्वीकार नहीं करते! जब भी हम भगवान् के बलको अनुभव करने लगेंगे, तभी वह बल सक्रिय हो जायगा और हम निहाल हो जाँयगे! 

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Thursday, 27 December 2012

सच्चे भक्त





सच्चे भक्तोंका एकमात्र बल भगवान् का भरोसा ही है! वे पूर्ण निर्भरताके साथ भगवान् के होकर अपना जीवन केवल भगवान् के चिंतनमें ही लगाया करते हैं ! 

जितना भरोसा बढ़ेगा, उतनी ही भगवत्कृपाकी झाँकी प्रत्येक्ष दिखेगी ! 

यह याद रखो कि भगवान् के समान सुहद, दयालु, प्रेमी, सुन्दर, ऐश्वर्यवान् और कोई भी नहीं है एवं वह तुम्हारा नित्य साथी है! तुम्हें हृदयसे लगानेके लिए सदा ही हाथ फैलाये तैयार है! 

संसारमें जो कुछ देखते हो सो सब उसीका है, उसीका नहीं, वही सब कुछ बना हुआ है! यह जो कुछ हो रहा है सो सब उसीकी लीला है! वह आप ही अपनेमें खेल कर रहा है ! 

सर्वभावसे उसकी शरण हुए बिना यह रहस्य समझमें नहीं आवेगा ! सब प्रकारके अभिमानको छोड़कर उसकी शरण हो जाओ, उसकी कृपापर दृढ़ भरोसा रखो, सारी चिंताओंको छोड़कर सब कुछ उसके चरणोंपर चढ़ा दो ! 

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Ram