'अहो ! ये देवर्षि नारदजी धन्य हैं, जो वीणा बजाते, हरिगुण गाते और मस्त होते हुए इस आतुर जगत को आनन्दित करते फिरते हैं।'
कारक पुरुष जगत में वैसे ही लोक कल्याणार्थ आते और विचरते हैं, जैसे स्वयं भगवान् अवतीर्ण होते हैं। श्री भगवान् की पवित्र लीला के लिये भूमि तैयार कर देना, उनकी लीला के लिये वैसे ही लीलोपयोगी उपकरणों का संग्रह करना, लीला में सहायक होना यह उनका स्वाभाविक कार्य होता है। ऐसे महापुरुष मुक्त होने पर भी मुक्त न होकर जगत में जीवों के साथ उनके कल्याणार्थ विराजते हैं। यों तो इनका कार्य सदा ही अबाधितरूप से चलता रहता है, परन्तु किसी खास भगवदवतार के समय इनका कार्य विशेषरूप से बढ़ जाता है। इनका मंगलमय जीवन जगत के महान मंगल के लिए होता है। अविद्या, अहंकार, ममत्व, आसक्ति आदि से सर्वथा रहित ये महापुरुष यन्त्री भगवान् के हाथों में यन्त्रवत कार्य करते रहते है। इनके सारे कार्य भगवान् के ही कार्य होते हैं। ऐसे ही महापुरुषों में देवर्षि नारदजी एक हैं। सभी युगों में, सभी लोकों में, सभी शास्त्रों में, सभी समाजों में और सभी कार्यों में नारदजी का प्रवेश है। आप सत्ययुग में भी थे, त्रेता, द्वापर में भी और इस घोर कलिकाल में भी, कहते हैं कि अधिकारी भक्तों को आप के शुभ दर्शन हुआ करते हैं। गोलोक, वैकुण्ठलोक, ब्रह्म लोक, आदि से लेकर तल-अतल आदि पाताल तक सर्वत्र आप का प्रवेश है और योगबल से मन करते ही तुरन्त कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते हैं। वेद, स्मृति, पुराण, संहिता, ज्योतिष, संगीत आदि सभी शास्त्रों में आप दृष्टिगोचर होते हैं। साक्षात् भगवान् विष्णु, शिव आदि से लेकर घोर राक्षस तक आप का सम्मान, विश्वास और आदर करते हैं। देवराज इन्द्र भी आप के वचनों का आदर करते हैं और देवराज हिरण्यकशिपुकी पत्नी कयाधू भी आप की बात पर विश्वास कर आप के आश्रम में अपने को सुरक्षित समझती है। कहीं आप व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव-सरीखे महापुरुषों को परमतत्व का उपदेश देते दिखाई देते हैं, तो कहीं दो पक्षों में कलह और विवाद खड़ा कर देने के प्रयास में लगे दीखते हैं। वास्तव में आप अपने लिए कुछ भी नहीं करते। जिस कार्य से जिसका मंगल देखते हैं और भगवान् की लीला का एक सुन्दर दृश्य सामने ला पाते हैं, उसी कार्य को करने लगते हैं। इनका विवाद और कलह कराना भी लोकहितार्थ और भगवान् की लीला के साधनार्थ ही हुआ करता है। क्योंकि इनकी प्रत्येक चेष्टा भगवान् की ही चेष्टा होती है।इनको तो वस्तुतः भगवान् का 'मन' ही समझना चाहिए; गम्भीर दृष्टि से विचार करने पर भगवत्कृपा से यह बात स्पष्ट दीखती है। कुछ लोग कहते हैं कि नारद नाम के कई भिन्न-भिन्न व्यक्ति हुए हैं। उनमें वे सात मुख्य मानते हैं - 1- ब्रह्मा के मानस पुत्र, 2- पर्वत ऋषि के मामा, 3-वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती के भाई या सत्यवती नामक स्त्री के स्वामी, 4- यहाँ की वहां करके आपस में लोगों को भिड़ा देनेवाले, 5- कुबेर के सभासद, 6- भगवान् श्रीराम की सभा के आठ धर्मशास्त्रियों में से एक और 7- जनमेजय के सर्पयज्ञ के एक सदस्य।
प्रेम-दर्शन [341]
कारक पुरुष जगत में वैसे ही लोक कल्याणार्थ आते और विचरते हैं, जैसे स्वयं भगवान् अवतीर्ण होते हैं। श्री भगवान् की पवित्र लीला के लिये भूमि तैयार कर देना, उनकी लीला के लिये वैसे ही लीलोपयोगी उपकरणों का संग्रह करना, लीला में सहायक होना यह उनका स्वाभाविक कार्य होता है। ऐसे महापुरुष मुक्त होने पर भी मुक्त न होकर जगत में जीवों के साथ उनके कल्याणार्थ विराजते हैं। यों तो इनका कार्य सदा ही अबाधितरूप से चलता रहता है, परन्तु किसी खास भगवदवतार के समय इनका कार्य विशेषरूप से बढ़ जाता है। इनका मंगलमय जीवन जगत के महान मंगल के लिए होता है। अविद्या, अहंकार, ममत्व, आसक्ति आदि से सर्वथा रहित ये महापुरुष यन्त्री भगवान् के हाथों में यन्त्रवत कार्य करते रहते है। इनके सारे कार्य भगवान् के ही कार्य होते हैं। ऐसे ही महापुरुषों में देवर्षि नारदजी एक हैं। सभी युगों में, सभी लोकों में, सभी शास्त्रों में, सभी समाजों में और सभी कार्यों में नारदजी का प्रवेश है। आप सत्ययुग में भी थे, त्रेता, द्वापर में भी और इस घोर कलिकाल में भी, कहते हैं कि अधिकारी भक्तों को आप के शुभ दर्शन हुआ करते हैं। गोलोक, वैकुण्ठलोक, ब्रह्म लोक, आदि से लेकर तल-अतल आदि पाताल तक सर्वत्र आप का प्रवेश है और योगबल से मन करते ही तुरन्त कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते हैं। वेद, स्मृति, पुराण, संहिता, ज्योतिष, संगीत आदि सभी शास्त्रों में आप दृष्टिगोचर होते हैं। साक्षात् भगवान् विष्णु, शिव आदि से लेकर घोर राक्षस तक आप का सम्मान, विश्वास और आदर करते हैं। देवराज इन्द्र भी आप के वचनों का आदर करते हैं और देवराज हिरण्यकशिपुकी पत्नी कयाधू भी आप की बात पर विश्वास कर आप के आश्रम में अपने को सुरक्षित समझती है। कहीं आप व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव-सरीखे महापुरुषों को परमतत्व का उपदेश देते दिखाई देते हैं, तो कहीं दो पक्षों में कलह और विवाद खड़ा कर देने के प्रयास में लगे दीखते हैं। वास्तव में आप अपने लिए कुछ भी नहीं करते। जिस कार्य से जिसका मंगल देखते हैं और भगवान् की लीला का एक सुन्दर दृश्य सामने ला पाते हैं, उसी कार्य को करने लगते हैं। इनका विवाद और कलह कराना भी लोकहितार्थ और भगवान् की लीला के साधनार्थ ही हुआ करता है। क्योंकि इनकी प्रत्येक चेष्टा भगवान् की ही चेष्टा होती है।इनको तो वस्तुतः भगवान् का 'मन' ही समझना चाहिए; गम्भीर दृष्टि से विचार करने पर भगवत्कृपा से यह बात स्पष्ट दीखती है। कुछ लोग कहते हैं कि नारद नाम के कई भिन्न-भिन्न व्यक्ति हुए हैं। उनमें वे सात मुख्य मानते हैं - 1- ब्रह्मा के मानस पुत्र, 2- पर्वत ऋषि के मामा, 3-वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती के भाई या सत्यवती नामक स्त्री के स्वामी, 4- यहाँ की वहां करके आपस में लोगों को भिड़ा देनेवाले, 5- कुबेर के सभासद, 6- भगवान् श्रीराम की सभा के आठ धर्मशास्त्रियों में से एक और 7- जनमेजय के सर्पयज्ञ के एक सदस्य।
प्रेम-दर्शन [341]
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