Wednesday 5 December 2012

दूसरे से सुख की आशा करने से दुःख ही मिलता है


         मनुष्य के दुःख का प्रधान कारण है - किसी वस्तु, स्थिति, व्यक्ति, अवस्था आदि से सुख की आशा करना l उनमें न कभी सुख है और न वे सुख दे सकेंगे l भगवान् ने खुले शब्दों में इस सब को 'दुःखाल्य' बताया है। जो इस उधार के सुख की आशा करता है, उसको नित्य निराश ही होना पड़ता है। स्थायी सुख तो भगवान् में और आत्मा में है।वह पूर्ण है तथा अखण्ड  है और वह सुख नित्य हमारे पास है। वह कभी घट नहीं सकता, मिट नहीं सकता, छूट नहीं सकता l इस सुख की आशा छोड़कर, जो वास्तव में सुख है नहीं - है तो कृत्रिम है और जो है वह भी सर्वथा अपूर्ण और मिटनेवाला है;  उसको चाहना सर्वथा मूर्खता है l उस स्थायी सुख को पाने की चेष्टा करनी चाहिये , जो कभी घटता, हटता या मिटता नहीं। वह आत्म-सुख या परमात्म-सुख सदा तुम्हारे पास है।
         तुम को जो लोगों पर रोष आता है या तुम उनके बर्ताव से दोष पाते हो, इसका भी मुख्य कारण यही है कि तुम उनसे कुछ चाहते हो। यदि तुम अपने मन को टटोलकर देखो तो ठीक ज्ञात हो जायेगा कि तुम्हारे मन की कामना ही इस रोष  और दोष-दर्शन हेतु है। तुम अगर उनसे कुछ भी आशा न रखो, कोई कामना न रखो, तो फिर रोष का कोई कारण  रह ही नहीं जाता l
         रही अपनी ओर से बर्ताव की बात, तो भाई! सर्वोत्तम बर्ताव तो मेरी समझ में यह है कि उनमें भगवान् के दर्शन करो और उनसे अपना इस प्रकार का सम्बन्ध मानो  कि  उनकी सुविधा और हित के लिए ही तुम नियुक्त किये गए हो l अपनी सुख-सुविधा उसी में समझो, जिसमें उनकी सुख-सुविधा हो। ऐसे चेष्टा करने पर तुम्हारा मन दूसरे रूप में बदल जायेगा और आज उनमें जो दोष दिखायी  देते हैं, वे तुम्हें नहीं दिखायी देंगे।
         एक बात ध्यान में रखने की है, वह यह कि तुम अपने को मालिक न मानकर मुनीम मान लो और सबसे ममता का सम्बन्ध हटाकर सेवक का सम्बन्ध जोड़ लो, तो फिर ये सब उत्पात-उपद्रव अपने-आप बंद हो जायेंगे।
         मैंने संक्षेप से जो बातें लिखी हैं, उन पर विचार करना। कोई बात अच्छी  लगे तो केवल बात से नहीं, मन से और क्रिया से उसे स्वीकार करना l

सुख-शान्ति का मार्ग [333]
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Ram