Tuesday, 11 December 2012

देवर्षि नारद


अब आगे .........
        तब श्री नारदजी कहने लगे - हे मुनिवर्य ! आपने अपने ग्रन्थों  में जिस प्रकार अन्यान्य धर्मों का वर्णन किया है, उस प्रकार भगवान् की कीर्ति का कीर्तन नहीं किया। इसीलिये आपके मन में उदासी छायी  है। जिस वाणी में - जिस कविता में जगत को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीवासुदेव की महिमा और कीर्ति का वर्णन नहीं किया गया है, वह वाणी या कविता मृदु, मधुर और चित्र-विशित्र पदों वाली (काव्यगुणसम्पन्न) होने पर भी सारासार को जाननेवाले ज्ञानीलोग उसे 'काकतीर्थ' के नाम से पुकारते हैं। अर्थात जैसे विष्ठा पर चोंच मारनेवाले कौओं के समान मलिन विषयभोगी कामी मनुष्यों का मन उस कविता में रमता है, वैसे मानसरोवर में विहरण करनेवाले राजहंसों के समान परमहंस भागवतों का मन उसमें कभी नहीं रमता। परन्तु सुनने में कठोर और काव्यालंकार आदि से रहित एवं पद-पद पर व्याकरण आदि से अशुद्ध होने पर भी वह वाणी परम रम्य और जनसमूह  के पापों को नाश करनेवाली होती है, जिसमें भगवान् के नाम और भगवान् के गुणों की चर्चा भरी होती है। अतएव  उस भगवद गुण नाम से पूर्ण वाणी को साधू-महात्मागण सुनते हैं, सुनाते हैं और कीर्तन करते हैं। हे मुनिवर ! आप अमोघदर्शी  हैं, आप से कुछ भी छिपा नहीं है। इसलिये अब आप संसार के कल्याण के लिए श्रीहरि  की लीलाओं का वर्णन कीजिये। विद्वानों ने मनुष्य के तप,श्रवण, नित्य धर्म और तीक्ष्ण बुद्धि आदि का परम फल केवल एकमात्र भक्तिपूर्वक श्रीहरि का गुण वर्णन करना ही बतलाया है। मेरे पूर्वजन्म का इतिहास सुनकर उसका विचार कीजिये  कि श्रीहरि के गुणश्रवण से मैं क्या-से-क्या हो गया।
        हे महामुनि ! मैं पूर्वकाल में एक दासीपुत्र था। एक समय चातुर्मास्य बिताने के लिये वर्षाकाल में हमारे गाँव में बहुत-से महात्मा पधारे। मैं छोटा बालक था। मेरी माता ने मुझे उन महापुरुषों की सेवा में लगा दिया। में उन महात्माओं के सामने किसी प्रकार का लड़कपन नहीं करता था, सब खेलों को छोड़कर शान्ति  के साथ उनके चरणों में बैठा रहता था और बहुत ही कम बोलता था। इन्हीं सब कारणों से वे महात्मा समदृष्टि होने पर भी मुझपर प्रसन्न होकर विशेष कृपा रखने लगे l उन मुनियों की आज्ञा से मैं उनके पत्तों में बची हुई जूठन खा लेता था। इसी के प्रभाव से मेरे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गए। ऐसा करते-करते कुछ समय में मेरा चित्त शुद्ध हो गया जिससे उनके धर्म में (भागवतधर्म में) मेरी रूचि हो गयी। वहाँ वे लोग नित्य श्रीकृष्ण की कथाएँ गाते थे और मैं उन महात्माओं के अनुग्रह से उन मनोहर कथाओं को श्रद्धा के साथ सुनता था।

प्रेम-दर्शन [341]         
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.

0 comments :

Ram