भगवान् श्री राम के अवतरण हेतु देवताओं की प्रार्थना :~
* जय जय सुरनायक जन सुखदायक
प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी
सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न
जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह
सोई॥1॥
भावार्थ:-हे देवताओं के स्वामी,
सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा
करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री
लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले!
आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो
स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा
करें॥1॥
* जय जय अबिनासी सब घट बासी
ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित
मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत
मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं
जयति सच्चिदानंदा॥2॥
भावार्थ:-हे अविनाशी,
सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक,
परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक
के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त
अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का
गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥
* जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई
संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति
न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन
बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल
सुरजूथा॥3॥
भावार्थ:-जिन्होंने बिना किसी दूसरे
संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा,
विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी
उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन
प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले
भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा,
जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले
हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन
और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं॥3॥
* सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा
कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो
श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर
गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत
नाथ पद कंजा॥4॥
भावार्थ:-सरस्वती,
वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं
जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद
पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे
संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार
से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण
कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल
होकर नमस्कार करते हैं॥4॥
भगवान् का वरदान
दोहा :
* जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन
समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥
भावार्थ:-देवताओं और पृथ्वी को
भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर
आकाशवाणी हुई॥186॥
चौपाई :
* जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ
दिनकर बंस उदारा॥1॥
भावार्थ:-हे मुनि,
सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का
रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा॥1॥
* कस्यप अदिति महातप कीन्हा।
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं
प्रगट नर भूपा॥2॥
भावार्थ:-कश्यप और अदिति ने बड़ा
भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप
में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं॥2॥
* तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई।
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति
समेत अवतरिहउँ॥3॥
भावार्थ:-उन्हीं के घर जाकर मैं
रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन मैं सत्य
करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा॥3॥
* हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय
होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत
फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥4॥
भावार्थ:-मैं पृथ्वी का सब भार हर
लूँगा। हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से
सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया॥4॥
भगवान् श्री राम का अवतरण :~
* भए प्रगट कृपाला दीनदयाला
कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत
रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध
भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु
खरारी॥1॥
भावार्थ:-दीनों पर दया करने वाले,
कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को
हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद
देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने
(खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने
थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर
राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥
* कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी
केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान
भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि
गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट
श्रीकंता॥2॥
भावार्थ:-दोनों हाथ जोड़कर माता कहने
लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया,
गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन
दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते
हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे
कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2॥
* ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया
रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर
मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित
बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि
प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥
भावार्थ:-वेद कहते हैं कि तुम्हारे
प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम
मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी
स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ,
तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः
उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे
उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)॥3॥
* माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख
परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक
सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते
न परहिं भवकूपा॥4॥
भावार्थ:-माता की वह बुद्धि बदल गई,
तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो,
(मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं
के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते
हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते
हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4॥
दोहा :
* बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह
मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो
पार॥192॥
(रामचरित मानस बाल काण्ड )
0 comments :
Post a Comment