Friday, 26 April 2013

आनन्द की लहरें -११-

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा,  शुक्रवारवि० स० २०७०


(गत से आगे ...)
फिर भगवन् ! तुम्हारे लिये मैं सारे भागोंको विषम रोग समझकर उनका भी त्याग कर दूँ  और केवल तुम्हें लेकर ही मौज करूँ ! इन्द्र और ब्रह्माका पद भी उस मौजके सामने तुच्छ -- अति तुच्छ हो जाय !

फिर शंकराचार्यकी तरह मैं भी गाया करूँ --

सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् !
सामुद्रो ही तरग्ड: व्कचन समुद्रो न तारंग : !!



बाहरी पवित्रताकी अपेक्षा हृदयकी पवित्रता मनुष्यके चरित्रको उज्जवल बनानेमें बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्यको काम,क्रोध,हिंसा, वैर , दम्भ आदि दुर्गन्धभरे कूड़ेको बाहर फेंककर हृदयको सदा साफ रखना चाहिये !

बाहरसे निर्दोष कहलानेका प्रयत्न न कर मनसे निर्दोष बनना चाहिये ! मनसे निर्दोष मनुष्यको दुनिया दोषी बतलावे तो भी कोई हानि नहीं; परन्तु मनमें दोष रखकर बाहरसे निर्दोष कहलाना हानिकारक है! 

निर्दोष सत्यकार्यको किसी भय, संकोच या अल्प मतिके कारण कभी छोड़ना नहीं चाहिये ! कार्यकी निर्दोषता,उसकी उपकारिता और तुम्हारी श्रद्धा, नेकनीयत तथा टेकके प्रभावसे आज नहीं तो कुछ समय बाद लोग उस कार्यको जरुर अच्छा समझेंगे ! 


याद रखना चाहिये कि संसारके सुखोंकी अपेक्षा परमात्मसुख अतयन्त विलक्षण है, अतः संसार-सुखके लिये परमात्मसुखकी चेष्टामें कभी बाधा नहीं पहुँचानी चाहिये ! 


कर्त्तव्यमें प्रमाद न करना ही सफलताकी कुंजी है और उसीपर परमात्माकी कृपा होती है, आलसी और कर्तव्यविमुख लोग उसके योग्य नहीं ! 
 
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, आनन्द की लहरें पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram