|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण,
एकादशी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०
तन्त्रके नाम पर व्यभिचार और हिंसा
गत ब्लॉग
से आगे... व्यभिचार की आज्ञा देने
वाले तन्त्रों के अवतरण लेखक ने पढ़े है और तन्त्र के नाम पर व्यभिचार और नर बलि
करने वाले मनुष्यों की घ्रणित गाथाये विश्वस्तसूत्रों से सुनी है | ऐसे महान तामसिक
कार्यों को शास्त्रसम्मत मान कर भलाईकी इच्छा से इन्हें करना सर्वथा भ्रम है, भारी
भूल है और ऐसी भूल में कोई पड़े हुए हो तो
उन्हें तुरन्त ही इससे निकल जाना चाहिये | और जो जान-बूझ कर धर्म के नाम पर
व्यभिचार, हिंसा आदि करते हों, उनको तो माँ चंडी का भीषण दण्ड प्राप्त होगा, तभी
उनके होश ठीकाने आयेंगे | दयामयी माँ अपनी भूली हुई संतान को क्षमा करे और उन्हें
रास्ते पर लावे, यहीं प्रार्थना है |
बलिदान
इसके अतिरिक्त पंच्म्कारकके नाम पर
भी बड़ा अन्याय-अनाचार हुआ तथा अब भी बहुत जगह हो रहा है, उससे भी सतर्कता से बचना
चाहिये | बलिदान तथा मधप्रदान भी सर्वथा त्याज्य है | माता की जो संतान, अपनी भलाइ
के लिए – माता से ही अपनी कामना पूरी करने के लिए, उसी माता की प्यारी भोलीभाली
संतान की हत्या करके उसके खून से माँ को पूजती है, जो माँ के बच्चों के खून से माँ
की मंदिर को अपवित्र और कलंकित करता है, उस पर माँ कैसे प्रसन्नहो सकती है ?
माँ दुर्गा, काली जगजननी विश्वमाता
है | स्वार्थी मनुष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए धन-पुत्र, स्वार्थ-वैभव, सिद्धि
या मोक्ष के लिए भ्रमवश निरीह बकरे, भैसे और अन्यान्य पशु-पक्षियों के गले पर छुरी
फेरकर माता से सफलता का वरदान चाहता है, यह कैसी असंगत और असम्भव बात है | निरपराध
प्राणियों की नृशंशसतापूर्वक हत्या करने-करने वाला कभी सुखी हो सकता है ? उसे कभी
शांति मिल शक्ति है ? कदापि नहीं |
दयाहीन मॉसलोलुप मनुष्यों ने ही इस
प्रकार की प्रथा चलाई है | जिसका शीघ्र ही अंत हो जाना चाहिये | जो दुसरे निर्दोष
प्राणियों के गर्दन काट कर अपना भला मनायेगा, उसका यतार्थ कभी भला नहीं हो सकता |
यह बात स्मरण रखनी चाहिये |... शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!