Wednesday, 31 October 2012

रस[प्रेम]-साधन की विलक्षणता


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       यह अवश्य ही बड़ी मनोहर बात है कि भगवान् में परस्पर-विरोधी गुण-धर्म युगपत रहते हैं, जो भगवान् की भगवत्ता का एक लक्षण माना जाता है  और यह कहा  जाता है कि जिसमें परस्पर-विरोधी गुण-धर्म एक साथ, एक समय में रहें, वह भगवान् है l जहाँ गर्मी है, वहाँ सर्दी नहीं है; जहाँ दुःख है, वहाँ सुख नहीं है , जहाँ मिलन है, वहाँ अमिलन नहीं है और जहाँ भाव है, वहाँ अभाव नहीं है l  इस प्रकार दो विरोधी वस्तु जगत में एक साथ एक समय नहीं रहतीं l  यह नियम है l  परन्तु भगवान् ऐसे विलक्षण हैं - वे अणु-से-अणु भी हैं और उसी समय वे महान-से-महान भी हैं l
       'वे चलते हैं और नहीं भी चलते, वे दूर हैं और पास भी हैं  l '   वे एक ही समय निर्गुण भी हैं, उसी समय वे सगुण भी हैं l  वे निराकार हैं, उसी समय वे साकार भी हैं l उनमें युगपत-एक साथ परस्पर-विरोधी गुण-धर्म रहते हैं l  और जिस प्रकार भगवान् में परस्पर-विरोधी गुण-धर्म एक साथ निवास करते हैं, उसी प्रकार वे परस्पर-विरोधी गुण-धर्म भगवत्प्रेम में , भगवत्प्रेम कि साधना में भी एक साथ रहते हैं l  वहाँ प्रेम-साधना में और प्रेमोदय के पश्चात् भी हँसने में रोना और रोने में हँसना चलता है l  रोना विरह-विकलता जनित पीड़ा का और हँसना मधुरस्मृति जनित आनन्द का l  दोनों साथ-साथ चलते हैं ? यह बिलकुल युक्ति संगत बात है l  जिसके लिए वे रोते हैं ; उसकी स्मृति है, स्मृति न हो तो किसके लिए रोना और स्मृति है तो उसके सान्निध्य का आनन्द साथ है l  अत: रोना और हँसना - ये दोनों इस रस के साधन में साथ-साथ चलते हैं l  वस्तुत: वह रोना भी हँसना ही है l  वह रोना भी मधुर है, मधुरतर है l  फिर एक बात - ये मिलन और वियोग प्रेम के दो समान स्तर हैं l इन दोनोने में ही प्रेमीजनों की भाषा में, प्रेमीजनों की अनुभूति में समान 'रति' है l  तथापि यदि कोई उनसे पूछे कि 'तुम दोनों में से कौन सा लाना चाहते हो, एक ही मिलेगा - संयोग या वियोग ?' यह बड़ा विलक्षण प्रश्न  है l हमसे यही प्रश्न किया जाये कि 'तुम दोनों में कौन-सा चाहते हो, तो स्वाभाविक  हम यही यही कहेंगे - 'हम मिलन चाहेंगे, संयोग चाहेंगे वियोग कदापि नहीं l '       

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]              
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Tuesday, 30 October 2012

रस[प्रेम]-साधन की विलक्षणता


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       पर उस विषम वियोग-विष में उस विष के साथ एक बड़ी विलक्षण अनुपम वस्तु लगी रहती है - भगवान् की मधुरातिमधुर अमृतस्वरूप चिन्मयी स्मृति l  भगवान् की यह स्मृति नित्यानंत सुखस्वरूप भगवान् को अन्दर में ला देती है l  फिर वह विष विष नहीं रह जाता l  भयानक विष होते हुए भी वह देवलोकातीत भागवत-मधुर विलक्षण अमृत का आस्वादन कराता है l  इसलिए भगवान् के मिलन की आकांक्षा के समय भगवान् के जिस अमिलन-जनित ताप में जो परमानन्द है, वह परमानन्द किसी दूसरे विषय के अमिलन पर उसके मिलने की आकांशा में नहीं l  इस ताप में परमानन्द हुए बिना रह नहीं सकता, क्योंकि भगवान् परमानन्दस्वरूप हैं l  भोग-वस्तुएं सुखस्वरूप नहीं हैं l  इसलिए उनका अमिलन कभी सुखदायी नहीं हो सकता, वह दुःखप्रद ही रहेगा l अतएव इस रस की साधना में, प्रेम की साधना में प्रारंभ से ही भगवान् का सुखस्वरूप साधक के राग का विषय होता है l  भगवान् का कण-कण आनंदमय है, रसमय है l वहां उस रसमयता के अतिरिक्त, उस रस के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कोई भी सत्ता नहीं है, भाव नहीं है, अस्तित्व नहीं है, होनापन नहीं है l वहां प्रत्येक रोम-रोम में केवल भगवत स्वरुपता भरी है और भगवत स्वरुपता का परमानन्द उसका स्वाभिविक सहज रूप है l  वस्तुत: जहाँ-जहाँ भगवान् की स्मृति है, वहां-वहां भगवद रस का समुद्र लहरा रहा है l  अतएव आनंदमय भगवान् को प्राप्त करने के लिए, रस रूप भगवान् को प्राप्त करने के लिए, प्रेम के द्वारा प्रेमास्पद भगवान् को प्राप्त करने के लिए, भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिए जिस प्रेम-साधन की - रस साधन की निष्ठां होती है, आरम्भ से ही उसमें वह परम सुख का - परम माधुर्य का आस्वादन मिलता है l तो फिर भगवान् के विरह में दुःख का होना क्यों माना गया है ? विष क्यों बताया गया है ? उसमें कालकूट से भी अधिक विष की कटुता क्यों कही गयी है ? इस उत्तर यह है कि वह भगवान् के मिलन की आकांक्षा, संसार के भोगों को प्राप्त करने की आकांक्षा से अत्यंत विलक्षण होती है l  


मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]           
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Monday, 29 October 2012

रस[प्रेम]-साधन की विलक्षणता


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        इस रस की साधना में सब से पहला साधन होता है पूर्वराग l यह प्रियतम भगवान् श्री श्यामसुंदर के , भगवान् श्री राघवेन्द्र के किसी के भी प्रेमास्पद के गुण को सुनकर, उनके नाम को सुनकर, उनके सौंदर्य-माधुर्य की बात सुनकर, उन्हें स्वप्न में देखकर, उनकी मुरली ध्वनि या नुपुर ध्वनि सुनकर, उनकी चर्चा सुनकर, कहीं दूरसे उन्हें देखकर, उनकी लीलास्थली को देखकर मन में जो एक आकर्षण पैदा होता है, मिलनेच्छा का उदय होता है, उसे पूर्वराग कहते हैं l पूर्वराग जहाँ उदय हुआ, वहीँ जिसके प्रति राग का उदय हुआ, उसको प्राप्त करने के लिए, उसको पुन:-पुन: देखने के लिए, उसके बार-बार गुण सुनने के लिए, उसकी चर्चा करने के लिए, उसकी निवासस्थली देखने के लिए सारी इन्द्रियां, सारा मन व्याकुल हो उठता है l  जहाँ यह भगवान् के लिए होंबेवाली व्याकुलता अत्यंत दुःख दायिनी होने पर भी परम सुख-स्वरूपा होती है l भगवान् के अतिरिक्त जितने भी विषय हैं, जितने भी भोग हैं, सभी दुःख योनि हैं, दुःखप्रद हैं, कोई भी वस्तुत: सुखस्वरूप नहीं है, इनमें तो सुख की मिथ्या कल्पना की जाती है l ये भगवान् सर्वथा-सर्वदा अपरिमित अनन्त सुखस्वरूप हैं l यही बड़ा भेद है l  जितने भी इस लोक के, परलोक के, जगत के भोग हैं, कोई भी सुखस्वरूप नहीं है, आनन्द स्वरुप नहीं है l उनमें अनुकूलता होने पर सुख की कल्पना होती है , सुख का मिथ्या आभास होता है l  उनमें सुख की सत्ता नहीं है l  भगवान् हैं अनंत सुख-सागर l आनन्द भगवान् का स्वरुप है l  आनन्द भगवान् में है, सो नहीं l आनन्द भगवान् का स्वरुप ही है l  वह आनन्द नित्य है, अखण्ड है, अतुलनीय है और अनन्त है l वह आनन्द साक्षात् सच्चिन्मय भगवद रूप है l  इसलिए उन आनन्द स्वरुप भगवान् में जिसका राग होता है, उसको आरम्भ से ही आनन्द की ही स्फूर्ति होती है, अत: प्रारम्भ से ही उसे सच्चित-आनन्द के दर्शन होते हैं, आनन्द का ही सतत संग, निरन्तर आस्वाद मिलता है l इस रस की साधना में आरम्भ से ही सुख स्वरुप भगवान् में पूर्वराग होता है l  भगवान् के विरह में जो अपरिसीम पीड़ा होती है,उसके सम्बन्ध में कहते हैं कि वह कालकूट विष से भी  अधिक ज्वालामयी होती है l वह महान पीड़ा नवीन कालकूट विष की कटुता के गर्व को दूर कर देती है l

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]             .          
 
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Sunday, 28 October 2012

रस[प्रेम]-साधन की विलक्षणता



         स्वरूपत: तत्व एक होने पर भी रसरूप भगवान् और रस की साधना-प्रेम साधना कुछ विलक्षण होती है l रस-साधना में एक विलक्षणता यह है की उसमें आदि से ही केवल माधुर्य-ही-माधुर्य है l जगत में दुःख-दोष देखकर जगत का परित्याग करना, भोगों में विपत्ति जानकर भोगों को छोड़ना, संसार को असार समझकर इससे मन को हटाना- वे सभी अच्छी बातें हैं, बड़े सुन्दर साधन हैं, होने भी चाहिए l  पर रस की साधना में कहीं पर खारापन नहीं रहता l इसलिए किसी वस्तु को वस्तु के नाते त्याग करने की इसमें आवश्यकता नहीं रहती l  प्रेम की - रस ही रस है l अत: भगवान् में अनुराग को लेकर रस की साधना का प्रारंभ होता है l एकमात्र भगवान् में अनन्य राग, तो अन्यान्य वस्तुओं में राग का स्वाभाविक ही अभाव हो जाता है l  इसलिए किसी वस्तु का न तो स्वरूपत: त्याग करने की आवश्यकता होती और न किसी वस्तु में दोष-दुःख देखकर उसे त्य्हाग करने की प्रवृति होती है l  उन वस्तुओं में से राग निकल जाने के कारण कहीं द्वेष भी नहीं रहता l  ये राग-द्वेष द्वन्द्व हैंब l  जहाँ राग है, वहां द्वेष है l  जहाँ द्वेष है, वहां राग भी है l  द्वन्द्व की वस्तु अकेली नहीं होती l  इसीलिए उसका नाम द्वन्द्व है l  सो या तो ज्ञानी विचार के द्वारा द्वन्द्वातीत  होते हैं या ये रसिक लोग -प्रेमीजन द्वन्द्वों से अपने लिए अपना कोई सम्पर्क नहीं रखकर उन द्वन्द्वों के द्वारा ये अपने प्रियतम भगवान् को सुख पहुँचाते  हैं और प्रियतम को सुख पहुँचाने के जो भी साधन हैं, उनमें से कोई-सा साधन भी त्याज्य नहीं, कोई-सी वस्तु भी हेय नहीं l एवं उन वस्तुओं में कहीं आसक्ति है नहीं कि जो मन को खींच सके l  इसलिए रस की साधना में कहीं पर कडवापन नहीं है l  उसका आरंभ ही होता है माधुर्य को लेकर, भगवान् में राग को लेकर राग बड़ा मीठा होता है l राग का स्वाभाव ही है मधुरता l जिसमें हमारा राग हो जाय, जिसमें हमारा प्रेम हो जाय, उसका प्रत्येक पदार्थ, उससे सम्बंधित प्रत्येक वस्तु सुखप्रदायिनी  हो जाती है, सुखमयी बन जाती है l  यह राग का - प्रेम का स्वभाव है l   वह राग जहाँ पर भी है, जिस किसी वस्तु में है, वही वस्तु सुखकर हो जाती है और यह रस साधना  शुरू होती है राग से ही l  इस साधना की बड़ी सुन्दर ये सब चीज़ें हैं समझने की , सोचने की, पढने की और वास्तव में साधना करने की l

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]                        l
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Saturday, 27 October 2012

रास-रहस्य [त्याग की पराकाष्ठा]


 
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           किन्तु वह 'अनंग' कौन है ? भगवान् है - प्रेम है l और कोई भी अनंग है ही नहीं l  इस अनंग की, इस प्रेम की वृद्धि करनेवाली वह वेणु-ध्वनि  इनके कानों में  पड़ी l  किनके कानों में पड़ी ? एक शब्द बहुत सुन्दर है - 'कृष्णगृहीतमानसा:' जिनके मनों को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l  गोपियों का मन अपने पास नहीं, वे 'कृष्णगृहीतमानसा:' हैं l जो कृष्णगृहीतमानसा: नहीं होगी, उनको भय के कारण मोह से छुटकारा नहीं मिल सकता , वे भगवान् के आहवान को नहीं सुन सकते, उनका मन तो घर में फँसा है l उनको तो घर की ही पुकार सुनाई देती है चारों तरफ से l   मुरली की पुकार कहाँ से सुनाई देगी  ? मुरली की पुकार तो सारे ब्रज में गयी किन्तु उन्हीं ब्रजबालाओं ने सुनी जो कृष्णगृहीतमानसा: थीं l  घर के अन्य लोगों ने नहीं सुनी; क्योंकि घर में ही उनका मानस राम रहा था, घर ने ही उनके मानस को पकड़ रखा था l  किन्तु ये कृष्णगृहीतमानसा: ब्रजबालाएं कैसी थीं - इनके मन को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था l इनके पास इनका मन था ही नहीं l  वैसे तो हमारे पास भी हमारा मन नहीं है l  हमने भी खुला छोड़ ही रखा है उसे विषय के बीहड़ वन में विचारने के लिए l  जहाँ चाहता है, हमको ले जाता है l विषयों से सर्वथा इसको विमुख करके खुला छोड़ दें l  जब हम विषयों को मन से निकलकर, विषयों से मन को हटाकर मन को खुला छोड़ देंगे, जहाँ मन सचमुच निर्बन्ध हुआ कि 'भगवान् इसे ले जायेंगे' यह बिलकुल सच्ची बात है l
           भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को खुला नहीं देखते l  भगवान् आते हैं, पर हमारे मन को किसी के द्वारा पकड़ा हुआ देखते हैं, हमारे मन में किसी को बैठा हुआ पाते हैं l  तब भगवान् देखते हैं कि इसका मन तो अभी खाली नहीं है , बंधा हुआ है - तब वे लौट जाते हैं l किन्तु गोपियों ने मन को खुला छोड़ दिया था l सब चीज़ों से मन को खोल दिया था l मन के सारे बन्धनों को काट दिया था उन्होंने l  जब मन इनका ऐसे हो गया, जिसमें संसार रहा नहीं तो भगवान् ने आकर उसको पकड़ लिया l  और मन को पकड़ कर क्या किया ? गोपियों के मन को अपने मन में ले गए और अपने मन को उनके मन में बिठा दिया l

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]                 
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Friday, 26 October 2012

रास-रहस्य [त्याग की पराकाष्ठा]




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         भगवान् का यह मिलन कब होता है ? जब और किसी वस्तु की कल्पना भी मन में नहीं रह जाती और जब भगवान् के मिलन के लिए चित्त अनन्य रूप से अत्यंत आतुर हो जाता है l  यह दशा जब होती है और भगवान् जब इस को देख लेते हैं कि अब यह तनिक-सा संकेत पते ही, सर्वस्व का त्याग तो कर ही चूका है, उस सर्वस्व के त्याग को प्रत्यक्ष करके आ जायेगा l  इस प्रकार कि स्थिति जब भगवान् देखते हैं, तब वे मुरली बजाते हैं और वह मुरली-ध्वनि उन्हीं को सुनाई भी देती है l ब्रज में भी उस समय मुरली तो बजी और मुरली कि जो ध्वनि दिव्य लोकों में पहुँच-पहुँच कर वहां के देवताओं को भी स्तंभित कर देती है - उस मुरली कि ध्वनि को भी उस दिन - आज के दिन - शारदीय रात्रि के दिन - सब ने नहीं सुना l  वह ध्वनि केवल उन्हीं के कानों में गयी थी जो भगवान् से मिलने के लिए आतुर थे, जिनका ह्रदय अत्यंत उत्तप्त था भगवत-मिलन-सुधा के लिए l  केवल उन्हीं के  हृदय में, उन्हीं के कानों में भगवान् की वह मुरली-ध्वनि पहुँची l  मुरली-ध्वनि क्या थी - भगवान् का आवाहन था, क्योंकि उनकी साधना पूर्ण हो चुकी थी l  भगवान् ने अगली रात्रियों में उनके साथ विहार करने का प्रेम-संकल्प जो कर लिया था l
         मुरली बजी-तब क्या हुआ ? बड़ी सुन्दर भावना है l  यह स्थिति होती है भगवान् के यथार्थ विरही साधक की l  बड़ी ऊँची स्थिति है यह l  कहते हैं - मुरली बजी और मुरली की गीत-ध्वनि उन्होंने सुनी l वह गीत कैसा था ? 'अनंगवर्धक' था l  ये जितनी भी संसार में हम प्रकृति की वस्तुएं देखते हैं, इसमें कोई भी अनंग नहीं है l प्रकृति स्वयं अनंग नहीं है,  अंगवाली है और ये अंगवाली कोई भी चीज गोपियाँ मन में नहीं रही l  किन्तु वह 'अनंग' कौन है ? भगवान् हैं - प्रेम है l  और कोई भी अनंग है ही नहीं  l  
    
मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)                       
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Thursday, 25 October 2012

रास-रहस्य[त्याग की पराकाष्ठा]



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          श्री गोपांगनाएं भगवत स्वरूपा हैं, चिन्मयी हैं, सच्चिदानंद मयी  हैं l  साधना की दृष्टि से भी, इन्होने जड़ शरीर का मानो इस तरह से त्याग कर दिया l सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से अनुभव होनेवाले आनन्दस्वरूप का भी त्याग कर दिया l  इनकी दृष्टि में क्या है ? गोपियों की दृष्टि में क्या है - यह बहुत गम्भीर समझने की वस्तु है, साधना की ऊँची-से-ऊँची साध्य वस्तु l गोपियों की दृष्टि में है  - केवल और केवल चिदानन्द स्वरूप प्रेमास्पद श्रीकृष्ण प्रियतम और इनके ह्रदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला निर्मल प्रेमामृत छलकता रहता है नित्य l  इसीलिए श्रीकृष्ण उनके ह्रदय के प्रेमामृत का रसास्वादन करने के लिए लालायित रहते हैं, इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं उद्दीपन-मंच की रचना की, गोपांगनाओं का आह्वान किया और इसीलिए शरद की रात्रियों को उन्होंने चुना और आमन्त्रित किये l यहाँ  पर यह कल्पना भी नहीं करनी चाहिए कि यहाँ कोई जड़-राज्य है l  गोपियों के वास्तविक स्वरूप को पहचानना चाहिए l  शास्त्रों में आता है - ब्रह्मा, शंकर, नारद, उद्धव और अर्जुन- जैसे महान लोगों ने बड़े-बड़े त्यागी ऋषि-मुनियों ने यहाँ तक कि स्वयं 'ब्रह्मविद्या' ने दीर्घकाल तक तप-उपासना करके गोपिभाव की थोड़ी-सी लीला देखने के लिए वरदान प्राप्त किया l अनुसूया, सावित्री इत्यादि महान पतिव्रता देवियाँ भी गोपियों की चरण-धूलि की उपासिका थीं l एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई पति है ही नहीं - इस बात को देखने वाली परम पतिव्रता तो एकमात्र श्रीगोपियाँ ही हैं l दूसरी कोई थी ही नहीं और कभी ऐसा कोई हुआ ही नहीं l
           इस स्थिति का भाव  जब देख सकें, तभी हम गोपियों की दिव्य लीला पर विचार कर सकते हैं, अन्यथा कदापि नहीं l सबसे पहले यह बात ध्यान में रखने की है कि यह 'भगवान्' कि लीला है l भगवान् सचिदानन्दघन दिव्य हैं, अजन्मा हैं, अविनाशी हैं , हानोपादान रहित  हैं, सनातन हैं, सुन्दर हैं l  इसीप्रकार श्री गोपांगनाएं भी भगवान् की स्वरूप भूता, श्रीराधा-रानी की कायव्यूहरूपा हैं l ये सब इनकी अन्तरंग शक्तियां हैं l इन दोनों का सम्बन्ध भी नित्य और दिव्य है l भाव-राज्य की यह लीला स्थूल शरीर, स्थूल मन के परे की वस्तु है l

                               
मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]                            
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Tuesday, 23 October 2012

रास-रहस्य[त्याग की पराकाष्ठा]





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        भला, शरद ऋतु में मल्लिका कहाँ से प्रफुल्लित हुई ? परन्तु इसके विचित्र भाव हैं और विचित्र अर्थ हैं l  यह अनुभव की वस्तु है, कुछ कहा नहीं जा सकता l किन्तु इतनी बात तो जान लेनी चाहिए कि यह जो कुछ है - सब भगवान् में है और भगवान् का है l  जड़ की सत्ता जीव की दृष्टि में होती है l  अज्ञान युक्त हमारी आँखों में है - उसकी सत्ता l भगवान् की दृष्टि में जड़ की सत्ता ही नहीं है l  देह और देही का जो भेदभाव है, वह प्रकृति के राज्य में है, जड़ राज्य में है l अप्राकृतिक लोक में, जहाँ प्रकृति भी चिन्मय है, वहाँ सब कुछ चिन्मय है l  वहाँ अचित की कहीं-कहीं जो प्रतीति होती है - वह केवल चिद्विलास अथवा भगवान् की लीला की सिद्धि के लिए होती है  l वस्तुत: वहाँ अधिक कुछ है ही नहीं l  इसलिए होता यह है कि जीव होने के कारण हमारा मस्तिष्क, क्योंकि जड़-राज्य में है, इस लिए जड़-राज्य में हम प्राकृतिक वस्तुओं को जड़ रूप में ही देखते हैं l  इसीलिए कभी-कभी हम अप्राकृतिक वस्तु का भी विचार करते हैं, जैसे - भगवान् का दिव्य लीला-प्रसंग का, भगवान् की रासलीला इत्यादि का, जो सर्वथा अप्राकृतिक चिन्मय वस्तु हैं, तो हमारी यह बुद्धि जड़ में प्रविष्ट रहने के कारण वहाँ भी जड़ को ही देखती है l  इस प्रकार अपनी जड़-राज्य की धारणाओं को, कल्पनाओं को, क्रियाओं को लेकर हम उसीका दिव्य राज्य में भी आरोप कर लेते हैं l अपनी सड़ी-गली-गन्दी विषय-विष-कर्दम भरी आँखों से हम वही सड़ी-गली-गन्दी चीज़ों की, हाड़-मांस-रक्त के शरीर की - जिस में विष्ठा-मूत्र-श्लेष्म भरा है कल्पना करते हैं - इसी को देखते हैं l  चिन्मय राज्य में हम प्रवेश ही नहीं कर पाते और इसलिए दिव्य-रास में भी हम लोग इन जड़ स्त्री-पुरुषों की और उनके मिलन की ही कल्पना करते हैं l  इनटू यह बात सर्वदा ध्यान में रखने की है कि भगवान् का यह रास परम उज्जवल, दिव्य रस का प्रकाश है l जड़-जगत की बात तो दूर रही, हम यहाँ तक कह दें तो अत्युक्ति नहीं होगी कि ज्ञान या विज्ञानं रूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता l इतना ही नहीं, जो साक्षात् चिन्मय तत्व है, उस परम दिव्य, चिन्मय तत्व में भी इस दिव्य रस का लेशमात्र नहीं देखा जाता l

मानव-जीवन का लक्ष्य[५६]                            
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Monday, 22 October 2012

रास-रहस्य [त्याग की पराकाष्ठा]





       'रास' शब्द को सुनकर हम लोग प्राय: रास-मण्डलियों द्वारा जो रासलीला होती है, इसी की बात सोचते हैं, दृष्टि उधर ही जाती है L अवश्य ही यह रासलीला भी उसका अनुकरण ही है, उसी को दिखाने के लिए है, इसलिए आदरणीय है l  परन्तु भगवान् का जो दिव्य रास है, उसकी विलक्षणता थोड़ी-सी समझ लेनी चाहिए l
       'रास' शब्द का मूल है - 'रस' और रस है भगवान् का रूप - 'रसो वै स:l ' अतएव वह एक ऐसी दिव्य क्रीडा होती है, जिसमें एक ही रस अनेक रसों के रूप में अभिव्यक्त हो कर अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करता है - वह एक ही रास अनन्त रसरूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, स्वयं ही आस्वादक, स्वयं ही लीला, धाम और विभिन्न  आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में लीलायमान हो जाता है l और तब एक दिव्य लीला होती है - उसी का नाम 'रास' है l  रास का अर्थ है - 'लीलामय भगवान् की लीला' ; क्योंकि लीला लीलामय भगवान् का ही स्वरुप है, इसलिए 'रास' भगवान् की स्वरुप ही है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं l भगवान् की यह दिव्य लीला तो नित्य चलती रहती है और चलती रहेगी, इसका कहीं कोई छोर नहीं l  कब से आरंभ हुई और कब तक चलेगी - यह कोई बता ही नहीं सकता l कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी  महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमारी इस भूमि में भी 'रासलीला' का अवतरण होता है l  यह अवतरण भगवान् श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय हुआ था l  उसी का वर्णन श्रीमद भागवत में 'रासपंचाध्यायी'के नाम से है l पाँच अध्यायों में उसका वर्णन है l  इन पाँच  अध्यायों में सब से पहले वंशीध्वनि है l वंशी ध्वनि को सुनकर प्रेमप्रतिमा गोपिकाओं का अभिसार है l  श्रीकृष्ण के साथ उनका वार्तालाप है, दिव्य रमण है, श्रीराधा जी के साथ श्रीकृष्ण का अन्तर्धान है, पुन: प्राकट्य है l  फिर गोपियों द्वारा दिए हुए वसनासन पर भगवान् का विराजित होना है l  गोपियों के कुछ कूट प्रश्नों का, गूढ़ प्रश्नों का, प्रेम-प्रश्नों का उत्तर है l  फिर रास-नृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वन-विहार - इस प्रकार अंत में परीक्षित के संदेहान्वित होने पर बंद कर दिया जाता है - रास का वर्णन l

मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)                       
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Sunday, 21 October 2012

साधक का स्वरूप





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जैसे सूर्य और रात्रि - दोनों एक साथ एक स्थान में नहीं रह सकते, इसी प्रकार 'राम' और 'काम' - 'भगवान्' और ' भोग' एक साथ एक हृदय देश में नहीं रह सकते l इसीलिए साधक को चाहिए कि भोगों को दुःख-दोषपूर्ण देखकर उनसे मन को हटाये l उसे यदि भोगों के त्याग का या भोगों के अभाव का अवसर मिले तो उसमें वह अपना सौभाग्य समझे l वस्तुत: भोगों में सुख है ही नहीं, सुख तो एकमात्र परमानन्द स्वरूप श्री भगवान् में है l विषय-सुख तो मीठा विष है जो एक बार सेवन करते समय मधुर प्रतीत होता है पर जिसका परिणाम विष के समान होता है, इसीलिए बुद्धिमान साधक इन दुःख योनि संस्पर्शज भोगों से कभी प्रीति नहीं करते, वे अपना सारा जीवन बड़ी सावधानी से भगवान् के भजन में बिताते हैं l

ऐसा कौन मूढ़ होगा जो अमृत से भी अधिक प्रिय -सुखमय श्रीकृष्ण-सेवा (भजन) को छोड़कर विषम विषय रूप विष का पान करना चाहेगा ? जैसे कीट-पतंगों के दृष्टि में दीपक की ज्योति बड़ी मनोहर मालूम होती है और वंशी में पिरोया हुआ मांस का टुकड़ा मछली को सुखप्रद जान पड़ता है, वैसे ही विषयासक्त लोगों को स्वप्न के सदृश असार,. विनाशी, तुच्छ, असत और मृत्यु का कारण होने पर भी 'विषयों में सुख है' - ऐसी भ्रान्ति हो रही है l

साधक इस भ्रान्ति के जाल को काटकर इससे बाहर निकल जाता है, अतएव जब उसके विषय-सुख का हरण या अभाव होता है, तब वह भगवान् की महती कृपा का अनुभव करता है l वास्तव में है भी यही बात l मान लीजिये एक दीपक जल रहा है, दीपक की लौ बड़ी सुन्दर और मनोहर प्रतीत होती है, उस लौ की ओर आकर्षित होकर हजारों पतंगें उड़-उड़कर जा रहे हैं और उसमें पड़कर अपने को भस्म कर रहे हैं l इस स्थिति में यदि कोई सज्जन उस दीपक को बुझा दे या दीपक और पतंगों के बीच में लम्बा पर्दा लगा दे, पतंगों को उधर जाने से रोक दे तो बताइए, इसमें उन पतंगों का उपकार हुआ या अपकार ? और इस प्रकार पतंगों को जल-मरने से बचानेवाला वह मनुष्य उनका उपकारी हुआ या अपकारी ? बुद्धिमान मनुष्य यही कहेगा कि उसने बड़ा उपकार किया जो पतंगों को जलने से बचा लिया l

मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)          
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Saturday, 20 October 2012

सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय



जब तुम्हारा साधन नहीं होता, तुम्हारा भजन नहीं होता तब विपत्ति आ गयी । नहीं तो विपत्ति है ही नहीं । इसीलिए साधक लोग विषयी लोगों के उलटे मतवाले होते हैं । विषयी जहाँ मान चाहते हैं , वहाँ साधक मान से डरते हैं । विषयी जहाँ स्तुति चाहते हैं , वहाँ साधक स्तुति से डरते हैं , निंदा को अपनाते हैं । विषयी जहाँ भोग-सुख चाहते हैं साधक वहाँ भोग-सुख से डरते हैं । कहीं इनमे मन फंस न जाय । कहीं भोगों में साधक को रहना पड़ता है तो बड़े चौकन्ने रहते हैं कि कहीं फिसल न जायं । जितना भी यह भोग क्षेत्र है , सब फिसलने की जगह है । बड़ी सावधानी की जगह है । जरा-से-में भगवान की विस्मृति हो जायेगी और भोग आकार सवार हो जायेंगे । अभी दुःख क्यों है ? भोगियों को देखकर दुःख है । सब एक से हो जायं तो दुःख रहे ही नहीं भोगों की महत्ता  हमारे मन में है कि अमुक के पास भोग है और हमारे पास नहीं है । उसके पास इतना बड़ा मकान है और मेरे पास रहने की झोपडी नहीं है , इसलिये दुखी है । अमुक का इतना सम्मान है और हमारा नहीं है । अमुक की इतनी प्रशंसा होती है हमारी निंदा होती है । लोग क्या कहेंगे ? अरे, अपने कान बंद कर लो । लोगों को मत देखो लोग अपना कह सुन-करके चुप हो जायेंगे ।निंदा उसकी होती है जो निंदा को निंदा मानता है । प्रशंसा उसकी होती है जो प्रशंसा मानता है । साधक लोगों की उक्तियों को सुनेगा नहीं और सुनेगा तो मन ही मन हँसेगा कि देखो , बेचारे कितने भोले हैं जो जगत के पदार्थों में सुख दुःख की कल्पना करते हैं । उसको सुख दुःख नहीं होगा । संसार की निंदा-स्तुति , मान-अपमान ये आने जाने वाले हैं ।यही तो मोह है कि दुखों की उत्पत्ति के स्थान हैं भोग और उनके लिए हम रोयें । वे मिलें तब हम उनके लिए सुखी होवें । जहर पीकर अमीर होना चाहता है । तुलसीदास जी कहते हैं कि विषयरुपी जहर को माँग-माँगकर पीता है । तब भगवान हँसते हैं । यह दुःख को लेकर सुखी होना चाहता है । जो भोग दुःखयोनि हैं, वे सुख देंगे कहाँसे ! भोगों में आस्था , भोगों में ममता , भोगों के लिए चेष्टा , भोगों का संचय , भोगों की प्राप्ति – ये सब दुःख पैदा करने  वाले हैं ; क्योंकि यह भोग जगत है दुःखरूप । इसमें जो सुख है, वह केवल भगवान हैं । अगर जगत मे भगवान को देखें और भगवान् को पकड़ लें और भगवान् के साथ मनको जोड़ ले , तब तो यहाँ दुःख है नहीं ।जीवन में सुख आएगा दुःख लेकर । जगत भयानक दुःख रूप है – यह समझकर भोग पर आस्था मिटी कि भगवान् में विश्वास हुआ – ऐसा होने पर जगत भगवान् कि लीला होने के कारण से दुखरूप नहीं रहेगा । भगवान् कभी सुख का रूप धरकर आ गया और कभी दुःख के रूप में आ गया । कैसा लीलामय है । यह कैसी – कैसी लीलाएँ करता है ! यह लीला देखो और मौज में रहो । फिर ये दुःख नहीं रहेंगे । ये सब भगवान् की  लीलाएँ रहेंगी । 

   कल्याण संख्या – ९ ,२०१२ 
                                                                                                                            
        श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी

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Friday, 19 October 2012

सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय



जबतक हमारे मन में कामादि दोष भरे हुए हैं और जब तक उन दोषों  के कारण से हम जगत के प्राणी-पदार्थ की आशा रखते हैं एवं भगवान पर विश्वास नहीं करते , तबतक हम भगवान पर निर्भर कहाँ हुए और निर्भर हुए बिना भगवान अपने मन की क्यों करें ? करते तो अपने मन की ही हैं , परन्तु हमें नहीं जँचता; इसलिए की भगवान अपने मन की करके हमारा मंगल कर देंगे । हम अपने मन के मंगल में भगवान की कृपा मानते हैं । अपने मन का मंगल न मिलने पर अकृपा मानते हैं । इसलिए हमारे मंगल-अमंगल की कल्पना हमारे मनमे प्रधान है । भगवान की कृपा प्रधान नहीं है । इसलिए हम दुखी हैं और यह दुःख कभी मिटने का नहीं ; क्योंकि कहीं आशा पूरी होगी तो नयी आशा आ जायगी और आशा पूरी नहीं होगी तो न पूरा होने का दुःख होगा ; क्योंकि जगत की आशा कभी पूरी  होती ही नहीं है  

    ‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहूँ , बिषय-भोग बहु घी ते ।।’

जैसे आग में घी डालते जाओ तो आग बुझेगी ही नहीं । इसीप्रकार भोगों की प्राप्ति से भी कामना की आग बुझेगी ही नहीं । इसीलिए भोगों की आशा से यहाँ कभी सुख न किसी को मिला है न मिल सकता है और न ही मिलेगा । भूगों की आशा तो छोडनी ही पड़ेगी यदि सुखी होना है तो । जहाँ यह आशा छूटी , फिर प्रत्येक अवस्था में सुख है । पांच सात चीजें हमने ऐसी मान रखी हैं , जिनका नाम दुःख है । निंदा , अपमान, शरीर रोगी हो गया , धन नहीं रहा , खाने-पीने-पहनने का आराम नहीं रहा, लोग पूछने वाले नहीं रहे इत्यादि ।  इन्ही सब का नाम तो दुःख है न । ये सब चीजें जो शरीर नश्वर है, उसके साथ – नश्वरता के साथ लगी हैं । जिनके पास हैं , उनकी भी रहेंगी नहीं । इनका तो वियोग होगा ही , इनसे सम्बन्ध तो छूटेगा ही , इनसे ममत्व रहेगा ही नहीं । अगर हम यह समझ लें कि हमारे भगवान ही इन दुखों का विधान करते हैं हमारे मंगल के लिए । हमारे भगवान ही इन दुखों के रूप में आकार स्पर्श कराते हैं । विश्वास ही तो है । भाव पलटा और ये चीजें मन में आयी कि इन चीजों का स्वाद न लो । भगवान के दर्शन जिसमे मिले वही संपत्ति है और भगवान के दर्शनों को जो हटा दे वही विपत्ति है । 

कल्याण संख्या – ९ ,२०१२ 

श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी


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Thursday, 18 October 2012

सुखी होनेका सर्वोत्तम उपाय



अब आगे ....

यदि कृपा पर विश्वास हो तो परिस्थिति कुछ भी हो , प्रत्येक परिस्थिति में भगवान की कृपा की अनुभूति होती है भगवद-विश्वासी पुरुष को । परिस्थिति में भगवान की कृपा का सत्कार और तिरस्कार हो तो परिस्थिति की  महत्ता है , कृपा की महत्ता नहीं है। कृपा की महता क्यों नहीं है ? इसलिए कि विश्वास नहीं है । यह तो सीधा अमंगल हो रहा है, इसमें कृपा कहाँ है ? हमारा जो मंगल है, उस मंगल की भावना हमारे मन की कल्पना ही है । भगवान जो करते हैं हमारा मंगल ही करते हैं ,यह हमारा विश्वास नहीं ।
            इसलिए साधक के लिए भगवद-विश्वास परम आवश्यक है  और अन्य सबके लिए भी आवश्यक है । जगत में जो सुखी होना चाहता है उसके लिए परम साधन है – भगवद-विश्वास ।
            ‘मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते  हीन ।’
                               (रा० च० मा० ७|१२२ ख)                  
भगवान यदि चाहें तो मच्छर को ब्रह्मा बना दें और ब्रह्मा को मच्छर से भी हीन कर दें ।
                    ‘मेटत कठिन कुअंक भाल के ।।’  
भाल के जो कठिन कुअंक है , वह भगवान की कृपा हो तो मिट जायं |

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।
                                        (रा० च० मा० ५|५|२|)
उनकी कृपा से उल्टा काम हो जाय । वह तो कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम समर्थ हैं। इसीलिए उनका नाम भगवान है , परन्तु हम उनपर छोड तब न । उनपर छोड दें सर्वथा उनपर निर्भर हो जाएँ , सर्वथा मनमें कामादि दोष न रहें ।   

शेष अगले ब्लॉग में .....

             कल्याण संख्या – ९ ,२०१२ 
                                                                                                                            
            श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी


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