साधनाएँ दो प्रकार की होती हैं l एक होती है किसी बाहरी प्रेरणा से की जानेवाली कर्त्तव्यरूपा और दूसरी होती है अन्त:प्रेरणा से होने वाली सहज l प्रथम प्रकार की साधना विवेकपूर्ण होती है, विवेक सापेक्ष होती है और दूसरे प्रकार की साधना विवेकतीत होती है, विवेक निरपेक्ष होती है l
अन्त:प्रेरणा से होत्ने वाली साधन अ के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसी भी स्थिति होती है, जिसमें ऐसी बात नहीं रहती कि साधक अपने किसी काम को या साधन को सोच-विचार कर करे l
इस स्थिति का दर्शन श्रीचैतन्य महाप्रभु के जीवन में मिलता है l जब उन्होंने घर छोड़ा, उसके पहले की बात है l उन्हें श्रीकृष्ण की पुकार सुनाई दी l उन्होंने कहा - 'मुझको श्रीकृष्ण पुकार रहे हैं l ' वे समझदार थे और लोगों ने उनको समझाया, पर उनको तो श्रीकृष्ण की पुकार सुनाई देती थी l उन्होंने कहा - 'अब तो श्रीकृष्ण की पुकार-ही-पुकार सुनाई देती है, अब और कुछ नहीं l बस , अब उधर ही जाना है l ' फिर कोई विचार या विवेक था और कोई चीज़ उन्हें रोक नहीं सकी l गृह-त्याग के बाद भी यह पुकार सुनाई दी थी l वही हाल सिद्धार्थ का हुआ l
गोपान्गनाओं ने वंशी ध्वनि सुनी और उनकी विचित्र स्थिति हो गयी l उस समय की उनकी स्थिति के चित्र देखें l कानों में वंशी की ध्वनि सुनाई पड़ी l बस उनके भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि सबको छीन लिया उसने उसी क्षण l वे उन्मत्त हो गयीं l वह एक ऐसी चीज़ थी, जिसने सब चीज़ों को भुला दिया l बह एक अन्तर्नाद था l उनको यह भी याद नहीं रहा कि जीवन में क्या करना है ? उस समय उनके द्वारा जो व्यवहारिक कार्य हो रहे थे, सारे-के-सारे ज्यों-के-त्यों स्थापित हो गए l उसका वर्णन करते हुए भागवतकार कहते हैं कि हाथ का ग्रास हाथ में ही रह गया l एक आँख आँजने के बाद दूसरी आँख आँजने से रह गयी, वस्त्र पहनना आरम्भ किया, पर जितना जैसे पहना गया , उतना वैसे ही पहना गया l एक दूसरी से कुछ कहते भी नहीं बना l सब चल पड़ी बड़ी वेग से l
मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)
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