Monday 1 October 2012

मानव-जीवन का लक्ष्य - भगवत्प्राप्ति







अब आगे...........

             जगत से सुख-प्राप्ति की दुराशा में जीव सतत जगत का चिंतन करता है और अपने अन्दर अनवरत गन्दा कूड़ा भरता चला जाता है l मनुष्य की अन्तरात्मा जलती रहती है l  जागतिक ऐश्वर्य परिपूर्ण, सुख-सुविधाओं से संपन्न धनी-मानी लोग भी जलते रहते हैं, उच्च राज्याधिकारी और उदभट विद्वान भी जलते हैं, शान्ति की बात करनेवाले उपदेशक और तर्कशील दार्शनिक भी निरन्तर जलते हैं l  बड़ी शान्ति के स्थान पर या अत्यंत शीतप्रधान देश में अथवा बिजली के द्वारा ठन्डे किये कमरे में बैठे रहने पर भी सदा जलते रहते हैं l वह आग बाहर नहीं भीतर है, जो हमेशा जलाती रहती है l बाहर के किसी साधन से भीतर की आग शांत नहीं हो सकती l  भीतर की इस आग को श्री तुलसीदास जी ने 'याचकता' कहा है l विषयों के मनोरथ आग से - इस 'कामज्वर' से सभी सतप्त हैं l  बाहरी चीज़ों को बदलने या मिटाने-हटाने से क्या होगा ? जो चीज़ जला रही है, उसी को जला देना चाहिए  l इस याचकता को - भोग-कामना को भगवान् ने गीता में 'ज्वर' का नाम दिया है l भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा  -                             
                                          निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: l l   
             'युद्ध करो, परन्तु तीन वस्तुओं से छूटकर l राज्य तथा भोगों की आशा छोड़कर, देह तथा देह-सम्बन्धी सारी ममता छोड़कर और कामना के ज्वर को उतारकर l ' कामना रहेगी तो अन्दर-ही-अन्दर ज्वर बढेगा l
             इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा - ' जगत में किसी से याचना मत करो ; माँगना ही हो तो भगवान् श्रीराम से माँगो और श्रीराम को ही माँगो l भगवान् को माँगने का अर्थ ही है - भगवान् की प्राप्ति l  सारी शान्ति - सारा सुख भगवान् में ही है; अन्यत्र कहीं है ही नहीं l  इसीलिए भगवान् से भगवान् की ही याचना करो l


मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)                                  
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Ram