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वह पुकार, वह ध्वनि कुछ ऐसी आकर्षक थी, कुछ ऐसी अनन्यता लानेवाली थी कि उसने सर्वस्वका सहज त्याग करवा दिया l इस स्थिति में यह बात नहीं रह जाती कि किसी चीज़ को विवेकपूर्वक त्याग करना है या वैराग्य से त्याग करना है अथवा विवेकपूर्वक किसी चीज़ को प्राप्त करने के लिए सोच-समझकर जाना है l साधना की यह बहुत ऊँची स्थिति है; जो भगवत्कृपा से ही सुलभ होती है l
दूसरे प्रकार की साधना विवेकपूर्ण होती है l विवेकपूर्ण साधना में संसार के भोगों को दुखदायी, बन्धनकारक और अज्ञान की वस्तु मानकर छोड़ा जाता है l भगवत्कृपा का महत्त्व, उसका गौरव, उसके लाभ, परमानन्द की प्राप्ति, बन्धनों का कट जाना, मोक्ष की उपलब्धि, जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा आदि बातों से आकृष्ट, आश्वस्त और आस्थावान होकर साधक साधनारूढ़ होता है l यह साधना भी बहुत ऊँची चीज़ है, पर यह साधना सविवेक है, वैराग्यपूर्ण है l
पर दूसरे प्रकार की साधना ऐसी एक स्थिति होती है, जहाँ न विवेक का प्रवेश है और न वैराग्य को स्थान है l वास्तव में वहां जीवन में एक स्वाभाविक गति है l एक ऐसी स्वाभाविक गति , जिसमें कोई प्रयास नहीं l सागरो उन्मुखी गंगा की धारा की तरह कोई भी तनिक भी प्रयास नहीं l गंगा की धारा की सागर की ओर स्वाभाविक गति है l रास्ते में आनेवाले बाधा-विघ्न अपने-आप टूटते चले जाते हैं l बड़ी बाधा आने पर गंगा की धारा उसके बगल से निकल जाती है, पर वह रूकती नहीं l रुकना चाहिए, कहाँ जाना चाहिए, जाने पर समुद्र से मिलकर क्या होगा, क्या मिलेगा - इन सब प्रश्नों को गंगा की धारा नहीं जानती l समुद्र की ओर उसकी सहज स्वाभाविक गति है l इसी प्रकार की एक स्थिति साधना में होती है l इस स्थिति की ओर संकेत करने के लिए गोपान्गनाओं का उदाहरण दिया जाता है l
मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)
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