Sunday, 31 March 2013

हरिनाम का महत्व -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, चतुर्थी, रविवार, वि० स० २०६९

 

गत ब्लॉग से आगे...भक्त आश्चर्यचकित होकर देखने लगे | अभ प्रभु नहीं ठहरे | उनका कार्य हो गया | इसलिये वे वहाँ से जल्दीसे चले |भक्तगण भी साथ हो लिये | थोड़ी-सी दूर जाकर प्रभु बैठ गए | भक्तगण दूर से धोबी का तमाशा देखने लगे | धोबी भाव बता-बता क्र नाच रहा है | प्रभु के चले जाने का उसे पता नहीं है | भग्यवान धोबी अपने ह्रदय में गौर-रूप का दर्शन कर रहा है | 

भक्तो ने समझा मनो एक यन्त्र है | प्रभु उसकी कल दबा कल चले आये है और वह उसी कल से हरी बोल पुकारता हुआ नाच रहा है |

भक्त चुपचाप देख रहे है | थोड़ी देर बाद धोबिन घर से रोटी लायी | कुछ देर तो उसने दूरसे खड़े-खड़े पति का रंग देखा, पर कुछ भी न समझकर हसी में उड़ाने के भाव से उसने कहा ‘यह क्या हो रहा है ? यह नाचना कब से सीख लिया ?’ धोबी ने कोई उत्तर नहीं दिया |वह उसी तरह दोनों हाथो को उठाये हुए घूम-घूम कर भाव दिखाता हुआ ‘हरी बोल’ पुकारने और नाचने लगा | धोबिन ने समझा पति को होश नहीं है | उसको कुछ न कुछ हो गया है | वह डर गयी और और चिल्लाती हुई गावँ की और दौड़ीतथा लोगो को बुलाने और पुकारने लगी | धोबिन का रोना और पुकारना सुनकर गाँव के लोग इक्कठे हो गए | धोबिन ने डरते-डरते उनसे कहा की ‘मेरे मालिक को भूत लग गया है |’ दिन में भूत का डर नहीं लगा करता, इसलिए गाँव के लोग धोबिन को साथ लेकर धोबी के पास आये | उन्होंने देखा धोबी बेहोशी में घूम-घूम कर इधर-उधर नाच रहा है | उसके मुहसे लार टपक रही है | उसको इस अवस्था में देखकर पहले तो किसीका भी उसके पास जाने का साहस नहीं हुआ | शेष में एक भाग्यवान  पुरुष ने जाकर उसको पकड़ा | धोबी को कुछ होश हुआ और उसने बड़े आनन्द से उस पुरुष को छाती से लगा लिया | बस, छातीसे लगने की देर थी की वह भी उसी तरह ‘हरि बोल’ कहकर नाचने लगा | अब वहाँ दोनों ने नाचना शुरू कर दिया | एक तीसरा गया, उसकी भी यही दशा हुई | इसी प्रकार चौथा और पांचवे क्रम-क्रम से सभी पर यह भूत सवार हो गया | यहाँ तक की धोबिन भी इसी प्रेममद में मतवाली हो गयी | प्रेमकी मंदाकिनी बह चली, हरिनाम कि पवित्र ध्वनीसे आकाश गूँज उठा, समूचा गाँव पवित्र हो गया |   

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Saturday, 30 March 2013

हरिनाम का महत्व -२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, तृतीया, शनिवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे... धोबी से सोचा आची आफत आई, यह साधु क्या चाहते है ? न मालूम क्या हो जाए ? मेरे लिए हरिनाम न लेना ही अच्छा है | यह निश्चय करके उसने कहा ‘महाराज ! तुम लोगो को कुछ काम-काज तो है नहीं, इससे सभी कुछ कर सकते हो | हम गरीब आदमी मेहनत करके पेट भरते है | बताइये मैं कपडे धोऊ या हरिनाम लूँ |’

प्रभु ने कहा ‘धोबी ! यदि तुम दोनों काम एक साथ न कर सको तो तुम्हारे कपडे मुझे दो | मैं कपडे धोता हूँ | तुम हरि बोलो |’

इस बात को सुनकर भक्तों को और धोबी को बड़ा आश्चर्य हुआ | अब धोबी दे देखा इस साधु से तो पिण्ड छुटना बड़ा ही कठिन है | क्या किया जाय जो  भाग्य में होगा वही होगा - यह सोचकर प्रभु की और देखकर धोबी कहने लगा ‘साधु महाराज ! तुम्हे कपडे तो नहीं धोने पड़ेंगे ? जल्दी बताओ, मुझे क्या बोलना पड़ेगा, मैं वही बोलता हूँ |’ अबतक धोबी ने मुख ऊपर की और नहीं किया था | अबकी बार उसने कपडे धोने छोड़कर प्रभु की और देखकर उपर्युक्त शब्द कहे |

धोबी ने देखा साधु करुणाभरी दृष्टी से उसकी और देख रहे है और उनकी आँखों से आसुओं की धरा बह रही है  यह देखकर धोबी मुग्ध-सा होकर बोला, ‘कहो महाराज ! मैं क्या बोलू – ‘भाई ! बोलो ‘हरी बोल’ |’

धोबी बोला | प्रभु ने कहा धोबी ! फिर ‘हरी बोल’ बोलो, धोबी ने फिर कहा  हरी बोल | इस प्रकार धोबी ने प्रभुके अनुरोध से दो बार ‘हरिबोल’ , ‘हरी बोल’ कहा | तदन्तर वह अपने आपे में नहीं रहा और विहल हो उठा | बिलकुल इच्छा न होने पर भी ग्रहग्रस्त की तरह अपने आप ही ‘हरी बोल’ , ‘हरी बोल’ पुकारने लगा | ज्यो-ज्यो हरी बोल पुकारता है , त्यों-त्यों विहलता बढ़ रही है |पुकारते-पुकारते अंत में वह बेहोश हो गया | आँखों से हजारो-लाखों धाराए बहने लगी | वह दोनों भुजाये ऊपरको उठाकर ‘हरी बोल’, ‘हरी बोल’ पुकारता हुआ नाचने लगा | शेष अगले ब्लॉग में ....  

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Friday, 29 March 2013

हरिनाम का महत्व -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, द्वितीया, शुक्रवार, वि० स० २०६९

 

प्रभु श्रीचैतन्यदेव नीलांचल चले जा रहे है, प्रेम में प्रमत्त हैं, शरीर की सुध नहीं है, प्रेममदमें मतवाले हुए नाचते चले जा रहे है, भक्त-मण्डली साथ है | रास्ते में एक तरफ एक धोबी कपडे धो रहा है | प्रभु को अकस्मात चेत हो गया, वे धोबीकी और चले ! भक्तगण भी पीछे-पीछे जाने लगे | धोबी ने एक बार आँख घूमाकर उनकी और देखा फिर चुपचाप अपने कपडे धोने लगा | प्रभु एकदम उसके निकट चले गए | श्रीचैतन्यके मन का भाव भक्तगण नहीं समझ सके | धोबी भी सोचने लगा की क्या बात है ? इतने में ही श्रीचैतन्य ने धोबी से कहा ‘भाई धोबी एक बार हरि बोलो |’ धोबी ने सोचा, साधु भीख मांगने आये है | उसने ‘हरि बोलो’ प्रभुकी इस आज्ञापर कुछ भी ख्याल न करके सरलता से कहा ‘महाराज ! मैं बहुत ही गरीब आदमी हूँ | मैं कुछ भी भीख नहीं दे सकता |’

प्रभु ने कहा ‘धोबी ! तुमको कुछ भी भीख नहीं देनी पड़ेगी | सर एक बार ‘हरि बोलो !’ धोबी ने मन में सोचा, साधुओं का जरुर ही इसमें कोई मतलब है, नहीं तो मुझे ‘हरि’ बोलने को क्यों कहते ? इसलिए हरि न बोलना ही ठीक है | मैं हरिबोला बन जाऊंगा तो मेरे बाल-बच्चे अन्न बिना मर जायेंगे |

प्रभु ने कहा ‘भाई ! तुझे हमलोगों को कुछ देना नहीं पड़ेगा, सिर्फ एक बार मुहँ से हरि बोलो | हरिनाम लेने में न तो कोई खर्च लगता है और न किसी काम में बाधा आती है | फिर क्यों नहीं बोलते, एक बार हरि बोलो भाई |’ शेष अगले ब्लॉग में ....

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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Wednesday, 27 March 2013

पदरत्नाकर पद- १३०


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

                  फाल्गुन पूर्णिमा, बुधवार, वि० स० २०६९
नाथ मैं थारो जी थारो।
चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थारो॥
बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो, थे ही मनै सुधारो।
सुधर्‌यो तो प्रभु सुधर्‌यो थाँरो, थाँ सूँ कदे न न्यारो॥
बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ, आखर टाबर थाँरो।
बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगड़सी थाँरो॥
थाँरो हूँ, थाँरो ही बाजूँ, रहस्यूँ थाँरो, थाँरो !!
आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥
मेरी बात जाय तो जा‌ओ, सोच नहीं कछु हाँरो।
मेरे बड़ो सोच यों लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥
जचे जिस तराँ करो नाथ ! अब, मारो चाहै त्यारो।
जाँघ उघाड्याँ लाज मरोगा, ऊँडी बात बिचारो॥
- परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार , पदरत्नाकर  कोड-50


ENGLISH TRANSLESSION:

Oh Lord, I am yours and only yours.
Whether I am good or bad, cunning and lustful, whatever I am, I am yours only.
If I am spoilt, then too I am your spoilt son, you only improve me.
If I am good, then too I am your good son, I am never separate from you.
Bad, bad, I am extremely bad, but in the end I am still your son.
I will merely be called bad, nothing more, but your good name will get spoilt.
I am yours, I am only yours, I will ever be yours yours.
Fingers can’t be separated from the nails, you only think about it,
If what I say does not become true, then so be it, I do not worry at all.
I instead worry a lot that then your great glory will be put to shame.
Lord, you do whatever seems right to you, now whether you kill me or liberate me.
- Hanuman Prasad Poddar-Bhaiji , From book - Padratnakar  code N0. - 50
 



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Tuesday, 26 March 2013

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ



        होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
        राधा राधा राधा राधा राधा !!!!!
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होली और उस पर हमारा कर्तव्य -5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 फाल्गुन शुक्ल, चतुर्दशी, मंगलवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे ......शास्त्र में कहा है-

१-किसी भी स्त्री को किसी भी अवस्था में याद करना, २-उसके रूप-गुणों का वर्णन करना,स्त्री-सम्बन्धी चर्चा करना या गीत गाना, ३-स्त्रियों के साथ तास, चौपड़, फाग आदि खेलना, ४-स्त्रियों को देखना, ५-स्त्री से एकान्त में बात करना, ६-स्त्री को पाने के लिए मन में संकल्प करना, ७-पाने के लिए प्रयत्न करना और ८-सहवास करना- ये आठ प्रकार के मैथुन विद्वानों ने बतलाये है, कल्याण चाहने वालो को इनसे बचना चाहिये | इनके सिवा ऐसे आचरणों से निर्लज्जता बढती है, जबान बिगड़ जाती है, मन पर बुरे संस्कार जम जाते है, क्रोध बढ़ता है, परस्पर में लोग लड़ पढ़ते है, असभ्यता और पाशविकता भी बढती है | अतएव सभी स्त्री-पुरुषों को चाहिये की वे इन गंदे कामो को बिलकुल ही न करे | इनसे लौकिक और परलौकिक दोनों तरह के नुकसान होते है |

फाल्गुन सुदी ११ से चैत्र वदी १ तक नीचे लिखे काम करने चाहिये |

१). फाल्गुन सुदी ११ को या और किसी दिन भगवान की सवारी निकालनी चाहिये, जिनमे सुन्दर-सुन्दर भजन और नाम कीर्तन हो |

२). सत्संग का खूब प्रचार किया जाए | स्थान-स्थान में इसका आयोजन हो | सत्संग में ब्रहचर्य, अक्रोध, क्षमा, प्रमाद्के त्याग, नाम महात्मय और भक्ति की विशेष चर्चा हो |

३). भक्ति और भक्तकी महिमा के तथा सदाचार के गीत गाये जाए |

४). फाल्गुन सुदी १५ को हवन किया जाए |

५). श्रीमध्भागवत और श्रीविष्णुपुराण आदि से प्रहलाद की कथा सुनी जाए और सुनाई जाए |

६). साधकगण एकान्त में भजन-ध्यान करे |

७). श्री चैतन्यदेव की जन्मतिथिका उत्सव मनाया जाये | महाप्रभु का जन्म होलीके दिन ही हुआ था | इसी उपलक्ष्य में मोहल्ले-मोहल्ले घूम-कर नामकीर्तन किया जाए | घर-घर में हरिनाम सुनाया जाए |

८). धुरेंडी के दिन ताल, मृदंग और झांझ आदि के साथ बड़े जोरों से नगर कीर्तन निकाला जाए जिसमे सब जाति और वर्णों के लोग बड़े प्रेम से शामिल हो |


श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण
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Monday, 25 March 2013

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -4-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 फाल्गुन शुक्ल, त्रयोदशी, सोमवार, वि० स० २०६९

 


गत ब्लॉग से आगे ......जो कुछ भी हो,इन सारी बातों पर विचार करने से यही अनुमान होता है की यह त्यौहार असल में मनुष्यजाति की भलाईके लिए ही चलाया गया था, परन्तु आजकल इसका रूप बहुत बिगड़ गया है | इस समय अधिकाश लोग इसको जिस रूप में मनाते है उससे तो सिवा पाप बढ़ने और अधोगति होने के और कोई अच्छा फल होता नहीं दीखता | आजकल क्या होता है ?

कई दिन पहले से स्त्रियाँ गंदे गीत गाने लगती हैं, पुरुष बेशरम होकर गंदे अश्लील कबीर, धमाल, रसिया और फाग गाते है | स्त्रियों को देखकर बुरे-बुरे इशारे करते और आवाजे लगाते है | डफ बजाकर बुरी तरह से नाचते है और बड़ी गंदी-गंदी चेष्टाये करते है | भाँग, गाँजा, सुलफा और मांजू आदि पीते और खाते है | कही-कही शराब और वेश्याओतक की धूम मचती है |

भाभी, चाची, साली, साले की स्त्री, मित्र की स्त्री, पड़ोसिन और पत्नी आदिके साथ निर्लज्जता से फाग खेलते और गंदे-गंदे शब्दों की बौछार करते है | राख, मिटटी और कीचड़ उछाले जाते है, मुह पर स्याही, कारिख या नीला रंग पोत दिया जाता है | कपड़ो पर और दीवारों पर गंदे शब्द लिख दिए जाते है, टोपियाँ और पगड़ियाँ उछाल दी जाती है, कही-कही पर जूतों के हार बनाकर पहने और पहनाये जाते है, लोगों के घरों पर जाकर गंदी आवाजे लगायी जाती है |

फल क्या होता है | गंदी और अश्लील बोलचाल और गंदे व्यव्हार से ब्रहचर्य का नाश होकर स्त्री-पुरुष व्यभिचार के दोष से दोषी बन जाते है |  शेष अगले ब्लॉग में ......     

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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