|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २०६९
हिन्दू स्त्री हँसते-हँसते अपने प्राण त्याग देती है,
परन्तु ऐसे किसी बुरे विचार को भी सहन नहीं कर सकती | रानी शरतसुन्दरी छोटी उम्र
में ही विधवा हो गयी थी | अंग्रेज कलेक्टरकी स्त्री उनसे मिलने आई और अपने देश की
प्रथा की अनुसार उनसे पुन:विवाह करने को कह दिया | उसके ऐसा कहने में कुछ भी बुरा
भाव नहीं था, परन्तु सती शरतसुन्दरी को बड़ा ही दुःख हुआ | उनको ऐसी पापकी बात अपने
कानों से सुननी पड़ी, इसका बड़ा संताप हुआ और उन्होंने इसके प्रायश्चित के लिए अन्न-जल
का त्याग कर दिया | कलेक्टरकी पत्नी को
पता लगा तब उसने आकर उनको समझया और क्षमा माँगी | हिन्दू स्त्री के लिए सबसे बड़ी
मूल्यवान उसका सम्पति सतीत्व है और इसी के सरक्षण में उसका लोक-परलोक में महान
कल्याण निश्चित है | इस विषय पर गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के श्री रामचरित
मानसमें अनसूया जी ने जगतजननी सीता जी से जो कुछ कहा, उसे पढना चाहिये |
एकइ धर्म एक व्रत नेमा | काय बचन
मन पति पद प्रेमा ||
जग पतिव्रता चारि बिधि अहही| बेद
पुरान संत सब कहहि ||
उतम के अस बस मन माहि | सपनेहु आन
पुरुष जग नाही ||
मध्यम प्रप्ति देखई कैसे | भ्राता
पिता पुत्र निज जैसे ||
धर्म बिचारी समुझी कुल रहई | सो
निकृष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ||
बिनु अवसर भय ते रह जोई | जानेहु
अधम नारी जग सोई ||
पति बंचक परपति रति करई | रौरव नरक
कल्प सत परई ||
छन सुख लागी जनम सत कोटि | दुःख न
समुझ तेहि सम को खोटी ||
बिनु श्रम नारी परम गति लहई |
पतिव्रत धर्म छांडी छल गहई ||
पति प्रतिकूल जनम जहं जाई | बिधवा
होई पाइ तरुनाई ||
सो०- सहज अपावनी नारी पति सेवत सुभ गति लहई |
जसु गावत श्रुति चारि अजहूँ तुलसिका हरिहि प्रिय ||
अर्थात शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना,
स्त्रियों के लिए बस, यही एक धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है | जगत में
चार प्रकार की पतिव्रताए है | वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते है की उतम श्रेणी की
पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है की जगत में [मेरे पति को छोड़ कर] दूसरा
पुरुष स्वप्न में भी नहीं है | मध्यम श्रेणी की पतिव्रताए पराये पति को कैसे देखती
है , जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो | (अर्थात समान अवस्था वाले को भाई
के रूप में, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है |) जो
धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है वह निम्न श्रेणी की
निक्रस्ट् (निम्न श्रेणी की ) स्त्री है, ऐसा वेद कहते है | और जो मौका न मिलने से
भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जाना जाता है |
पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराये पति से रति करती है,
वह सौ कल्पों तक रौरव नरक में पड़ी रहती है | क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़
(असंख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी | जो स्त्री छल
छोड़ कर पति-व्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त
होती है | किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं
जवानी पाकर (भरी जवानी में ) विधवा हो जाती है | स्त्री जन्म से ही अपवित्र है,
किन्तु पति के सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है |
[पातिव्रत-धर्म के कारण ही ] आज भी ‘तुलसीजी’ भगवान को प्रिय है और चारो वेद उनका
यश गाते है |
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
0 comments :
Post a Comment