Sunday, 30 June 2013

शुभ संग्रह

।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, अष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०

विचार 

गत ब्लॉग से आगे ...शास्त्रो का अनुगमन करनेवाली शुद्ध बुद्धि से अपने सम्बंध में सदा सर्वदा विचार करना चाहिये । विचार से तीक्ष्ण होकर बुद्धि परमात्मा का अनुभव करती है। इस संसार रुपी दीर्घ रोग का सबसे श्रेस्ठ औषध विचार ही है । विचार से विपत्तियोंका मूल अज्ञान ही नष्ट हो जाता है । यह संसार मृत्यु, संकट और भ्रम से भरपूर है, इसपर विजय प्राप्त करने का उपाय एकमात्र विचार है। बुरे को छोड़कर, अच्छे को ग्रहण, पाप को छोड़ कर पुण्य  का अनुष्ठान विचार के द्वारा ही होता है। विचार के द्वारा ही बल, बुद्धि, सामर्थ्य, स्फूर्ति और प्रयत्न सफल होते है। राज्य, संपत्ति और मोक्ष भी विचार से प्राप्त होता है । विचारवान पुरुष विपत्ति में घबराते नहीं,संपत्ति में फूल नहीं उठाते । विचारहीन के लिये संपत्ति भी विपत्ति बन जाती है । संसार के सारे दुःख अविवेक के कारण है । विवेक धधकती हुई अंतर्ज्वाला को भी शीतल बना देता है । विचार ही दिव्य दृष्टि है, इसी से परमात्मा का साक्षात्कार और परमानन्द की अनुभूति होती है । यह संसार क्या है? मैं कौन हूँ? इससे मेरा क्या सम्बन्ध है? यह विचार करते ही संसार से सम्बन्ध छूटकर परमात्मा का साक्षात्कार होने लगता है । इसलिये शस्त्रानुगामिनी शान्त, शुद्ध, बुधि, से विचार करते रहना चाहिए । (योगवसिष्ठ)


शेष अगले ब्लॉग में.....      


श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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Saturday, 29 June 2013

शुभ संग्रह

।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०

संतोष

गत ब्लॉग से आगे ...संतोष ही परम कल्याण है । संतोष ही परम सुख है । संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है । संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते । संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ  तिनके के समान होता है । विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता । सांसारिक भोग-सामग्री उसे  विष के समान जन पढ़ती है । संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमड़ता हुआ समुद्र भी फीका पड़  जाता है । जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट  है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते । जब तक अन्तकरण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण  नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपतियाँ है । संतोषी चित निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है । संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलौकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दु:खी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है । संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पित्र और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है । भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन अवस्य करना चाहिये ।   (योगवसिष्ठ)

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श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत  

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Friday, 28 June 2013

शुभ संग्रह

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

अहिंसा-धर्म 

गत ब्लॉग से आगे ...जो पुरुष काम,क्रोध और लोभ को पापो की खान समझकर उनका त्याग करके अहिंसा-धर्म का पालन करता है, वह मोक्ष रूप सिद्धी को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है | जो मनुष्य अपने आराम के लिए दीन-प्राणियो का वध करता है, वह मृत्यु के बाद कभी सुखी नहीं हो सकता | मरने के बाद परमसुख उसी को मिलता ही, जो सभी प्राणियो को अपने ही समान समझकर किसी पर भी क्रोध नहीं करता और किसी को भी चोट नहीं पहुचाता | जो मनुष्य प्राणिमात्र को अपने ही समान सुख की कामना और दुःख की अनिच्छा करनेवाले जानकर सबको समान दृष्टि से देखता है, वह महापुरुष देव-दुर्लभ ऊँची गति को प्राप्त होता है | जिस काम को मनुष्य अपने लिये प्रतिकूल समझता है वह काम दुसरे किसी भी प्राणी के लिये नहीं करना चाहिये | जो मनुष्य इसके विरुद्ध व्यवहार करता है वह पाप का भागी होता है | मान-अपमान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय इनमे जैसे अपने को संतोष और असंतोष होता है, वैसे ही दूसरो को भी होता होगा, यही समझकर व्यवहार करे | जो मनुष्य हिंसा करता है, उसकी हिंसा होती है और जो रक्षण करता है, उसकी दूसरो के द्वारा रक्षा होती है | अतएव हिंसा न करके सबकी रक्षा करनी चाहिये | जो मनुष्य किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी हिंसा नहीं करता, वह सत्पुरुषो के बतलाये हुए धर्म के समान संसार में प्रमाण रूप होता है | (महाभारत)


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—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत  

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Thursday, 27 June 2013

शुभ संग्रह

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, पंचमी, गुरुवार, वि० स० २०७०


धर्म और उसका फल 

गत ब्लॉग से आगे ...धर्मपरायण मनुष्य दुसरे का हित मानते हुए ही अपना हित चाहते है | उन्हें दुसरे के अहित में अपना हित कभी दिखता ही नहीं | पर हित से ही परम गति प्राप्त होती है | धर्मशील पुरुष हिताहित का विचार करके सत्पुरुषो का संग करता है,सत्संग से धर्मबुद्धी बढती है और उसके प्रभाव से उसका जीवन धर्ममय बन जाता है | वह धर्म से ही धन का उपार्जन करता है | वही काम करता है, जिससे सद्गुणों की वृद्धी हो | धार्मिक पुरुषो से ही उसकी मित्रता होती है |वह अपने उन धर्मशील मित्रो के तथा धर्म से कमाये हुए धन के द्वारा इस लोक और परलोक में सुख भोगता है | धर्मात्मा मनुष्य धर्मसम्मत इन्द्रियसुख को प्राप्त करता है, परन्तु वह धर्म का फल पाकर ही सतुस्ट नहीं हो जाता | वह सत-असत का विचार करके वैराग्य का अवलंबन करता है | वैराग्य के प्रभाव से उसका चित विषयों से हट जाता है | फिर वह जगत को विनाशी समझ कर निष्काम कर्म के द्वारा मोक्ष के लिये प्रयत्न करता है |

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—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत  

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Wednesday, 26 June 2013

शुभ संग्रह

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०


पाप और उसका फल 

मनुष्य जब रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श – इन्द्रियों के इन पाँच  विषयों में से किसी एक में भी आसक्त हो जाता है, तब उसे राग-देष के पंजे मे फँस जाना पढता है | फिर वह जिसमे राग होता है उसको पाना और जिसमे देष होता है उसका नाश करना चाहता है | यो करते-करते वह बड़े-बड़े भयानक काम कर बैठता है और निरंतर इन्द्रियों के भोगो में ही लगा रहता है | इसमें उसके ह्रदय में लोभ-मोह, राग-देष  छा जाते है | इसके प्रभाव से उसकी धर्म-बुधि, जो समय-समय पर उसे चेतावनी देकर पाप से बचाया करती थी, नष्ट हो जाति है | तब वह छल-कपट और अन्याय से धन कमाने में लगता है | 

जब दूसरो को धोखा देकर, अन्याय और अधर्म से कुछ कमा लेता है, तब फिर इसी रीती से धन कमाने में उसे रस आने लगता है | उसके सुहृद और बुद्धिमान लोग उसके इस काम को बुरा बतलाते और उसे रोकते है, तब वह भांति-भांति की बहानेबाजियाँ करने लगता है | इस प्रकार उसका मन सदा पाप में ही लगा रहता है, उसके शरीर और वाणी से भी पाप होते है | वह पापी जीवन होकर फिर पापिओ के साथ ही मित्रता करता है और इसके फलस्वरूप न तो इस लोक में सुख पाता है और न परलोक में ही उसे सुख-शांति की प्राप्ति होती है | (महाभारत, शांतिपर्व)

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—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तकसे, कोड ८२०, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत  

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Tuesday, 25 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -25-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, द्वितीया, मंगलवार, वि० स० २०७०

25 June 2013, Tuesday

भगवान् की उपासना का यथार्थ स्वरुप -२-

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -तुम्हें मन मिला है सारी वासना-कामनाओंके जालसे मुक्त होकर समस्त जागतिक स्फुरनाओंको समाप्तकर भगवान् के रूप-गुण-तत्त्वका मनन करनेके लिए और बुद्धि मिली है – निश्चयात्मिका होकर भगवान् में लगी रहने के लिए | यही मन-बुद्धिका समर्पण है | भगवान् यही चाहते हैं | इसलिए मनके द्वारा निरंतर अनन्य चित्तसे भगवान् का चिंतन करो और बुद्धिको एकनिष्ठ अव्यभिचारिणी बनाकर निरन्तर भगवान् में लगाए रखो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |

 

याद रखो -तुम्हें शरीर मिला है भगवद-भावसे गुरुजनोंकी, रोगियोंकी, असमर्थोंकी आदर-पूर्वक सेवा-टहल करनेके लिए, देवता-द्विज-गुरु-प्राज्ञके पूजनके लिए, पीड़ितकी रक्षाके लिए और सबको सुख पहुँचानेके लिए | अतएव शरीरको संयमित रखते हुए शरीरके द्वारा यथा-योग्य सबकी सेवा-चाकरी-रक्षा आदिका कार्य संपन्न करते रहो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |

 

याद रखो -तुम्हें मनुष्य-जीवन मिला है केवल श्रीभगवान् का तत्त्व-ज्ञान, भगवान् के दर्शन या भगवान् के दुर्लभ प्रेमकी प्राप्तिके लिए | यही मानव-जीवनका परम साध्य है और इसी साध्यकी प्राप्तिके लिए सतत सावधान रहते हुए यथा-योग्य पूर्ण प्रयत्न करते रहना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है | इस कर्तव्य पालनमें सावधानीसे लगे रहना ही वास्तविक उपासना है | इसके विपरीत भोगों-सुखकी मिथ्या आशा-आस्था-आकांक्षाको लेकर जो प्रयत्न करना है, वह तो प्रमाद है और आत्महत्याके सामान है | अतएव भोग-सुखकी मिथ्या आशा-आकांक्षाका सर्वथा त्याग करके मानव-जीवनको सदा-सर्वदा सब प्रकारसे भगवत-प्राप्तिके साधनमें, अपनी स्थिति और रूचिके अनुसार ज्ञान-कर्म-उपासना रूप किसीभी उपासनामें लगाए रखो | यही मानव-जीवनका सदुपयोग है और इसीमें मानव-जीवनकी सफलता है | यही भगवान् के समीप बैठना है और यही यथार्थ उपासना है |... शेष अगले ब्लॉग में.        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Monday, 24 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -24-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २०७०

भगवान् की उपासनाका यथार्थ स्वरुप -१-

गत ब्लॉग से आगे ... १२. याद रखो -समस्त विश्वके सम्पूर्ण प्राणी भगवत-स्वरुप हैं, यह जानकार सबको बाहरकी स्थितिके अनुसार हाथ जोड़कर प्रणाम करो या मनसे भक्ति-पूर्वक नमन करो | किसीभी प्राणीसे कभी द्वेष मत रखो | किसीको भी कटु वचन मत कहो, किसीका भी मन मत दुखाओ और सबके साथ आदर, प्रेम तथा विनयसे बरतो | यह भगवान् के समीप बैठने की एक उपासना है |

 

याद रखो -तुम्हारे पास विद्या-बुद्धि, अन्न-धन, विभूति-संपत्ति है – सब भगवानकी सेवाके लिए ही तुम्हें मिली है | उनके द्वारा तुम गरीब-दुखी, पीड़ित-रोगी, साधू-ब्राह्मण, विधवा-विद्यार्थी, भय-विषादसे ग्रस्त मनुष्य, पशु, पक्षी, चींटी – सबकी यथायोग्य सेवा करो – उन्हें भगवान् समझकर निरभिमान होकर उनकी वास्तु उनको सादर समर्पित करते रहो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |

 

याद रखो -तुम्हें जीभ मिली है – भगवान् का दिव्य मधुर नाम-गुण-गान-कीर्तन करनेके लिए और कान मिले हैं – भगवान् का मधुर नाम-गुण-गान-कीर्तन सुननेके लिए | अतएव तुम जीभको निंदा-स्तुति, वाद-विवाद, मिथ्या-कटु, अहितकर-व्यर्थ बातोंसे बचाकर नित्य-निरंतर भगवान् के नाम-गुण-गान-कीर्तनमें लगाए रखो और कानोंके द्वारा बड़ी उत्कंठाके साथ उल्लास-पूर्वक सदा-सर्वदा भगवान् के नाम-गुण-गान-कीर्तनको सुनते रहो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |.... शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Sunday, 23 June 2013

गीताप्रेस पुस्तक सूची (विस्तृत)

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परमार्थ की मन्दाकिनीं -23-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २०७०

एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -२-

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -जैसे एक ही सूर्य समस्त लोकोंको प्रकाशित करता है, उसी का प्रकाश प्राणिमात्रके नेत्रोंमें प्रकाश देता है और प्राणिमात्र उन्हीं नेत्रोंसे विभिन्न प्रकारके बाहरी दोषोंमें लिप्त होते हैं – गुण-दोषमय वस्तुओंको देखते हैं | प्राणी नेत्रोंकी सहायतासे विभिन्न प्रकारके गुण-दोषमय कार्य करते हैं, पर उन सबका प्रकाशक वह सूर्य जैसे किसीके उन गुण-दोषोंसे लिप्त नहीं होता, वैसे ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा परमात्मा (उन परमात्माकी ही शक्ति-सत्तासे क्रियाशील होकर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके द्वारा ) प्राणी अनंत प्रकारके जो शुभाशुभ जो कर्म करते हैं, उन क्रूर कर्मोंसे एवं उनके फल-रूप सुख-दुखसे लिप्त नहीं होते | वे सबमें रहते हुए ही सबसे पृथक तथा सर्वथा असंग रहते हैं |

 

याद रखो -ऐसे वे परमात्मा सदा ही सबके अन्तरात्मा हैं, एक अद्वितीय हैं | सबको सदा अपने वशमें रखते हैं | वे एक ही अपने रूपको अपनी लीला से बहुत प्रकारका बनाए हुए हैं | उन परमात्माको जो धीर-ज्ञानी पुरुष निरंतर अपने अंदर देखते हैं, उन्हींको नित्य सनातन सदा रहनेवाला आत्यांतिक सुख परमानंद मिलता है, दूसरोंको नहीं |

 

याद रखो -जो समस्त नित्योंके भी नित्य आत्मा हैं, जो समस्त चेतनोंके चेतन आत्मा हैं और जो एक होते हुए भी इन अनंत जीवोंकी कामनाओंको पूर्ण करते हैं, उन नित्य आत्मामें स्थित एक परमात्माको जो धीर-ज्ञानी पुरुष निरंतर देखते रहते हैं, उन्हींको नित्य सनातन (सदा रहनेवाली ) शान्ति मिलती है, दूसरोंको नहीं |

 

याद रखो -यह तत्त्व-ज्ञानी भगवत-प्राप्त पुरुषोंका अनुभव है | यह वेदवाणी है | यह उपनिषद्की घोषणा है | इसको समझो और इसके अनुसार साधन करके परमात्माको नित्य-निरंतर बाहर-भीतर देखो एवं अपने मानव-जीवनको सफल करो |.... शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Saturday, 22 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -22-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०७०

एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -१-

गत ब्लॉग से आगे ... ११. याद रखो -परमात्मा एक है और वही अनंत रूपोंमें अभिव्यक्त है | जब तक उन परमात्माका बाहर-भीतर, सर्वत्र-सदा साक्षात्कार नहीं होता, तब तक कभी भी सदा रहनेवाली वास्तविक सुख-शान्ति नहीं मिल सकती |

 

याद रखो -जैसे एक ही अग्नि अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कहीं कोई भेद नहीं है, पर जब वह किसी आधार-वस्तुमें व्यक्त होकर प्रज्वलित होती है, तब वह उसी वस्तुके आकारका दृष्टिगोचर होने लगती है; वैसे ही समस्त प्राणियोंके अंतर-आत्मा रूपमें विराजित अन्तर्यामी परमात्मा सबमें समभावसे व्याप्त हैं; उनमें कहीं कोई भेद नहीं है, तथापि वे एक होते हुए ही उन-उन प्राणियोंके अनुरूप विभिन्न रूपोंमें दिखाई देते हैं | पर वे उतने ही नहीं हैं, उन सबके बाहर भी अनंत रूपोंमें स्थित हैं |

 

याद रखो -जैसे एक ही अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कोई भेद नहीं है; परन्तु व्यक्त होकर विभिन्न वस्तुओंके संयोगसे वह उन्हींके अनुरूप गति तथा शक्तिमान दिखाई देता है, वैसे ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा परमात्मा एक होते हुए ही उन-उन प्राणियोंके सम्बन्धसे विभिन्न पृथक-पृथक गति और शक्तिवाले दिखाई देते हैं, उन सबके बाहर भी अनंत-असीम-असंख्य विलक्षण रूपोंमें स्थित हैं |.. शेष अगले ब्लॉग में ...         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Friday, 21 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -21-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, त्रयोदशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

परदोष-दर्शन तथा पर-निंदासे हानि -२-

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -जिस मानव जीवनमें मनुष्य सबका हित करके मन-वाणी से सबको सुख पहुंचाकर भगवानके सन्मार्ग पर चलता है और जगतमें दैवी सम्पदाका विकास करता तथा अन्तमें भजन में लगकर भगवत-प्राप्ति कर लेता – उस दुर्लभ मानव-जीवन को परदोष-दर्शन तथा पर-निन्दामें तथा अपनी मिथ्या प्रशंसा में लगाकर अपने जीवन को तथा दूसरोंके जीवनको भी इस लोक तथा परलोकमें नरक-यंत्रणा-भोगका भागी बना देना – कितना बड़ा प्रमाद और पाप है ! इससे बड़ी सावधानी के साथ सबको बचना चाहिए |

 

याद रखो -मनुष्य का परम कर्तव्य है – भगवानके गुणोंका, उनके नामका, उनकी लीला का श्रवण, कथन तथा कीर्तन एवं स्मरण करनेमें ही जीवन को लगाना | बुद्धिमान मनुष्यको तो दूसरोंके न तो गुण-दोषका चिंतन करना चाहिए, न देखना चाहिए और न उनका वर्णन ही करना चाहिए | उसे तो भगवद-गुण चिंतनसे ही समय नहीं मिलना चाहिए | पर यदि देखे बिना न रहा जाए तो दूसरोंके गुण देखने चाहिए और ढूँढ-ढूँढकर अपने दोष देखने चाहिए | न रहा जाए तो दूसरों के सच्चे गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए और अपने दोषोंकी साहस के साथ निंदा | वास्तव में परमार्थ की दृष्टि से तो यह सब कुछ न करके भगवत-चिन्तन तथा भगवन्नाम-गुणका कथन-कीर्तन-चिंतन ही करना चाहिए |

 

याद रखो -आज ही यह प्रतिज्ञा करनी है की मैं अबसे कभी भी न पर-दोष देखूँगा और न किसीकी निंदा-चुगली ही करूँगा | अपना अधिक-से-अधिक मन तथा समय भगवानके नाम-गुण-स्वरुप-चिंतन में ही लगाऊंगा और उन्हीं का कीर्तन करूँगा |.... शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Ram