|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्दशी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
एकमात्र भगवान् में ही राग करें -१-
गत
ब्लॉग से आगे ... ४.याद रखो -राग और द्वेष मनुष्यके बहुत बड़े शत्रु हैं, जो प्रत्येक इन्द्रिय के
प्रत्येक विषयमें स्थित रहकर तुम्हारे जीवनसंगी बने तुम्हारे परम अर्थको निरंतर
लूट रहे हैं | राग-द्वेष से काम-क्रोध की उत्पत्ति होती है, जो समस्त पापों के मूल
हैं |
याद रखो
-जिसके मनमें भोग-कामना है, वह कभी सच्चे अर्थ में सुखी नहीं हो सकता |
कामनाकी पूर्तीमें एक बार तो सुख की लहर-सी आती है, पर कामना ऐसी अग्नि होती है,
जो प्रत्येक अनुकूल भोगोंको आहुति बनाकर अपना कलेवर बढ़ाती रहती है | जितनी-जितनी
कामनाकी पूर्ती होती है, उतनी-उतनी कामना अधिक बढती है | कामना अभाव की स्थितिका
अनुभव कराती है और जहां अभाव है, वहाँ प्रतिकूलता है और जहां प्रतिकूलता है वहाँ
दुःख है |
अतएव
कामना कभी पूर्ण होती ही नहीं, और इसलिए मनुष्य कभी दुःख से मुक्त हो ही नहीं सकता
| कामना बड़े-से-बड़े वैभवशाली पुरुष को भी दीन बना देती है, कामना बड़े-से-बड़े
विचारक और बुद्धिमान पुरुषके मनमें भी अशांति का तूफ़ान खड़ा कर देती है | कामना की
अपूर्ति में क्षोभ तथा क्रोध होता है, जो मनुष्य को विवेकशून्य बनाकर उसको सर्वनाश
के पथपर तेजीसे आगे बढाता है | इसलिए इन काम-क्रोध के मूल राग-द्वेष का त्याग करो
|
याद रखो
-यदि राग-द्वेष का त्याग न हो तो उनके विषयों को तो जरूर बदल डालो | राग
करो-श्रीभग्वान् में; उनके स्वरुप-गुण-लीला में, उनके
नाममें और उनमें आत्मसमर्पित उनके भक्तोंमें; द्वेष करो-अपने
दुर्गुणोंमें, बुरे कामोंमें, पापोंमें और विषय-सुखकी कामनामें |... शेष
अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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