Friday 7 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -7-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्दशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

एकमात्र भगवान् में ही राग करें -१-

गत ब्लॉग से आगे ... ४.याद रखो -राग और द्वेष मनुष्यके बहुत बड़े शत्रु हैं, जो प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषयमें स्थित रहकर तुम्हारे जीवनसंगी बने तुम्हारे परम अर्थको निरंतर लूट रहे हैं | राग-द्वेष से काम-क्रोध की उत्पत्ति होती है, जो समस्त पापों के मूल हैं |

 

याद रखो -जिसके मनमें भोग-कामना है, वह कभी सच्चे अर्थ में सुखी नहीं हो सकता | कामनाकी पूर्तीमें एक बार तो सुख की लहर-सी आती है, पर कामना ऐसी अग्नि होती है, जो प्रत्येक अनुकूल भोगोंको आहुति बनाकर अपना कलेवर बढ़ाती रहती है | जितनी-जितनी कामनाकी पूर्ती होती है, उतनी-उतनी कामना अधिक बढती है | कामना अभाव की स्थितिका अनुभव कराती है और जहां अभाव है, वहाँ प्रतिकूलता है और जहां प्रतिकूलता है वहाँ दुःख है |

अतएव कामना कभी पूर्ण होती ही नहीं, और इसलिए मनुष्य कभी दुःख से मुक्त हो ही नहीं सकता | कामना बड़े-से-बड़े वैभवशाली पुरुष को भी दीन बना देती है, कामना बड़े-से-बड़े विचारक और बुद्धिमान पुरुषके मनमें भी अशांति का तूफ़ान खड़ा कर देती है | कामना की अपूर्ति में क्षोभ तथा क्रोध होता है, जो मनुष्य को विवेकशून्य बनाकर उसको सर्वनाश के पथपर तेजीसे आगे बढाता है | इसलिए इन काम-क्रोध के मूल राग-द्वेष का त्याग करो |

याद रखो -यदि राग-द्वेष का त्याग न हो तो उनके विषयों को तो जरूर बदल डालो | राग करो-श्रीभग्वान् में; उनके स्वरुप-गुण-लीला में, उनके नाममें और उनमें आत्मसमर्पित उनके भक्तोंमें; द्वेष करो-अपने दुर्गुणोंमें, बुरे कामोंमें, पापोंमें और विषय-सुखकी कामनामें |... शेष अगले ब्लॉग में ...         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!      
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Ram