|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
मानसिक शक्ति
गत ब्लॉग से आगे...... मानसिक
शक्ति को बढाओ | तुम्हारी मानसिक शक्ति शुद्ध होकर बढ़ जाएगी तो तुम इच्छामात्र से
जगत का बड़ा उपकार कर सकोगे | शारीरिक शक्ति को बढाओ, शरीर बलवान और स्वस्थ्य रहेगा
तो उसके द्वारा कर्म करके तुम जगत की बड़ी सेवा कर सकोगे | इसी प्रकार बुद्धि को भी
बढाओ | शुद्ध प्रखर बुद्धि से संसार की सेवायें करने में बड़ी सुविधा होगी | इच्छा,
क्रिया और ज्ञान अर्थात मानसिक शक्ति, शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति तीनो की ही
जगजननी माँ की सेवा के लिए आवश्यकता है | और माँ से ही तीनों मिल सकती है, परन्तु
इनका उपयोग केवल माँ की सेवा के लिए ही होना चाहिये | कही दुरूपयोग हुआ, कहीं भोग
और पर-पीड़ा के लिए इनका प्रयोग किया गया तो सब शक्तियों के मूलस्रोत्र महाशक्ति की
ईश्वरीय-शक्ति इन सारी शक्तियों को तुरन्त हरण कर लेगी |
ईश्वरीय शक्ति की प्रबलता
पशुबल, मानवबल, असुरबल और देवबल-ये चारों ही बल ईश्वरीय बल
या शक्ति के सामने नहीं ठहर सकते | महिसासुर में विशाल बल था, कौरवों में
मानवशक्ति की प्रचुरता थी, रावानादी में असुरबल अपार था और इन्द्रादि देवता देवबल से सदा
बलियान रहते थे | परन्तु ईश्वरीय शक्ति ने
चारों को परास्त कर दिया | महिसासुर को साक्षात् ईश्वरी ने वध किया, कौरवों को
भगवान श्रीकृष्ण के आश्रित पाण्डवों ने नष्ट कर दिया, रावण को भगवान श्रीराम ने
स्वयं सहार किया और भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने इंद्र को हार माननी पड़ी | इन
चारों में पशुबल और असुरबल तो सर्वथा त्याज्य है | मनुष्यबल और देवबल इश्वराश्रित
होने पर ग्र्ह्रह है | पर यथार्थ बल तो परमात्मबल है | वह बल समस्त जीवों में छिपा
हुआ है | आत्मा परमात्मा का सनातन अंश है | उस आत्मा को जाग्रत करों, आत्मबल का
उद्बोधन करों, अपने को जड शरीर मत समझों, चेतन विपुल शक्तिमान आत्मा समझों |
याद रखों, तुममे अपार शक्ति है |
तुम्हारा अणु-अणु शक्ति से भरा है | पुरुषार्थ करके उस शक्ति के भण्डार का द्वार
खोल लो | अपने को हीन, पापी समझकर निराश मत होओं | शक्ति माता की तुम पर अपार
शक्ति निहित है | उस शक्ति को जगाओ, शक्ति की उपासना करों, शक्ति का समादर करों,
शक्ति को क्रियाशील बनाओ | फिर शक्ति की कृपा से तुम जो चाहों कर सकते हो |.....
शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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