॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ अष्टमोऽध्याय:
आठवाँ अध्याय
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस
गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
अर्जुन
उवाच
किं
तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च
किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ १॥
अधियज्ञ:
कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले
च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥ २॥
अर्जुन
बोले—हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है?
कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है?
और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ
कौन है? और वह इस देहमें कैसे है? हे
मधुसूदन! वशीभूत अन्त:करणवाले मनुष्योंके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते
हैं?
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं
ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो
विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित:॥ ३॥
श्रीभगवान्
बोले—परम अक्षर ब्रह्म है और परा प्रकृति (जीव)-को अध्यात्म कहते हैं।
प्राणियोंकी सत्ताको प्रकट करनेवाला त्याग कर्म कहा जाता है।
अधिभूतं
क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र
देहे देहभृतां वर॥ ४॥
हे
देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं,
पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देहमें
(अन्तर्यामी-रूपसे) मैं ही अधियज्ञ हूँ।
अन्तकाले च
मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति
स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ ५॥
जो मनुष्य
अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है,
वह मेरे स्वरूपको ही
प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
यं यं वापि
स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥ ६॥
हे
कुन्तीपुत्र अर्जुन! मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर
छोड़ता है, वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा
भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है।
तस्मात्सर्वेषु
कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
म्य्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ ७॥
इसलिये तू
सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू
नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।
अभ्यासयोगयुक्तेन
चेतसा नान्यगामिना।
परमं
पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥ ८॥
हे
पृथानन्दन! अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य
पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोडऩेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।
कविं
पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:
।
सर्वस्य
धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं
तमस: परस्तात् ॥ ९॥
जो सर्वज्ञ,
अनादि, सबपर शासन करनेवाला, सूक्ष्मसे अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण
करने-वाला, अज्ञानसे अत्यन्त परे, सूर्यकी
तरह प्रकाश-स्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप—ऐसे अचिन्त्य
स्वरूपका चिन्तन करता है।
प्रयाणकाले
मनसाचलेन
भक्त्या
युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये
प्राणमावेश्य सम्यक्-
स तं परं
पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ १०॥
वह
भक्तियुक्त मनुष्य अन्तसमयमें अचल मनसे और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें
प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके (शरीर छोडऩेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही
प्राप्त होता है।
यदक्षरं
वेदविदो वदन्ति
विशन्ति
यद्यतयो वीतरागा:।
यदिच्छन्तो
ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं
सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ ११॥
वेदवेत्ता
लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको
प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते
हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।
सर्वद्वाराणि
संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मन:
प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ १२॥
ओमित्येकाक्षरं
ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति
त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ १३॥
(इन्द्रियोंके)
सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें
स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक 'ॐ इस एक अक्षर ब्रह्मका (मानसिक) उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको
छोड़कर जाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है।
अनन्यचेता:
सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ:
पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ १४॥
हे
पृथानन्दन! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है,
उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात्
उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
मामुपेत्य पुनर्जन्म
दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति
महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ १५॥
महात्मालोग
मुझे प्राप्त करके दु:खालय अर्थात् दु:खोंके घर और अशाश्वत अर्थात् निरन्तर बदलनेवाले पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते;
क्योंकि वे परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम
प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है।
आब्रह्मभुवनाल्लोका:
पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य
तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ १६॥
हे अर्जुन!
ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्तीवाले हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुन: लौटकर संसारमें
आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! मुझे
प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो
विदु:।
रात्रिं
युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ १७॥
जो मनुष्य
ब्रह्माके एक हजार चतुर्युगीवाले एक दिनको और एक हजार चतुर्युगीवाली एक रात्रिको
जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और
रातको जाननेवाले हैं।
अव्यक्ताद्-व्यक्तय:
सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे
प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥ १८॥
ब्रह्माके
दिनके आरम्भकालमें अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से सम्पूर्ण शरीर पैदा होते
हैं और ब्रह्माकी रातके आरम्भकालमें उस अव्यक्त नामवाले (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-में ही सम्पूर्ण शरीर
लीन हो जाते हैं।
भूतग्राम:
स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश:
पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥ १९॥
हे पार्थ!
वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके परवश हुआ ब्रह्माके दिनके समय
उत्पन्न होता है और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
परस्तस्मात्तु
भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स
सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ २०॥
परन्तु उस
अव्यक्त (ब्रह्माके सूक्ष्मशरीर)-से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप
जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह सम्पूर्ण
प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता।
अव्यक्तोऽक्षर
इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य
न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ २१॥
उसीको
अव्यक्त और अक्षर—ऐसा कहा गया है तथा
उसीको परम गति कहा गया है और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर संसारमें नहीं
आते, वह मेरा परम धाम है।
पुरुष: स
पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि
भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ २२॥
हे
पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार
व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो
अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
यत्र काले
त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता
यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ २३॥
परन्तु हे
भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्गमें शरीर छोड़कर गये हुए योगी
अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और जिस मार्गमें गये
हुए आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं,
उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा।
अग्निर्ज्योतिरह:
शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र
प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ २४॥
जिस
मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका
अधिपति देवता, शुक्लपक्षका अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले
उत्तरायणका अधिपति देवता है, उस मार्गसे शरीर छोड़कर गये हुए
ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माके साथ) ब्रह्मको
प्राप्त हो जाते हैं।
धूमो
रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं
ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥ २५॥
जिस
मार्गमें धूमका अधिपति देवता, रात्रिका
अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छ: महीनोंवाले
दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया
हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात्
जन्म-मरणको प्राप्त होता है।
शुक्लकृष्णे
गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया
यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥ २६॥
क्योंकि
शुक्ल और कृष्ण—ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत्
(प्राणिमात्र)-के साथ सम्बन्ध रखनेवाली मानी गयी हैं। इनमेंसे एक गतिमें जानेवालेको
लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गतिमें जानेवालेको पुन: लौटना पड़ता है।
नैते सृती
पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु
कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ २७॥
हे
पृथानन्दन! इन दोनों मार्गोंको जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अत: हे
अर्जुन! तू सब समयमें योगयुक्त (समतामें स्थित) हो जा।
वेदेषु
यज्ञेषु तप:सु चैव
दानेषु
यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति
तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं
स्थानमुपैति चाद्यम्॥ २८॥
योगी
(भक्त) इसको (इस अध्यायमें वर्णित विषयको)जानकर वेदोंमें,
यज्ञोंमें, तपोंमें तथा दानमें जो-जो पुण्यफल
कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और
आदि-स्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्याय:॥ ८॥
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